− | सनातन अर्थात् अनादि,शाश्वत, सत्य,नित्य,भ्रम संशय रहित धर्म का वह स्वरूप जो परंपरा से चला आता हुआ है ।धर्म शब्द का अर्थ ही है कि जो धारण करे अथवा जिसके द्वारा यह विश्व धारण किया जा सके, क्योंकि धर्म "धृञ धारणे" धातु से बना है जिसका अर्थ है -<blockquote>धारयतीति धर्मः अथवा येनैतद्धार्यते स धर्मः ।<ref>सनातन धर्म का वैज्ञानिक रहस्य,श्री बाबूलाल गुप्त,१९६६(पृ०२२)।</ref></blockquote>धर्म वास्तव में संसार की स्थिति का मूल है, धर्म मूल पर ही सकल संसार वृक्ष स्थित है। धर्म से पाप नष्ट होते है तथा अन्य लोग धर्मात्मा पुरुष का अनुसरण करके कल्याण को प्राप्त होते हैं ।<blockquote>न जातु कामान्न भयान्न लोभाद्धर्मं त्यजेज्जीवितस्यापि हेतोः। नित्यो धर्मः सुख दुःखे त्वनित्ये, जीवो नित्यो हेतुरस्य त्वनित्यः॥<ref>महाभारत,स्वर्गारोहणपर्व,(अ०५ श् ० ७६)।</ref>(महा०स्वर्गा० ५/76)</blockquote>अर्थात् कामना से, भय से. लोभ से अथवा जीवन के लिये भी धर्म का त्याग न करे । धर्म ही नित्य है, सुख दु:ख तो अनित्य हैं। इसी प्रकार जीवात्मा नित्य हैं और उसके बन्धन का हेतु अनित्य है । अतः अनित्य के लिये नित्य का परित्याग कदापि न करे । इसके अतिरिक्त जो व्यक्ति धर्म का पालन करता है तो धर्म ही उसकी रक्षा करता है तथा नष्ट हुआ धर्म ही उसे मारता है अतः धर्म का पालन करना चाहिये । नारायणोपनिषद् में कहा है-<blockquote>धर्मो विश्वस्य जगतः प्रतिष्ठा, लोके धर्मिष्ठं प्रजा उपसर्पन्ति, धर्मेण पापमपनुदति,धर्मे सर्वं प्रतिष्ठितं,तस्माद्धर्म परमं वदन्ति।<ref>मन्त्रपुष्पम् स्वमीदेवरूपानन्दः,रामकृष्ण मठ,खार,मुम्बई(नारायणोपनिषद ७९)पृ० ६१।</ref></blockquote>आचार को प्रथम धर्म कहा है-<blockquote>आचारः प्रथमो धर्मः श्रुत्युक्तः स्मार्त एव च।तस्मादस्मिन्समायुक्तो नित्यं स्यादात्मनो द्विजः ॥</blockquote><blockquote>आचाराल्लभते चायुराचाराल्लभते प्रजाः ।आचारादन्नमक्षय्यमाचारो हन्ति पातकम् ॥<ref>श्रीमद्देवीभागवत,उत्तरखण्ड,गीताप्रेस गोरखपुर,(एकादश स्कन्ध अ० 1श्० 9/10 पृ० 654)।</ref></blockquote>'''अनु-''' आचार ही प्रथम (मुख्य) धर्म है-ऐसा श्रुतियों तथा स्मृतियोंमें कहा गया है, अतएव द्विजको चाहिये कि वह अपने कल्याणके लिये इस सदाचारके पालनमें नित्य संलग्न रहे।मनुष्य आचारसे आयु प्राप्त करता है, आचारसे सत्सन्तानें प्राप्त करता है ,आचारसे अक्षय अन्न प्राप्त करता है तथा यह आचार पापको नष्ट कर देता है॥ | + | सनातन अर्थात् अनादि,शाश्वत, सत्य,नित्य,भ्रम संशय रहित धर्म का वह स्वरूप जो परंपरा से चला आता हुआ है ।धर्म शब्द का अर्थ ही है कि जो धारण करे अथवा जिसके द्वारा यह विश्व धारण किया जा सके, क्योंकि धर्म "धृञ धारणे" धातु से बना है जिसका अर्थ है -<blockquote>धारयतीति धर्मः अथवा येनैतद्धार्यते स धर्मः ।