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| == परिचय॥ Parichaya == | | == परिचय॥ Parichaya == |
− | ज्योतिष शास्त्र की गणना वेदाङ्गों में की जाती है। वेद अनन्त ज्ञानराशि हैं। धर्म का भी मूल वेद ही है। इन वेदों के अर्थ गाम्भीर्य तथा दुरूहता के कारण कालान्तर में वेदाङ्गों की रचना हुई। वेदपुरुष के विशालकाय शरीर में नेत्ररूप में ज्योतिष शास्त्रको परिलक्षित किया गया है। ज्योतिषशास्त्रके प्रवर्तकके रूपमें सूर्यादि अट्ठारहप्रवर्तकोंका ऋषियोंने स्मरण किया है- किन्तु ग्रन्थकर्ताओंके रूपमें लगधमुनि, आर्यभट्ट, लल्ल, ब्रह्मगुप्त, वराहमिहिर, श्रीपति, भास्कराचार्य आदियों के नामों का उल्लेख किया है।अन्य शास्त्रों का प्रत्यक्षीकरण सुलभ नहीं है, परन्तु ज्योतिष शास्त्र प्रत्यक्ष शास्त्र है।<ref>डॉ० कपिलदेव द्विवेदी, वैदिक साहित्य एवं संस्कृति, सन् २०१५, विश्वविद्यालय प्रकाशन वाराणसी (पृ०२०८)।</ref> इसकी प्रमाणिकता के एकमात्र साक्षी सूर्य और चन्द्र हैं- <blockquote>अप्रत्यक्षाणि शास्त्राणि विवादस्तेषु केवलम्। प्रत्यक्षं ज्योतिषं शास्त्रं चन्द्राऽर्कौ यत्र साक्षिणौ॥<ref>डॉ० श्रीकान्त तिवारी,सुशील, बृहद् ज्योतिषसार,भूमिका, सन् २०२१, भारतीय विद्या संस्थान वाराणसी (पृ०३)</ref> </blockquote>प्रायः समस्त भारतीय विज्ञान का लक्ष्य एकमात्र अपनी आत्माका विकासकर उसे परमात्मा में मिला देना या तत्तुल्य बना लेना है। दर्शन या विज्ञान सभी का ध्येय विश्व के अनसुलझे रहस्य को सुलझाना है। ज्योतिष भी विज्ञान होने के कारण समस्त ब्रह्माण्ड के रहस्य को व्यक्त करनेका प्रयत्न करता है। ज्योतिषशास्त्रका अर्थ प्रकाश देने वाला या प्रकाशके सम्बन्ध में बतलाने वाला शास्त्र होता है। अर्थात् जिस शास्त्रसे संसार का मर्म, जीवन-मरण का रहस्य और जीवन के सुख-दुःख के सम्बन्ध में पूर्ण प्रकाश मिले वह ज्योतिषशास्त्र है। यह एक स्वतंत्र शास्त्र या विज्ञान है। इसका भौतिकी, गणित, भूगोल, पर्यावरण आदि से साक्षात् संबन्ध है तथा अन्य विज्ञान की शाखाओं से भी इसका किसी न किसी रूप में संबन्ध है तथा अन्य विज्ञान की शाखाओं से भी इसका किसी न किसी रूप में संबन्ध है। पृथिवी, सूर्य, चन्द्र, ग्रहों आदि की गति की गणना, कालचक्र का निर्धारण, वर्षचक्र, ऋतु, पर्वों आदि का ज्ञान, सूर्यग्रहण-चन्द्रग्रहण, शुभ-अशुभ मुहूर्तों का ज्ञान आदि विषय प्रत्येक मानव के जीवन से संबद्ध है, अतः ज्योतिष जीवन से संबद्ध शास्त्र है। भारतीय परम्परा के अनुसार ज्योतिष शास्त्र की उत्पत्ति ब्रह्माजी के द्वारा हुई है। ऐसा माना जाता है कि ब्रह्माजी ने सर्वप्रथम नारदजी को ज्योतिषशास्त्र का ज्ञान प्रदान किया तथा नारदजी ने लोक में ज्योतिषशास्त्र का प्रचार-प्रसार किया। <ref>डॉ० कपिलदेव द्विवेदी, वेदों में विज्ञान, सन् २०००, विश्वभारती अनुसंधान परिषद् भदोही, (पृ०२०६)।</ref> | + | ज्योतिष शास्त्र की गणना वेदाङ्गों में की जाती है। वेद के स्वरूप को समझाने में सहायक ग्रन्थ वेदांग कहे गए। इन वेदांगों की संख्या छः कही गई है - शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छन्द तथा ज्योतिष। सर्वप्रथम मुण्डकोपनिषद् में इन छः वेदांगों के नाम का उल्लेख मिलता है। इन वेदांगों का मूल उद्देश्य वेदों के सही अर्थबोध, उचित उच्चारण तथा वेदों के याज्ञिक प्रयोग हैं। अर्थबोध के लिये व्याकरण तथा निरुक्त अस्तित्व में आए हैं। सही उच्चारण के लिये शिक्षा तथा छन्द वेदांगों की रचना हुई एवं वेदों के याज्ञिक प्रयोग की शुद्धि को सुनिश्चित करने के लिये कल्प तथा ज्योतिष वेदांग का आविर्भाव हुआ। अनुष्ठानों के उचित काल निर्णय के लिए ज्योतिष का उपयोग है और इनकी उपयोगिता के कारण ये छः वेदांग माने जाते हैं। वेद अनन्त ज्ञानराशि हैं। धर्म का भी मूल वेद ही है। इन वेदों के अर्थ गाम्भीर्य तथा दुरूहता के कारण कालान्तर में वेदाङ्गों की रचना हुई। वेदपुरुष के विशालकाय शरीर में नेत्ररूप में ज्योतिष शास्त्रको परिलक्षित किया गया है। ज्योतिषशास्त्रके प्रवर्तकके रूपमें सूर्यादि अट्ठारहप्रवर्तकोंका ऋषियोंने स्मरण किया है। किन्तु ग्रन्थकर्ताओंके रूपमें लगधमुनि, आर्यभट्ट, लल्ल, ब्रह्मगुप्त, वराहमिहिर, श्रीपति, भास्कराचार्य आदियों के नामों का उल्लेख किया है। अन्य शास्त्रों का प्रत्यक्षीकरण सुलभ नहीं है, परन्तु ज्योतिष शास्त्र प्रत्यक्ष शास्त्र है।<ref>डॉ० कपिलदेव द्विवेदी, वैदिक साहित्य एवं संस्कृति, सन् २०१५, विश्वविद्यालय प्रकाशन वाराणसी (पृ०२०८)।</ref> इसकी प्रमाणिकता के एकमात्र साक्षी सूर्य और चन्द्र हैं- <blockquote>अप्रत्यक्षाणि शास्त्राणि विवादस्तेषु केवलम्। प्रत्यक्षं ज्योतिषं शास्त्रं चन्द्राऽर्कौ यत्र साक्षिणौ॥<ref>डॉ० श्रीकान्त तिवारी,सुशील, बृहद् ज्योतिषसार,भूमिका, सन् २०२१, भारतीय विद्या संस्थान वाराणसी (पृ०३)</ref> </blockquote>प्रायः समस्त भारतीय विज्ञान का लक्ष्य एकमात्र अपनी आत्माका विकासकर उसे परमात्मा में मिला देना या तत्तुल्य बना लेना है। दर्शन या विज्ञान सभी का ध्येय विश्व के अनसुलझे रहस्य को सुलझाना है। ज्योतिष भी विज्ञान होने के कारण समस्त ब्रह्माण्ड के रहस्य को व्यक्त करनेका प्रयत्न करता है। ज्योतिषशास्त्रका अर्थ प्रकाश देने वाला या प्रकाशके सम्बन्ध में बतलाने वाला शास्त्र होता है। अर्थात् जिस शास्त्रसे संसार का मर्म, जीवन-मरण का रहस्य और जीवन के सुख-दुःख के सम्बन्ध में पूर्ण प्रकाश मिले वह ज्योतिषशास्त्र है। यह एक स्वतंत्र शास्त्र या विज्ञान है। इसका भौतिकी, गणित, भूगोल, पर्यावरण आदि से साक्षात् संबन्ध है तथा अन्य विज्ञान की शाखाओं से भी इसका किसी न किसी रूप में संबन्ध है तथा अन्य विज्ञान की शाखाओं से भी इसका किसी न किसी रूप में संबन्ध है। पृथिवी, सूर्य, चन्द्र, ग्रहों आदि की गति की गणना, कालचक्र का निर्धारण, वर्षचक्र, ऋतु, पर्वों आदि का ज्ञान, सूर्यग्रहण-चन्द्रग्रहण, शुभ-अशुभ मुहूर्तों का ज्ञान आदि विषय प्रत्येक मानव के जीवन से संबद्ध है, अतः ज्योतिष जीवन से संबद्ध शास्त्र है। भारतीय परम्परा के अनुसार ज्योतिष शास्त्र की उत्पत्ति ब्रह्माजी के द्वारा हुई है। ऐसा माना जाता है कि ब्रह्माजी ने सर्वप्रथम नारदजी को ज्योतिषशास्त्र का ज्ञान प्रदान किया तथा नारदजी ने लोक में ज्योतिषशास्त्र का प्रचार-प्रसार किया। <ref>डॉ० कपिलदेव द्विवेदी, वेदों में विज्ञान, सन् २०००, विश्वभारती अनुसंधान परिषद् भदोही, (पृ०२०६)।</ref> |
