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| | === अयन === | | === अयन === |
| − | सूर्य ६ मास दक्षिण और ६ मास उत्तर चलते हैं। ज्योतिष में वर्ष को उत्तरायण एवं दक्षिणायन दो विभागों में विभाजित किया गया है, उत्तरायण का अर्थ है बिन्दु से सूर्य का उत्तर दिशा की ओर जाना तथा दक्षिणायन से तात्पर्य है सूर्य का सूर्योदय बिन्दु से दक्षिण की ओर चलना। शतपथ ब्राह्मण के अनुसार- <blockquote>वसंतो ग्रीष्मो वर्षाः। ते देवा ऋतवः शरद्धेमतं शिशिरस्ते पितरौस (सूर्यः) यत्रोदगावर्तते देवेषु तर्हि भवतियत्र दक्षिणावर्तते पितृषु तर्हि भवति॥</blockquote>उक्त मंत्र के अनुसार वसंत ग्रीष्म वर्षा ये देव ऋतुयें हैं, शरद हेमन्त और शिशिर यह पितृ ऋतुयें हैं। जब सूर्य उत्तरायण में रहता है तो ऋतुयें देवों में गिनी जाती हैं। तैत्तिरीय उपनिषद् में वर्णन है कि सूर्य ६ माह उत्तरायण और ६ माह दक्षिणायन में रहता है-<blockquote>तस्मादादित्यः षण्मासो दक्षिणेनैति षडुत्तरेण।(तै०सं० ६,५,३)</blockquote>दिवस व | + | सूर्य ६ मास दक्षिण और ६ मास उत्तर चलते हैं। ज्योतिष में वर्ष को उत्तरायण एवं दक्षिणायन दो विभागों में विभाजित किया गया है, उत्तरायण का अर्थ है बिन्दु से सूर्य का उत्तर दिशा की ओर जाना तथा दक्षिणायन से तात्पर्य है सूर्य का सूर्योदय बिन्दु से दक्षिण की ओर चलना। शतपथ ब्राह्मण के अनुसार- <blockquote>वसंतो ग्रीष्मो वर्षाः। ते देवा ऋतवः शरद्धेमतं शिशिरस्ते पितरौस (सूर्यः) यत्रोदगावर्तते देवेषु तर्हि भवतियत्र दक्षिणावर्तते पितृषु तर्हि भवति॥</blockquote>उक्त मंत्र के अनुसार वसंत ग्रीष्म वर्षा ये देव ऋतुयें हैं, शरद हेमन्त और शिशिर यह पितृ ऋतुयें हैं। जब सूर्य उत्तरायण में रहता है तो ऋतुयें देवों में गिनी जाती हैं। तैत्तिरीय उपनिषद् में वर्णन है कि सूर्य ६ माह उत्तरायण और ६ माह दक्षिणायन में रहता है-<blockquote>तस्मादादित्यः षण्मासो दक्षिणेनैति षडुत्तरेण।(तै०सं० ६,५,३)</blockquote> |
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| − | == उद्धरण == | + | === दिवस व तिथि === |
| | + | सावन दिन, सौर दिन और चान्द्र दिन अर्थात् तिथि का विवेचन करेंगे। वेदों में सौर मास का स्पष्ट उल्लेख नहीं है, अतः सौर दिन का न होना भी स्पष्ट ही है। सावन दिन बहुत व्यवहारोपयोगी है। यज्ञ उसी के अनुसार किये जाते थे। तैत्तिरीय ब्राह्मण के निम्नलिखित वाक्यों में शुक्ल और कृष्णपक्षों के दिन और रातों के भिन्न-भिन्न नाम पठित हैं। |
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| | + | संज्ञानं विज्ञानं दर्शा दृष्टेति। एतावनुवाकौ पूर्वपक्षस्याहोरात्राणां नामधेयानि। प्रस्तुतं विष्टुत सुता सुन्वतीति। एतावनुवाकावपरपक्षस्याहोरात्राणां नामधेयानि॥(तै०ब्रा० ३।१०।१०।२) |
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| | + | संज्ञानं विज्ञानं प्रज्ञानं जानभिजानत् । संकल्पमानं प्रकल्पमानमुपकल्पमानमपक्लप्तं क्लप्तं। श्रेयोवसीय आयत् सम्भूतं भूतम् ॥(तै०ब्रा० ३।१०।१।१) |
