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शौचाचार का पालन एवं आचरण मानव जीवन के लिये परम आवश्यक है। शौचाचार शब्द दो शब्दों के मेल से बना है-शौच एवं आचार। शौच शब्द शुच् धातु से निष्पन्न होता है जिसका अर्थ है पवित्रता तथा आचार शब्द का अर्थ है आचरण करना। पवित्रता प्राप्त करने के लिये जो आचरण किया जाता है वह शौचाचार कहलाता है। वस्तुतः शरीर विभिन्न प्रकार के मलों से दूषित होता है अतः उन मलों से शुद्धता प्राप्त करने के लिये शौचाचार के नियमों का पालन किया जाता है।
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शौचाचार का पालन एवं आचरण मानव जीवन के लिये परम आवश्यक है। शौचाचार शब्द दो शब्दों के मेल से बना है-शौच एवं आचार। शौच शब्द शुच् धातु से निष्पन्न होता है जिसका अर्थ है पवित्रता तथा आचार शब्द का अर्थ है आचरण करना। पवित्रता प्राप्त करने के लिये जो आचरण किया जाता है वह शौचाचार कहलाता है। प्रातःकाल उठने एवं उसके कृत्य के उपरान्त मल-मूत्र त्यागने का कृत्य है। शास्त्रों में धर्म, व्यवहार-नियम, नैतिक-नियम, स्वास्थ्य एवं स्वच्छता के लिये शौचाचार को मानव जीवन के दैनिक नित्य-नियम के रूप में देखा जाता है। वस्तुतः शरीर विभिन्न प्रकार के मलों से दूषित होता है अतः उन मलों से शुद्धता प्राप्त करने के लिये शौचाचार के नियमों का पालन किया जाता है।
    
== परिचय ==
 
== परिचय ==
 
शौचाचारमें सदा प्रयत्नशील रहना चाहिये, क्योंकि ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्यका मूल शौचाचार ही है, शौचाचारका पालन न करनेपर सारी क्रियाएँ निष्फल हो जाती हैं।ब्राह्ममूहूर्त में उठकर शय्यात्याग के पश्चात् तत्काल ही शौच के लिए जाना चाहिए ।<blockquote>शौचे यत्नः सदा कार्यः शौचमूलो द्विजः स्मृतः । शौचाचारविहीनस्य समस्ता निष्फलाः क्रियाः ॥(दक्षस्मृ०५।२, बाधूलस्मृ० २०)</blockquote>
 
शौचाचारमें सदा प्रयत्नशील रहना चाहिये, क्योंकि ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्यका मूल शौचाचार ही है, शौचाचारका पालन न करनेपर सारी क्रियाएँ निष्फल हो जाती हैं।ब्राह्ममूहूर्त में उठकर शय्यात्याग के पश्चात् तत्काल ही शौच के लिए जाना चाहिए ।<blockquote>शौचे यत्नः सदा कार्यः शौचमूलो द्विजः स्मृतः । शौचाचारविहीनस्य समस्ता निष्फलाः क्रियाः ॥(दक्षस्मृ०५।२, बाधूलस्मृ० २०)</blockquote>
 