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− | == परिभाषा॥ Paribhasha == | + | ==परिभाषा॥ Paribhasha== |
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| आकाश मण्डलमें स्थित ज्योतिः(ग्रह-नक्षत्र) सम्बन्धी विद्याको ज्योतिर्विद्या कहते हैं एवं जिस शास्त्रमें उसका उपदेश या वर्णन रहता है, वह ज्योतिष शास्त्र कहलाता है-<blockquote>ज्योतिषां सूर्यादिग्रहाणां गत्यादिकं बोधकं शास्त्रम्।</blockquote>सूर्यादि ग्रहों और काल बोध कराने वाले शास्त्र को ज्योतिष-शास्त्र कहा जाता है। इसमें ग्रह, नक्षत्र, धूमकेतु एवं राशि आदि ज्योतिर्पिण्डों की गति, स्थिति, शुभाशुभ फलादि का वर्णन मिलता है। लगधाचार्यने ज्योतिष शास्त्रको- <blockquote>ज्योतिषाम् अयनम्।</blockquote>अर्थात् प्रकाशादि की गति का विवेचन करने वाला शास्त्र कहा है। | | आकाश मण्डलमें स्थित ज्योतिः(ग्रह-नक्षत्र) सम्बन्धी विद्याको ज्योतिर्विद्या कहते हैं एवं जिस शास्त्रमें उसका उपदेश या वर्णन रहता है, वह ज्योतिष शास्त्र कहलाता है-<blockquote>ज्योतिषां सूर्यादिग्रहाणां गत्यादिकं बोधकं शास्त्रम्।</blockquote>सूर्यादि ग्रहों और काल बोध कराने वाले शास्त्र को ज्योतिष-शास्त्र कहा जाता है। इसमें ग्रह, नक्षत्र, धूमकेतु एवं राशि आदि ज्योतिर्पिण्डों की गति, स्थिति, शुभाशुभ फलादि का वर्णन मिलता है। लगधाचार्यने ज्योतिष शास्त्रको- <blockquote>ज्योतिषाम् अयनम्।</blockquote>अर्थात् प्रकाशादि की गति का विवेचन करने वाला शास्त्र कहा है। |
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− | == ज्योतिष का महत्व == | + | ==ज्योतिष का महत्व== |
| वेदों में यज्ञ का सर्वाधिक महत्त्व है। यज्ञों के लिये समय निर्धारित हैं। तैत्तिरीय ब्राह्मण का कथन है कि ब्राह्मण वसन्त में अग्नि स्थापना करें, क्षत्रिय ग्रीष्म में और वैश्य शरद् ऋतु में। इसी प्रकार तांड्य ब्राह्मण में कथन है कि दीक्षा एकाष्टका (माघ कृष्णा ८) के दिन या फाल्गुन की पूर्णिमा को लें। इसी प्रकार अन्य यज्ञों के लिये काल निर्धारित हैं। काल के ज्ञान के लिये ज्योतिष की अत्यन्त आवश्यकता है। अतएव वेदांग ज्योतिष में कहा गया है कि यज्ञ के निर्धारित काल के ज्ञान के लिये ज्योतिष का ज्ञान आवश्यक है। | | वेदों में यज्ञ का सर्वाधिक महत्त्व है। यज्ञों के लिये समय निर्धारित हैं। तैत्तिरीय ब्राह्मण का कथन है कि ब्राह्मण वसन्त में अग्नि स्थापना करें, क्षत्रिय ग्रीष्म में और वैश्य शरद् ऋतु में। इसी प्रकार तांड्य ब्राह्मण में कथन है कि दीक्षा एकाष्टका (माघ कृष्णा ८) के दिन या फाल्गुन की पूर्णिमा को लें। इसी प्रकार अन्य यज्ञों के लिये काल निर्धारित हैं। काल के ज्ञान के लिये ज्योतिष की अत्यन्त आवश्यकता है। अतएव वेदांग ज्योतिष में कहा गया है कि यज्ञ के निर्धारित काल के ज्ञान के लिये ज्योतिष का ज्ञान आवश्यक है। |
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− | == ज्योतिषशास्त्र प्रवर्तक == | + | ==ज्योतिषशास्त्र प्रवर्तक== |
| सृष्टिकर्ता ब्रह्माजीके द्वारा वेदोंके साथ ही ज्योतिषशास्त्रकी उत्पत्ति हुई। यज्ञोंका सम्पादन काल ज्ञानके आधारपर ही सम्भव होता है अतः यज्ञकी सिद्धिके लिये ब्रह्माजीने काल अवबोधक ज्योतिषशास्त्रका प्रणयनकर अपने पुत्र नारदजी को दिया। नारदजीने ज्योतिषशास्त्रके महत्व समझते हुये लोकमें इसका प्रवर्तन किया। नारदजी कहते हैं-<blockquote>विनैतदखिलं श्रौतं स्मार्तं कर्म न सिद्ध्यति। तस्माज्जगद्धितायेदं ब्रह्मणा रचितं पुरा॥ (ना०सं० १/७)<ref name=":0">वसतिराम शर्मा, [https://epustakalay.com/book/14676-narad-sanhita-by-vasatiram-sharma/ नारद संहिता],भाषा टीका सहित, सन् १९०५, खेमराज श्री कृष्णदास, अध्याय ०१, श्लोक ०७ (पृ०२)। </ref></blockquote>ज्योतिषशास्त्रके ज्ञानके विना श्रौतस्मार्त कर्मोंकी सिद्धि नहीं होती। अतः जगत् के कल्याणके लिये ब्रह्माजीने प्राचीनकालमें इस शास्त्रकी रचना की। ज्योतिषकी आर्ष संहिताओं में ज्योतिषशास्त्रके अट्ठारह कहीं कहीं उन्तीस आद्य आचार्यों का परिगणन हुआ है, उनमें श्रीब्रह्माजी का नाम प्रारम्भमें ही लिया गया है। नारदजीके अनुसार अट्ठारह प्रवर्तक इस प्रकार हैं-<blockquote>ब्रह्माचार्यो वसिष्ठोऽत्रर्मनुः पौलस्त्यरोमशौ। मरीचिरङ्गिरा व्यासो नारदो शौनको भृगुः॥ च्यवनो यवनो गर्गः कश्यपश्च पराशरः। अष्टादशैते गम्भीरा ज्योतिश्शास्त्रप्रवर्तकाः॥ (ना० सं०१/२,३)<ref name=":0" /></blockquote>महर्षि कश्यपने आचार्योंकी नामावली इस प्रकार निरूपित की है-<blockquote>सूर्यः पितामहो व्यासो वसिष्ठोऽत्रिः पराशरः। कश्यपो नारदो गर्गो मरीचिर्मनुरङ्गिराः॥ लोमशः पौलिशश्चैव च्यवनो यवनो भृगुः। शौनकोऽष्टादशाश्चैते ज्योतिःशास्त्रप्रवर्तकाः॥ (काश्यप संहिता)</blockquote>पराशरजीके मतानुसार-<blockquote>विश्वसृङ् नारदो व्यासो वसिष्ठोऽत्रिः पराशरः। लोमशो यवनः सूर्यः च्यवनः कश्यपो भृगुः॥ पुलस्त्यो मनुराचार्यः पौलिशः शौनकोऽङ्गिराः। गर्गो मरीचिरित्येते ज्ञेया ज्यौतिःप्रवर्तकाः॥</blockquote>पराशरजीके अनुसार पुलस्त्यनामके एक आद्य आचार्य भी हुये हैं इस प्रकार ज्योतिषशास्त्रके प्रवर्तक आचार्य उन्नीस हैं। | | सृष्टिकर्ता ब्रह्माजीके द्वारा वेदोंके साथ ही ज्योतिषशास्त्रकी उत्पत्ति हुई। यज्ञोंका सम्पादन काल ज्ञानके आधारपर ही सम्भव होता है अतः यज्ञकी सिद्धिके लिये ब्रह्माजीने काल अवबोधक ज्योतिषशास्त्रका प्रणयनकर अपने पुत्र नारदजी को दिया। नारदजीने ज्योतिषशास्त्रके महत्व समझते हुये लोकमें इसका प्रवर्तन किया। नारदजी कहते हैं-<blockquote>विनैतदखिलं श्रौतं स्मार्तं कर्म न सिद्ध्यति। तस्माज्जगद्धितायेदं ब्रह्मणा रचितं पुरा॥ (ना०सं० १/७)<ref name=":0">वसतिराम शर्मा, [https://epustakalay.com/book/14676-narad-sanhita-by-vasatiram-sharma/ नारद संहिता],भाषा टीका सहित, सन् १९०५, खेमराज श्री कृष्णदास, अध्याय ०१, श्लोक ०७ (पृ०२)। </ref></blockquote>ज्योतिषशास्त्रके ज्ञानके विना श्रौतस्मार्त कर्मोंकी सिद्धि नहीं होती। अतः जगत् के कल्याणके लिये ब्रह्माजीने प्राचीनकालमें इस शास्त्रकी रचना की। ज्योतिषकी आर्ष संहिताओं में ज्योतिषशास्त्रके अट्ठारह कहीं कहीं उन्तीस आद्य आचार्यों का परिगणन हुआ है, उनमें श्रीब्रह्माजी का नाम प्रारम्भमें ही लिया गया है। नारदजीके अनुसार अट्ठारह प्रवर्तक इस प्रकार हैं-<blockquote>ब्रह्माचार्यो वसिष्ठोऽत्रर्मनुः पौलस्त्यरोमशौ। मरीचिरङ्गिरा व्यासो नारदो शौनको भृगुः॥ च्यवनो यवनो गर्गः कश्यपश्च पराशरः। अष्टादशैते गम्भीरा ज्योतिश्शास्त्रप्रवर्तकाः॥ (ना० सं०१/२,३)<ref name=":0" /></blockquote>महर्षि कश्यपने आचार्योंकी नामावली इस प्रकार निरूपित की है-<blockquote>सूर्यः पितामहो व्यासो वसिष्ठोऽत्रिः पराशरः। कश्यपो नारदो गर्गो मरीचिर्मनुरङ्गिराः॥ लोमशः पौलिशश्चैव च्यवनो यवनो भृगुः। शौनकोऽष्टादशाश्चैते ज्योतिःशास्त्रप्रवर्तकाः॥ (काश्यप संहिता)</blockquote>पराशरजीके मतानुसार-<blockquote>विश्वसृङ् नारदो व्यासो वसिष्ठोऽत्रिः पराशरः। लोमशो यवनः सूर्यः च्यवनः कश्यपो भृगुः॥ पुलस्त्यो मनुराचार्यः पौलिशः शौनकोऽङ्गिराः। गर्गो मरीचिरित्येते ज्ञेया ज्यौतिःप्रवर्तकाः॥</blockquote>पराशरजीके अनुसार पुलस्त्यनामके एक आद्य आचार्य भी हुये हैं इस प्रकार ज्योतिषशास्त्रके प्रवर्तक आचार्य उन्नीस हैं। |
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− | == ज्योतिषशास्त्र की उपयोगिता == | + | ==ज्योतिषशास्त्र की उपयोगिता== |
| मनुष्यके समस्त कार्य ज्योतिषके द्वारा ही सम्पादित होते हैं। व्यवहारके लिये अत्यन्त उपयोगी दिन, सप्ताह, पक्ष, मास, अयन, ऋतु, वर्ष एवं उत्सवतिथि आदि का परिज्ञान इसी शास्त्रसे होता है। | | मनुष्यके समस्त कार्य ज्योतिषके द्वारा ही सम्पादित होते हैं। व्यवहारके लिये अत्यन्त उपयोगी दिन, सप्ताह, पक्ष, मास, अयन, ऋतु, वर्ष एवं उत्सवतिथि आदि का परिज्ञान इसी शास्त्रसे होता है। |
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− | * गर्भाधान, नामकरण, विद्यारम्भ, व्रतबन्ध, चूडाकर्म आदि प्रमुख संस्कारों में | + | *गर्भाधान, नामकरण, विद्यारम्भ, व्रतबन्ध, चूडाकर्म आदि प्रमुख संस्कारों में |
− | * विवाह, सन्तानोत्पत्ति आदि में | + | *विवाह, सन्तानोत्पत्ति आदि में |
− | * आजीविका में | + | *आजीविका में |
− | * चिकित्सा में | + | *चिकित्सा में |
− | * यात्रा में | + | *यात्रा में |
− | * गृहनिर्माण/ गृहप्रवेश, वास्तुसम्बन्धी विचारों में | + | *गृहनिर्माण/ गृहप्रवेश, वास्तुसम्बन्धी विचारों में |
− | * पर्यावरण, कृषि, प्राकृतिक-आपदा, वैश्विक स्थिति, समर्घ-महर्घ, वृष्टि, शकुन आदि विचारों में | + | *पर्यावरण, कृषि, प्राकृतिक-आपदा, वैश्विक स्थिति, समर्घ-महर्घ, वृष्टि, शकुन आदि विचारों में |
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| इनके अतिरिक्त ज्योतिष एक सार्वभौमिक विज्ञान है, जो मानव जीवन के प्रत्येक क्षेत्र से प्रत्यक्षतया जुडा हुआ है। ज्योतिषशास्त्र धर्मशास्त्रका नियामक तथा चिकित्साशास्त्रका पथ-प्रदर्शक होता है। आरोग्यके सम्बन्धमें उसका निर्देश अतिकल्याणकारी हुआ करता है।<ref>डॉ० श्रीसीतारामजी झा, ज्योतिर्विज्ञान - भौतिक उन्नति तथा आध्यात्मिक उन्नयन, ज्योतिषतत्त्वांक,सन् २०१४,गीताप्रेस गोरखपुर (पृ० १९१)।</ref> | | इनके अतिरिक्त ज्योतिष एक सार्वभौमिक विज्ञान है, जो मानव जीवन के प्रत्येक क्षेत्र से प्रत्यक्षतया जुडा हुआ है। ज्योतिषशास्त्र धर्मशास्त्रका नियामक तथा चिकित्साशास्त्रका पथ-प्रदर्शक होता है। आरोग्यके सम्बन्धमें उसका निर्देश अतिकल्याणकारी हुआ करता है।<ref>डॉ० श्रीसीतारामजी झा, ज्योतिर्विज्ञान - भौतिक उन्नति तथा आध्यात्मिक उन्नयन, ज्योतिषतत्त्वांक,सन् २०१४,गीताप्रेस गोरखपुर (पृ० १९१)।</ref> |
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− | == ज्योतिष शास्त्र में सृष्टि विषयक विचार == | + | ==ज्योतिष शास्त्र में सृष्टि विषयक विचार== |
− | ब्रह्माण्ड एवं अन्तरिक्ष से संबंधित प्रश्न मानव मात्र के लिये दुविधा का केन्द्र बने हुये हैं, परन्तु समाधान पूर्वक ज्योतिष शास्त्र के अनुसार इस सृष्टि की उत्पत्ति का कारण एकमात्र सूर्य हैं। अंशावतार सूर्य एवं मय के संवाद से स्पष्ट होता है कि समय-समय पर ज्योतिष शास्त्र का उपदेश भगवान् सूर्य द्वारा होता रहा है- <blockquote>श्रणुष्वैकमनाः पूर्वं यदुक्तं ज्ञानमुत्तमम् । युगे युगे महर्षीणां स्वयमेव विवस्वता॥ | + | ब्रह्माण्ड एवं अन्तरिक्ष से संबंधित प्रश्न मानव मात्र के लिये दुविधा का केन्द्र बने हुये हैं, परन्तु समाधान पूर्वक ज्योतिष शास्त्र के अनुसार इस सृष्टि की उत्पत्ति का कारण एकमात्र सूर्य हैं। अंशावतार सूर्य एवं मय के संवाद से स्पष्ट होता है कि समय-समय पर ज्योतिष शास्त्र का उपदेश भगवान् सूर्य द्वारा होता रहा है- <blockquote>श्रणुष्वैकमनाः पूर्वं यदुक्तं ज्ञानमुत्तमम् । युगे युगे महर्षीणां स्वयमेव विवस्वता॥ |
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| शास्त्रमाद्यं तदेवेदं यत्पूर्वं प्राह भास्करः। युगानां परि वर्तेत कालभेदोऽत्र केवलः॥ (सू० सि० मध्यमाधिकार,८/९) </blockquote>पराशर मुनिने भी संसार की उत्पत्ति का कारण सूर्यको ही माना है।(बृ०पा०हो० ४) | | शास्त्रमाद्यं तदेवेदं यत्पूर्वं प्राह भास्करः। युगानां परि वर्तेत कालभेदोऽत्र केवलः॥ (सू० सि० मध्यमाधिकार,८/९) </blockquote>पराशर मुनिने भी संसार की उत्पत्ति का कारण सूर्यको ही माना है।(बृ०पा०हो० ४) |
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− | === ज्योतिषशास्त्र में वृक्षों का महत्व ===
| + | '''ज्योतिषशास्त्र में वृक्षों का महत्व''' |
