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| + | वैदिक वाङ्गमय में वास्तु का सामान्य अर्थ गृह या भवन है। विशेष अर्थ-गृह निर्माण हेतु उपयुक्त भूखण्ड। वास्तुशास्त्र का अभिप्राय भवन निर्माण संबंधी नियमों एवं सिद्धान्तों के प्रतिपादक शास्त्र से है। वास्तुशास्त्र का मुख्य प्रतिपाद्य विषय आवासीय, व्यावसायिक एवं धार्मिक भवनों आदि के लिये भूखण्ड चयन एवं निर्माण आदि के सिद्धान्तों, उपायों एवं साधनों की व्याख्या करना है। इन सिद्धान्तों एवं नियमों के पीछे पंचतत्त्वों एवं प्राकृतिक शक्तियों का अद्भुत सामंजस्य छिपा है। वास्तुशास्त्र में गृहनिर्माण की परम्परा अत्यन्त सुनियोजित विधि से पाण्डुलिपियों में संरक्षित है, जिसके अध्ययन से ज्ञात होता है कि यह समस्त ज्ञानधारा एकाएक नहीं उत्पन्न हुई परन्तु कई पीढियों के अनुसंधान एवं दैवीय शक्तियों से सम्पन्न आचार्यों के परिश्रम के फलस्वरूप वर्तमान कालमें हमें प्राप्त हुई है। वास्तुशास्त्रीय ग्रन्थों के अध्ययन से ज्ञात होता है कि वास्तु शब्द व्यापक अर्थ को समाहित किये हुये है। यह शब्द मात्र गृह के अर्थ में नहीं परन्तु गृह से संबंध रखने वाले धार्मिक, व्यवसायिक तथा समस्त भवनों के अर्थ में प्रयुक्त है। वास्तुशास्त्र के इस स्वरूप का वर्णन अनेक आचार्यों ने समय-समय पर किया। वास्तुशास्त्र के अध्ययन से भारतीय संस्कृति की वैज्ञानिक एवं समृद्ध परम्परा का ज्ञान होता है। वास्तुशास्त्रीय परम्परामें देश-काल तथा परिस्थिति के आधार पर कालक्रमानुसार परिवर्तन भी होता रहा है, परन्तु इस परिवर्तन में वास्तुशास्त्र के मूलभूत सिद्धान्तों सिद्धान्तों का पूर्णतः संरक्षण किया गया, जिससे आज भी हमें वास्तुशास्त्र का वही शुद्ध स्वरूप प्राप्त होता है। |
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− | वैदिक वांगमय में वास्तु का सामान्य अर्थ गृह या भवन है। विशेष अर्थ-गृह निर्माण हेतु उपयुक्त भूखण्ड।
| + | == परिचय == |
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− | == परिचय == | + | == वास्तुशास्त्र का स्वरूप == |
| + | वास्तुशास्त्र के स्वरूप को समझने के लिये वास्तुपुरुष के उद्भव की कथा जानना चाहिये। वास्तुपुरुष की उत्पत्ति के विषय में अनेक प्रसंग प्रचलित हैं। बृहत्संहिता के वास्तुविद्या अध्याय में वराहमिहिर जी ने वर्णन किया है कि-<blockquote>किमपि किल भूतमभवद्रुन्धनं रोदसी शरीरेण। तदमरगणेन सहसा विनिगृह्याधेमुखं न्यस्तम् ॥ यत्रा च येन गृहीतं विबुधेनाधिष्ठितः स तत्रैव। तदमरमयं विधता वास्तुनरं कल्पयामास॥(बृह०सं०२-३)</blockquote> |
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| + | == वास्तुशास्त्र का महत्व == |
| + | इस प्रकार वास्तुशास्त्र के महत्व का जितना विमर्श किया जयेगा, उतना ही महत्वपूर्ण तथ्य सामने आता जायेग। शास्त्रों में कहा गया है कि-<blockquote>कोटिघ्नं तृणजे पुण्यं मृण्मये दशसंगुणम्। ऐष्टिके शतकोटिघ्न शैलेत्वनन्तं फलं भवेत् ॥(वास्तुरत्नाकर)</blockquote>भावार्थ यह है कि खर-पतवार युक्त गृह-निर्माण करने पर लाख गुना पुण्य, मिट्टी से गृह-निर्माण |
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| == परिभाषा == | | == परिभाषा == |
