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=== नाभिकीय ऊर्जा के खतरे ===
 
=== नाभिकीय ऊर्जा के खतरे ===
 
नाभिकीय रियेक्टर द्वारा नाभिकीय ऊर्जा उत्पन्न करते समय नाभिकीय विकिरण भी नियुक्त होते हैं जो मानव शरीर को बेध सकते हैं और कोशिकाओं को इतनी हानि पहुंचा सकते हैं, जिसकी चिकित्सा कर पाना संभव नहीं। इन भयंकर व घातक नाभिकीय विकिरणों के क्षरण से बचाव के लिए नाभिकीय रियेक्टरों को काफी मोटे विकिरण अवशोक्षी पदार्थों जैसे सीसा, के आवरण से ढका जाता है। परन्तु यदि रियेक्टकर की संरचना में कोई थोड़ी सी भी त्रुटि रह जाए अथवा किसी पूर्णतः सुरक्षित रियेक्टर के साथ कोई प्राकृतिक अनहोनी घटना घट जाए तो परिणामस्वरूप इस प्रकार के अत्यंत हानिकर विकिरण पर्यावरण में नियुक्त हो सकते हैं, जिसके कारण उस क्षेत्र के चारों और रहने वाले जीव जन्तुओं के लिए स्थायी खतरे की समस्या हो जाती है।
 