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| भारतभूमि प्रकृति एवं जीवन के प्रति सद्भाव एवं श्रद्धा पर केन्द्रित मानव जीवन का मुख्य केन्द्रबिन्दु रही है। हमारी संस्कृतिमें स्थित स्नेह एवं श्रद्धा ने मानवमात्र में प्रकृति के साथ सहभागिता एवं अंतरंगता का भाव सजा रखा है। हमारे शास्त्रों में मनुष्य की वृक्षों के साथ अंतरंगता एवं वनों पर निर्भरता का विस्तृत विवरण प्राप्त होता है। हमारे मनीषियों ने अपनी गहरी सूझ-बूझ तथा अनुभव के आधार पर मानव जीवन, खगोल पिण्डों तथा पेड-पौधों के बीच के परस्पर संबन्धों का वर्णन किया है। | | भारतभूमि प्रकृति एवं जीवन के प्रति सद्भाव एवं श्रद्धा पर केन्द्रित मानव जीवन का मुख्य केन्द्रबिन्दु रही है। हमारी संस्कृतिमें स्थित स्नेह एवं श्रद्धा ने मानवमात्र में प्रकृति के साथ सहभागिता एवं अंतरंगता का भाव सजा रखा है। हमारे शास्त्रों में मनुष्य की वृक्षों के साथ अंतरंगता एवं वनों पर निर्भरता का विस्तृत विवरण प्राप्त होता है। हमारे मनीषियों ने अपनी गहरी सूझ-बूझ तथा अनुभव के आधार पर मानव जीवन, खगोल पिण्डों तथा पेड-पौधों के बीच के परस्पर संबन्धों का वर्णन किया है। |
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− | == वेदाङ्गज्योतिष॥ Vedanga Jyotisha == | + | ==वेदाङ्गज्योतिष॥ Vedanga Jyotisha== |
| {{Main|Vedanga Jyotish (वेदाङ्गज्योतिष)}} | | {{Main|Vedanga Jyotish (वेदाङ्गज्योतिष)}} |
| ज्योतिष वेदका एक अङ्ग हैं। अङ्ग शब्दका अर्थ सहायक होता है अर्थात् वेदोंके वास्तविक अर्थका बोध करानेवाला। तात्पर्य यह है कि वेदोंके यथार्थ ज्ञानमें और उनमें वर्णित विषयोंके प्रतिपादनमें सहयोग प्रदान करनेवाले शास्त्रका नाम वेदांङ्ग है। वेद संसारके प्राचीनतम धर्मग्रन्थ हैं, जो ज्ञान-विज्ञानमय एवं अत्यन्त गंभीर हैं। अतः वेदकी वेदताको जानने के लिये शिक्षा आदि छः अङ्गोंकी प्रवृत्ति हुई है। नेत्राङ्ग होनेके कारण ज्योतिष का स्थान सर्वोपरि माना गया है। वेदाङ्गज्योतिष ग्रन्थ में यज्ञ उपयोगी कालका विधान किया गया है। वेदाङ्गज्योतिष के रचयिता महात्मा लगध हैं। उन्होंने ज्योतिषको सर्वोत्कृष्ट मानते हुये कहा है कि-<blockquote>यथा शिखा मयूराणां नागानां मणयो यथा। तद्वद्वेदाङ्ग शास्त्राणां ज्योतिषं मूर्ध्नि संस्थितम् ॥( वेदाङ्ग ज्योतिष)</blockquote>अर्थ- जिस प्रकार मयूर की शिखा उसके सिरपर ही रहती है, सर्पों की मणि उनके मस्तकपर ही निवास करती है, उसी प्रकार षडङ्गोंमें ज्योतिषको सर्वश्रेष्ठ स्थान प्राप्त है। भास्कराचार्यजी ने सिद्धान्तशिरोमणि ग्रन्थमें कहा है कि-<blockquote>वेदास्तावत् यज्ञकर्मप्रवृत्ता यज्ञाः प्रोक्ताः ते तु कालाश्रेण। शास्त्राद्यस्मात् कालबोधो यतः स्यात्वेदाङ्गत्वं ज्योतिषस्योक्तमस्मात् ॥(सिद्धान्त शोरोमणि)</blockquote>वेद यज्ञ कर्म में प्रयुक्त होते हैं और यज्ञ कालके आश्रित होते हैं तथा ज्योतिष शास्त्र से कालकाज्ञान होता है, इससे ज्योतिष का वेदाङ्गत्व सिद्ध होता है। | | ज्योतिष वेदका एक अङ्ग हैं। अङ्ग शब्दका अर्थ सहायक होता है अर्थात् वेदोंके वास्तविक अर्थका बोध करानेवाला। तात्पर्य यह है कि वेदोंके यथार्थ ज्ञानमें और उनमें वर्णित विषयोंके प्रतिपादनमें सहयोग प्रदान करनेवाले शास्त्रका नाम वेदांङ्ग है। वेद संसारके प्राचीनतम धर्मग्रन्थ हैं, जो ज्ञान-विज्ञानमय एवं अत्यन्त गंभीर हैं। अतः वेदकी वेदताको जानने के लिये शिक्षा आदि छः अङ्गोंकी प्रवृत्ति हुई है। नेत्राङ्ग होनेके कारण ज्योतिष का स्थान सर्वोपरि माना गया है। वेदाङ्गज्योतिष ग्रन्थ में यज्ञ उपयोगी कालका विधान किया गया है। वेदाङ्गज्योतिष के रचयिता महात्मा लगध हैं। उन्होंने ज्योतिषको सर्वोत्कृष्ट मानते हुये कहा है कि-<blockquote>यथा शिखा मयूराणां नागानां मणयो यथा। तद्वद्वेदाङ्ग शास्त्राणां ज्योतिषं मूर्ध्नि संस्थितम् ॥( वेदाङ्ग ज्योतिष)</blockquote>अर्थ- जिस प्रकार मयूर की शिखा उसके सिरपर ही रहती है, सर्पों की मणि उनके मस्तकपर ही निवास करती है, उसी प्रकार षडङ्गोंमें ज्योतिषको सर्वश्रेष्ठ स्थान प्राप्त है। भास्कराचार्यजी ने सिद्धान्तशिरोमणि ग्रन्थमें कहा है कि-<blockquote>वेदास्तावत् यज्ञकर्मप्रवृत्ता यज्ञाः प्रोक्ताः ते तु कालाश्रेण। शास्त्राद्यस्मात् कालबोधो यतः स्यात्वेदाङ्गत्वं ज्योतिषस्योक्तमस्मात् ॥(सिद्धान्त शोरोमणि)</blockquote>वेद यज्ञ कर्म में प्रयुक्त होते हैं और यज्ञ कालके आश्रित होते हैं तथा ज्योतिष शास्त्र से कालकाज्ञान होता है, इससे ज्योतिष का वेदाङ्गत्व सिद्ध होता है। |
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− | == ज्योतिषशास्त्र का विस्तार == | + | ==ज्योतिषशास्त्र का विस्तार== |
| ज्योतिषशास्त्र काल गणना के आधार पर समस्त ब्रह्माण्ड को अन्तर्गर्भित किये हुये है। ज्योतिषशास्त्र को सर्वप्रथम गणित एवं फलितके रूप मे स्वीकार किया गया है। ज्योतिष के प्रणेताओं ने ग्रह-गणित और ग्रह-रश्मि के प्रभावों दोनों को मिलाकर गणित एवं फलितको त्रिस्कन्ध के रूप में जाना जाता है, जो सिद्धान्त, संहिता व होरा इन तीन भागोंमें विभाजित हैं। संहिता एवं होरा फलितज्योतिष के अन्तर्गत ही आते हैं। इस प्रकार ज्योतिष शास्त्र के मुख्यतः दो ही स्कन्ध हैं- गणित एवं फलित। | | ज्योतिषशास्त्र काल गणना के आधार पर समस्त ब्रह्माण्ड को अन्तर्गर्भित किये हुये है। ज्योतिषशास्त्र को सर्वप्रथम गणित एवं फलितके रूप मे स्वीकार किया गया है। ज्योतिष के प्रणेताओं ने ग्रह-गणित और ग्रह-रश्मि के प्रभावों दोनों को मिलाकर गणित एवं फलितको त्रिस्कन्ध के रूप में जाना जाता है, जो सिद्धान्त, संहिता व होरा इन तीन भागोंमें विभाजित हैं। संहिता एवं होरा फलितज्योतिष के अन्तर्गत ही आते हैं। इस प्रकार ज्योतिष शास्त्र के मुख्यतः दो ही स्कन्ध हैं- गणित एवं फलित। |
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| '''गणितशास्त्र''' – गणितशास्त्र गणना शब्द से बना है। जिसका अर्थ गिनना है। परन्तु गणना के बिना कोई भी क्रिया आसानी से सम्पन्न नहीं हो सकती। गणितशास्त्र का हमारे भारतीय आचार्यों ने दो भेद किया है- | | '''गणितशास्त्र''' – गणितशास्त्र गणना शब्द से बना है। जिसका अर्थ गिनना है। परन्तु गणना के बिना कोई भी क्रिया आसानी से सम्पन्न नहीं हो सकती। गणितशास्त्र का हमारे भारतीय आचार्यों ने दो भेद किया है- |
