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| भारतीय काल गणना में वर्ष का विचार ? | | भारतीय काल गणना में वर्ष का विचार ? |
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− | === परिभाषा ===
| + | == परिभाषा == |
| '''ऋतुभिर्हि संवत्सरः शक्नोति स्थातुम्।''' | | '''ऋतुभिर्हि संवत्सरः शक्नोति स्थातुम्।''' |
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| अर्थात् जिसमें ऋतुएं वास करती हों वह वर्ष या संवत्सर कहलाता है। | | अर्थात् जिसमें ऋतुएं वास करती हों वह वर्ष या संवत्सर कहलाता है। |
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− | === वर्षारम्भ === | + | == ज्योतिष में संवत्सर == |
− | वैदिक ग्रंथों में वर्ष के चांद्र और सौर ये दो भेद भी वर्णित थे। स्पष्ट है कि भारतीय विद्वानों को अत्यंत प्रारंभ से ही ज्ञात थे। जैसे प्रत्येक माह के नाम होते है उसी तरह प्रत्येक वर्ष के भी नाम होते हैं। जैसे बारह माह होते हैं उसी तरह 60 संवत्सर होते हैं, जिनके नाम निश्चित हैं। संवत्सर अर्थात बारह महीने का कालविशेष। संवत्सर उसे कहते हैं, जिसमें सभी महीने पूर्णतः निवास करते हों। भारतीय संवत्सर वैसे तो पांच प्रकार के होते हैं। इनमें से मुख्यतः तीन हैं – सावन, चांद्र तथा सौर।
| + | ज्योतिषग्रंथों में संवत्सरों का विवेचन प्राप्त होता है। ज्योतिष गणित में संवत्सर को प्राण माना गया है। क्योंकि गणना के विना ज्योतिष की गति नहीं है इसलिए संवत्सर को ज्योतिष शस्त्र का प्राण कहा गया है। ज्योतिषशास्त्र में साठ संवत्सरों को माना गया है। |
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− | === सावन वर्ष ===
| + | अग्निपुराण में साठ संवत्सरों का परिगणन एवं फलों का वर्णन है – |
− | यह 360 दिनों का होता है। संवत्सर का मोटा सा हिसाब इसी से लगाया जाता है। इसमें एक मास की अवधि पूरे तीस दिन की होती है।
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− | काल गणना में वर्ष के अंतर्गत प्रयोग होने वाले सावन वर्ष में एक सावन दिन का व्यवहार एक सूर्योदय से दूसरे सूर्योदय तक का काल सावन दिन कहलाता है। अर्थात सैद्धांतिक रूप से समझने का प्रयास करें तो एक ही क्षितिज पर दो सूर्योदयों के मध्य का काल सावन दिन होता है। प्रायः यह देखा जाता है कि सूर्य पश्चिम दिशा की ओर गमन कर रहा है, परंतु पृथ्वी के अक्ष भ्रमण के कारण इस प्रकार की प्रतीति होती है। इसी दो सूर्योदय के मध्य के काल को भू-दिन अथवा सावन दिन भी कहा जाता है। हमारे व्यवहार में भी हम दिन के अर्थ में इसी काल का प्रयोग करते हैं। यह मान भी दो प्रकार का होता है एक स्पष्ट सावन और दूसरा मध्यम सावन। मध्यम सावन का मान 60 घटी + रवि गति कला के तुल्य असु के बराबर एवं स्पष्ट सावन मान 60 घटी + रवि गति कला से उत्पन्न असु के मान के बराबर होता है। परंतु एक वर्ष में मध्यम सावन मान और स्पष्ट सावन दिनों की संख्या समान ही होती है। जैसा कि श्री भास्कराचार्य जी के अनुसार एक सौर वर्ष (360 सौर दिन) में 365.15.30.22.30 (दिन-घटी-पल-विपल-प्रतिविपल) सावन दिन होते हैं। जैसे –
| + | '''षष्ट्यब्दानां प्रवक्ष्यामि शुभाशुभमतः शृणु।''' |
