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ग्रह धातु में अच् प्रत्यय लगाने से निष्पन्न ग्रह शब्द के अर्थ हैं- पकडना, ग्रहण, प्राप्त करना, चुराना, ग्रहण लगाना एवं सूर्यादि नवग्रह आदि।<blockquote>गृह्णाति गतिविशेषानिति यद्वा गृह्णाति फलदातृत्वेन जीवानिति।(ज्योति०तत्त्वा०)</blockquote>अर्थात् जो गति विशेषों को ग्रहण करता है या फलदातृत्व द्वारा जीवों का ग्रहण करता है उसे ग्रह कहा जाता है। मुख्यतः इनकि संख्या नव होने के कारण ये नवग्रह कह लाते हैं।
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ग्रह धातु में अच् प्रत्यय लगाने से निष्पन्न ग्रह शब्द के अर्थ हैं- पकज़्क्ष्ड़ना, ग्रहण, प्राप्त करना, चुराना, ग्रहण लगाना एवं सूर्यादि नवग्रह आदि।<blockquote>गृह्णाति गतिविशेषानिति यद्वा गृह्णाति फलदातृत्वेन जीवानिति।(ज्योति०तत्त्वा०)</blockquote>अर्थात् जो गति विशेषों को ग्रहण करता है या फलदातृत्व द्वारा जीवों का ग्रहण करता है उसे ग्रह कहा जाता है। मुख्यतः इनकि संख्या नव होने के कारण ये नवग्रह कह लाते हैं।
== परिचय ==
== परिचय ==
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ग्रहण की स्थितियाँ
ग्रहण की स्थितियाँ
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पात वा राहु केतु विचार<blockquote>यत् त्वा सूर्य स्वर्भानुस्तमसाविध्यदासुरः। अक्षेत्रविद्यथा मुग्धो भुवनान्यदीधयुः ॥ स्वर्भानोरध यदिन्द्र माया अवो दिवो वर्तमाना अवाहन्। सूर्यं तमसापव्रतेन तुरीयेण गूळ्हं ब्रह्मणाविन्ददत्रिः ॥(ऋक्० ५/४०/५-६) </blockquote>अगले एक मन्त्रमें यह आता है कि 'इन्द्रने अत्रिकी सहायतासे ही राहुकी मायासे सूर्यकी रक्षा की थी।' इसी प्रकार ग्रहणके निरसनमें समर्थ महर्षि अत्रिके तप:सन्धानसे समुद्भूत अलौकिक प्रभावोंका वर्णन वेदके अनेक मन्त्रोंमें प्राप्त होता है। किंतु महर्षि अत्रि किस अद्भुत सामर्थ्यसे इस अलौकिक कार्यमें दक्ष माने गये, इस विषयमें दो मत हैं-प्रथम परम्परा-प्राप्त यह मत कि वे इस कार्यमें तपस्याके प्रभावसे समर्थ हुए और दूसरा यह कि वे कोई नया यन्त्र बनाकर उसकी सहायतासे ग्रहणसे उन्मुक्त हुए सूर्यको दिखलानेमें समर्थ हुए। यही कारण है कि महर्षि अत्रि ही भारतीयों ग्रहणके प्रथम आचार्य (उपज्ञ) माने गये।
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पात वा राहु केतु विचार<blockquote>यत् त्वा सूर्य स्वर्भानुस्तमसाविध्यदासुरः। अक्षेत्रविद्यथा मुग्धो भुवनान्यदीधयुः ॥ स्वर्भानोरध यदिन्द्र माया अवो दिवो वर्तमाना अवाहन्। सूर्यं तमसापव्रतेन तुरीयेण गूळ्हं ब्रह्मणाविन्ददत्रिः ॥(ऋक्० ५/४०/५-६) </blockquote>अगले एक मन्त्रमें यह आता है कि 'इन्द्रने अत्रिकी सहायतासे ही राहुकी मायासे सूर्यकी रक्षा की थी।' इसी प्रकार ग्रहणके निरसनमें समर्थ महर्षि अत्रिके तप:सन्धानसे समुद्भूत अलौकिक प्रभावोंका वर्णन वेद के अनेक मन्त्रोंमें प्राप्त होता है। किंतु महर्षि अत्रि किस अद्भुत सामर्थ्यसे इस अलौकिक कार्यमें दक्ष माने गये, इस विषयमें दो मत हैं-प्रथम परम्परा-प्राप्त यह मत कि वे इस कार्यमें तपस्याके प्रभावसे समर्थ हुए और दूसरा यह कि वे कोई नया यन्त्र बनाकर उसकी सहायतासे ग्रहणसे उन्मुक्त हुए सूर्यको दिखलानेमें समर्थ हुए। यही कारण है कि महर्षि अत्रि ही भारतीयों ग्रहणके प्रथम आचार्य (उपज्ञ) माने गये।
भारतीय ज्योतिषके अनुसार सभी ग्रह पृथ्वी के चारों ओर वृत्ताकार कक्षाओं में भ्रमण करते हैं। भूकेन्द्रसे इन कक्षाओं की दूरी भी विलक्षण है। अर्थात् ग्रह कक्षाओं का केन्द्र बिन्दु पृथ्वी पर नहीं है।