शौच में मुख्यतः दो भेद हैं-
 
शौच में मुख्यतः दो भेद हैं-
*बाह्य शौच
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*श्रीव्याघ्रपादका कथन है कि-<blockquote>गंगातोयेन कृत्स्नेन मृद्धारैश्च नगोपमैः । आमृत्योश्चाचरन् शौचं भावदुष्टो न शुध्यति । (आचारेन्टुमें व्याघ्रपाद, यही भाव दक्षस्मृति ५।२।१० का है।)</blockquote>यदि पहाड़-जितनी मिट्टी और गङ्गाके समस्त जलसे जीवनभर कोई बाह्य शुद्धि-कार्य करता रहे किंतु उसके पास आभ्यन्तर शौच न हो तो वह शुद्ध नहीं हो सकता।
*आभ्यन्तर शौच<blockquote>शौचं तु द्विविधं प्रोक्तं बाह्यमाभ्यन्तरं तथा। मृज्जलाभ्यां स्मृतं बाह्यं भावशुद्धिस्तथान्तरम् ॥ (वाधूलस्मृ.१९)</blockquote>'''अनु-'''मिट्टी और जलसे होनेवाला यह शौच-कार्य बाहरी है इसकी अबाधित आवश्यकता है किंतु आभ्यन्तर शौचके बिना बाह्यशौच प्रतिष्ठित नहीं हो पाता। मनोभावको शुद्ध रखना आभ्यन्तर शौच माना जाता है। किसीके प्रति ईर्ष्या, द्वेष, क्रोध, लोभ, मोह, घृणा आदिके भावका न होना आभ्यन्तर शौच है। श्रीव्याघ्रपादका कथन है कि-<blockquote>गंगातोयेन कृत्स्नेन मृद्धारैश्च नगोपमैः । आमृत्योश्चाचरन् शौचं भावदुष्टो न शुध्यति । (आचारेन्टुमें व्याघ्रपाद, यही भाव दक्षस्मृति ५।२।१० का है।)</blockquote>यदि पहाड़-जितनी मिट्टी और गङ्गाके समस्त जलसे जीवनभर कोई बाह्य शुद्धि-कार्य करता रहे किंतु उसके पास आभ्यन्तर शौच न हो तो वह शुद्ध नहीं हो सकता।
      
अतः आभ्यन्तर शौच अत्यावश्यक है भगवान् सबमें विद्यमान हैं। इसलिये किसीसे द्वेष, क्रोधादि न करें सबमें भगवान्का दर्शन करते हुए सब परिस्थितियोंको भगवान्का वरदान समझते हुए सबमें मैत्रीभाव रखें। साथ ही प्रतिक्षण भगवान्का स्मरण करते हुए उनकी आज्ञा समझकर शास्त्रविहित कार्य करते रहें ।
 
अतः आभ्यन्तर शौच अत्यावश्यक है भगवान् सबमें विद्यमान हैं। इसलिये किसीसे द्वेष, क्रोधादि न करें सबमें भगवान्का दर्शन करते हुए सब परिस्थितियोंको भगवान्का वरदान समझते हुए सबमें मैत्रीभाव रखें। साथ ही प्रतिक्षण भगवान्का स्मरण करते हुए उनकी आज्ञा समझकर शास्त्रविहित कार्य करते रहें ।
    
याज्ञवल्क्य स्मृति में कहा गया है कि-<blockquote>दिवा सन्ध्या सुकर्णस्थ ब्रह्मसूत्र उदङ मुखः । कुर्यान्मूत्र पुरीणे च रात्रौ चेद्दक्षिणा मुखः ॥( याज्ञ० )</blockquote>'''अनु-''' जनेऊ को दायें कान पर चढ़ाकर प्रातःकाल उत्तर दिशा की ओर मुख करके तथा सायंकाल दक्षिणाभिमुख होकर मल मूत्र का त्याग करें।<blockquote>पुरीषे मैथुने पाने प्रस्रावे दन्त धावने । स्नानभोजनजाप्येषु सदा मौनं समाचरेत् ।(अत्रिस्मृति-३२०)</blockquote>'''अनु-''' मल त्याग, मैथुन, जलादि पीने, लघुशंका करने, दन्तधावन, स्नान, भोजन तथा जप के समय सर्वदा मौन धारण करना चाहिये ।
 
