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| === आर्यभट्ट का भू-भ्रमण सिद्धान्त === | | === आर्यभट्ट का भू-भ्रमण सिद्धान्त === |
− | आर्यभट्टीयम् नामक ग्रन्थ के गोलपाद में आर्यभट्ट ने भू-भ्रमण सिद्धान्त के बारे में लिखा है कि -<blockquote>अनुलोमगतिर्नौस्थः पश्यत्यचलं विलोमगं यद्वत्। अचलानि भानि तद्वत्समपश्चिमगानि लंकायाम्॥</blockquote>अर्थात् जैसे नाव में बैठा हुआ कोई मनुष्य जब पूर्व दिशा में जाता है तब नदी के तीर की अचल वस्तुओं को विपरीत दिशा में जाता हुआ अनुभव करता है। उसी प्रकार अचल तारा गण दशशिरपुरि लंका (जहाँ सूर्य का प्रथम बार उदय हुआ था अथवा जहाँ से वार - प्रवृत्ति आरम्भ हुई थी) में पश्चिम की ओर जाते प्रतीत होते हैं। अत एव ऐसा प्रतीत होता है कि तारामण्डल तथा ग्रहों के उदय तथा अस्त के लिये वे नित्य ही प्रवह वायु द्वारा चलायमान होकर लंका में ठीक पश्चिम दिशा में भ्रमण कर रहे हैं। इससे स्पष्ट है कि आर्यभट्ट यह मानते थे कि पृथ्वी अपनी धुरी पर घूमती है और तारामण्डल स्थिर है। इस सम्बन्ध में ज्योतिष के अन्य आचार्यों ने आर्यभट्ट की आलोचना भी की है। भास्कर द्वितीय के सिद्धान्त शिरोमणि के भगणाध्याय के प्रथम छः श्लोकों के वासनावार्तिक में नृसिंह ने कहा है- <blockquote>आर्यभट्टास्तुग्रहाः पूर्वस्यां यान्ति। नक्षत्राणि तु स्थिराण्येव भूरेव नाक्षत्रदिनमध्ये पूर्वाभिमुखमेकवारं भ्रमति। तेनैव नक्षत्रग्रहाणामुदयास्तौ पूर्वपश्चिमयोर्घटतः प्रवहानिनकल्पना व्यर्था॥</blockquote>अर्थात् ग्रह पूर्व की ओर चलते हैं। आर्यभट्ट के अनुसार नक्षत्रगण स्थिर ही हैं, पृथ्वी की एक नाक्षत्रदिन में पूर्व की ओर एक बार घूमती है इसी कारण नक्षत्रों तथा ग्रहों का उदय एवं अस्त क्रमशः पूर्व और पश्चिम में होता है। प्रवह वायु की कल्पना व्यर्थ है। | + | आर्यभट्टीयम् नामक ग्रन्थ के गोलपाद में आर्यभट्ट ने भू-भ्रमण सिद्धान्त के बारे में लिखा है कि -<blockquote>अनुलोमगतिर्नौस्थः पश्यत्यचलं विलोमगं यद्वत्। अचलानि भानि तद्वत्समपश्चिमगानि लंकायाम्॥</blockquote>अर्थात् जैसे नाव में बैठा हुआ कोई मनुष्य जब पूर्व दिशा में जाता है तब नदी के तीर की अचल वस्तुओं को विपरीत दिशा में जाता हुआ अनुभव करता है। उसी प्रकार अचल तारा गण दशशिरपुरि लंका (जहाँ सूर्य का प्रथम बार उदय हुआ था अथवा जहाँ से वार - प्रवृत्ति आरम्भ हुई थी) में पश्चिम की ओर जाते प्रतीत होते हैं। अत एव ऐसा प्रतीत होता है कि तारामण्डल तथा ग्रहों के उदय तथा अस्त के लिये वे नित्य ही प्रवह वायु द्वारा चलायमान होकर लंका में ठीक पश्चिम दिशा में भ्रमण कर रहे हैं। इससे स्पष्ट है कि आर्यभट्ट यह मानते थे कि पृथ्वी अपनी धुरी पर घूमती है और तारामण्डल स्थिर है। इस