Line 5: |
Line 5: |
| | | |
| == परिभाषा॥ Paribhasha == | | == परिभाषा॥ Paribhasha == |
| + | |
| + | |
| + | |
| ज्योतिष शास्त्र का इतिहास॥ | | ज्योतिष शास्त्र का इतिहास॥ |
| | | |
Line 39: |
Line 42: |
| इस प्रकार हमारे फलित ज्योतिष के अनेकों विभाग हैं जिसके द्वारा फल कथन किया जाता है। इन सभी शाखाओं का मूलस्त्रोत ग्रहगणित है । इस ग्रहगणित स्कन्ध को सिद्धान्त स्कन्ध भी कहा जाता है । ज्योतिष कल्पवृक्ष का मूल ग्रहगणित है जो खगोल विद्या से जाना जाता है । अंकगणित, बीजगणित, रेखागणित, त्रिकोणमिति गणित, गोलीय रेखागणित इस स्कन्ध के अन्तर्गत आते हैं। किसी भी अभीष्ट समय के क्षितिज, क्रान्तवृत्त सम्पात रूप लग्न बिन्दु के ज्ञान से विश्व के चराचर जीवों का, मानव सृष्टि में उत्पन्न जातक को शुभाशुभ ज्ञान की भूमिका होती है । इस प्रकार ज्योतिष की महिमा वेद, वेदाङ्ग तथा पुराण एवं धर्मशास्त्रों में सर्वत्र उपलब्ध है। | | इस प्रकार हमारे फलित ज्योतिष के अनेकों विभाग हैं जिसके द्वारा फल कथन किया जाता है। इन सभी शाखाओं का मूलस्त्रोत ग्रहगणित है । इस ग्रहगणित स्कन्ध को सिद्धान्त स्कन्ध भी कहा जाता है । ज्योतिष कल्पवृक्ष का मूल ग्रहगणित है जो खगोल विद्या से जाना जाता है । अंकगणित, बीजगणित, रेखागणित, त्रिकोणमिति गणित, गोलीय रेखागणित इस स्कन्ध के अन्तर्गत आते हैं। किसी भी अभीष्ट समय के क्षितिज, क्रान्तवृत्त सम्पात रूप लग्न बिन्दु के ज्ञान से विश्व के चराचर जीवों का, मानव सृष्टि में उत्पन्न जातक को शुभाशुभ ज्ञान की भूमिका होती है । इस प्रकार ज्योतिष की महिमा वेद, वेदाङ्ग तथा पुराण एवं धर्मशास्त्रों में सर्वत्र उपलब्ध है। |
| | | |
− | == ज्योतिष एवं आयुर्वेद॥ Jyotisha And Aayurveda == | + | == ज्योतिष एवं आयुर्वेद॥ Jyotisha And Ayurveda == |
− | ज्योतिषशास्त्र और चिकित्साशास्त्र का सम्बन्ध प्राचीन कालसे रहा है। आयु एवं आयुर्ज्ञान संबन्धी आयुर्वेदशास्त्र अनादि है। आयुर्वेद का स्थल बहुत विस्तीर्ण है, जिसमें उसका ज्योतिष के साथ भी समावेश प्राप्त होता है। आयुर्वेद में औषधिके अतिरिक्त दैवव्यपाश्रय चिकित्साके अन्तर्गत मणि एवं मन्त्रों से चिकित्सा करने का विधान है। पूर्वकालमें एक सुयोग्य चिकित्सकके लिये ज्योतिष-विषयका ज्ञाता होना अनिवार्य था। इससे रोग-निदान में सरलता होती थी। ज्योतिष-शास्त्रके द्वारा रोगकी प्रकृति, रोगका प्रभाव-क्षेत्र, रोगका निदान और साथ ही रोगके प्रकट होनेकी अवधि तथा कारणोंका भलीभॉंति विश्लेषण किया जा सकता हैं।
| + | {{Main|Jyotisha And Ayurveda (ज्योतिष एवं आयुर्वेद)}} |
