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                                           '''(ऋग्वेद 8.18.16)'''</blockquote>
 
                                           '''(ऋग्वेद 8.18.16)'''</blockquote>
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== शास्त्र में जल संरक्षण ==
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वेदों में जल संरक्षण के विषय में पढ़ेंगे। वेदों में जल संरक्षण पर विशेष बल दिया गया है। साथ ही हमारे जीवन में जल के महत्व को रेखांकित किया गया है।
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=== प्राचीन भारत में जल संरक्षण ===
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प्राचीन भारतीय संस्कृति में जल को जीवन माना गया है-जलमेव जीवनम्‌। हमारे वैदिक साहित्य में जल के स्रोतों, जल का समस्त प्राणियों के लिए महत्व, जल की गुणवत्ता तथा उसके संरक्षण के लिए बहुत अधिक बल दिया गया है। वेदों में जल को औषधीय गुणयुक्त कहा गया है। चरक संहिता में आचार्य चरक ने भी भूजल कौ गुणवत्ता पर चर्चा की है। प्राचीन भारतीय संस्कृति में माना गया है कि ब्रह्मण्ड में जितने भी प्रकार का जल है उसका हमें सरंक्षण करना चाहिए। नदियों के जल को सर्वाधिक संरक्षणीय माना गया हे क्योंकि वे कृषि क्षेत्रों को सींचती है जिससे प्राणिमात्र का जीवन चलता है। नदियों का बहता जल शुद्ध माना गया है। इसलिए नदियों को प्रदुषित नहीं करना चाहिए।
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अथर्ववेद में सप्तसैन्धव नदियों का उल्लेख मिलता है। ये सात नदियां निम्न है-
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# सिन्धु नदी
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# विपाशा (व्यास) नदी
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# शतुद्रि (सतलज) नदी
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# वितस्ता (झेलम) नदी
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# असिक्को (चेन्नब) नदी
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# सरस्वती नदी
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ऋग्वेद में इन नदियों को माता के समान सम्मान दिया गया हे-<blockquote>'''ता अस्मश्यं पमसा पिन्वमाना शिवादेवीरशिवद।'''
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'''भवन्त सर्वा नधः अशिमिहा भवन्तु। टिप्पणी'''
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                                                          '''(ऋग्वेद 7.50.4)'''</blockquote>नदियां जल का वहन करती हुई, सभी प्राणिमात्र को तृप्त करती हैं। भोजनादि प्रदान करती हैं। आनन्द को बढ़ाने वाली में तथा अन्नादि वनस्पति से प्रेम करने वाली हैं।
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जल संरक्षण पर बल देते हुए ऋग्वेद में कहा गया है कि जल हमारी माता जैसे है। जल घृत के समान हमें शक्तिशाली और उत्तम बनाये। इस तरह के जल जिस रूप में जहां कहीं भी हो वे रक्षा करने योग्य हे-<blockquote>'''“ आपो अस्मान्मातरः शुन्धयन्तु द्यृतेन ना द्यृत्प्वः पुनन्तु।”'''
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                                                                                '''(ऋग्वेद 10.17.10)'''</blockquote>जल संरक्षण के लिए वेदों में वर्षा जल तथा बहते हुए जल के विषय में कहा है कि हे मनुष्य! वर्षा जल तथा अन्य स्रोतों से निकलने वाला जल जैसे कुएं, बावडियां आदि तथा फैले हुए जल तालाबादि के जल में बहुत पोषण होता हे।
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इस बात को तुम्हें जानना चाहिए तथा इस प्रकार के पोषक युक्त जल का प्रयोग करके वेगवान और शक्तिमान बनना चाहिए-<blockquote>'''अपामह  दिव्यानामपां स्रोतस्यानाम्‌'''
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'''ऊपामह प्रणेजनेदश्वा भवय वाजिनः।'''
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                                                        '''( अथर्ववेद 19.1.4)'''</blockquote>वर्षा के जल को संरक्षित करना चाहिए क्योंकि यह सर्वाधिक शुद्ध जल होता है। इस विषय में अथर्ववेद में कहा गया है कि-वर्षा का जल हमारे लिए कल्याणकारी है-<blockquote>'''शिवा नः सन्तु वार्षिकीः।'''