याज्ञवल्क्य स्मृति में कहा गया है कि-<blockquote>दिवा सन्ध्या सुकर्णस्थ ब्रह्मसूत्र उदङ मुखः । कुर्यान्मूत्र पुरीणे च रात्रौ चेद्दक्षिणा मुखः ॥( याज्ञ० )</blockquote>'''अनु-''' जनेऊ को दायें कान पर चढ़ाकर प्रातःकाल उत्तर दिशा की ओर मुख करके तथा सायंकाल दक्षिणाभिमुख होकर मल मूत्र का त्याग करें।<blockquote>पुरीषे मैथुने पाने प्रस्रावे दन्त धावने । स्नानभोजनजाप्येषु सदा मौनं समाचरेत् ।(अत्रिस्मृति-३२०)</blockquote>'''अनु-''' मल त्याग, मैथुन, जलादि पीने, लघुशंका करने, दन्तधावन, स्नान, भोजन तथा जप के समय सर्वदा मौन धारण करना चाहिये ।
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== शौचाचार के विभाग ==
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मिट्टी और जलसे होनेवाला यह शौच-कार्य बाहरी है इसकी अबाधित आवश्यकता है किंतु आभ्यन्तर शौचके बिना बाह्यशौच प्रतिष्ठित नहीं हो पाता। मनोभावको शुद्ध रखना आभ्यन्तर शौच माना जाता है। किसीके प्रति ईर्ष्या, द्वेष, क्रोध, लोभ, मोह, घृणा आदिके भावका न होना आभ्यन्तर शौच है।<blockquote>शौचं तु द्विविधं प्रोक्तं बाह्यमाभ्यन्तरं तथा। मृज्जलाभ्यां स्मृतं बाह्यं भावशुद्धिस्तथान्तरम् ॥(वाधूलस्मृ.१९)</blockquote>इस प्रकार बौधायन धर्मसूत्र एवं हारीत और दक्षस्मृति आदि शास्त्रों में शौच के ये दो प्रकार हैं-
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*'''बाह्य शौच-''' हारीत ने बाह्य शौच को तीन भागों में विभाजित किया है-
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# '''कुल'''- कुल(परिवार) में जन्म एवं मरण के समय उत्पन्न अशौच से पवित्र होना।
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# '''अर्थ-''' सभी प्रकार के पात्रों एवं पदार्थों को स्वच्छ रखना।
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# '''शरीर-''' अपने शरीर को शुद्ध रखना।
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* '''आभ्यन्तर-''' उन्होंने आभ्यन्तर शौच को पाँच भागों में विभाजित किया है-
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# '''मानस-'''
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# '''चाक्षुष-'''
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# '''घ्राण्य-'''
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# '''वाच्य-'''
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# '''स्वाद्य-'''
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== शौचाचार का महत्व ==
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प्रातः समय शरीर-स्वच्छता तो सामान्य शौच का केवल एक अंग है। वस्तुतः शौच एक आत्मगुण है जैसा कि कहा गया है-<blockquote>शौचं नाम धर्मादिपथो ब्रह्मायतनं श्रियोधिवासो मनसः प्रसादनं देवानां प्रियं शरीरे क्षेत्रदर्शनं बुद्धिप्रबोधनम् ।( गृहस्थरत्नाकर पृ०५२२)</blockquote>अर्थ- शौच धर्म की ओर प्रथम मार्ग है। यहाँ ब्रह्म(वेद) का निवास-स्थान है, श्री(लक्ष्मी) भी यही रहतीं हैं, इससे मन स्वच्छ होता है, देवता इससे प्रसन्न रहते हैं, इसके द्वारा आत्म-बोध होता है और इससे बुद्धि का जागरण होता है।
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====शौचाचार विधान में वैज्ञानिक अंश====
 