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− | # '''व्यक्त गणित'''- अंक गणित, रेखागणित (ज्यामिति), त्रिकोणमिति, चलन कलनादि माने जा सकते हैं। | + | #'''व्यक्त गणित'''- अंक गणित, रेखागणित (ज्यामिति), त्रिकोणमिति, चलन कलनादि माने जा सकते हैं। |
− | # '''अव्यक्त गणित-''' बीजगणित (अलज़ेबरा) कहा जाता है। | + | #'''अव्यक्त गणित-''' बीजगणित (अलज़ेबरा) कहा जाता है। |
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| व्यक्त गणित में अंकों द्वारा गणित क्रिया करके जोड़, घटाव, गुणा, भाग, वर्ग, वर्गमूल, घन, घनमूल, गुणन खण्ड तथा अन्य आवश्यक गणितीय क्रियाएँ की जाती हैं। आजकल आधुनिक जगत् में गणित का विस्तार अनेक रूपों में किया गया है । हमारे वेदों में भी वैदिक गणित बताया गया है । वैदिक मैथमेटिक्स की पुस्तकें भी प्रकाशित हैं ।<ref>श्रीरामचन्द्र पाठक, बृहज्जातकम् , ज्योति हिन्दी टीका, वाराणसीः चौखम्बा प्रकाशन (पृ०११-१३)।</ref> | | व्यक्त गणित में अंकों द्वारा गणित क्रिया करके जोड़, घटाव, गुणा, भाग, वर्ग, वर्गमूल, घन, घनमूल, गुणन खण्ड तथा अन्य आवश्यक गणितीय क्रियाएँ की जाती हैं। आजकल आधुनिक जगत् में गणित का विस्तार अनेक रूपों में किया गया है । हमारे वेदों में भी वैदिक गणित बताया गया है । वैदिक मैथमेटिक्स की पुस्तकें भी प्रकाशित हैं ।<ref>श्रीरामचन्द्र पाठक, बृहज्जातकम् , ज्योति हिन्दी टीका, वाराणसीः चौखम्बा प्रकाशन (पृ०११-१३)।</ref> |
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| इस प्रकार हमारे फलित ज्योतिष के अनेकों विभाग हैं जिसके द्वारा फल कथन किया जाता है। इन सभी शाखाओं का मूलस्त्रोत ग्रहगणित है। इस ग्रहगणित स्कन्ध को सिद्धान्त स्कन्ध भी कहा जाता है। ज्योतिष कल्पवृक्ष का मूल ग्रहगणित है जो खगोल विद्या से जाना जाता है। अंकगणित, बीजगणित, रेखागणित, त्रिकोणमिति गणित, गोलीय रेखागणित इस स्कन्ध के अन्तर्गत आते हैं। किसी भी अभीष्ट समय के क्षितिज, क्रान्तवृत्त सम्पात रूप लग्न बिन्दु के ज्ञान से विश्व के चराचर जीवों का, मानव सृष्टि में उत्पन्न जातक को शुभाशुभ ज्ञान की भूमिका होती है । इस प्रकार ज्योतिष की महिमा वेद, वेदाङ्ग तथा पुराण एवं धर्मशास्त्रों में सर्वत्र उपलब्ध है। | | इस प्रकार हमारे फलित ज्योतिष के अनेकों विभाग हैं जिसके द्वारा फल कथन किया जाता है। इन सभी शाखाओं का मूलस्त्रोत ग्रहगणित है। इस ग्रहगणित स्कन्ध को सिद्धान्त स्कन्ध भी कहा जाता है। ज्योतिष कल्पवृक्ष का मूल ग्रहगणित है जो खगोल विद्या से जाना जाता है। अंकगणित, बीजगणित, रेखागणित, त्रिकोणमिति गणित, गोलीय रेखागणित इस स्कन्ध के अन्तर्गत आते हैं। किसी भी अभीष्ट समय के क्षितिज, क्रान्तवृत्त सम्पात रूप लग्न बिन्दु के ज्ञान से विश्व के चराचर जीवों का, मानव सृष्टि में उत्पन्न जातक को शुभाशुभ ज्ञान की भूमिका होती है । इस प्रकार ज्योतिष की महिमा वेद, वेदाङ्ग तथा पुराण एवं धर्मशास्त्रों में सर्वत्र उपलब्ध है। |
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− | == त्रिस्कन्ध ज्योतिष ॥Triskandha Jyotisha == | + | ==त्रिस्कन्ध ज्योतिष ॥Triskandha Jyotisha== |
| ज्योतिषशास्त्र वेद एवं वेदांग काल में त्रिस्कन्ध के रूपमें विभक्त नहीं था, जैसा कि पूर्व में वेदाङ्गज्योतिष के विषयमें कह ही दिया गया है, लगधमुनि प्रणीत वेदाङ्गज्योतिषको ज्योतिषशास्त्रका प्रथम ग्रन्थ कहा गया है, वेदाङ्गज्योतिषमें सामूहिकज्योतिषशास्त्र की ही चर्चा की गई है। आचार्यों ने ज्योतिष शास्त्र को तीन स्कन्धों में विभक्त किया है- सिद्धान्त, संहिता और होरा। महर्षिनारद जी कहते हैं- <blockquote>सिद्धान्त संहिता होरा रूपस्कन्ध त्रयात्मकम्। वेदस्य निर्मलं चक्षुः ज्योतिषशास्त्रमकल्मषम् ॥ | | ज्योतिषशास्त्र वेद एवं वेदांग काल में त्रिस्कन्ध के रूपमें विभक्त नहीं था, जैसा कि पूर्व में वेदाङ्गज्योतिष के विषयमें कह ही दिया गया है, लगधमुनि प्रणीत वेदाङ्गज्योतिषको ज्योतिषशास्त्रका प्रथम ग्रन्थ कहा गया है, वेदाङ्गज्योतिषमें सामूहिकज्योतिषशास्त्र की ही चर्चा की गई है। आचार्यों ने ज्योतिष शास्त्र को तीन स्कन्धों में विभक्त किया है- सिद्धान्त, संहिता और होरा। महर्षिनारद जी कहते हैं- <blockquote>सिद्धान्त संहिता होरा रूपस्कन्ध त्रयात्मकम्। वेदस्य निर्मलं चक्षुः ज्योतिषशास्त्रमकल्मषम् ॥ |
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| विनैतदखिलं श्रौतंस्मार्तं कर्म न सिद्ध्यति। तस्माज्जगध्दितायेदं ब्रह्मणा निर्मितं पुरा॥(नारद पुराण) </blockquote>अर्थात सिद्धान्त, संहिता और होरा तीन स्कन्ध रूप ज्योतिषशास्त्र वेदका निर्मल और दोषरहित नेत्र कहा गया है। इस ज्योतिषशास्त्र के विना कोई भी श्रौत और स्मार्त कर्म सिद्ध नहीं हो सकता। अतः ब्रह्माने संसारके कल्याणार्थ सर्वप्रथम ज्योतिषशास्त्रका निर्माण किया। | | विनैतदखिलं श्रौतंस्मार्तं कर्म न सिद्ध्यति। तस्माज्जगध्दितायेदं ब्रह्मणा निर्मितं पुरा॥(नारद पुराण) </blockquote>अर्थात सिद्धान्त, संहिता और होरा तीन स्कन्ध रूप ज्योतिषशास्त्र वेदका निर्मल और दोषरहित नेत्र कहा गया है। इस ज्योतिषशास्त्र के विना कोई भी श्रौत और स्मार्त कर्म सिद्ध नहीं हो सकता। अतः ब्रह्माने संसारके कल्याणार्थ सर्वप्रथम ज्योतिषशास्त्रका निर्माण किया। |
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− | === सिद्धान्त स्कन्ध === | + | ===सिद्धान्त स्कन्ध=== |