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− | पंचांगरामास्तिथयः खरामाः सार्द्धद्विदस्राः कुदिनाद्यमब्दे। अस्यार्कमासोsर्कलवः प्रदिष्टस्त्रिंशद्दिनः सावनमास एव॥ (सि०शिरो० गो० मध्य० श्लो० ८)
| + | संवत्सर शब्द की व्युत्पत्ति बताते हुए कहा गया है – संवसन्ति ऋतवोऽत्र, संवस् + सरन अर्थात वर्ष। ऋग्वेद में संवत्सर शब्द का प्रयोग वर्ष के लिए अनेक बार हुआ है। वेदांग ज्योतिष में सौर मास, सावन मास, चांद्र मास, तथा नाक्षत्र मास का वर्णन मिलता है। |
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− | स्पष्ट सावनमान चल होने के कारण मध्यम सावन मान का ही व्यवहार सामान्यतः किया जाता है। इस सावनमान से ही यज्ञादि कार्यों के लिए समय का निर्धारण किया जाता है तथा जन्म का सूतक और चान्द्रायण आदि व्रत की सीमा, दिन, मास और वर्ष के स्वामियों का निश्चय, ग्रहों की मध्यम गति आदि की गणना इसी सूर्य संबंधि सावन दिन से ही की जाती है।
| + | एक संवत्सर एक वर्ष का माना जाता है। संहिता स्कन्ध में गुरु की मध्यम राशि के भोग काल को संवत्सर कहते हैं। यह काल भी एक वर्ष का माना जाता है। संवत्सर ६० होते हैं। जिनके नाम इस प्रकार हैं- |
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− | === चांद्र वर्ष === | + | == संवत्सर एवं वर्ष == |
− | यह 354 दिनों का होता है। अधिकतर मास इसी संवत्सर द्वारा जाने जाते हैं। यदि मास वृद्धि हो तो 13 मास अन्यथा बारह मास होते हैं। इसमें अंग्रेजी हिसाब से मासों का विवरण नहीं है बल्कि इसका एक मास शुक्ल पक्ष प्रतिपदा से अमावस्या तक या कृष्ण पक्ष प्रतिपदा से पूर्णिमा तक माना जाता है। इसमे प्रथम मास को अमांत और द्वितीय मास को पूर्णिमान्त कहते हैं। दक्षिण भारत में अमांत और उत्तर भारत में पूर्णिमान्त मास का ही प्रचलन है। धर्म-कर्म, तीज-त्योहार और लोक-व्यवहार में इस संवत्सर की ही मान्यता आधिक है।
| + | बृहस्पते मध्यम राशि भोगात् संवत्सरा सांहितिका वदंति। |
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− | === सौर वर्ष ===
| + | भास्कराचार्य जी की इस उक्ति के अनुसार बृहस्पति के माध्यम भोग मान से संवत्सर का ज्ञान होता है। संवत्सर शब्द वस्तुतः वर्ष अर्थ का वाचक है, परंतु एक पद्धति यह है कि 60 वर्षों के प्रभाव इत्यादि क्रमशः 60 संज्ञायें रख दिए गए हैं, उन संज्ञाओं व नामों को भी संवत्सर कहा जाता है। इन संवत्सरों की उत्पत्ति बृहस्पति की गति से होने के कारण इन्हें बार्हस्पत्य संवत्सर कहते हैं। |
− | यह 365 दिनों का माना गया है। यह सूर्य के मेष संक्रांति से आरंभ होकर मेष संक्रांति तक ही चलता है। सौर वर्ष को मानव वर्ष भी कहते हैं। काल गणना के लिए इसी वर्ष का ही प्रयोग किया जाता है। भारत में पांच प्रकार के वर्ष व्यवहार में आते हैं। परंतु उन सबका अंतर्भाव सौर वर्ष में कर दिया जाता है। सौर वर्ष दो प्रकार के होते हैं- सायण और निरयण।
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− | सायन का आधार दृश्य गणित है और निरयन का आधार सूक्ष्म यंत्र हैं। भारत में दोनों ही प्रकार के मानों का व्यवहार होता है।
| + | == वेदों में वर्षमान == |
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− | == नाक्षत्र वर्ष == | |