<ref>सनातन धर्म का वैज्ञानिक रहस्य,श्री बाबूलाल गुप्त,१९६६(पृ०२२)।</ref></blockquote>धर्म वास्तव में संसार की स्थिति का मूल है, धर्म मूल पर ही सकल संसार वृक्ष स्थित है। धर्म से पाप नष्ट होते है तथा अन्य लोग धर्मात्मा पुरुष का अनुसरण करके कल्याण को प्राप्त होते हैं ।<blockquote>न जातु कामान्न भयान्न लोभाद्धर्मं त्यजेज्जीवितस्यापि हेतोः। नित्यो धर्मः सुख दुःखे त्वनित्ये, जीवो नित्यो हेतुरस्य त्वनित्यः॥<ref>महाभारत,स्वर्गारोहणपर्व,(अ०५ श् ० ७६)।</ref>(महा०स्वर्गा० ५/76)</blockquote>अर्थात् कामना से, भय से. लोभ से अथवा जीवन के लिये भी धर्म का त्याग न करे । धर्म ही नित्य है, सुख दु:ख तो अनित्य हैं। इसी प्रकार जीवात्मा नित्य हैं और उसके बन्धन का हेतु अनित्य है । अतः अनित्य के लिये नित्य का परित्याग कदापि न करे । इसके अतिरिक्त जो व्यक्ति धर्म का पालन करता है तो धर्म ही उसकी रक्षा करता है तथा नष्ट हुआ धर्म ही उसे मारता है अतः धर्म का पालन करना चाहिये । नारायणोपनिषद् में कहा है-<blockquote>धर्मो विश्वस्य जगतः प्रतिष्ठा, लोके धर्मिष्ठं प्रजा उपसर्पन्ति, धर्मेण पापमपनुदति,धर्मे सर्वं प्रतिष्ठितं,तस्माद्धर्म परमं वदन्ति।<ref>मन्त्रपुष्पम् स्वमीदेवरूपानन्दः,रामकृष्ण मठ,खार,मुम्बई(नारायणोपनिषद ७९)पृ० ६१।</ref></blockquote>आचार को प्रथम धर्म कहा है-<blockquote>आचारः प्रथमो धर्मः श्रुत्युक्तः स्मार्त एव च।तस्मादस्मिन्समायुक्तो नित्यं स्यादात्मनो द्विजः ॥</blockquote><blockquote>आचाराल्लभते चायुराचाराल्लभते प्रजाः। आचारादन्नमक्षय्यमाचारो हन्ति पातकम् ॥<ref>श्रीमद्देवीभागवत,उत्तरखण्ड,गीताप्रेस गोरखपुर,(एकादश स्कन्ध अ० 1श्० 9/10 पृ० 654)।</ref></blockquote>'''अनु-''' आचार ही प्रथम (मुख्य) धर्म है-ऐसा श्रुतियों तथा स्मृतियोंमें कहा गया है, अतएव द्विजको चाहिये कि वह अपने कल्याणके लिये इस सदाचारके पालनमें नित्य संलग्न रहे।मनुष्य आचारसे आयु प्राप्त करता है, आचारसे सत्सन्तानें प्राप्त करता है ,आचारसे अक्षय अन्न प्राप्त करता है तथा यह आचार पापको नष्ट कर देता है॥ |
− | भारतीय सनातन धर्म में नैतिक चिन्तन्त के अंतर्गत वेद, ब्राह्मणग्रन्थ, उपनिषद् ,धर्मसूत्र,स्मृतिग्रन्थ, रामायण, महाभारत गीता आदि ग्रन्थों में नैतिक सद्गुणों तथा कर्त्तव्यों का वर्णन किया गया है। उन कर्त्तव्यों के उल्लंघन को पाप तथा उनके अनुरूप आचरण करने को पुण्य कहा गया है।
| + | शास्त्रों में अपराध निवारण हेतु अथवा अधर्म उन्मूलन के लिये तथा धर्म की स्थापना के लिये जो उपाय उन्हैं कहीं दण्ड तथा कहीं शाप शब्द के द्वारा सम्बोधित किया जाता है। प्राचीन भारतवर्ष में दण्डव्यवस्था के प्रमुखतया दो रूप दृष्टिगोचर होते हैं- |