सम्बन्ध में ज्योतिष के अन्य आचार्यों ने आर्यभट्ट की आलोचना भी की है। भास्कर द्वितीय के सिद्धान्त शिरोमणि के भगणाध्याय के प्रथम छः श्लोकों के वासनावार्तिक में नृसिंह ने कहा है- <blockquote>आर्यभट्टास्तुग्रहाः पूर्वस्यां यान्ति। नक्षत्राणि तु स्थिराण्येव भूरेव नाक्षत्रदिनमध्ये पूर्वाभिमुखमेकवारं भ्रमति। तेनैव नक्षत्रग्रहाणामुदयास्तौ पूर्वपश्चिमयोर्घटतः प्रवहानिनकल्पना व्यर्था॥</blockquote>अर्थात् ग्रह पूर्व की ओर चलते हैं। आर्यभट्ट के अनुसार नक्षत्रगण स्थिर ही हैं, पृथ्वी की एक नाक्षत्रदिन में पूर्व की ओर एक बार घूमती है इसी कारण नक्षत्रों तथा ग्रहों का उदय एवं अस्त क्रमशः पूर्व और पश्चिम में होता है। प्रवह वायु की कल्पना व्यर्थ है। कोलब्रुक ने ब्रह्मगुप्त के भाष्यकार पृथूदकस्वामी द्वारा उद्धृत की गई आर्यभट्ट की एक आर्या को उद्धृत किया है- <blockquote>भपंचजरः स्थिरो भूरेवावृत्यावृत्य प्रातिदैवसिकौ। उदयास्तमयौ सम्पादयति नक्षत्रग्रहाणाम्॥</blockquote>यह आर्या कदाचित् पृथुदकस्वामी ने आर्यभट्ट के दूसरे ग्रन्थ से उद्धृत की है जो अब प्राप्य नहीं है। इसमें स्पष्ट रूप से आर्यभट्ट ने कहा है कि तारामण्डल स्थिर है और भू (पृथ्वी) अपनी दैनिक भ्रमण (घूमने) की गति से नक्षत्रों तथा ग्रहों का उदय और अस्त करती है। |
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| == पाश्चात्य मत में भू-भ्रमण == | | == पाश्चात्य मत में भू-भ्रमण == |
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| * जो भी ग्रहों की गति हमें दिखाई देती है, उसके पीछे भी पृथ्वी की गति ही कारण होती है। | | * जो भी ग्रहों की गति हमें दिखाई देती है, उसके पीछे भी पृथ्वी की गति ही कारण होती है। |
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− | == पृथ्वी की गतियाँ == | + | == पृथ्वी की गतियाँं == |
| {{Main|Prthvi_(पृथ्वी)}}पृथ्वी स्थिर न होकर गतिशील है। पृथ्वी अपने स्थान पर घूमने के साथ ही सूर्य का चक्कर भी लगाती है। जिस तरह से लड्डू अपनी कील पर घूमता है और साथ- ही साथ अण्डाकार चक्कर भी लगाता है, ठीक इसी तरह हमारी पृथ्वी भी अंतरिक्ष में अपनी धुरी पर घूमने के साथ-साथ अण्डाकार पथ पर सूर्य की परिक्रमा भी करती है। इस प्रकार पृथ्वी की दो गतियाँ हैं- | | {{Main|Prthvi_(पृथ्वी)}}पृथ्वी स्थिर न होकर गतिशील है। पृथ्वी अपने स्थान पर घूमने के साथ ही सूर्य का चक्कर भी लगाती है। जिस तरह से लड्डू अपनी कील पर घूमता है और साथ- ही साथ अण्डाकार चक्कर भी लगाता है, ठीक इसी तरह हमारी पृथ्वी भी अंतरिक्ष में अपनी धुरी पर घूमने के साथ-साथ अण्डाकार पथ पर सूर्य की परिक्रमा भी करती है। इस प्रकार पृथ्वी की दो गतियाँ हैं- |