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| == वर्ष का विचार == | | == वर्ष का विचार == |
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| बंगाल में शककाल और सौरमान प्रचलित हैं। | | बंगाल में शककाल और सौरमान प्रचलित हैं। |
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− | == संवत्सर == | + | == वर्षारम्भ == |
− | बृहस्पते मध्यम राशि भोगात् संवत्सरा सांहितिका वदंति।
| + | वैदिक ग्रंथों में वर्ष के चांद्र और सौर ये दो भेद भी वर्णित थे। स्पष्ट है कि भारतीय विद्वानों को अत्यंत प्रारंभ से ही ज्ञात थे। जैसे प्रत्येक माह के नाम होते है उसी तरह प्रत्येक वर्ष के भी नाम होते हैं। जैसे बारह माह होते हैं उसी तरह 60 संवत्सर होते हैं, जिनके नाम निश्चित हैं। संवत्सर अर्थात बारह महीने का कालविशेष। संवत्सर उसे कहते हैं, जिसमें सभी महीने पूर्णतः निवास करते हों। भारतीय संवत्सर वैसे तो पांच प्रकार के होते हैं। इनमें से मुख्यतः चार प्रमुख हैं– सौर, चांद्र, सावन तथा नाक्षत्र। |
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− | भास्कराचार्य जी की इस उक्ति के अनुसार बृहस्पति के माध्यम भोग मान से संवत्सर का ज्ञान होता है। संवत्सर शब्द वस्तुतः वर्ष अर्थ का वाचक है, परंतु एक पद्धति यह है कि 60 वर्षों के प्रभाव इत्यादि क्रमशः 60 संज्ञायें रख दिए गए हैं, उन संज्ञाओं व नामों को भी संवत्सर कहा जाता है। इन संवत्सरों की उत्पत्ति बृहस्पति की गति से होने के कारण इन्हें बार्हस्पत्य संवत्सर कहते हैं।
| + | === सौर वर्ष === |
| + | यह 365 दिनों का माना गया है। यह सूर्य के मेष संक्रांति से आरंभ होकर मेष संक्रांति तक ही चलता है। सौर वर्ष को मानव वर्ष भी कहते हैं। काल गणना के लिए इसी वर्ष का ही प्रयोग किया जाता है। भारत में पांच प्रकार के वर्ष व्यवहार में आते हैं। परंतु उन सबका अंतर्भाव सौर वर्ष में कर दिया जाता है। सौर वर्ष दो प्रकार के होते हैं- सायण और निरयण। |
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− | == वेदों में वर्षमान ==
| + | सायन का आधार दृश्य गणित है और निरयन का आधार सूक्ष्म यंत्र हैं। भारत में दोनों ही प्रकार के मानों का व्यवहार होता है। |
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− | == ज्योतिष में संवत्सर == | + | === चांद्र वर्ष === |
− | ज्योतिषग्रंथों में संवत्सरों का विवेचन प्राप्त होता है। ज्योतिष गणित में संवत्सर को प्राण माना गया है। क्योंकि गणना के विना ज्योतिष की गति नहीं है इसलिए संवत्सर को ज्योतिष शस्त्र का प्राण कहा गया है। ज्योतिषशास्त्र में साठ संवत्सरों को माना गया है।
| + | यह 354 दिनों का होता है। अधिकतर मास इसी संवत्सर द्वारा जाने जाते हैं। यदि मास वृद्धि हो तो 13 मास अन्यथा बारह मास होते हैं। इसमें अंग्रेजी हिसाब से मासों का विवरण नहीं है बल्कि इसका एक मास शुक्ल पक्ष प्रतिपदा से अमावस्या तक या कृष्ण पक्ष प्रतिपदा से पूर्णिमा तक माना जाता है। इसमे प्रथम मास को अमांत और द्वितीय मास को पूर्णिमान्त कहते हैं। दक्षिण भारत में अमांत और उत्तर भारत में पूर्णिमान्त मास का ही प्रचलन है। धर्म-कर्म, तीज-त्योहार और लोक-व्यवहार में इस संवत्सर की ही मान्यता आधिक है। |