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| | + | ये पूर्व पक्ष के अहो (दिवसों) के प्रत्येक वाक्य में पाँच-पाँच और सब मिलकर १५ नाम है। दर्शा दृष्टा दर्शता विश्वरूपा सुदर्शना। अप्यायमाना प्यायमाना श्याया सुनेतरा। आपूर्यमाणा पूर्यमाणा पूरन्ति पूर्णा पौर्णमासी॥(तै०ब्रा०३।१०।१।१) |
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| | + | ये पूर्वपक्ष की १५ रात्रियों के १५ नाम हैं। पौर्णमासी इत्यादि शब्दों से स्पष्ट हो जाता है कि यहाँ पूर्वपक्ष का अर्थ शुक्लपक्ष है। |
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| | + | प्रस्तुतं विष्टुतं सस्तुतं कल्याणं विश्वरूपं। शुक्रममृतं तेजस्वि तेजः समृद्धं। अरुणं भानुमन् मरीचिमभितपतं तपस्वत् । (तै० ब्रा० ३।१०।११२) |
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| | + | === शुभकाल === |
| | + | वेदों में ज्योतिष का उल्लेख वेदांग के रूप में किया गया है, और यह वेदों के छह अंगों में से एक है जो वेदों के अध्ययन और उनके सही अर्थ को समझने के लिए महत्वपूर्ण हैं। यहाँ कुछ उद्धरण दिए जा रहे हैं जो ज्योतिष के महत्व को दर्शाते हैं -<blockquote>द्वादशारं नहि तज्जराय। (ऋग्वेद 1.164.48)</blockquote>इसका अर्थ है: "बारह आरे वाला यह चक्र (सूर्य का वर्षचक्र) कभी भी बूढ़ा नहीं होता।" यह सूर्य के वर्षचक्र का प्रतीक है, जो ज्योतिष के समय मापन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।<blockquote>सप्त शतमरात्रीणामिक्षुमंतः सप्त तिश्याणाम्। सप्त नक्षत्राणामाहुस्त्रिकद्रुकं सप्त ह गोपाः। (अथर्ववेद 19.7.1)</blockquote>इसका अर्थ है: "सप्त नक्षत्रों के अंदर सप्तारात्र और सप्त तिश्य (पुष्य) नक्षत्र है। यह ज्योतिष के संदर्भ में नक्षत्रों की गणना को दर्शाता है।<blockquote>चन्द्रमा मनसो जातश्चक्षोः सूर्यः। (यजुर्वेद 3.5)</blockquote>इसका अर्थ है: "चन्द्रमा मन से उत्पन्न हुआ और सूर्य आँखों से।" यह आकाशीय पिंडों के मानसिक और दृष्टिगत प्रभाव को दर्शाता है, जो ज्योतिष के अध्ययन में महत्वपूर्ण हैं।<blockquote>यज्ञेषु कर्माणि समये संपद्यन्ते तद्विदः। वेदांग ज्योतिष (लघु ज्योतिष-36)</blockquote>इसका अर्थ है: "जो ज्ञानी हैं, वे समय के अनुसार यज्ञ और कर्म संपन्न करते हैं।" यह उद्धरण दर्शाता है कि कैसे ज्योतिषीय ज्ञान का उपयोग धार्मिक अनुष्ठानों के लिए समय निर्धारण में किया जाता था। |
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| | + | === ग्रह === |
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| | + | === ग्रहण === |
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| | + | === अवयव === |