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| '''वास्तु के पर्यायवाची शब्द-''' आय, गृहभूः, गृहार्हभूमिः, वास्तु, वेश्मभूमिः और सदनभूमिः आदि शास्त्रों में वास्तु के पर्यायवाचक शब्द कहे गये हैं।<ref>डॉ० सुरकान्त झा, ज्योतिर्विज्ञानशब्दकोषः, सन् २००९, वाराणसीः चौखम्बा कृष्णदास अकादमी, मुहूर्त्तादिसर्ग, (पृ०१३७)।</ref> | | '''वास्तु के पर्यायवाची शब्द-''' आय, गृहभूः, गृहार्हभूमिः, वास्तु, वेश्मभूमिः और सदनभूमिः आदि शास्त्रों में वास्तु के पर्यायवाचक शब्द कहे गये हैं।<ref>डॉ० सुरकान्त झा, ज्योतिर्विज्ञानशब्दकोषः, सन् २००९, वाराणसीः चौखम्बा कृष्णदास अकादमी, मुहूर्त्तादिसर्ग, (पृ०१३७)।</ref> |
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| + | इसी प्रकार शब्दरत्नावली में वास्तु के लिये वाटिका एवं गृहपोतक शब्द प्रयुक्त हुये हैं। |
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| == वास्तुशास्त्र के विभाग == | | == वास्तुशास्त्र के विभाग == |
| वास्तुशास्त्रमें काल अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है और काल का ज्ञान कालविधानशास्त्र ज्योतिष के अधीन है अतः काल के ज्ञान के लिये ज्योतिषशास्त्र का ज्ञान होना आवश्यक है। वास्तुशास्त्र के अनेक आचार्यों ने ज्योतिष को वास्तुशास्त्र का अंग मानते हुये ज्योतिषशास्त्र का ज्ञान वास्तुशास्त्र के अध्येताओं के लिये अनिवार्य कहा है। समरांगणसूत्रधारकार ने वास्तुशास्त्र के आठ अंगों का वर्णन करते हुये अष्टांगवास्तुशास्त्र का विवेचन किया है, और इन आठ अंगों के ज्ञान के विना वास्तुशास्त्र का सम्यक् प्रकार से ज्ञान होना संभव नहीं है। वास्तुशास्त्र के आठ अंग इस प्रकार हैं-<blockquote>सामुद्रं गणितं चैव ज्योतिषं छन्द एव च। सिराज्ञानं तथा शिल्पं यन्त्रकर्म विधिस्तथा॥एतान्यंगानि जानीयाद् वास्तुशास्त्रस्य बुद्धिमान् । शास्त्रानुसारेणाभ्युद्य लक्षणानि च लक्षयेत् ॥(समरांगण सूत्र)</blockquote>अर्थ- सामुद्रिक, गणित, ज्योतिष, छन्द, शिराज्ञान, शिल्प, यन्त्रकर्म और विधि ये वास्तुशास्त्र के आठ अंग हैं। | | वास्तुशास्त्रमें काल अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है और काल का ज्ञान कालविधानशास्त्र ज्योतिष के अधीन है अतः काल के ज्ञान के लिये ज्योतिषशास्त्र का ज्ञान होना आवश्यक है। वास्तुशास्त्र के अनेक आचार्यों ने ज्योतिष को वास्तुशास्त्र का अंग मानते हुये ज्योतिषशास्त्र का ज्ञान वास्तुशास्त्र के अध्येताओं के लिये अनिवार्य कहा है। समरांगणसूत्रधारकार ने वास्तुशास्त्र के आठ अंगों का वर्णन करते हुये अष्टांगवास्तुशास्त्र का विवेचन किया है, और इन आठ अंगों के ज्ञान के विना वास्तुशास्त्र का सम्यक् प्रकार से ज्ञान होना संभव नहीं है। वास्तुशास्त्र के आठ अंग इस प्रकार हैं-<blockquote>सामुद्रं गणितं चैव ज्योतिषं छन्द एव च। सिराज्ञानं तथा शिल्पं यन्त्रकर्म विधिस्तथा॥एतान्यंगानि जानीयाद् वास्तुशास्त्रस्य बुद्धिमान् । शास्त्रानुसारेणाभ्युद्य लक्षणानि च लक्षयेत् ॥(समरांगण सूत्र)</blockquote>अर्थ- सामुद्रिक, गणित, ज्योतिष, छन्द, शिराज्ञान, शिल्प, यन्त्रकर्म और विधि ये वास्तुशास्त्र के आठ अंग हैं। |
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− | == वास्तुशास्त्र के प्रवर्तक एवं आचार्य == | + | === वास्तुशास्त्र के विषय विभाग === |