| यह स्कन्ध गणित नाम से भी जाना जाता है। इसके अन्तर्गत त्रुटि(कालकी लघुत्तम इकाई) से लेकर कल्पकाल तक की कालगणना, पर्व आनयन, अब्द विचार, ग्रहगतिनिरूपण, मासगणना, ग्रहों का उदयास्त, वक्रमार्ग, सूर्य वा चन्द्रमा के ग्रहण प्रारंभ एवं अस्त ग्रहण की दिशा, ग्रहयुति, ग्रहों की कक्ष स्थिति, उसका परिमाण, देश भेद, देशान्तर, पृथ्वी का भ्रमण, पृथ्वी की दैनिक गति, वार्षिक गति, ध्रुव प्रदेश आदि, अक्षांश, लम्बांश, गुरुत्वाकर्षण, नक्षत्र, संस्थान, अन्यग्रहों की स्थिति, भगण, चरखण्ड, द्युज्या, चापांश, लग्न, पृथ्वी की छाया, पलभा, नाडी, आदि विषय सिद्धान्त स्कन्ध के अन्तर्गत आते हैं। | | यह स्कन्ध गणित नाम से भी जाना जाता है। इसके अन्तर्गत त्रुटि(कालकी लघुत्तम इकाई) से लेकर कल्पकाल तक की कालगणना, पर्व आनयन, अब्द विचार, ग्रहगतिनिरूपण, मासगणना, ग्रहों का उदयास्त, वक्रमार्ग, सूर्य वा चन्द्रमा के ग्रहण प्रारंभ एवं अस्त ग्रहण की दिशा, ग्रहयुति, ग्रहों की कक्ष स्थिति, उसका परिमाण, देश भेद, देशान्तर, पृथ्वी का भ्रमण, पृथ्वी की दैनिक गति, वार्षिक गति, ध्रुव प्रदेश आदि, अक्षांश, लम्बांश, गुरुत्वाकर्षण, नक्षत्र, संस्थान, अन्यग्रहों की स्थिति, भगण, चरखण्ड, द्युज्या, चापांश, लग्न, पृथ्वी की छाया, पलभा, नाडी, आदि विषय सिद्धान्त स्कन्ध के अन्तर्गत आते हैं। |
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| सिद्धान्तके क्षेत्रमें पितामह, वसिष्ठ, रोमक, पौलिश तथा सूर्य-इनके नामसे गणितकी पॉंचसिद्धान्त पद्धतियाँ प्रमुख हैं, जिनका विवेचन आचार्यवराहमिहिरने अपने पंचसिद्धान्तिका नामक ग्रन्थमें किया है। | | सिद्धान्तके क्षेत्रमें पितामह, वसिष्ठ, रोमक, पौलिश तथा सूर्य-इनके नामसे गणितकी पॉंचसिद्धान्त पद्धतियाँ प्रमुख हैं, जिनका विवेचन आचार्यवराहमिहिरने अपने पंचसिद्धान्तिका नामक ग्रन्थमें किया है। |
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− | * आर्यभट्टका आर्यभट्टीयम् महत्त्वपूर्ण गणितसिद्धान्त है। इन्होंने पृथ्वीको स्थिर न मानकर चल बताया। आर्यभट्ट प्रथमगणितज्ञ हुये और आर्यभट्टीयम् प्रथम पौरुष ग्रन्थ है। | + | *आर्यभट्टका आर्यभट्टीयम् महत्त्वपूर्ण गणितसिद्धान्त है। इन्होंने पृथ्वीको स्थिर न मानकर चल बताया। आर्यभट्ट प्रथमगणितज्ञ हुये और आर्यभट्टीयम् प्रथम पौरुष ग्रन्थ है। |
− | * आचार्य ब्रह्मगुप्तका ब्रह्मस्फुटसिद्धान्त भी अत्यन्त प्रसिद्ध है। | + | *आचार्य ब्रह्मगुप्तका ब्रह्मस्फुटसिद्धान्त भी अत्यन्त प्रसिद्ध है। |
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| प्रायः आर्यभट्ट एवं ब्रह्मगुप्तके सिद्धान्तोंको आधार बनाकर सिद्धान्त ज्योतिषके क्षेत्रमें पर्याप्त ग्रन्थ रचना हुई। पाटी(अंक) गणितमें लीलावती(भास्कराचार्य) एवं बीजगणितमें चापीयत्रिकोणगणितम् (नीलाम्बरदैवज्ञ) प्रमुख हैं। | | प्रायः आर्यभट्ट एवं ब्रह्मगुप्तके सिद्धान्तोंको आधार बनाकर सिद्धान्त ज्योतिषके क्षेत्रमें पर्याप्त ग्रन्थ रचना हुई। पाटी(अंक) गणितमें लीलावती(भास्कराचार्य) एवं बीजगणितमें चापीयत्रिकोणगणितम् (नीलाम्बरदैवज्ञ) प्रमुख हैं। |
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− | === संहिता होरा === | + | ===संहिता होरा=== |
| ज्योतिष शास्त्र के दूसरे स्कन्ध संहिता का भी विशेष महत्त्व है। इन ग्रन्थों में मुख्यतः फलादेश संबंधी विषयों का बाहुल्य होता है। आचार्य वराहमिहिरने बृहत्संहिता में कहा है कि जो व्यक्ति संहिता के समस्त विषयों को जानता है, वही दैवज्ञ होता है। संहिता ग्रन्थों में भूशोधन, दिक् शोधन, मेलापक, जलाशय निर्माण, मांगलिक कार्यों के मुहूर्त, वृक्षायुर्वेद, दर्कागल, सूर्यादि ग्रहों के संचार, ग्रहों के स्वभाव, विकार, प्रमाण, गृहों का नक्षत्रों की युति से फल, परिवेष, परिघ, वायु लक्षण, भूकम्प, उल्कापात, वृष्टि वर्षण, अंगविद्या, पशु-पक्षियों तथा मनुष्यों के लक्षण पर विचार, रत्नपरीक्षा, दीपलक्षण नक्षत्राचार, ग्रहों का देश एवं प्राणियों पर आधिपत्य, दन्तकाष्ठ के द्वारा शुभ अशुभ फल का कथन आदि विषय वर्णित किये जाते हैं। संहिता ग्रन्थों में उपरोक्त विषयों के अतिरिक्त एक अन्य विशेषता होती है कि इन ग्रन्थों में व्यक्ति विषयक फलादेश के स्थान पर राष्ट्र विषयक फलादेश किया जाता है। | | ज्योतिष शास्त्र के दूसरे स्कन्ध संहिता का भी विशेष महत्त्व है। इन ग्रन्थों में मुख्यतः फलादेश संबंधी विषयों का बाहुल्य होता है। आचार्य वराहमिहिरने बृहत्संहिता में कहा है कि जो व्यक्ति संहिता के समस्त विषयों को जानता है, वही दैवज्ञ होता है। संहिता ग्रन्थों में भूशोधन, दिक् शोधन, मेलापक, जलाशय निर्माण, मांगलिक कार्यों के मुहूर्त, वृक्षायुर्वेद, दर्कागल, सूर्यादि ग्रहों के संचार, ग्रहों के स्वभाव, विकार, प्रमाण, गृहों का नक्षत्रों की युति से फल, परिवेष, परिघ, वायु लक्षण, भूकम्प, उल्कापात, वृष्टि वर्षण, अंगविद्या, पशु-पक्षियों तथा मनुष्यों के लक्षण पर विचार, रत्नपरीक्षा, दीपलक्षण नक्षत्राचार, ग्रहों का देश एवं प्राणियों पर आधिपत्य, दन्तकाष्ठ के द्वारा शुभ अशुभ फल का कथन आदि विषय वर्णित किये जाते हैं। संहिता ग्रन्थों में उपरोक्त विषयों के अतिरिक्त एक अन्य विशेषता होती है कि इन ग्रन्थों में व्यक्ति विषयक फलादेश के स्थान पर राष्ट्र विषयक फलादेश किया जाता है। |
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− | === होरा स्कन्ध === | + | ===होरा स्कन्ध=== |
| यह ज्योतिषशास्त्र का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण स्कन्ध है। व्यवहार की दृष्टिसे यह जनसामान्यमें सर्वाधिक लोकप्रिय है। इसे जातक शास्त्र भी कहते हैं। होरा शब्द की उत्पत्ति अहोरात्र शब्द से हुई है। अहोरात्र शब्द के प्रथम तथा अन्तिम शब्द का लोप होने से होरा शब्द की उत्पत्ति हुई है। इस शास्त्र के अन्तर्गत मनुष्य की जन्मकालीन गृहस्थिति या तिथि नक्षत्रादि के द्वारा उसके जीवन के सुख-दुःख आदि का निर्णय किया जाता है। आचार्य वराहमिहिर के अनुसार होराशास्त्र में राशि, होरा, द्रेष्काण, नवांश, द्वादशांश, त्रिंशांश, ग्रहों का बलाबल, ग्रहों की दिक्काल, चेष्टादि अनेक प्रकार का बल, ग्रहों की प्रकृति, धातु, द्रव्य, जाति चेष्टा, अरिष्ट, आयुर्दाय, दशान्तर्दशा, अष्टकवर्ग, राजयोग, चान्द्रयोग, नाभसयोग, आश्रययोग, तात्कालिक प्रश्न, शुभाशुभ निमित्त वा चेष्टाएं, विवाह आदि विषयों का उल्लेख एवं इनका सागोंपाग विवेचन किया जाता है। | | यह ज्योतिषशास्त्र का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण स्कन्ध है। व्यवहार की दृष्टिसे यह जनसामान्यमें सर्वाधिक लोकप्रिय है। इसे जातक शास्त्र भी कहते हैं। होरा शब्द की उत्पत्ति अहोरात्र शब्द से हुई है। अहोरात्र शब्द के प्रथम तथा अन्तिम शब्द का लोप होने से होरा शब्द की उत्पत्ति हुई है। इस शास्त्र के अन्तर्गत मनुष्य की जन्मकालीन गृहस्थिति या तिथि नक्षत्रादि के द्वारा उसके जीवन के सुख-दुःख आदि का निर्णय किया जाता है। आचार्य वराहमिहिर के अनुसार होराशास्त्र में राशि, होरा, द्रेष्काण, नवांश, द्वादशांश, त्रिंशांश, ग्रहों का बलाबल, ग्रहों की दिक्काल, चेष्टादि अनेक प्रकार का बल, ग्रहों की प्रकृति, धातु, द्रव्य, जाति चेष्टा, अरिष्ट, आयुर्दाय, दशान्तर्दशा, अष्टकवर्ग, राजयोग, चान्द्रयोग, नाभसयोग, आश्रययोग, तात्कालिक प्रश्न, शुभाशुभ निमित्त वा चेष्टाएं, विवाह आदि विषयों का उल्लेख एवं इनका सागोंपाग विवेचन किया जाता है। |