| | + | खगोल ज्योतिष का आरंभ सूर्य, पृथिवी, चन्द्र, नक्षत्र, ग्रह और उपग्रहों की गति-परिज्ञान से होता है। गति परिज्ञान के लिये देश और काल दोनों की मापों का प्रयोग आवश्यक है। ज्योतिष ज्ञान की ओर संकेत निम्नलिखित मन्त्र से स्पष्ट है- <blockquote>कोऽअस्य वेद भुवनस्य नाभिं को द्यावापृथिवीऽअन्तरिक्षम्। कः सूर्य्यस्य वेद बृहतो जनित्रं को वेद चन्द्रमसं यतोजाः॥(यजु०23.59)<ref>[https://sa.wikisource.org/wiki/%E0%A4%B6%E0%A5%81%E0%A4%95%E0%A5%8D%E0%A4%B2%E0%A4%AF%E0%A4%9C%E0%A5%81%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%B5%E0%A5%87%E0%A4%A6%E0%A4%83/%E0%A4%85%E0%A4%A7%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%AF%E0%A4%83_%E0%A5%A8%E0%A5%A9 शुक्ल यजुर्वेद], अध्याय-२३, मन्त्र स० ५९।</ref></blockquote>कौन इस विश्वमण्डल की नाभि को जानता है? कौन द्यौ, पृथिवी और अन्तरिक्ष को जानता है? इस बृहद् सूर्य के जन्म-स्थान को कौन जानता है? कौन यह जानता है कि यह चन्द्रमा कहाँ से उत्पन्न हुआ? ये प्रश्न हैं जो कौतूहल के समान हमारे सम्मुख उत्पन्न हुए और इन प्रश्नों के समाधान ले प्रयास ने आज के विश्वज्योतिष का विकास किया। इस संबन्ध में यजुर्वेद में इस प्रकार कहा गया है-<blockquote>संवत्सरो ऽसि परिवत्सरोऽसीदावत्सरो ऽसीद्वत्सरो ऽसि वत्सरो ऽसि। उषसस् ते कल्पन्ताम् अहोरात्रास् ते कल्पन्ताम् अर्धमासास् ते कल्पन्तां मासास् ते कल्पन्ताम् ऋतवस् ते कल्पन्ताꣳ संवत्सरस् ते कल्पताम्।(यजु० 27.45)<ref>[https://sa.wikisource.org/wiki/%E0%A4%B6%E0%A5%81%E0%A4%95%E0%A5%8D%E0%A4%B2%E0%A4%AF%E0%A4%9C%E0%A5%81%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%B5%E0%A5%87%E0%A4%A6%E0%A4%83/%E0%A4%85%E0%A4%A7%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%AF%E0%A4%83_%E0%A5%A8%E0%A5%AD शुक्ल यजुर्वेद], अध्याय-२७, मन्त्र सं० ४५।</ref></blockquote>इस मन्त्र में काल मान सूचक शब्द हैं- संवत्सर, परिवत्सर, इदावत्सर, इद्वत्सर, वत्सर, उषा, अहोरात्र, अर्धमास, मास और ऋतु। चान्द्र और सौर वर्षों का समन्वय पाँच वर्षों के एक चक्र में होता है। इन पाँच वर्षों के नाम सम्वत्सर, परिवत्सर, इदावत्सर, इद्वत्सर और वत्सर हैं। भारतीय ज्योतिष की एकमात्र यह विशेषता रही है कि चान्द्र और सौर- दोनों गतियों का जहाँ तक संभव हो, समन्वय किया जाता रहे। इस समन्वय को यजुर्वेद के इस मन्त्र से प्रेरणा मिलती है। चन्द्रगति ने अहोरात्र, अर्धमास (पक्ष) और मास को जन्म दिया तथा सौर-गति ने ऋतु वत्सरों को। दिनों का सप्ताहों में विभाजन करना इस देश की पुरानी परम्परा रही है।<ref>डॉ० सत्यप्रकाश, [https://archive.org/details/in.ernet.dli.2015.442230/page/n1/mode/2up?view=theater वैज्ञानिक विकास की भारतीय परम्परा], सन् १९५४, बिहार-राष्ट्रभाषा-परिषद् सम्मेलन भवन, पटना (पृ०२७)।</ref> |
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| | + | == निश्कर्ष == |
| | + | वेदों में ज्योतिष विज्ञान का गहरा महत्व है और इसे खगोलीय घटनाओं, समय मापन, और धार्मिक अनुष्ठानों के संदर्भ में समझा और प्रयोग किया गया है। |
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| | + | ==उद्धरण== |
| | + | <references /> |
| | + | [[Category:Jyotisha]] |