भारतीय ज्योतिषके अनुसार सभी ग्रह पृथ्वी के चारों ओर वृत्ताकार कक्षाओं में भ्रमण करते हैं। भूकेन्द्रसे इन कक्षाओं की दूरी भी विलक्षण है। अर्थात् ग्रह कक्षाओं का केन्द्र बिन्दु पृथ्वी पर नहीं है।
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== (षड् ऋतुएँ) ==
== (षड् ऋतुएँ) ==
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ऋतु का संबंध सूर्य की गति से है। सूर्य क्रान्तिवृत्त में जैसे भ्रमण करते हैं वैसे ही ऋतुओं में बदलाव आ जाता है। ऋतुओं की संख्या ६ है। प्रत्येक ऋतु दो मास के होते हैं। शरत्सम्पात् एवं वसन्तसम्पात् पर ही ६ ऋतुओं का प्रारम्भ निर्भर करता है। वसन्त सम्पात् से वसन्त ऋतु, शरत्सम्पात से शरद ऋतु, सायन मकर से शिशिर ऋतु, सायन कर्क से वर्षा ऋतु प्रारम्भ होती है। अतः सायन मकर या उत्तरायण बिन्दु ही शिशिर ऋतु का प्रारम्भ है। क्रमशः २-२ सौरमास की एक ऋतु होती है।
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ऋतु का संबंध सूर्य की गति से है। सूर्य क्रान्तिवृत्त में जैसे भ्रमण करते हैं वैसे ही ऋतुओं में बदलाव आ जाता है। ऋतुओं की संख्या ६ है। प्रत्येक ऋतु दो मास के होते हैं। शरत्सम्पात् एवं वसन्तसम्पात् पर ही ६ ऋतुओं का प्रारम्भ निर्भर करता है। वसन्त सम्पात् से वसन्त ऋतु, शरत्सम्पात् से शरद ऋतु, सायन मकर से शिशिर ऋतु, सायन कर्क से वर्षा ऋतु प्रारम्भ होती है। अतः सायन मकर या उत्तरायण बिन्दु ही शिशिर ऋतु का प्रारम्भ है। क्रमशः २-२ सौरमास की एक ऋतु होती है।
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मृगादिराशिद्वयभानुभोगात् षडर्तवः स्युः शिशिरो वसन्तः। ग्रीष्मश्च वर्षाश्च शरच्च तदवत् हेमन्त नामा कथितोऽपि षष्ठः॥(बृह०अवक०
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मृगादिराशिद्वयभानुभोगात् षडर्तवः स्युः शिशिरो वसन्तः। ग्रीष्मश्च वर्षाश्च शरच्च तदवत् हेमन्त नामा कथितोऽपि षष्ठः॥(बृह०अवक०)
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== (धार्मिक दिनचर्या) ==
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सनातन धर्म में भारतीय जीवन पद्धति क्रमबद्ध और नियन्त्रित है। इसकी क्रमबद्धता और नियन्त्रित जीवन पद्धति ही दीर्घायु, प्रबलता, अपूर्व ज्ञानत्व, अद्भुत प्रतिभा एवं अतीन्द्रिय शक्ति का कारण रही है। ऋषिकृत दिनचर्या व्यवस्था का शास्त्रीय, व्यावहारिक एवं सांस्कृतिक तथा वैज्ञानिक अनुशासन भारतीय जीवनचर्या में देखा जाता है।
== परिभाषा ==
== परिभाषा ==
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इयर्ति गच्छति अशोक-पुष्पविकासान् साधारणलिङ्गमिति वसन्तादिकालविशेषऋतुः।
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प्रातः काल उठने से लेकर रात को सोने तक किए गए कृत्यों को एकत्रित रूप से दिनचर्या कहते हैं। आयुर्वेद एवं नीतिशास्त्र के ग्रन्थों में दिनचर्या की परिभाषा इस प्रकार की गई है-<blockquote>'''प्रतिदिनं कर्त्तव्या चर्या दिनचर्या। (इन्दू)'''</blockquote>'''अर्थ-''' प्रतिदिन करने योग्य चर्या को दिनचर्या कहा जाता है।<blockquote>'''दिने-दिने चर्या दिनस्य वा चर्या दिनचर्या, चरणचर्या।(अ०हृ०सू०)'''</blockquote>'''अर्थ-''' प्रतिदिन की चर्या को दिनचर्या कहते हैं।
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दिनचर्याके समानार्थी शब्द- आह्निक, दैनिक कर्म एवं नित्यकर्म आदि।
== परिचय ==
== परिचय ==
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दिनचर्या नित्य कर्मों की एक क्रमबद्ध श्रंघला है। जिसका प्रत्येक अंग अन्त्यत महत्त्वपूर्ण है और क्रमशः दैनिककर्मों को किया जाता है। दिनचर्या के अनेक बिन्दु नीतिशास्त्र, धर्मशास्त्र और आयुर्वेद शास्त्र में प्राप्त होते हैं।
