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प्रस्तर यन्त्रों से युक्त दिल्ली वेधशालापर किये गये सफल प्रयोग के उपरान्त सन् १७२४ ई० में महाराजा सवाई जयसिंहने अपनी नयी राजधानी जयपुरमें एक बृहत् वेधशालाके निर्माणका निर्णय लिया और सन् १७२८ ई० में यह वेधशाला बनकर तैयार हुई।<ref name=":0" />  
 
प्रस्तर यन्त्रों से युक्त दिल्ली वेधशालापर किये गये सफल प्रयोग के उपरान्त सन् १७२४ ई० में महाराजा सवाई जयसिंहने अपनी नयी राजधानी जयपुरमें एक बृहत् वेधशालाके निर्माणका निर्णय लिया और सन् १७२८ ई० में यह वेधशाला बनकर तैयार हुई।<ref name=":0" />  
      
पंचांग आदि की रचना तथा मुहूर्त-निर्धारण करनेहेतु जयपुर वेधशालामें निम्नलिखित यन्त्रोंकी रचना की गई-
 
पंचांग आदि की रचना तथा मुहूर्त-निर्धारण करनेहेतु जयपुर वेधशालामें निम्नलिखित यन्त्रोंकी रचना की गई-
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मथुरानाथकृत यन्त्रराजघटना, चिन्तामणि दीक्षित द्वारा लिखित गोलानन्द नामक वेध-यन्त्र, चक्रधर कृत यन्त्रचिन्तामणि, जिस पर दिनकर ने यन्त्रचिन्तामणि, दिनकर ने यन्त्रचिन्तामणि टीका की है। ध्रुवभ्रमयन्त्र की रचना पद्मनाभ ने प्रतोदयन्त्र की रचना ग्रहलाघवकार गणेश दैवज्ञ ने, सर्वतोभद्रयन्त्र भास्कराचार्य ने, इसके अतिरिक्त भास्कराचार्य ने सिद्धान्तशिरोमणि के यन्त्राध्याय में गोलयन्त्र, चक्र, चाप, तुरीय, नाडीवलय, घटिक, शंकु, फलक, यष्टि, धनु, कपाल आदि का वर्णन किया है। आधुनिक सूर्यसिद्धान्त के ज्यौतिषोपनिषद् अध्याय में भूभगोलयन्त्र, शंकु, यष्टि, धनु, चक्र, कपाल, मयूर, वानर आदि यन्त्रों के नामों का उल्लेख है, किन्तु निर्माण का विस्तारपूर्वक वर्णन नहीं होने से यन्त्रों के निर्माण में कठिनाई उत्पन्न हो गई।<ref>पं० श्री कल्याणदत्त शर्मा, [http://literature.awgp.org/var/node/72819/Jyotirvigyan_Ki_Vedhshala.pdf ज्योतिर्विज्ञान की वेधशाला निर्माण एवं प्रयोग विधि], सन् २०११, श्री वेदमाता गायत्री ट्रस्त, शांतिकुञ्ज, हरिद्वार, उत्तराखण्ड (पृ०९)।</ref>
 
मथुरानाथकृत यन्त्रराजघटना, चिन्तामणि दीक्षित द्वारा लिखित गोलानन्द नामक वेध-यन्त्र, चक्रधर कृत यन्त्रचिन्तामणि, जिस पर दिनकर ने यन्त्रचिन्तामणि, दिनकर ने यन्त्रचिन्तामणि टीका की है। ध्रुवभ्रमयन्त्र की रचना पद्मनाभ ने प्रतोदयन्त्र की रचना ग्रहलाघवकार गणेश दैवज्ञ ने, सर्वतोभद्रयन्त्र भास्कराचार्य ने, इसके अतिरिक्त भास्कराचार्य ने सिद्धान्तशिरोमणि के यन्त्राध्याय में गोलयन्त्र, चक्र, चाप, तुरीय, नाडीवलय, घटिक, शंकु, फलक, यष्टि, धनु, कपाल आदि का वर्णन किया है। आधुनिक सूर्यसिद्धान्त के ज्यौतिषोपनिषद् अध्याय में भूभगोलयन्त्र, शंकु, यष्टि, धनु, चक्र, कपाल, मयूर, वानर आदि यन्त्रों के नामों का उल्लेख है, किन्तु निर्माण का विस्तारपूर्वक वर्णन नहीं होने से यन्त्रों के निर्माण में कठिनाई उत्पन्न हो गई।<ref>पं० श्री कल्याणदत्त शर्मा, [http://literature.awgp.org/var/node/72819/Jyotirvigyan_Ki_Vedhshala.pdf ज्योतिर्विज्ञान की वेधशाला निर्माण एवं प्रयोग विधि], सन् २०११, श्री वेदमाता गायत्री ट्रस्त, शांतिकुञ्ज, हरिद्वार, उत्तराखण्ड (पृ०९)।</ref>
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== वेधशाला की उपयोगिता ==
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निम्नलिखित बिन्दुओं को देखते हैं -
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* ग्रहादिकों के दृग्गणितैक्य निर्णय हेतु
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* कालान्तरागत अन्तर के अन्वेषण हेतु
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* दिग्देशकाल निर्धारण के लिए
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* क्षयाधिमास-काल-स्थितितत्त्व के परिशीलन हेतु
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* सूर्य-चन्द्रग्रहण काल में स्थितिकाल-स्पर्श-सम्मीलन-मध्यग्रहण-उन्मीलन-मोक्षादि अवस्था, स्थिति, समय, प्रभावादि के अन्वेषण हेतु
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* गोलीय पदार्थों के प्रत्यक्ष दर्शन के लिए
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* खगोलीय घटनाओं के वेधप्रयुक्त परिलेख को प्रदर्शित करने हेतु
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* ग्रह-नक्षत्र युति-ग्रहयुद्ध-समागम-शृंगोन्नति-जयपराजयादि विशिष्ट गोलीय विलक्षण घटनाओं के प्रत्यक्षीकरण हेतु
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इसके साथ ही साथ, अन्य समस्त दृष्ट-अदृष्ट कटाह के रूप में स्थित ब्रह्माण्ड के स्वरूप को हाथ में रखे हुए आँवले की भाँति प्रत्यक्ष दर्शन के लिये वेधशाला परम उपयोगी है। अतः आज ज्योतिर्विज्ञान की आधारभूत प्रयोगशाला, वेधशाला ही है। वेधशाला के इन सिद्धान्तों का कालगणना तथा ग्रहादि साधन के सन्दर्भ में प्रात्यक्षिक स्वरूप ही अन्य शास्त्रों से इसकी आवश्यकता, उपयोगिता तथा प्रासंगिकता को स्वयं सिद्ध करता है।
    
==विचार-विमर्श==
 
==विचार-विमर्श==
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