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| कालान्तर में त्रिस्कन्ध पञ्चस्कन्ध में विभक्त हो गया और उपरोक्त के अतिरिक्त इसमें प्रश्न और शकुन नामक दो स्कन्ध और सम्मिलित हो गये हैं- | | कालान्तर में त्रिस्कन्ध पञ्चस्कन्ध में विभक्त हो गया और उपरोक्त के अतिरिक्त इसमें प्रश्न और शकुन नामक दो स्कन्ध और सम्मिलित हो गये हैं- |
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− | === प्रश्नस्कन्ध === | + | ===प्रश्नस्कन्ध=== |
| प्रश्न शब्द का सामान्य अर्थ है पूछताछ, अनुसंधान आदि। यह वस्तुतः प्रारम्भ में फलित ज्योतिष का ही अंग था परन्तु कालान्तर में प्रश्नशास्त्र एक स्वतंत्र ज्योतिषशास्त्रीय विद्या के रूप में प्रतिष्ठित हुआ। यह शास्त्र तत्काल फल बताने वाले विद्या के रूप में प्रतिष्ठित है। प्रश्न का फल बताने के लिये विशेष रूप में प्रश्नाक्षर सिद्धान्त, प्रश्न लग्न सिद्धान्त तथा स्वर विज्ञान सिद्धान्तों का आश्रय लिया गया है। प्रश्न विद्या को तीन भागों में बांटा जा सकता है- वाचिक प्रश्न, मूक प्रश्न तथा मुष्टि प्रश्न।<ref name=":1">Sunayna Bhati, [http://hdl.handle.net/10603/31942 Vedang jyotish ka samikshatamak adhyayan], Year 2014, University of Delhi, chapter 1, (page 20)। </ref> | | प्रश्न शब्द का सामान्य अर्थ है पूछताछ, अनुसंधान आदि। यह वस्तुतः प्रारम्भ में फलित ज्योतिष का ही अंग था परन्तु कालान्तर में प्रश्नशास्त्र एक स्वतंत्र ज्योतिषशास्त्रीय विद्या के रूप में प्रतिष्ठित हुआ। यह शास्त्र तत्काल फल बताने वाले विद्या के रूप में प्रतिष्ठित है। प्रश्न का फल बताने के लिये विशेष रूप में प्रश्नाक्षर सिद्धान्त, प्रश्न लग्न सिद्धान्त तथा स्वर विज्ञान सिद्धान्तों का आश्रय लिया गया है। प्रश्न विद्या को तीन भागों में बांटा जा सकता है- वाचिक प्रश्न, मूक प्रश्न तथा मुष्टि प्रश्न।<ref name=":1">Sunayna Bhati, [http://hdl.handle.net/10603/31942 Vedang jyotish ka samikshatamak adhyayan], Year 2014, University of Delhi, chapter 1, (page 20)। </ref> |
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− | === शकुनस्कन्ध === | + | ===शकुनस्कन्ध=== |
| शकुनशास्त्र को निमित्त शास्त्र भी जाना जाता है। किसी भी कार्य से सम्बन्धित दिखाई देने वाले लक्षण जो शुभ या अशुभ की सूचना देते हैं, शकुन कहलाते हैं। प्रारंभ में शकुन की गणना संहिता शास्त्र के अन्तर्गत ही होती थी। परन्तु ईस्वी सन् की दसवी, ग्यारहवीं और बारहवीं सदी में इस विषय पर स्वतंत्र रूप से विचार होने लगा था जिससे इस विद्या ने अपना अलग शास्त्र के रूप में स्थान प्राप्त कर लिया था।<ref name=":1" /> | | शकुनशास्त्र को निमित्त शास्त्र भी जाना जाता है। किसी भी कार्य से सम्बन्धित दिखाई देने वाले लक्षण जो शुभ या अशुभ की सूचना देते हैं, शकुन कहलाते हैं। प्रारंभ में शकुन की गणना संहिता शास्त्र के अन्तर्गत ही होती थी। परन्तु ईस्वी सन् की दसवी, ग्यारहवीं और बारहवीं सदी में इस विषय पर स्वतंत्र रूप से विचार होने लगा था जिससे इस विद्या ने अपना अलग शास्त्र के रूप में स्थान प्राप्त कर लिया था।<ref name=":1" /> |
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− | == ज्योतिष शास्त्र की वैज्ञानिकता == | + | ==ज्योतिष शास्त्र की वैज्ञानिकता== |
| ज्योतिष सूचना व संभावनाओं का शास्त्र है। ज्योतिष गणना के अनुसार अष्टमी व पूर्णिमा को समुद्र में ज्वार-भाटे का समय निश्चित किया जाता है। वैज्ञानिक चन्द्र तिथियों व नक्षत्रों का प्रयोग अब कृषि में करने लगे हैं। ज्योतिष भविष्य में होने वाली दुर्घटनाओं के प्रति मनुष्य को सावधान कर देता है। रोग निदान में भी ज्योतिष का बडा योगदान है।<ref>रवींद्र कुमार दुबे, [https://ia801403.us.archive.org/6/items/in.ernet.dli.2015.378893/2015.378893.Bhartiya-Jyotish.pdf भारतीय ज्योतिष विज्ञान], सन् 2002, प्रतिभा प्रतिष्ठान दिल्ली (पृ० 12) </ref> | | ज्योतिष सूचना व संभावनाओं का शास्त्र है। ज्योतिष गणना के अनुसार अष्टमी व पूर्णिमा को समुद्र में ज्वार-भाटे का समय निश्चित किया जाता है। वैज्ञानिक चन्द्र तिथियों व नक्षत्रों का प्रयोग अब कृषि में करने लगे हैं। ज्योतिष भविष्य में होने वाली दुर्घटनाओं के प्रति मनुष्य को सावधान कर देता है। रोग निदान में भी ज्योतिष का बडा योगदान है।<ref>रवींद्र कुमार दुबे, [https://ia801403.us.archive.org/6/items/in.ernet.dli.2015.378893/2015.378893.Bhartiya-Jyotish.pdf भारतीय ज्योतिष विज्ञान], सन् 2002, प्रतिभा प्रतिष्ठान दिल्ली (पृ० 12) </ref> |
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− | * मानसिक रोगियों पर पूर्णमासी का विशेष प्रभाव | + | *सूर्य और चन्द्रमा का प्रभाव मानव तक ही सीमित नहीं अपितु वनस्पतियों पर भी पडता है। पुष्प प्रातः खिलते हैं, सायं सिमिट जाते हैं। श्वेत कुमुद रात को खिलता है, दिन में सिमिट जाता हैं। रक्त कुमुद दिन में खिलते हैं, रात को सिमिट जाते हैं। |
− | * मनोदशा चन्द्रमा की स्थिति से प्रभावित होती है इसीलिये रोगियों को ल्यूनेटिक (Lunatio) कहा जाता है। | + | *तारागणों का प्रभाव पशुओं पर भी पडता है। बिल्ली की नेत्र-पुतली चन्द्रकला के अनुसार घटती बढती रहती है। श्वानों की कामवासना भी आश्विन-कार्तिक मासों में बढती है। |