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* प्रकृति के प्रभाव को शरीर और वातावरण पर देखते हुये दिनचर्या के लिये समय का उपयोग आगे पीछे किया जाता है।
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* धर्म और योग की दृष्टि से दिन का शुभारम्भ उषःकाल से होता है। इस व्यवस्था को आयुर्वेद और ज्योतिषशास्त्र भी स्वीकार करता है।
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चौबीस घण्टे का समय ऋषिगण सुव्यवस्थित ढंग से व्यतीत करने को कहते हैं। संक्षिप्त दृष्टि से इस काल को इस प्रकार व्यवस्थित करते हैं-
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* '''ब्राह्ममुहूर्त+ प्रातःकाल=''' प्रायशः ३,४, बजे रात्रि से ६, ७ बजे प्रातः तक। संध्यावन्दन, देवतापूजन एवं प्रातर्वैश्वदेव।
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* '''प्रातःकाल+संगवकाल=''' प्रायशः ६, ७ बजे से ९, १० बजे दिन तक। उपजीविका के साधन।
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* '''संगवकाल+पूर्वाह्णकाल=''' प्रायशः ९, १० बजे से १२ बजे तक।
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* '''मध्याह्नकाल+ अपराह्णकाल=''' प्रायशः १२ बजे से ३ बजे तक।
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* '''अपराह्णकाल+ सायाह्नकाल=''' प्रायशः ३ बजे से ६, ७ बजे तक।
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* '''पूर्वरात्रि काल=''' प्रायशः ६, ७ रात्रि से ९, १० बजे तक।
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* '''शयन काल(दो याम, ६घण्टा)=''' ९, १० रात्रि से ३, ४ बजे भोर तक।
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भारत वर्ष में ग्रीष्मकाल तथा शीतकाल में प्रातः एवं सायंकाल का समय व्यावहारिक जगत् में प्रायशः एक घण्टा बढ जाता है या एक घण्टा घट जाता है।
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=== दिनचर्या कब, कितनी? ===
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दिनचर्या सुव्यवस्थित ढंग से अपने स्थिर निवास पर ही हो पाती है। अनेक लोग एेसे भी हैँ जो अपनी दिनचर्या को सर्वत्र एक जैसे जी लेते हे। यात्रा, विपत्ति, तनाव, अभाव ओर मौसम का प्रभाव उन पर नहीं पडता। एेसे लोगों को "दृढव्रत" कहते हँ। किसी भी कर्म को सम्पन्न करने के लिए दृढव्रत ओर एकाग्रचित्त होना अनिवार्य है। यह शास्त्रों का आदेश है -
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'''मनसा नैत्यक कर्म प्रवसन्नप्यतन्द्रितः। उपविश्य शुचिः सर्वं यथाकालमनुद्रवेत्॥''' (कात्यायनस्मृतिः,९९८/२)
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प्रवास मे भी आलस्य रहित होकर, पवित्र होकर, बैठकर समस्त नित्यकर्मो को यथा समय कर लेना चाहिषए्। अपने निवास पर दिनचर्या का शतप्रतिशत पालन करना चाहिए। यात्रा मे दिनचर्या विधान को आधा कर देना चाहिए। बीमार पड़ने पर दिनचर्या का कोई नियम नहीं होता। विपत्ति मे पड़ने पर दिनचर्या का नियम बाध्य नहीं करता-
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'''स्वग्रामे पूर्णमाचारं पथ्यर्धं मुनिसत्तम। आतुरे नियमो नास्ति महापदि तथेव च॥''' (ब्रह्माण्डपुराणं)
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==== दिनचर्या एवं मानवीय जीवनचर्या ====