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| जिस पृथ्वी पिण्ड पर हम स्थित हैं, वह सूर्य के चारों ओर परिक्रमा लगाती है। सूर्य के चारों ओर पृथ्वी के घूमने का जो मार्ग है उसे क्रान्ति वृत्त कहते है। पृथिवी के मध्य का जो सबसे बडा पूर्वापर वृत्त है उसे नाडीवृत्त, विषुवद्वृत्त, भूमध्यरेखा या आंग्लभाषा में इक्वेटर कहा जाता है। उत्तरीध्रुव से ९० अंश दक्षिण और दक्षिणी ध्रुव से ९० अंश उत्तर की ओर जो कल्पित पूर्वापर वृत्त है, उसी का नाम विषुवद्वृत्त है। यदि पृथ्वी सदा इस विषुवद्वृत्त पर ही घूमती तो दिन-रात सदा बराबर रहते। १२ घण्टे की रात व १२ घण्टे का दिन होता, परन्तु ऐसा है नहीं। पृथ्वी सूर्य से दक्षिण भाग में नीचे की ओर लगभग २४ अंश तक चली जाती है, इसी तरह सूर्य से ऊपर उत्तर की ओर लगभग २४ तक चली जाती है। इससे २४ अंश ऊंचा और २४ अंश नीचा ४८ अंश का एक अण्डाकार वृत्त बन जाता है, उसपर पृथ्वी घूमती है, इसी का नाम क्रान्तिवृत्त है। यही कारण है कि दिन रात बराबर नहीं होते हैं। पृथ्वी घूमते घूमते जब सौर विषुव पर आती है तो इस दिन रात-दिन बराबर होते हैं। ऐसी स्थिति वर्ष में दो बार आती है। अतः कोशकार कहते हैं- <blockquote>समरात्रिन्दिवे काले विषुवद् विषुवं च तत् ' इति।</blockquote>सूर्य के विषुवत् से जो दक्षिण भाग है वह दक्षिण गोल कहलाता है, और उत्तरभाग उत्तर गोल कहलाता है। पृथिवी दक्षिण-गोल से जिस दिन उत्तर गोल में प्रविष्ट होती है। उस दिन दिन-रात बराबर होते हैं। एवं जिस दिन उत्तर से दक्षिण गोल में प्रविष्ट होते हैं, उस दिन भी रात दिन बराबर होते हैं। ६ महिने पृथ्वी उत्तर गोल में रहती है, ६ महिने दक्षिण गोल में रहती है। क्रान्तिवृत्त और विषुवत वृत्त के सम्पात बिन्दुओं को राहु-केतु कहा जाता है। ये दोनों सम्पात १ शारद सम्पात और २ वासन्त सम्पात नाम से प्रसिद्ध हैं। जिस दिन (२१ मार्च को चैत्र महिने में) वासन्त सम्पात होता है और २३ सितम्बर को शारद सम्पात होता है उस दिन दिन-रात बराबर होते हैं। एवं २२ जून को दिन सबसे बडा होता है। एवं २२ दिसम्बर को दिन सबसे छोटा होता है। | | जिस पृथ्वी पिण्ड पर हम स्थित हैं, वह सूर्य के चारों ओर परिक्रमा लगाती है। सूर्य के चारों ओर पृथ्वी के घूमने का जो मार्ग है उसे क्रान्ति वृत्त कहते है। पृथिवी के मध्य का जो सबसे बडा पूर्वापर वृत्त है उसे नाडीवृत्त, विषुवद्वृत्त, भूमध्यरेखा या आंग्लभाषा में इक्वेटर कहा जाता है। उत्तरीध्रुव से ९० अंश दक्षिण और दक्षिणी ध्रुव से ९० अंश उत्तर की ओर जो कल्पित पूर्वापर वृत्त है, उसी का नाम विषुवद्वृत्त है। यदि पृथ्वी सदा इस विषुवद्वृत्त पर ही घूमती तो दिन-रात सदा बराबर रहते। १२ घण्टे की रात व १२ घण्टे का दिन होता, परन्तु ऐसा