− | वास्तुशास्त्र में गृहनिर्माण की परम्परा अत्यन्त सुनियोजित विधि से पाण्डुलिपियों में संरक्षित है, जिसके अध्ययन से ज्ञात होता है कि यह समस्त ज्ञानधारा एकाएक नहीं उत्पन्न हुई परन्तु कई पीढियों के अनुसंधान एवं दैवीय शक्तियों से सम्पन्न आचार्यों के परिश्रम के फलस्वरूप वर्तमान कालमें हमें प्राप्त हुई है। वास्तुशास्त्रीय ग्रन्थों के अध्ययन से ज्ञात होता है कि वास्तु शब्द व्यापक अर्थ को समाहित किये हुये है। यह शब्द मात्र गृह के अर्थ में नहीं परन्तु गृह से संबंध रखने वाले धार्मिक, व्यवसायिक तथा समस्त भवनों के अर्थ में प्रयुक्त है
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− | * वास्तुशास्त्र का उद्भव कैसे हुआ? | + | * गृह के आरम्भ में वास्तुचिन्तन |
− | * वास्तुशास्त्र के प्रवर्तक आचार्य कौन थे? | + | * स्थान का शुभत्व निर्णय |
− | * वास्तुशास्त्र की आचार्य परम्परा क्या है? | + | * काकिणी विचार |
− | * वास्तुशास्त्र के मुख्य ग्रन्थ कौन से हैं? | + | * गृहद्वार निर्णय |
− | * वास्तुशास्त्र के इस स्वरूप का वर्णन अनेक आचार्यों ने समय-समय पर किया। | + | * ग्रामनिवासे निषिद्धस्थानानि |
− | * वास्तुशास्त्र के अध्ययन से भारतीय संस्कृति की वैज्ञानिक एवं समृद्ध परम्परा का ज्ञान होता है। | + | * इष्टनक्षत्र का निर्णय |
| + | * गृहपिण्ड साधन |
| + | * आयादि विचार |
| + | * ग्रहबल, काकशुद्धि, सम्मुख-पृष्ठफल |
| + | * व्ययांश, शालाध्रुवांक, ध्रुवादि गृहाणि |
| + | * आयादिनवक |
| + | * वृषवास्तु चक्र |
| + | * गृहारम्भे सूर्यचन्द्रनक्षादि विचारः |
| + | * गृहारम्भे पञ्चांग शुद्धि |
| + | * राहुमुख विचारः कूप निर्वाणं च |
| + | * गृहरचना-फलविचरणा |
| + | * दिक्कोणेषु उपकरण गृहानि |
| + | * गृहारम्भ लग्नात् ग्रहस्थितिफलम् । |
| + | * गृहारम्भे नक्षत्र, वार फलानि |
| + | * सफलं द्वारचक्रम् |
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− | वास्तुशास्त्रीय परम्परामें देश-काल तथा परिस्थिति के आधार पर कालक्रमानुसार परिवर्तन भी होता रहा है, परन्तु इस परिवर्तन में वास्तुशास्त्र के मूलभूत सिद्धान्तों सिद्धान्तों का पूर्णतः संरक्षण किया गया, जिससे आज भी हमें वास्तुशास्त्र का वही शुद्ध स्वरूप प्राप्त होता है।
| + | === वास्तुशास्त्रमें देवताओं की भावना === |
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| + | == वास्तुशास्त्र के प्रवर्तक एवं आचार्य == |
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| === वास्तुशास्त्र के प्रवर्तक === | | === वास्तुशास्त्र के प्रवर्तक === |
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| सत्योक्तं शौनकं तन्त्रं वसिष्ठं ज्ञान-सागरम् । स्वायम्भुवं कापिलञ्च तार्क्ष्य-नारायणीयकम् ॥ | | सत्योक्तं शौनकं तन्त्रं वसिष्ठं ज्ञान-सागरम् । स्वायम्भुवं कापिलञ्च तार्क्ष्य-नारायणीयकम् ॥ |