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इस पृथ्वी पर मनुष्य से अतिरिक्त जितने भी जीव हं उनका अधिकतम समय भोजन खोजने में नष्ट हो जाता है। यदि भोजन मिल गया तो वे निद्रा में लीन हो जाते हैं। आहार ओर निद्रा मनुष्येतर प्राणियों का पृथ्वी पर अभीष्ट है। मनुष्य आहार ओर निद्रा से ऊपर उठ कर व्रती ओर गुडाकेश (निद्राजीत) बनता है। यही भारतीय जीवन का प्रतिपाद्य हे।
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== दिनचर्या के अन्तर्गत कुछ कर्म ==
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'''वर्णानुसार नित्यकर्म-'''
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'''आश्रमानुसार नित्यकर्म-'''
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प्रातः जागरण
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शौचाचार
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दन्तधावन एवं मुखप्रक्षालन
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तैलाभ्यंग
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स्नान
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योगसाधना
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वस्त्रपरिधान
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यज्ञोपवीत धारण
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तिलक-आभरण
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संध्योपासना-आराधना
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तर्पण
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पञ्चमहायज्ञ
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भोजन
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लोक संग्रह-व्यवहार-जीविका
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== ऋतु भेद ==
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संध्या-गोधूलि-प्रदोष
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मृगादिराशिद्वयभानुभोगात् षडर्तवः स्युः शिशिरो वसन्तः। ग्रीष्मश्च वर्षाश्च शरच्च तदवत् हेमन्त नामा कथितोऽपि षष्ठः॥(बृह०अवक०)
−
अर्थात् सायन मकर-कुम्भ में शिशिर ऋतु, मीन-मेष में वसन्त ऋतु, वृष-मिथुन में ग्रीष्म ऋतु, कर्क-सिंह में वर्षा ऋतु, कन्या-तुला में शरद ऋतु, वृश्चिक-धनु में हेमन्त ऋतु होती है।
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शयनविधि
−
== ऋतुओं के नामों की सार्थकता ==
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श्रीरामजी की दिनचर्या
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शास्त्रों में ऋतु के अनुसार ही वस्तुओं का परिणाम बताया गया है। प्रत्येक प्राणी, वृक्ष, लता इत्यादि का विकास ऋतुओं के अनुसार ही होता है।
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=== वसन्त ===
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महर्षि चरकप्रोक्त दिनचर्या
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विद्यार्थी की दिनचर्या
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ग्रीष्म
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== धार्मिक दिनचर्या का महत्व ==
