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== परिचय ==
 
== परिचय ==
 
मन्त्र विज्ञान ध्वनि के विद्युत रूपान्तरण की विशिष्ट विधि व ध्यान साधना है। मन्त्र महान स्पन्दनों तथा शक्तिशाली आध्यात्मिक ऊर्जाओं से परिपूर्ण है जो साधक  के मन, चेतना तथा बुद्धि की शुद्धता के लिये पूर्ण संतुष्टि प्रदान करता है।
 
मन्त्र विज्ञान ध्वनि के विद्युत रूपान्तरण की विशिष्ट विधि व ध्यान साधना है। मन्त्र महान स्पन्दनों तथा शक्तिशाली आध्यात्मिक ऊर्जाओं से परिपूर्ण है जो साधक  के मन, चेतना तथा बुद्धि की शुद्धता के लिये पूर्ण संतुष्टि प्रदान करता है।
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मंत्रों की सकारात्मक ऊर्जा मानव चरित्र को श्रेष्ठ बनाने में सहायक होती थी। मानसिक विद्रूपताओं को मन्त्रोच्चारण दूर हटाता है। व्यक्ति को आत्म विकास से भरने में मंत्रशक्ति अत्यंत महत्वपूर्ण है।
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प्राचीन मान्यता रही है कि मंत्रों के प्रभाव से अग्नि प्रज्ज्वलित हो जाया करती थी। भारतीय संगीत में दीपक राग के गायन से भी अग्नि उत्पन्न करने का उल्लेख भिन्न-भिन्न रूपों में मिलता है। चिकित्सकीय परिणामों के सन्दर्भ यदि अग्नि उत्पन्न करने का प्रयोग देखा जाए तो शारीरिक तापक्रम में वृद्धि से अभिप्राय निकाला जा सकता है।
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मंत्रों को प्रभावशाली बनाने के लिये केवल वाणी ही पर्याप्त नहीं है, उसके साथ हृदय-अन्तःकरण की शक्तिजुडनी चाहिये जो तप साधना द्वारा जागृत की जाती है।
    
== परिभाषा ==
 
== परिभाषा ==
 
मननात् त्रायतेति मंत्रः।
 
मननात् त्रायतेति मंत्रः।
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मंत्र शब्द मन् एवं त्र के संधि योग से बना हुआ है। यहाँ त्र का अर्थ चिंतन या विचारों की मुक्ति से है। अतः मंत्र का पर्याय हुआ मन के विचारों से मुक्ति। जो शक्ति मन को बन्धन से मुक्त कर दे वही मन्त्र योग है।
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मंत्र शब्द मन् एवं त्र के संधि योग से बना हुआ है। यहाँ त्र का अर्थ चिंतन या विचारों की मुक्ति से है। अतः मंत्र का पर्याय हुआ मन के विचारों से मुक्ति। जो शक्ति मन को बन्धन से मुक्त कर दे वही मन्त्र योग है। मानसिक एवं शारीरिक एकात्म ही मन्त्र के प्रभाव का आधार है। मंत्रों का उच्चारण एवं उसका जाप शरीर, मनस और प्रकृति पर सकारात्मक प्रभाव डालता है।<ref>अवधेश प्रताप सिंह तोमर जी, संगीत चिकित्सा पद्धति के क्षेत्र में हुई और हो रही शोध विषयक एक अध्यनात्मक दृष्टि, (शोध गंगा)सन् २०१६, डॉ० हरिसिंह गौर विश्वविद्यालय, अध्याय- ०१, (पृ०११)।</ref>
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यास्क मुनि का कथन है। अर्थात् मंत्र वह वर्ण समूह है जिसका बार-बार मनन किया जाय और सोद्देश्यक हो। अर्थात् जिससे मनोवांछित फल की प्राप्ति हो
    
== मन्त्र योग ==
 
== मन्त्र योग ==
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== मन्त्र योग के अंग ==
 