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− | अग्निपुराण में साठ संवत्सरों का परिगणन एवं फलों का वर्णन है –
| + | === सावन वर्ष === |
| + | यह 360 दिनों का होता है। संवत्सर का मोटा सा हिसाब इसी से लगाया जाता है। इसमें एक मास की अवधि पूरे तीस दिन की होती है। |
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− | '''षष्ट्यब्दानां प्रवक्ष्यामि शुभाशुभमतः शृणु।'''
| + | काल गणना में वर्ष के अंतर्गत प्रयोग होने वाले सावन वर्ष में एक सावन दिन का व्यवहार एक सूर्योदय से दूसरे सूर्योदय तक का काल सावन दिन कहलाता है। अर्थात सैद्धांतिक रूप से समझने का प्रयास करें तो एक ही क्षितिज पर दो सूर्योदयों के मध्य का काल सावन दिन होता है। प्रायः यह देखा जाता है कि सूर्य पश्चिम दिशा की ओर गमन कर रहा है, परंतु पृथ्वी के अक्ष भ्रमण के कारण इस प्रकार की प्रतीति होती है। इसी दो सूर्योदय के मध्य के काल को भू-दिन अथवा सावन दिन भी कहा जाता है। हमारे व्यवहार में भी हम दिन के अर्थ में इसी काल का प्रयोग करते हैं। यह मान भी दो प्रकार का होता है एक स्पष्ट सावन और दूसरा मध्यम सावन। मध्यम सावन का मान 60 घटी + रवि गति कला के तुल्य असु के बराबर एवं स्पष्ट सावन मान 60 घटी + रवि गति कला से उत्पन्न असु के मान के बराबर होता है। परंतु एक वर्ष में मध्यम सावन मान और स्पष्ट सावन दिनों की संख्या समान ही होती है। जैसा कि श्री भास्कराचार्य जी के अनुसार एक सौर वर्ष (360 सौर दिन) में 365.15.30.22.30 (दिन-घटी-पल-विपल-प्रतिविपल) सावन दिन होते हैं। जैसे – |
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− | संवत्सर शब्द की व्युत्पत्ति बताते हुए कहा गया है – संवसन्ति ऋतवोऽत्र, संवस् + सरन अर्थात वर्ष। ऋग्वेद में संवत्सर शब्द का प्रयोग वर्ष के लिए अनेक बार हुआ है। वेदांग ज्योतिष में सौर मास, सावन मास, चांद्र मास, तथा नाक्षत्र मास का वर्णन मिलता है।
| + | पंचांगरामास्तिथयः खरामाः सार्द्धद्विदस्राः कुदिनाद्यमब्दे। अस्यार्कमासोsर्कलवः प्रदिष्टस्त्रिंशद्दिनः सावनमास एव॥ (सि०शिरो० गो० मध्य० श्लो० ८) |
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− | एक संवत्सर एक वर्ष का माना जाता है। संहिता स्कन्ध में गुरु की मध्यम राशि के भोग काल को संवत्सर कहते हैं। यह काल भी एक वर्ष का माना जाता है। संवत्सर ६० होते हैं। जिनके नाम इस प्रकार हैं-
| + | स्पष्ट सावनमान चल होने के कारण मध्यम सावन मान का ही व्यवहार सामान्यतः किया जाता है। इस सावनमान से ही यज्ञादि कार्यों के लिए समय का निर्धारण किया जाता है तथा जन्म का सूतक और चान्द्रायण आदि व्रत की सीमा, दिन, मास और वर्ष के स्वामियों का निश्चय, ग्रहों की मध्यम गति आदि की गणना इसी सूर्य संबंधि सावन दिन से ही की जाती है। |
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− | वर्ष विचार
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| + | === नाक्षत्र वर्ष === |
| == सारांश == | | == सारांश == |
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| == उद्धरण == | | == उद्धरण == |