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व्यक्ति चाहे जितना भी दीघ्यु क्यों न हो वह इस पृथ्वी पर अपना जीवन व्यवहार चौबीस घण्टे के भीतर ही व्यतीत करता है। वह अपना नित्य कर्म (दिनचर्या), निमित्त कर्म (जन्म-मृत्यु-श्राद्ध- सस्कार आदि) तथा काम्य कर्म (मनोकामना पूर्तिं हेतु किया जाने वाला कर्म) इन्हीं चौबीस घण्टों में पूर्ण करता है। इन्हीं चक्रों (एक सूर्योदय से दूसरे सूर्योदय) के बीच वह जन्म लेता है, पलता- बढ़ता है ओर मृत्यु को प्राप्त कर जाता है-<blockquote>'''अस्मिन्नेव प्रयुञ्जानो यस्मिन्नेव तु लीयते। तस्मात् सर्वप्रयत्नेन कर्त्तव्यं सुखमिच्छता। । दक्षस्मृतिः, (२८/५७)'''</blockquote>अतः व्यक्ति को प्रयत्नपूर्वक मन-बुद्धि को आज्ञापित करके अपनी दिनचर्या को सुसगत तथा सुव्यवस्थित करना चाहिए। ब्राह्ममुहूर्त मे जागकर स्नान पूजन करने वाला, पूर्वाह्न मे भोजन करने वाला, मध्याह्न में लोकव्यवहार करने वाला तथा सायकृत्य करके रात्रि में भोजन- शयन करने वाला अपने जीवन में आकस्मिक विनाश को नहीं प्राप्त करता है-\<blockquote>'''सर्वत्र मध्यमौ यामौ हुतशेषं हविश्च यत्। भुञ्जानश्च शयानश्च ब्राह्मणो नावसीदती॥ (दक्षस्मृतिः,२/५८)'''</blockquote>उषः काल मे जागकर, शौच कर, गायत्री - सूर्य की आराधना करने वाला, जीवों को अन्न देने वाला, अतिथि सत्कार कर स्वयं भोजन करने वाला, दिन में छः घण्टा जीविका सम्बन्धी कार्य करने वाला, सायं में सूर्य को प्रणाम करने वाला, पूर्व रात्रि में जीविका, विद्या आदि का चिन्तन करने वाला तथा रात्रि में छः घण्टा सुखपूर्वक शयन करने वाला इस धरती पर वोछछित प्राप्त कर लेता है। अतः दिनचर्या ही व्यक्ति .को महान् बनाती हे। जो प्रतिदिवसीय दिनचर्या मे अनुशासित नहीं है वह दीर्घजीवन मे यशस्वी ओर दीर्घायु हो ही नहीं सकता। अतः सर्व प्रथम अपने को अनुशासित करना चाहिए। अनुशासित व्यक्तित्व सृष्टि का श्रेष्ठतम व्यक्तित्व होता है ओर अनुशासन दिनचर्या का अभिन्न अंग होता है।
−
वर्षा
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== दिनचर्या के विभाग ==
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'''ब्राह्ममुहूर्ते उत्तिष्ठेत्। कुर्यान् मूत्रं पुरीषं च। शौचं कुर्याद् अतद्धितः। दन्तस्य धावनं कुयात्।'''
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शरद्
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'''प्रातः स्नानं समाचरेत्। तर्पयेत् तीर्थदेवताः। ततश्च वाससी शुद्धे। उत्तरीय सदा धार्यम्।'''
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हेमन्त
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'''ततश्च तिलकं कुर्यात्। प्राणायामं ततः कृत्वा संध्या-वन्दनमाचरेत्॥ विष्णुपूजनमाचरेत्॥'''
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शिशिर
+
'''अतिथिंश्च प्रपूजयेत्। ततो भूतबलिं कुर्यात्। ततश्च भोजनं कुर्यात् प्राङ्मुखो मौनमास्थितः।'''
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'''शोधयेन्मुखहस्तौ च। ततस्ताम्बूलभक्षणम्। व्यवहारं ततः कुर्याद् बहिर्गत्वा यथासुखम्॥'''
−
सौर एवं चान्द्रमासों के अनुसार इन वसन्तादि ऋतुओं का स्पष्टार्थ सारिणी-
+
'''वेदाभ्यासेन तौ नयेत्। गोधूलौ धर्मं चिन्तयेत्। कृतपादादिशौचस्तुभुक्त्वा सायं ततो गृही॥'''
−
{| class="wikitable"
−
|+
−
!वसन्त
−
!ग्रीष्म
−
!वर्षा
−
!शरद्
−
!हेमन्त
−
!शिशिर
−
!ऋतु
−
|-
−
|मीन,मेष
−
|वृष,मिथुन
−
|कर्क,सिंह
−
|कन्या,तुला
−
|वृश्चिक,धनु
−
|मकर,कुम्भ
−
|सौर मास
−
|-
−
|चैत्र
−
|ज्येष्ठ
−
|श्रावण
−
|आश्विन
−
|मार्गशीर्ष
−
|माघ
−
| rowspan="2" |चान्द्रमास
−
|-
−
|वैशाख
−
|आषाढ
−
|भाद्रपद
−
|कार्तिक
−
|पौष
−
|फाल्गुन
−
|}
−
== ऋतु महत्व ==
+
'''यामद्वयंशयानो हि ब्रह्मभूयाय कल्यते॥प्राक्शिराः शयनं कुर्यात्। न कदाचिदुदक् शिराः॥'''
−