है नहीं। पृथ्वी सूर्य से दक्षिण भाग में नीचे की ओर लगभग २४ अंश तक चली जाती है, इसी तरह सूर्य से ऊपर उत्तर की ओर लगभग २४ तक चली जाती है। इससे २४ अंश ऊंचा और २४ अंश नीचा ४८ अंश का एक अण्डाकार वृत्त बन जाता है, उसपर पृथ्वी घूमती है, इसी का नाम क्रान्तिवृत्त है। यही कारण है कि दिन रात बराबर नहीं होते हैं। पृथ्वी घूमते घूमते जब सौर विषुव पर आती है तो इस दिन रात-दिन बराबर होते हैं। ऐसी स्थिति वर्ष में दो बार आती है। अतः कोशकार कहते हैं- <blockquote>समरात्रिन्दिवे काले विषुवद् विषुवं च तत् ' इति।</blockquote>सूर्य के विषुवत् से जो दक्षिण भाग है वह दक्षिण गोल कहलाता है, और उत्तरभाग उत्तर गोल कहलाता है। पृथिवी दक्षिण-गोल से जिस दिन उत्तर गोल में प्रविष्ट होती है। उस दिन दिन-रात बराबर होते हैं। एवं जिस दिन उत्तर से दक्षिण गोल में प्रविष्ट होते हैं, उस दिन भी रात दिन बराबर होते हैं। ६ महिने पृथ्वी उत्तर गोल में रहती है, ६ महिने दक्षिण गोल में रहती है। क्रान्तिवृत्त और विषुवत वृत्त के सम्पात बिन्दुओं को राहु-केतु कहा जाता है। ये दोनों सम्पात १ शारद सम्पात और २ वासन्त सम्पात नाम से प्रसिद्ध हैं। जिस दिन (२१ मार्च को चैत्र महिने में) वासन्त सम्पात होता है और २३ सितम्बर को शारद सम्पात होता है उस दिन दिन-रात बराबर होते हैं। एवं २२ जून को दिन सबसे बडा होता है। एवं २२ दिसम्बर को दिन सबसे छोटा होता है। |
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| + | वेद का सिद्धान्त है कि सूर्य बृहती छन्द के बीच में(विषुवत् के बीच में) स्थिर रूप से प्रतिष्ठित रहता है अत एव सूर्यो बृहतीमध्यूढस्तपति कहा जाता है। बृहद्धतस्थौ भुवनेष्वन्तः इत्यादि मन्त्र सूर्य के स्थिरत्व का प्रतिपादन करते हैं। इस सूर्य के चारों ओर चन्द्रमा को साथ लिये हुये पृथ्वी घूमती है, परन्तु पृथ्वी अपने अक्ष पर भी २४ घण्टों में घूम जाती है इसी को स्वाक्षपरिभ्रमण कहते हैं। जैसे गाडी का पहिया अपने स्थान पर घूमता हुआ आगे चलता है उसी प्रकार पृथ्वी अपने स्थान पर घूमती हुई क्रान्ति वृत्त के चारों ओर परिक्रमाअ लगाती है। इसी परिभ्रमण से दिन-रात होते हैं। इस स्वाक्षपरिभ्रमण का नाम दैनन्दिन गति है। कुम्भकार के चाक पर दृष्टि डालिये। उस चाक का बिन्दु-बिन्दु चल रहा है, परन्तु जिसके चारों ओर चाक घूम रहा है, वह कील बिल्कुल स्थिर है। इसी प्रकार पृथ्वी का भी प्रत्येक बिन्दु गतिमान है। पृथ्वी अपनी धुरी पर तो घूमती ही है साथ ही सूर्य के चारों ओर भी परिक्रमा लगाती है, यह परिक्रमा ३६५ दिन में समाप्त होती है। |
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| === पृथ्वी की गतियों का प्रभाव === | | === पृथ्वी की गतियों का प्रभाव === |