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− | आत्रेयं नारसिंहाख्यमानन्दाख्यं तथारुणकम् । बौधायनं तथार्षं तु विश्वोक्तं तस्य सारतः॥(अग्नि०पु०)<ref>[https://sa.wikisource.org/wiki/%E0%A4%85%E0%A4%97%E0%A5%8D%E0%A4%A8%E0%A4%BF%E0%A4%AA%E0%A5%81%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%A3%E0%A4%AE%E0%A5%8D/%E0%A4%85%E0%A4%A7%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%AF%E0%A4%83_%E0%A5%A9%E0%A5%AF अग्निपुराण], अध्यायः ३९, श्लोक २/५।</ref></blockquote>विश्वकर्मा प्रकाश में भी वास्तुके प्रवर्तक आचार्यों के बारे में संक्षिप्त उल्लेख है-<blockquote>इति प्रोक्तं वास्तुशास्त्रं पूर्वंगर्गाय धीमते। गर्गात्पराशरः प्राप्तस्तस्मात्प्राप्तो वृहद्रथः॥वृहद्रथाद्विश्वकर्मा प्राप्तवान् वास्तुशास्त्रकम् ।स एव विश्वकर्मा जगतो हितायाकथयत्पुनः॥(विश्व०प्रकाश)</blockquote>इस प्रकार विश्वकर्माप्रकाश में उल्लिखित नामों के अनुसार गर्ग, पराशर, वृहद्रथ तथा विश्वकर्मा ये वास्तुशास्त्र के प्रवर्तक आचार्य हुये हैं। उपरोक्त विवरण से प्रतीत होता है कि मत्स्यपुराणोक्त वास्तुप्रवर्तकों की नामावली की अपेक्षा अग्नि पुराण की सूची काल्पनिक है जिसमें पुनरुक्ति दोष है। इन सूचियों के आचार्यों में कुछ ज्ञान-विज्ञान के देवता, कुछ वैदिक या पौराणिक ऋषि, कुछ असुर और कुछ सामान्य शिल्पज्ञ हैं।<ref>बलदेव उपाध्याय, संस्कृत वांग्मय का बृहद् इतिहास, प्रो०देवी प्रसाद त्रिपाठी, वास्तुविद्या, सन् २०१२, लखनऊःउत्तर प्रदेश संस्कृत संस्थान, (पृ०७६)।</ref> | + | आत्रेयं नारसिंहाख्यमानन्दाख्यं तथारुणकम् । बौधायनं तथार्षं तु विश्वोक्तं तस्य सारतः॥(अग्नि०पु०)<ref>[https://sa.wikisource.org/wiki/%E0%A4%85%E0%A4%97%E0%A5%8D%E0%A4%A8%E0%A4%BF%E0%A4%AA%E0%A5%81%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%A3%E0%A4%AE%E0%A5%8D/%E0%A4%85%E0%A4%A7%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%AF%E0%A4%83_%E0%A5%A9%E0%A5%AF अग्निपुराण], अध्यायः ३९, श्लोक २/५।</ref></blockquote>विश्वकर्मा प्रकाश में भी वास्तुके प्रवर्तक आचार्यों के बारे में संक्षिप्त उल्लेख है-<blockquote>इति प्रोक्तं वास्तुशास्त्रं पूर्वंगर्गाय धीमते। गर्गात्पराशरः प्राप्तस्तस्मात्प्राप्तो वृहद्रथः॥ |
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− | == वास्तुशास्त्र का महत्व == | + | वृहद्रथाद्विश्वकर्मा प्राप्तवान् वास्तुशास्त्रकम् ।स एव विश्वकर्मा जगतो हितायाकथयत्पुनः॥(विश्व०प्रकाश)</blockquote>इस प्रकार विश्वकर्माप्रकाश में उल्लिखित नामों के अनुसार गर्ग, पराशर, वृहद्रथ तथा विश्वकर्मा ये वास्तुशास्त्र के प्रवर्तक आचार्य हुये हैं। उपरोक्त विवरण से प्रतीत होता है कि मत्स्यपुराणोक्त वास्तुप्रवर्तकों की नामावली की अपेक्षा अग्नि पुराण की सूची काल्पनिक है जिसमें पुनरुक्ति दोष है। इन सूचियों के आचार्यों में कुछ ज्ञान-विज्ञान के देवता, कुछ वैदिक या पौराणिक ऋषि, कुछ असुर और कुछ सामान्य शिल्पज्ञ हैं।<ref>बलदेव उपाध्याय, संस्कृत वांग्मय का बृहद् इतिहास, प्रो०देवी प्रसाद त्रिपाठी, वास्तुविद्या, सन् २०१२, लखनऊःउत्तर प्रदेश संस्कृत संस्थान, (पृ०७६)।</ref> |
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| + | इसी प्रकार से रामायणकालमें वास्तुविद् के रूप मेंआचार्य नल और नील का वर्णन प्राप्त होता है। इन्होंने ही समुद्र पर सेतु का निर्माण किया था। एवं महाभारत कालमें लाक्षागृह का निर्माण करने वाले आचार्य पुरोचन प्रमुख वास्तुविद् थे। |