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                                          '''( अथर्ववेद 1.6.4)'''</blockquote>जल को प्रदुषित होने से बचाना चाहिए तथा हमारे प्रयास इस तरह से रहें कि  जल प्रदूषित न करें। इस विषय में यजुर्वेद में कहा गया है कि जल को नष्ट मत करो-<blockquote>'''“मा आपो हिसी।”'''
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                          '''(यजुर्वेद 6.22)'''</blockquote>यहां पर ऋषि आदेश देता है कि जल को नष्ट मत करो। यह अमूल्य निधि है।
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अथर्ववेद में नौ प्रकार के जलों का उल्लेख किया गया हे-
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# '''परिचरा आपः -'''                    प्राकतिक झरनों  से बहने वाला जल
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# '''हेमवती आपः -'''                    हिमयुक्त पर्वतों से बहने वाला जल
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# '''वर्ष्या आपः'''                          वर्षा जल
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# '''सनिष्यदा आपः'''                    तेज गति से बहता हुआ जल
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# '''अनूप्पा आपः'''                      अनूप देश का जल अर्थात्‌ ऐसे प्रदेश का जल जहां पर दलदल अधिक हो।
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# '''धथन्वन्या आपः -'''                  मरुभूमि का जल
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# '''कुम्भेभिरावृता आपः'''            -घडों में स्थित जल
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# '''अनभ्रयः आपः -'''                    किसी यंत्र से खोदकर निकाला गया जल, जेसे-कुएं का
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# '''उत्सया आपः -'''                      स्रोत का जल, जेसे-तालाबादि
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इस तरह से यह प्रतीत होता है कि वेदों में जल को बहुत अधिक महत्व दिया गया है तथा उसके सभी प्रकारों को चिहिन्त किया गया हे ताकि जल संरक्षण कर सकें। आज हमें जरुरत है कि हम हमारी प्राचीन ज्ञान परम्परा के संरक्षण के इस संदेश को ग्रहण करें और जल को सरंक्षित करने का प्रयास करें। वेदों में कहा गया है कि वर्षा के होने से जल में प्रवाह आता हे और नदी के रूप में जल प्रवाह को प्राप्त करता है। प्रवाह युक्त जल को हमारे संस्कृति में पवित्र माना गया है। तभी तो हमारी संस्कृति में नदियों को माता के समान तथा पूजनीय माना गया है। नदियों की पवित्रता के संबंध में वैदिक साहित्य में कहा गया है कि ऐसी नदी जो पर्वत से निकल कर समुद्र तक प्रवाहित होती है वह पवित्र होती है। इस बात के माध्यम से वैदिक ऋषि हमें संदेश देना चाहते हैं कि नदियों के अबाध प्रवाह को सरंक्षित किया जाना चाहिए। नदियों को बहने देना चाहिए।
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अथर्ववेद में '''“मित्र'<nowiki/>''' तथा '''“वरुण'''' को वर्षा के देवता कहा गया है। मित्र तथा वरुण के मिलने से जल की उत्पत्ति होती है। मित्र तथा वरुण वस्तुतः क्रमशः आक्सीजन तथा हाइड्रोजन के वाचक हे।  प्रदूषित जल को शुद्ध किये जाने के क्रम में वेद में कहा गया है कि वायु तथा सूर्य दोनों जल को शुद्ध करते हैं। सूर्य की किरणें जल के कीटाणुओं को नष्ट कर जल को शुद्ध करती है।
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ऋग्वेद के ऋषि का कथन है कि हे मनुष्यों! अमृत तुल्य तथा गुणकारी जल का सही प्रयोग करने वाले बनो। जल की प्रशंसा और स्तुति करने के लिए सदैव ही तैयार रहो-<blockquote>'''अप्स्वडन्तरमृतमप्सु भेषजमपामुत प्रशस्तये देवा भक्त वाजिनः।'''
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                                                                                        '''(ऋग्वेद 1.23.19)'''</blockquote>
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