== मन्त्र योग के अंग ==
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'''ऋषि-''' जिन साधक ने सर्वप्रथम शिवजी के मुख से मन्त्र सुनकर विधिवत् उसे सिद्ध किया था, वह उस मन्त्र के ऋषि कहलाते हैं। उन ऋषि को उस मन्त्र का आदि गुरू मानकर श्रद्धा सहित उनका मस्तिष्क में न्यास किया जाता है।
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'''देवता-'''  जीव मात्र के समस्त क्रिया कलापों को प्रेरित, संचालित एवं नियन्त्रित करने वाली प्राणशक्ति को देवता कहते हैं। यह शक्ति व्यक्ति के हृदय में स्थित होती है। अतः देवता का हृदय में न्यास करते हैं। प्रत्येक मन्त्र का एक सुनिश्चित देवता है। अतः मन्त्र आराधना से पूर्व और सामापन के समय देव विशेष का पूजन-अर्चन आवश्यक है। ये देवता सात प्रकार के होते हैं- मन देवता, आत्मा देवता, इष्ट देवता, कुल देवता, गृह देवता, ग्राम देवता और लोक देवता।
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'''छन्द-''' मन्त्र को सर्वतोभावेन आच्छादित करने की विधि को छन्द कहते हैं। अक्षर या पदों से छ्जन्द बनता है तथा इनका उच्चारण मुख से होता है। अतः छन्द का मुख न्यास किया जाता है।
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'''बीज-''' मन्त्र शक्ति को उद्भावित करने वाला तत्व बीज कहलाता है। अतः बीज का सृजनांग में न्यास किया जाता है।
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'''शक्ति-''' जिसकी सहायता से बीज मन्त्र बन जाता है, वह तत्व शक्ति कहलाता है। उसका पादस्थान में न्यास करते हैं।
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'''विनियोग-''' गौतमीय तन्त्र के अनुसार ऋषि एवं छन्द का ज्ञान न होने पर मन्त्र का फल नहीं मिलता तथा उसका विनियोग न करके मात्र जप करने से मन्त्र दुर्बल हो जत है। मन्त्र को फल की दिशा का निर्देश देना विनियोग कहलाता है।
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'''न्यास-''' विना न्यास के मन्त्र जप करने से जप निष्फल और विघ्नदायक कहा गया है। मन्त्र साधना में सफलता का मूल आधार चित्त की एकाग्रता है। चित्त को एकाग्र करने के लिये मन्त्रांगों के साथ मन्त्र का जाप करना विहित है।
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'''आसन-'''
    
== जप ==
 
== जप ==
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== मंत्र जाप की विधि ==
 
== मंत्र जाप की विधि ==
 
अग्नि पुराण के अनुसार-<blockquote>उच्चैर्जपाद्विशिष्टः स्यादुपांशुर्दशभिर्गुणैः। जिह्वाजपे शतगुणः सहस्रो मानसः स्मृतः॥( अग्नि पु० २९३/९८)</blockquote>ऊँचे स्वर मेंकिये जाने वाले जाप की अपेक्षा मन्त्र का मूक जप दसगुणा विशिष्ट है। जिह्वा जप सौ गुणा श्रेष्ठ है और मानस जप हजार गुणा उत्तम है। अग्नि पुराण में वर्णन है कि मंत्र का आरम्भ पूर्वाभिमुख अथवा अधोमुख होकर करना चाहिये। समस्त मन्त्रों के प्रारम्भ में प्रणव का प्रयोग करना चाहिये। साधक के लिये देवालय, नदी व सरोवर मन्त्र साधन के लिये उपयुक्त स्थान माने गये हैं।
 
अग्नि पुराण के अनुसार-<blockquote>उच्चैर्जपाद्विशिष्टः स्यादुपांशुर्दशभिर्गुणैः। जिह्वाजपे शतगुणः सहस्रो मानसः स्मृतः॥( अग्नि पु० २९३/९८)</blockquote>ऊँचे स्वर मेंकिये जाने वाले जाप की अपेक्षा मन्त्र का मूक जप दसगुणा विशिष्ट है। जिह्वा जप सौ गुणा श्रेष्ठ है और मानस जप हजार गुणा उत्तम है। अग्नि पुराण में वर्णन है कि मंत्र का आरम्भ पूर्वाभिमुख अथवा अधोमुख होकर करना चाहिये। समस्त मन्त्रों के प्रारम्भ में प्रणव का प्रयोग करना चाहिये। साधक के लिये देवालय, नदी व सरोवर मन्त्र साधन के लिये उपयुक्त स्थान माने गये हैं।
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ऋषि देवता छन्द बीज शक्ति विनियोग न्यास आसन
      
== उद्धरण ==
 
== उद्धरण ==
 
<references />
 
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