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| + | == वास्तुशास्त्र का प्रयोजन एवं उपयोगिता == |
| + | भारतीय मनीषियों ने सदैव प्रकृति रूपी माँ की गोद में ही जीवन व्यतीत करने का आदेश और उपदेश अपने ग्रन्थों में दिया है। वास्तुशास्त्र भी मनुष्य को यही उपदेश देता है। घर मनुष्य की मूलभूत आवश्यकताओं में से एक है। प्रत्येक प्राणी अपने लिये घर की व्यवस्था करता है। पक्षी भी अपने लिये घोंसले बनाते हैं। वस्तुतः निवासस्थान ही सुख प्राप्ति और आत्मरक्षा का उत्तम साधन है। जैसा कि कहा गया है-<blockquote>स्त्रीपुत्रादिकभोगसौख्यजननं धर्मार्थकामप्रदं। जन्तुनामयनं सुखास्पदमिदं शीताम्बुघर्मापहम्॥ |
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| + | वापी देव गृहादिपुण्यमखिलं गेहात्समुत्पद्यते। गेहं पूर्वमुशन्ति तेन विबुधाः श्री विश्वकर्मादयः॥(००००)</blockquote>अर्थ- स्त्री, पुत्र आदि के भोग का सुख धर्म, अर्थ और काम की प्राप्ति, कुएँ, जलाशय और देवालय आदि के निर्माण का पुण्य, घर में ही प्राप्त होता है। |
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| + | इस प्रकार से घर सभी प्रकार के सुखों का साधन है। भारतीय संस्कृति में घर केवल ईंट-पत्थर और लकडी से निर्मित भवनमात्र ही नहीं है। किन्तु घर की प्रत्येक दिशा में, कोने में, प्रत्येक भाग में एक देवता का निवास है। जो कि घर को भी एक मंदिर की भाँति पूज्य बना देता है। जिसमें निवास करने वाला मनुष्य भौतिक उन्नति के साथ-साथ शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक उन्नति के पथ पर निरन्तर अग्रसर होते हुये धर्म, अर्थ और काम का उपभोग करते हुये अन्ततोगत्वा मोक्ष की प्राप्ति कर पुरुषार्थ चतुष्टय का सधक बन जाता है। ऐसे ही घर का निर्माण करना भारतीय वास्तुशास्त्र का वास्तविक प्रयोजन है। |
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| == वास्तुशास्त्र एवं वृक्ष विचार == | | == वास्तुशास्त्र एवं वृक्ष विचार == |
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| === गृहवाटिका में त्याज्य वृक्ष === | | === गृहवाटिका में त्याज्य वृक्ष === |
| + | ऐसे वृक्ष जिन्हैं भवन के आस-पास लगाने से भवन-स्वामी को अनेक प्रकार के कष्ट हो सकते हैं, वे वृक्ष गृहवाटिका में त्याज्य रखने चाहिये। वराहमिहिर ने इस विषय में कहा है-<blockquote>आसन्नाः कण्टकिनो रिपुभयदाः क्षीरिणोऽर्थनाशाय।फलिनः प्रजाक्षयकराः दारुण्यपि वर्जयेदेषाम्॥ |
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| + | छिद्याद्यदि न तरुंस्ताँस्तदन्तरे पूजितान्वपेदन्यान्।पुन्नागाशोकारिष्टवकुलपनसान् शमीशालौ॥</blockquote>भाषार्थ- भवन के पास काँटेदार वृक्ष जैसे बेर, बबूल, कटारि आदि नहीं लगाने चाहिये। गृह-वाटिका में काँटेदार वृक्ष होने से गृह-स्वामी को शत्रुभय, दूध वाले वृक्षों से धन-हानि तथा फल वाले वृक्षों से सन्तति कष्ट होता है। अतः इन वृक्षों और मकान के बीच में शुभदायक वृक्ष जैसे-नागकेसर, अशोक, अरिष्ट, मौलश्री, दाडिम, कटहल, शमी और शाल इन वृक्षों को लगा देना चाहिये। ऐसा करने से अशुभ वृक्षों का दोष दूर हो जाता है। |
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| == उद्धरण॥ == | | == उद्धरण॥ == |