<blockquote>वसन्तो ग्रीष्मो वर्षा। ते देवाऽऋतवः शरद्धेमन्तः शिशिरस्ते पितरः॥(शतपथ ब्राह्मण)</blockquote>उपरोक्त वचन के अनुसार वसन्त, ग्रीष्म एवं वर्षादि तीन दैवी ऋतुयें हैं तथा शरद् हेमन्त और शिशिर ये पितरों की ऋतुयें हैं। अतः इन ऋतुओं में यथोचित कर्म ही शुभ फल प्रदान करते हैं।
−
== ऋतु फल ==
+
'''दक्षिणशिराः वा। रात्रिसूक्तं जपेत्स्मृत्वा। वैदिकैर्गारुडैर्मन्त्रे रक्षां कृत्वा स्वपेत् ततः॥'''
−
ऋतुएँ छः होती हैं- १, वृष और मिथुन के सूर्य हो तो ग्रीष्म ऋतु, २, कर्क और सिंह के सूर्य में वर्षा ऋतु, ३, कन्या और तुला के सूर्य में शरद ऋतु, ४, वृश्चिक और धनु के सूर्य में हेमन्त ऋतु, ६, मकर और कुम्भ के सूर्य में शिशिर ऋतु तथा ६, मीन और मेष के सूर्य में वसन्त ऋतु होती है।<blockquote>दीर्घायुर्धनिको वसन्तसमये जातः सुगन्धप्रियो। ग्रीष्मर्तौ घनतोयसेव्यचतुरो भोगी कृशाङ्गः सुधीः॥
−
क्षारक्षीरकटुप्रियः सुवचनो वर्षर्तुजः स्वच्छधीः। पुण्यात्मा सुमुखः सुखी यदि शरत्कालोद्भवः कामुकः॥
+
'''नमस्कृत्वाऽव्ययं विष्णुं समाधिस्थं स्वपेन्निशि। माङ्गल्यं पूर्णकुम्भं च शिरःस्थाने निधाय च। ऋतुकालाभिगामीस्यात् स्वदारनिरतः सदा।'''
−
योगीकृशाङ्गः कृषकश्च भोगी हेमन्तकालप्रभवः समर्थः। स्नानक्रियादानरतः स्वधर्मी मानी यशस्वी शिशिरर्तुजः स्यात् ॥</blockquote>अर्थ- वसन्त ऋतु में उत्पन्न व्यक्ति दीर्घायु, धनवान और सुगन्धिप्रिय होता है, ग्रीष्म ऋतु में जन्मा व्यक्ति घनतोय सेवन करने वाला, चतुर, अनेक भोगों से युक्त, कृशतनु और विद्वान् होता है।
+
'''अहिंसा सत्यवचनं सर्वभूतानुकम्पनम्। शमो दानं यथाशक्तिर्गार्हस्थ्यो धर्म उच्यते॥'''
−
वर्षाऋतु में उत्पन्न व्यक्ति नमकीन और कडवे स्वादयुक्त पदार्थों और दूध का प्रेमी, निश्छल बुद्धि और मिष्टभाषी, शरद ऋतु में उत्पन्न व्यक्ति पुण्यात्मा, प्रियवक्ता, सुखी और कामातुर, हेमन्त ऋतु में उत्पन्न जातक योगी, कृषतनु, कृषक, भोगादि सम्पन्न और सामर्थ्यवान् ,शिशिर ऋतु में व्यक्ति स्वधर्मानुसार आचरण करने वाला, स्नान, दानादिकर्ता, मानयुक्त और यशस्वी होता है।
+
'''अर्थ-'''
== वेदाङ्गज्योतिष॥ Vedanga Jyotisha ==
== वेदाङ्गज्योतिष॥ Vedanga Jyotisha ==
{{Main|Vedanga Jyotish (वेदाङ्गज्योतिष)}}
{{Main|Vedanga Jyotish (वेदाङ्गज्योतिष)}}
ज्योतिष वेदका एक अङ्ग हैं। अङ्ग शब्दका अर्थ सहायक होता है अर्थात् वेदोंके वास्तविक अर्थका बोध करानेवाला। तात्पर्य यह है कि वेदोंके यथार्थ ज्ञानमें और उनमें वर्णित विषयोंके प्रतिपादनमें सहयोग प्रदान करनेवाले शास्त्रका नाम वेदांङ्ग है। वेद संसारके प्राचीनतम धर्मग्रन्थ हैं, जो ज्ञान-विज्ञानमय एवं अत्यन्त गंभीर हैं। अतः वेदकी वेदताको जानने के लिये शिक्षा आदि छः अङ्गोंकी प्रवृत्ति हुई है। नेत्राङ्ग होनेके कारण ज्योतिष का स्थान सर्वोपरि माना गया है। वेदाङ्गज्योतिष ग्रन्थ में यज्ञ उपयोगी कालका विधान किया गया है। वेदाङ्गज्योतिष के रचयिता महात्मा लगध हैं। उन्होंने ज्योतिषको सर्वोत्कृष्ट मानते हुये कहा है कि-<blockquote>यथा शिखा मयूराणां नागानां मणयो यथा। तद्वद्वेदाङ्ग शास्त्राणां ज्योतिषं मूर्ध्नि संस्थितम् ॥( वेदाङ्ग ज्योतिष)</blockquote>अर्थ- जिस प्रकार मयूर की शिखा उसके सिरपर ही रहती है, सर्पों की मणि उनके मस्तकपर ही निवास करती है, उसी प्रकार षडङ्गोंमें ज्योतिषको सर्वश्रेष्ठ स्थान प्राप्त है। भास्कराचार्यजी ने सिद्धान्तशिरोमणि ग्रन्थमें कहा है कि-<blockquote>वेदास्तावत् यज्ञकर्मप्रवृत्ता यज्ञाः प्रोक्ताः ते तु कालाश्रेण। शास्त्राद्यस्मात् कालबोधो यतः स्यात्वेदाङ्गत्वं ज्योतिषस्योक्तमस्मात् ॥(सिद्धान्त शोरोमणि)</blockquote>वेद यज्ञ कर्म में प्रयुक्त होते हैं और यज्ञ कालके आश्रित होते हैं तथा ज्योतिष शास्त्र से कालकाज्ञान होता है, इससे ज्योतिष का वेदाङ्गत्व सिद्ध होता है।
