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विद्वान लोग होरा शास्त्र को शुभ और अशुभ कर्म फल की प्राप्ति के लिये उपयोग करते हैं। लग्न और राशि के आधे भाग (१५ अंश) की होरा संज्ञा होती है।
 
विद्वान लोग होरा शास्त्र को शुभ और अशुभ कर्म फल की प्राप्ति के लिये उपयोग करते हैं। लग्न और राशि के आधे भाग (१५ अंश) की होरा संज्ञा होती है।
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== होरा स्कन्ध का वर्ण्य विषय ==
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== होरा स्कन्ध का वर्ण्यविषय ==
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होरास्कन्ध में मुख्यतया ग्रह एवं राशियों का स्वरूपवर्णन, ग्रहों की दृष्टि उच्च-नीच, मित्रामित्र, बलाबल आदि का विचार, द्वादशभावों द्वारा विचारणीय विषय एवं उनमें स्थित ग्रहों का शुभाशुभ फलविवेचन, जातक का अरिष्टविचार, वियोनिजन्मविचार, राजयोग, प्रव्रज्यायोग, दरिद्रयोग आदि अनेकविध शुभाशुभ योगविचार, सूर्यकृत योग, चन्द्रकृत योग, नाभसयोग, आयुर्दायविचार, अष्टकवर्गविचार, होरा-सप्तमांशादि दशवर्ग साधन, ग्रहविशोपकादि बलसाधन, विंशोत्तरी आदि दशान्तर्दशादि का साधन, नक्षत्रादिजननफलविचार आदि विषय सम्मिलित हैं। वस्तुतः होराशास्त्र के विभिन्न मानकग्रन्थों में एक समान रूप से उपर्युक्त सभी विषय न होकर न्यूनाधिक रूप में प्राप्त होते हैं। वर्ण्यविषय में न्यूनाधिकत्व होते हुए भी सभी का मुख्य उद्देश्य व्यष्टिगत फलविवेचन अर्थात् प्रत्येक व्यक्ति का जन्मकालीन ग्रहों की स्थिति एवं तदनुसार दशा इत्यादि के आधार पर शुभाशुभ फलकथन करना है। बृहत्संहिता के सांवत्सरसूत्राध्याय में होराशास्त्र के वर्ण्य विषय विशद रूप से वर्णित है।<ref>डॉ० अशोक थपलियाल, होरा स्कन्ध विमर्श, संस्कृत वांग्मय का बृहद् इतिहास, ज्योतिष खण्ड, उत्तर प्रदेश संस्कृत संस्थान (पृ०२८८)।</ref>
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== होरा स्कन्ध के प्रमुख आचार्य एवं ग्रन्थ ==
 
सूर्य, पितामह, वसिष्ठ, अत्रि, पराशर आदि के ज्योतिष-शास्त्रीय वचनों को प्रसंगवशात व्यास जी ने विभिन्न पुराणों में यत्र-तत्र उपस्थापित किया। यही कारण है कि मत्स्यपुराण, अग्निपुराण, ब्रह्मवैवर्तपुराण, स्कन्दपुराण, गरुड पुराण, वायु पुराण, नारद पुराण आदि में फलित ज्योतिष के सिद्धान्त अत्यधिक मात्रा में मिलते हैं। इन पुराणों के अतिरिक्त कुछ संहिता-ग्रन्थ जैसे- नारद संहिता, गर्गसंहिता, लोमशसंहिता, शिवसंहिता आदि भी मिलते हैं, जिनमें ज्योतिष के गंभीर विषयों का वर्णन है।<ref name=":0">श्याम देव मिश्र, [http://egyankosh.ac.in//handle/123456789/80808 ज्‍योतिष शास्‍त्र के अंग],सन् २०२१, इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय, नई दिल्ली, (पृ०७८)।</ref>
 
सूर्य, पितामह, वसिष्ठ, अत्रि, पराशर आदि के ज्योतिष-शास्त्रीय वचनों को प्रसंगवशात व्यास जी ने विभिन्न पुराणों में यत्र-तत्र उपस्थापित किया। यही कारण है कि मत्स्यपुराण, अग्निपुराण, ब्रह्मवैवर्तपुराण, स्कन्दपुराण, गरुड पुराण, वायु पुराण, नारद पुराण आदि में फलित ज्योतिष के सिद्धान्त अत्यधिक मात्रा में मिलते हैं। इन पुराणों के अतिरिक्त कुछ संहिता-ग्रन्थ जैसे- नारद संहिता, गर्गसंहिता, लोमशसंहिता, शिवसंहिता आदि भी मिलते हैं, जिनमें ज्योतिष के गंभीर विषयों का वर्णन है।<ref name=":0">श्याम देव मिश्र, [http://egyankosh.ac.in//handle/123456789/80808 ज्‍योतिष शास्‍त्र के अंग],सन् २०२१, इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय, नई दिल्ली, (पृ०७८)।</ref>
  
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