नाभिकीय रियेक्टर द्वारा नाभिकीय ऊर्जा उत्पन्न करते समय नाभिकीय विकिरण भी नियुक्त होते हैं जो मानव शरीर को बेध सकते हैं और कोशिकाओं को इतनी हानि पहुंचा सकते हैं, जिसकी चिकित्सा कर पाना संभव नहीं। इन भयंकर व घातक नाभिकीय विकिरणों के क्षरण से बचाव के लिए नाभिकीय रियेक्टरों को काफी मोटे विकिरण अवशोक्षी पदार्थों जैसे सीसा, के आवरण से ढका जाता है। परन्तु यदि रियेक्टकर की संरचना में कोई थोड़ी सी भी त्रुटि रह जाए अथवा किसी पूर्णतः सुरक्षित रियेक्टर के साथ कोई प्राकृतिक अनहोनी घटना घट जाए तो परिणामस्वरूप इस प्रकार के अत्यंत हानिकर विकिरण पर्यावरण में नियुक्त हो सकते हैं, जिसके कारण उस क्षेत्र के चारों और रहने वाले जीव जन्तुओं के लिए स्थायी खतरे की समस्या हो जाती है।
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== वेदों में अग्नि (ऊर्जा) का महत्त्व और संरक्षण ==
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वैदिक चिंतन में अग्नि (ऊर्जा) को वेश्वानर कहा गया हे। वेश्वानर का तात्पर्य है-विश्व को कार्य में संलग्न रखने वाली शक्ति। इस वैश्वानर अग्नि (ऊर्जा) को सृष्टि के निर्माण में मुख्य कारक माना गया है। इस वैश्वानर अग्नि के संरक्षक के मध्यनजर ऋग्वेद को ऋषि मधुछन्दा कहते है-<blockquote>'''“ अग्निमीले पुरोहितम्‌"'''
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'''(ऋग्वेद 1.11)'''</blockquote>अर्थात्‌ में अग्नि को चाहता हूँ। उसकी उपासना करता हूँ अग्नि के महत्व को प्रतिपादित करते हुए ऋग्वेद में कश्यप ऋषि कहते है-<blockquote>'''“ अग्निर्जागार तमृचः कामयन्तेऽग्निर्जागार तमु सामानि पान्ति।'''
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'''अग्निर्जागार तमयं सोग आह तवाहमस्मि सायं न्योमाः।”'''
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'''(ऋग्वेद 5.44.15)'''</blockquote>अर्थात्‌ अग्नि को जाग्रत रखने वाले को ऋचाएं चाहती है, उसे सामवेद का ज्ञान होता है। विद्या तथा सुख प्राप्त होते हैं। सोम उसे बंन्धुवत मानता हे। यहां पर ऋग्वेद ऋषि अग्नि (ऊर्जा) के सदुपयोग और संरक्षण की तरफ इंगित कर रहे है। जाग्रत रखने का तात्पर्य है यथावत तथा निरन्तर बढ़ाते हुए रखना। हमारे वैदिक चिंतन में अग्नि को तीन रूपों में माना गया हे-
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* पार्थिव अग्नि
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* अंतरिक्ष अग्नि
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* द्योस्थानीय अग्नि
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पृथ्वी पर जो अग्नि है उसे पार्थिव अग्नि कहा गया है। स्थानीय विद्युत अग्नि को अन्तरिक्ष तथा सौर अग्नि को द्यौस्थानीय अग्नि माना गया हे। इस तरह यह वैश्वानर अग्नि सर्वत्र व्याप्त है। संपूर्ण चराचर जगत इसी अग्नि से देदीप्यमान है।
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अग्नि के महत्व को प्रतिपादित करते हुए ऋग्वेद का ऋषि अन्तरिक्ष अग्नि से प्रार्थथा करता है कि वह अन्तरिक्ष के उपद्रवों से हमारी रक्षा करे-<blockquote>'''“सूर्यो नो दिवस्पातु वातो अन्तरिक्षात्‌-'''
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'''-अग्निर्नः पार्थिवेश्यः। ”'''
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'''(ऋग्वेद 7.62.5)'''</blockquote>चित्र 10.1 सूर्य
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अर्थात्‌ सूर्य आकाशीय उपद्रवों से, वायु अंतरिक्ष के उपद्रवों से तथा अग्नि पृथ्वी के उपद्रवों से हमारी रक्षा करे। द्योस्थानीय अग्नि से अथर्ववेद का ऋषि रक्षा करने की प्रार्थना करता हे-
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<blockquote>'''“सूर्य चक्षुषा मा पाहि"'''
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'''( अथर्ववेद 2.16.3)'''</blockquote>अर्थात्‌ हे सूर्य! आप मुझ पर दुष्टिपात रखते हुए मेरी रक्षा कीजिए। आगे कहा गया है कि हे सूर्य अपनी जीवन शक्ति से हमें प्रदीप्त कीजिए-<blockquote>'''“सूर्यः यजेऽर्चिस्तेन तं प्रत्यर्च"'''
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'''( अथर्ववेद 2.21.3)'''</blockquote>वेदों में अग्नि (ऊर्जा) को नष्ट करने तथा हानि पहुँचाने के लिए दण्ड का विधान किया गया है। अथर्ववेद में प्रार्थना की गई हे कि हे अग्नि! जो आपको हानि पहुँचाये उसे आप तपाओ और पीड़ित करो-<blockquote>'''“ अग्ने यते तपस्त्रेन तं प्रतितप”*'''
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'''( अथर्ववेद 2.19.1)'''</blockquote>सौर ऊर्जा के महत्व को इंगित करते हुए ऋग्वेद के काण्व ऋषि कहते हे कि सूर्य से निरन्तर ऊर्जा मिलती रहती है-<blockquote>'''“ विद्युद्दस्ता अभिद्यणः”'''
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'''(ऋग्वेद 8.7.5)'''</blockquote>अर्थात्‌ सूर्य को किरणें निखुत रूपी हाथों से निरन्तर सर्वत्र व्याप्त होती रहती है।
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चित्र 10.2 सौर ऊर्जा
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इस सूर्य की ऊर्जा (सौर ऊर्जा) का वर्तमान में बहुत महत्व है अतः हमें सौर ऊर्जा की तरफ ध्यान देने की आवश्यकता है। सूर्य से प्राप्त होने वाली ऊर्जा से हमें सदुपयोग में लेना चाहिए।
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ऋग्वेद के गृत्समद ऋषि कहते है कि निपुत सूर्य की किरणों से उत्पन्न होती है जो तत्काल जला डालने की शक्ति रखती है।<blockquote>'''“ त्वमग्ने युभिस्त्वमायुशुक्षणि”'''
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'''(ऋग्वेद 2.1.1)'''</blockquote>वैदिक चिंतन में सौर ऊर्जा का महत्व इंगित कर दिया गया था जिसकी तरफ आज हमारा ध्यान जा रहा है। आज सौर ऊर्जा से बिजली (विद्युत) बनाये जाने का प्रयत्न किया जा रहा है।
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चित्र 10.3 सौर ऊर्जा से बिजली उत्पादन
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ऋग्वेद में कहा गया है कि सूर्य को सोम बलवान बनाता है। सोम से ही यह पृथ्वी भी बलवान होती हे-<blockquote>'''“ सोमेनादिलो बलिनः सोमेन पृथिवी यही”'''
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'''(ऋग्वेद 10.85.2)'''</blockquote>सोम का तात्पर्य प्रसङ्कानुसार कहीं पर चन्द्रमा, कहीं पर सोमलता तो सूर्य के संदर्भ में गैस (हाइड्रोजन, हीलियम) से है। पूर्वोत्तर ऋचा में कहा गया है कि सोम सूर्य को बलवान बनाता है। यहां पर सोम का तात्पर्य हाइड्रोजन हीलियम गैस से ग्रहण किया जा सकता है क्योंकि सूर्य से सोम ही ऊर्जा का संचार करती है। यजुर्वेद में कहा गया है कि जल के रस का रस सूर्य में स्थापित हे- <blockquote>'''“ अपां रसम्‌ उद्वयमं सन्त समाहितम्‌'''
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'''अपां रसस्य यो रमः।”'''
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'''(यजुर्वेद 9.3)'''</blockquote>यहां पर देखें तो जल का सूर्य है ( )। हाइड्रोजन तथा आक्सीजन की समुचित संयोजन क्रिया। उपरोक्त ऋचा की दृष्टि से देखें तो जल का रस हाइड्रोजन तथा हाइड्रोजन का रस हीलियम की ओर संकेत मात्र करते हैं। अथर्ववेद में कहा गया है कि जल में अग्नि और सोम दोनों तत्व मिल हुए हे-<blockquote>'''“ अग्नि षोमो बिभ्रति आप रतताः”'''
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'''( अथर्ववेद 3.13.5)'''</blockquote>अग्नि का तात्पर्य यहां पर आक्सीजन हे तो सोम का तात्पर्य हाइड्रोजन हे। इस तरह दोनों का संयोजन अथर्ववेद में इंगित माना जा सकता हे।
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यजुर्वेद में सूर्य की ऊर्जा का महत्व प्रतिपादित करते हुए कहा गया हे कि हे सूर्य तुम्हारी दी हुई ऊर्जा तथा उस ऊर्जा से उत्पन्न अन्नादि कर्मो की सिद्धि करने वाला है अतः आप हमें श्रेष्ठ कर्म में संयुक्त करें।
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