ज्योतिष वेदका एक अङ्ग हैं। अङ्ग शब्दका अर्थ सहायक होता है अर्थात् वेदोंके वास्तविक अर्थका बोध करानेवाला। तात्पर्य यह है कि वेदोंके यथार्थ ज्ञानमें और उनमें वर्णित विषयोंके प्रतिपादनमें सहयोग प्रदान करनेवाले शास्त्रका नाम वेदांङ्ग है। वेद संसारके प्राचीनतम धर्मग्रन्थ हैं, जो ज्ञान-विज्ञानमय एवं अत्यन्त गंभीर हैं। अतः वेदकी वेदताको जानने के लिये शिक्षा आदि छः अङ्गोंकी प्रवृत्ति हुई है। नेत्राङ्ग होनेके कारण ज्योतिष का स्थान सर्वोपरि माना गया है। वेदाङ्गज्योतिष ग्रन्थ में यज्ञ उपयोगी कालका विधान किया गया है। वेदाङ्गज्योतिष के रचयिता महात्मा लगध हैं। उन्होंने ज्योतिषको सर्वोत्कृष्ट मानते हुये कहा है कि-<blockquote>यथा शिखा मयूराणां नागानां मणयो यथा। तद्वद्वेदाङ्ग शास्त्राणां ज्योतिषं मूर्ध्नि संस्थितम् ॥( वेदाङ्ग ज्योतिष)</blockquote>अर्थ- जिस प्रकार मयूर की शिखा उसके सिरपर ही रहती है, सर्पों की मणि उनके मस्तकपर ही निवास करती है, उसी प्रकार षडङ्गोंमें ज्योतिषको सर्वश्रेष्ठ स्थान प्राप्त है। भास्कराचार्यजी ने सिद्धान्तशिरोमणि ग्रन्थमें कहा है कि-<blockquote>वेदास्तावत् यज्ञकर्मप्रवृत्ता यज्ञाः प्रोक्ताः ते तु कालाश्रेण। शास्त्राद्यस्मात् कालबोधो यतः स्यात्वेदाङ्गत्वं ज्योतिषस्योक्तमस्मात् ॥(सिद्धान्त शोरोमणि)</blockquote>वेद यज्ञ कर्म में प्रयुक्त होते हैं और यज्ञ कालके आश्रित होते हैं तथा ज्योतिष शास्त्र से कालकाज्ञान होता है, इससे ज्योतिष का वेदाङ्गत्व सिद्ध होता है।
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== (भारतीय संवत् ) ==
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कालगणना में कल्प, मन्वन्तर, युगादि के पश्चात् संवत्सरका नाम आता है। युग भेद से सत्ययुगमें ब्रह्मसंवत् ,त्रेता में वामन-संवत् , परशुराम संवत् (सहस्रार्जुन वधसे) त्रथा श्रीराम संवत् (रावण-विजयसे) द्वापरमें युधिष्ठिर संवत् और कलियुग में विक्रम, विजय, नागार्जुन और कल्किके संवत् प्रचलित हुये एवं होंगे। शास्त्रोंमें इस प्रकार भूत एवं वर्तमान कालके संवतोंका वर्णन तो है हि, भविष्यमें होने वाले संवतों का वर्णन भी है। इनसंवतों के अतिरिक्त अनेक राजाओं तथा सम्प्रदायाचार्योंके नामपर संवत् चलाये गये हैं।
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भारतीय संवतोंके अतिरिक्त विश्वमें और भी धर्मों के संवत् हैं। तुलना के लिये उनमें से प्रधान०प्रधान की तालिका दी जा रही है।
== ज्योतिषशास्त्र का विस्तार ==
== ज्योतिषशास्त्र का विस्तार ==
Line 203:
Line 241:
=== शकुनस्कन्ध ===
=== शकुनस्कन्ध ===
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== (अंग्रेजी केलेंडर) ==
−
केलेंडर एक प्रकार की अंग्रेजी कालदर्शक व्यवस्था(सिस्टम) है, जिसके माध्यम से वर्ष, माह, सप्ताह, दिन एवं वार की जानकारी प्राप्त होती है। अंग्रेजी कालगणना केवल सूर्य एवं पृथ्वी की गति के आधार पर निर्धारित की जाती है इसमें चन्द्र एवं अन्य ग्रह नक्षत्रों का कोई संदर्भ नहीं लिया गया है। यह इसकी बहुत बडी कमी है। इस पद्धति से बनने वाला प्रसिद्ध केलेंडर ग्रेग्रेरियन कैलेंडर कहलाता है। इसे १४८२ में पोप ग्रेगरी ने बनाया था।
−
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== परिचय ==
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कालगणना के क्रम में हम देखते है कि एक वर्ष में ३६५ दिन एवं ६ घण्टे होते हैं। इस कारण हर चौथे वर्ष में एक दिन अतिरिक्त प्राप्त होता है। इस अतिरिक्त दिन को फरवरी माह के अंतिम दिन २९ फरवरी के रूप में गिना जाता है, इसे लीप वर्ष कहते हैं।