− | * पूर्णमासी एवं अमावस्या पर समुद्र में ज्वार-भाटा आना | + | *बहुत से पशु-पक्षियों, कुत्तों-बिल्लियों, सियारों, कौओं के मन एवं शरीर पर तारागण का कुछ ऐसा प्रभाव पडता है कि वे अपनी नाना प्रकार की बोलियों से मनुष्य को पूर्व ही सूचित कर देते हैं कि अमुक - अमुक घटनायें होने को हैं। |
| + | *फायलेरिया रोग (Filariasis Disease) चन्द्रमा के प्रभाव के कारण ही एकादशी और अमावस्या को बढता है।<ref>नेमीचंद शास्त्री, [https://archive.org/details/in.ernet.dli.2015.341974/page/n61/mode/1up भारतीय ज्योतिष], सन् 1970, सन्मति मुद्रणालय वाराणसी (42)।</ref> |
| + | *मनोदशा चन्द्रमा की स्थिति से प्रभावित होती है इसीलिये अंग्रेजी में चन्द्रमा को लूनर एवं चन्द्र संबंधि मानसिक अनारोग्य को ल्यूनेटिक (Lunatio) कहा जाता है। |
| + | *पूर्णमासी एवं अमावस्या आदि पर समुद्र में ज्वार-भाटा का कारण भी चन्द्रमा का प्रभाव है। |
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− | ज्योतिष शास्त्र का सम्बन्ध प्रायः सभी शास्त्रों के साथ प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से जुडा है। दर्शन शास्त्र, गणित शास्त्र, खगोल एवं भूगोल शास्त्र, मंत्रशास्त्र, कृषिशास्त्र, आयुर्वेद आदि शास्त्रों के साथ तो ज्योतिष का प्रत्यक्ष सम्बन्ध मिलता है। अतएव इस शास्त्र की सर्वाधिक उपयोगिता यही है कि यह मानव जीवन के अनेक प्रत्यक्ष एवं परोक्ष रहस्यों का विवेचन करता है। | + | ज्योतिष शास्त्र का सम्बन्ध प्रायः सभी शास्त्रों के साथ प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से जुडा है। दर्शन शास्त्र, गणित शास्त्र, खगोल एवं भूगोल शास्त्र, मंत्रशास्त्र, कृषिशास्त्र, आयुर्वेद आदि शास्त्रों के साथ तो ज्योतिष का प्रत्यक्ष सम्बन्ध मिलता है। अतएव इस शास्त्र की सर्वाधिक उपयोगिता यही है कि यह मानव जीवन के अनेक प्रत्यक्ष एवं परोक्ष रहस्यों का विवेचन करता है।<ref>देवकीनन्दन सिंह, ज्योतिष रत्नाकर, सन् २०१६, मोतीलाल बनारसीदास , अध्याय- भूमिका (पृ०५)</ref> |
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− | == ज्योतिष एवं आयुर्वेद॥ Jyotisha And Ayurveda == | + | ==ज्योतिष एवं आयुर्वेद॥ Jyotisha And Ayurveda== |
| {{Main|Jyotisha And Ayurveda (ज्योतिष एवं आयुर्वेद)}} | | {{Main|Jyotisha And Ayurveda (ज्योतिष एवं आयुर्वेद)}} |
| ज्योतिष एवं आयुर्वेद का संबन्ध जैसे संसार में भाई-भाई का सम्बन्ध है। आयुर्वेद में दैव एवं दैवज्ञ दोनों का महत्त्व प्रतिपादित किया गया है। इन दोनों की उत्तमता का योग हो तो निश्चित रूप से सुखपूर्वक दीर्घायुकी प्राप्ति होती है। इसके विपरीत हीन संयोग दुःख एवम अल्पायु के कारण बनते हैं। इन्हींके आधार पर आयुका मान नियत किया जाता है-<blockquote>दैवेदचेतरत् कर्म विशिष्टेनोपहन्यते। दृष्ट्वा यदेके मन्यन्ते नियतं मानमायुषः॥(चर०वि०३। ३४)</blockquote>आयुर्वेद के अनुसार सृष्टिके शक्तिपुञ्ज अदृश्य होते हुये भी गर्भाधान क्रिया, कोशीय संरचना एवं विकसित होते भ्रूणपर बहुत गहरा प्रभाव डालते हैं। गर्भाधानके समय आकाशीय शक्तियॉं भ्रूणके गुण-संगठन एवं जीन्स-संगठनपर पूर्ण प्रभाव डालती है। इसीलिये भारतीय परम्परा में गर्भाधान आदि [[Solah samskar ( सोलह संस्कार )|सोलह संस्कार]] विहित हैं जो कि ज्योतिष के मध्यम से एक निहित शुभ काल में किये जाते हैं जिससे आकशीय शक्तिपुञ्जों का दुष्प्रभाव पतित न हो। | | ज्योतिष एवं आयुर्वेद का संबन्ध जैसे संसार में भाई-भाई का सम्बन्ध है। आयुर्वेद में दैव एवं दैवज्ञ दोनों का महत्त्व प्रतिपादित किया गया है। इन दोनों की उत्तमता का योग हो तो निश्चित रूप से सुखपूर्वक दीर्घायुकी प्राप्ति होती है। इसके विपरीत हीन संयोग दुःख एवम अल्पायु के कारण बनते हैं। इन्हींके आधार पर आयुका मान नियत किया जाता है-<blockquote>दैवेदचेतरत् कर्म विशिष्टेनोपहन्यते। दृष्ट्वा यदेके मन्यन्ते नियतं मानमायुषः॥(चर०वि०३। ३४)</blockquote>आयुर्वेद के अनुसार सृष्टिके शक्तिपुञ्ज अदृश्य होते हुये भी गर्भाधान क्रिया, कोशीय संरचना एवं विकसित होते भ्रूणपर बहुत गहरा प्रभाव डालते हैं। गर्भाधानके समय आकाशीय शक्तियॉं भ्रूणके गुण-संगठन एवं जीन्स-संगठनपर पूर्ण प्रभाव डालती है। इसीलिये भारतीय परम्परा में गर्भाधान आदि [[Solah samskar ( सोलह संस्कार )|सोलह संस्कार]] विहित हैं जो कि ज्योतिष के मध्यम से एक निहित शुभ काल में किये जाते हैं जिससे आकशीय शक्तिपुञ्जों का दुष्प्रभाव पतित न हो। |
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| जन्मलग्न के द्वारा यह ज्ञात हो सकता है कि बच्चेमें किन आधारभूत तत्त्वों की कमी रह गई है। ज्योतिषशास्त्र के ज्ञान के आधार पर ज्योतिषी पहले ही सूचित कर देते हैं शिशु को इस अवस्था में ये रोग होगा। ग्रहदोषके अनुसार ही विभिन्न वनौषधियां ग्रह बाधा का निवारण करती हैं। शरीरमें वात,पित्त एवं कफ की मात्राका समन्वय रहनेपर ही शरीर साधारणतया स्वस्थ बना रहता है अतः स्वस्थ शरीर के लिये व्याधियों के ज्ञान पूर्वक उपचार हेतु ज्योतिष एवं आयुर्वेद शास्त्र का ज्ञान होना आवश्यक है। | | जन्मलग्न के द्वारा यह ज्ञात हो सकता है कि बच्चेमें किन आधारभूत तत्त्वों की कमी रह गई है। ज्योतिषशास्त्र के ज्ञान के आधार पर ज्योतिषी पहले ही सूचित कर देते हैं शिशु को इस अवस्था में ये रोग होगा। ग्रहदोषके अनुसार ही विभिन्न वनौषधियां ग्रह बाधा का निवारण करती हैं। शरीरमें वात,पित्त एवं कफ की मात्राका समन्वय रहनेपर ही शरीर साधारणतया स्वस्थ बना रहता है अतः स्वस्थ शरीर के लिये व्याधियों के ज्ञान पूर्वक उपचार हेतु ज्योतिष एवं आयुर्वेद शास्त्र का ज्ञान होना आवश्यक है। |
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− | == उद्धरण॥ References == | + | ==उद्धरण॥ References== |
| [[Category:Vedangas]] | | [[Category:Vedangas]] |
| <references /> | | <references /> |
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| + | [[Category:Hindi Articles]] |