====शौचाचार विधान में वैज्ञानिक अंश====
 
<blockquote>दश हस्तान् परित्यज्य मूत्र कुर्याज्जलाशये। शत हस्तान् पुरीषं तु तीर्थे नद्यां चतुर्गुणाम् ॥( आश्वलायन )</blockquote>अर्थात् तालाव आदि जलाशय से दश हाथ की दूरी छोड़ कर मल विसर्जन करना चाहिये। इसी भांति तीर्थ (मंदिर, विद्यालय आदि) स्थान और नदी से चालीस हाथ दूर मूत्र और चार सौ हाथ दूर मल विसर्जन करने जाना चाहिये। यह शास्त्र की आज्ञा है, इसमें लाभ तथा वैज्ञानिक रहस्य यह है कि मल दूर त्याग करने से जलाशय  मंदिर तथा विद्यालय आदि के किनारे का वायु मण्डल दूषित नहीं होगा स्वच्छता का वातावरण बना रहेगा।प्रात:काल के समय लोग मन्दिर में दर्शन, विद्यालय में पठन के लिए जाते हैं, स्वास्थ्य का दृष्टि से वायु सेवन का तथा नित्य कर्म की दृष्टि से यह स्नान, ध्यान, पठन पाठन आदि का समय होता है और इन कर्मों के लिये जलाशय, तीर्थ आदि स्थान पर ही विशेषकर लोग जाते हैं। अत: यदि इन स्थानों के आस पास मल मूत्र विसर्जन होगा तो न तो हमारा स्वास्थ्य ही ठीक रह सकेगा और न हमारे दैनिक आवश्यक कर्म ही सुचारु रूप से सम्पन्न हो सकेंगे अत: वातावरण को दूषित होने से बचाने के लिए तथा पवित्रता की रक्षा करने के लिये ही ऋषियों ने ऐसी व्यवस्था धर्म रूप से की है इससे हम सभी का ही कल्याण है ।<blockquote>वाचं नियम्य यत्नेन ष्ठीवनोच्छ्वासवर्जितः।</blockquote>अर्थात् शौच के समय बोलना हांफना और थूकना आदि नहीं चाहिये।<blockquote>प्रत्यग्नि प्रतिसूर्यश्च प्रतिसोमोदकद्विजान् । प्रतिगां प्रतिवातं च प्रज्ञा नश्यति मेहतः ॥ (मनु० ४।५२ तथा वशिष्ठ० ६।११)</blockquote>अर्थात् अग्नि, सूर्य, चन्द्रमा, जल, ब्राह्मण, गौ तथा वायु इन के सामने की ओर मल मूत्र करने वाले की बुद्धि नष्ट हो जाती है।
 
<blockquote>दश हस्तान् परित्यज्य मूत्र कुर्याज्जलाशये। शत हस्तान् पुरीषं तु तीर्थे नद्यां चतुर्गुणाम् ॥( आश्वलायन )</blockquote>अर्थात् तालाव आदि जलाशय से दश हाथ की दूरी छोड़ कर मल विसर्जन करना चाहिये। इसी भांति तीर्थ (मंदिर, विद्यालय आदि) स्थान और नदी से चालीस हाथ दूर मूत्र और चार सौ हाथ दूर मल विसर्जन करने जाना चाहिये। यह शास्त्र की आज्ञा है, इसमें लाभ तथा वैज्ञानिक रहस्य यह है कि मल दूर त्याग करने से जलाशय  मंदिर तथा विद्यालय आदि के किनारे का वायु मण्डल दूषित नहीं होगा स्वच्छता का वातावरण बना रहेगा।प्रात:काल के समय लोग मन्दिर में दर्शन, विद्यालय में पठन के लिए जाते हैं, स्वास्थ्य का दृष्टि से वायु सेवन का तथा नित्य कर्म की दृष्टि से यह स्नान, ध्यान, पठन पाठन आदि का समय होता है और इन कर्मों के लिये जलाशय, तीर्थ आदि स्थान पर ही विशेषकर लोग जाते हैं। अत: यदि इन स्थानों के आस पास मल मूत्र विसर्जन होगा तो न तो हमारा स्वास्थ्य ही ठीक रह सकेगा और न हमारे दैनिक आवश्यक कर्म ही सुचारु रूप से सम्पन्न हो सकेंगे अत: वातावरण को दूषित होने से बचाने के लिए तथा पवित्रता की रक्षा करने के लिये ही ऋषियों ने ऐसी व्यवस्था धर्म रूप से की है इससे हम सभी का ही कल्याण है ।<blockquote>वाचं नियम्य यत्नेन ष्ठीवनोच्छ्वासवर्जितः।</blockquote>अर्थात् शौच के समय बोलना हांफना और थूकना आदि नहीं चाहिये।<blockquote>प्रत्यग्नि प्रतिसूर्यश्च प्रतिसोमोदकद्विजान् । प्रतिगां प्रतिवातं च प्रज्ञा नश्यति मेहतः ॥ (मनु० ४।५२ तथा वशिष्ठ० ६।११)</blockquote>अर्थात् अग्नि, सूर्य, चन्द्रमा, जल, ब्राह्मण, गौ तथा वायु इन के सामने की ओर मल मूत्र करने वाले की बुद्धि नष्ट हो जाती है।
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