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एक वर्ष में १२ माह, ५२ सप्ताह एवं ३६५ दिन होते हैं। कैलेंडर में इन्हीं का संयोजन होता है। अंग्रेजी काल गणना के अनुसार एक सप्ताह में ७ दिन होते हैं जो कि इस प्रकार हैं-
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{| class="wikitable"
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|+(वार सारिणी)
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|सन डे
−
|Sunday
−
|रविवार
−
|-
−
|मन डे
−
|Monday
−
|सोमवार
−
|-
−
|ट्यूस डे
−
|Tuesday
−
|मंगलवार
−
|-
−
|वेडनेस डे
−
|Wednesday
−
|बुधवार
−
|-
−
|थर्स डे
−
|Thursday
−
|गुरुवार
−
|-
−
|फ्राइडे
−
|Friday
−
|शुक्रवार
−
|-
−
|सटर डे
−
|Saturday
−
|शनिवार
−
|}
−
अंग्रेजी कैलेण्डर का एक पृष्ठ-
−
{| class="wikitable"
−
|+(माह जनवरी/ सन् २०२३)
−
|Sunday
−
|१
−
|8
−
|१५
−
|२२
−
|२९
−
|-
−
|Monday
−
|२
−
|९
−
|१६
−
|२३
−
|३०
−
|-
−
|Tuesday
−
|३
−
|१०
−
|१७
−
|२४
−
|३१
−
|-
−
|Wednesday
−
|४
−
|११
−
|१८
−
|२५
−
|*
−
|-
−
|Thursday
−
|५
−
|१२
−
|१९
−
|२६
−
|*
−
|-
−
|Friday
−
|६
−
|१३
−
|२०
−
|२७
−
|*
−
|-
−
|Saturday
−
|७
−
|१४
−
|२१
−
|२८
−
|*
−
|}
−
−
=== वर्षज्ञान ===
−
उपर्युक्त प्रकार से अंग्रेजी वर्ष में १२ माह होते हैं इन १२ माहों का रोमन देवताओं या अंग्रेजी संतों के नाम पर आधारित है। जैसे- रोमन देवता जेनस के नाम पर अंग्रेजी प्रथम माह का नाम जनवरी पडा। इसी प्रकार रोमन देवता मार्स के नाम पर मार्च महिने का नामकरण हुआ आदि। इन १२ माह में दिनों की संख्या अलग-अलग नियत है। विस्तृत विवरण निम्न है-
−
{| class="wikitable"
−
|+(मास दिवस सहित वर्ष ज्ञान सारिणी)
−
!क्रमांक
−
!माह
−
!अंग्रेजी नाम
−
!दिनों की संख्या
−
|-
−
|०१
−
|जनवरी
−
|January
−
|३१
−
|-
−
|०२
−
|फरवरी
−
|Febuary
−
|२८(प्रत्येक चौथे वर्ष २९दिन)
−
|-
−
|०३
−
|मार्च
−
|March
−
|३१
−
|-
−
|०४
−
|अप्रैल
−
|April
−
|३०
−
|-
−
|०५
−
|मई
−
|May
−
|३१
−
|-
−
|०६
−
|जून
−
|June
−
|३०
−
|-
−
|०७
−
|जुलाई
−
|July
−
|३१
−
|-
−
|०८
−
|अगस्त
−
|August
−
|३१
−
|-
−
|०९
−
|सितम्बर
−
|September
−
|३०
−
|-
−
|१०
−
|अक्टूबर
−
|October
−
|३१
−
|-
−
|११
−
|नवम्बर
−
|November
−
|३०
−
|-
−
|१२
−
|दिसम्बर
−
|December
−
|३१
−
|-
−
| colspan="2" |
−
|योग=
−
|३६५ १/४
−
|}
−
उपर्युक्त इन अंग्रेजी माहों में निर्धारित किये दिनों को स्मरण रखने के लिये हिन्दी भाषा में एक दोसा प्रसिद्ध है जो निम्नांकित हैं-<blockquote>
−
सित, अप, जू, नव तीस के, बाकी के इकतीस। फरवरी अट्ठाइस की, चौथे सन् उन्नतीस॥</blockquote>अंग्रेजी कैलेंडर १२ पृष्ठों का होता है। प्रत्येक पृष्ठ में १-१ माह का वर्णन क्रमशः दिन, दिनांकों और वर्ष के सन्दर्भों में प्रस्तुत किया जाता है। सातों वारों का क्रमशः सतत् रूप से आवर्तन होता रहता है, जबकि तारीखें महीने के नियत दिनों की संख्याओं की पूर्ति के बाद पुनः एक दो से शुरू हो जाती है- इसी तरह अगले पृष्ठों में क्रमशः आगामी माहों का कालदर्शक विवरण क्रमशः अंकित किया जाता है। इस तरह अंग्रेजी कालदर्शक (केलेण्डर) मात्र १२ पृष्ठों का होता है। जबकि भारतीय पंचांग अनेक पन्नों का अनेक जटिल सारणियों, ग्रह नक्षत्रों की सूक्ष्म गणनाओं से भरपूर होता है।
== ज्योतिष एवं आयुर्वेद॥ Jyotisha And Ayurveda ==
== ज्योतिष एवं आयुर्वेद॥ Jyotisha And Ayurveda ==