− | | + | ज्योतिष एवं आयुर्वेद का संबन्ध जैसे संसार में भाई-भाई का सम्बन्ध है। में दैव एवं दैवज्ञ दोनों का महत्त्व प्रतिपादित किया गया है। इन दोनों की उत्तमता का योग हो तो निश्चित रूप से सुखपूर्वक दीर्घायुकी प्राप्ति होती है। इसके विपरीत हीन संयोग दुःख एवम अल्पायु के कारण बनते हैं। इन्हींके आधार पर आयुका मान नियत किया जाता है-<blockquote>दैवेदचेतरत् कर्म विशिष्टेनोपहन्यते। दृष्ट्वा यदेके मन्यन्ते नियतं मानमायुषः॥( चरक विमा० ३। ३४)</blockquote>आयुर्वेद के अनुसार सृष्टिके शक्तिपुञ्ज अदृश्य होते हुये भी गर्भाधान क्रिया, कोशीय संरचना एवं विकसित होते भ्रूणपर बहुत गहरा प्रभाव डालते हैं। गर्भाधानके समय आकाशीय शक्तियॉं भ्रूणके गुण-संगठन एवं जीन्स-संगठनपर पूर्ण प्रभाव डालती है। इसीलिये भारतीय परम्परा में गर्भाधान आदि [[Solah samskar ( सोलह संस्कार )|सोलह संस्कार]] विहित हैं जो कि ज्योतिष के मध्यम से एक निहित शुभ काल में किये जाते हैं जिससे आकशीय शक्तिपुञ्जों का दुष्प्रभाव पतित न हो। |
− | == परिचय॥ Parichaya ==
| |
− | | |
− | हमारे जीवन में उत्पन्न रोग त्रिविध कर्मों के परिणाम हैं। जन्मजात रोग, वंशानुक्रम रोग एवं संचित कर्मों के परिणाम क्रियमाण का फल है रोगों का आगमन।
| |
− | | |
− | == रोगों का वर्गीकरण॥ ==
| |
− | ज्योतिषशास्त्र के ग्रन्थों में रोगों का गम्भीरता पूर्वक विचार करने से सर्वप्रथम उनके भेदों का विचार किया गया है, इस शास्त्र में रोगों को मुख्यतः दो प्रकार का माना गया है-
| |
− | | |
− | # '''सहज-''' जन्मजात रोगों को सहज रोग कहते हैं।
| |
− | # '''आगन्तुक-''' जन्म के बाद होने वाले रोगों को आगन्तुक रोग कहते हैं।
| |
− | | |
− | सहज रोगों के दो भेद होते हैं- '''शारीरिक''' एवं '''मानसिक।'''
| |
− | | |
− | # '''शारीरिक-''' लंगडापन, कुबडापन, अन्धत्व, मूकत्व, बधिरत्व, नपुंसकत्व, हीनांग आदि कुछ शारीरिक रोग जन्मजात होते हैं।
| |
− | # '''मानसिक-''' जडता, उन्माद एवम पागलपन आदि कुछ मानसिक रोग भी जन्मजात होते हैं। इस प्रकार के समस्त रोगों को सहज रोग कहा गया है।
| |
− | | |
− | आगन्तुक रोग भी दो प्रकार के होते हैं- '''दृष्टिनिमित्तजन्य''' एवं '''अदृष्टिनिमित्तजन्य'''।
| |
− | | |
− | # '''दृष्टिनिमित्तजन्य -''' शाप, अभिचार, घात, संसर्ग, महामारी एवं दुर्घटना आदि प्रत्यक्ष घटनाओं द्वारा उत्पन्न होने वाले रोगों को दृष्टिनिमित्तजन्य रोग कहते हैं।
| |
− | # '''अदृष्टिनिमित्तजन्य -''' जिन रोगों का कारण प्रत्यक्ष रूप से दिखाई नहीं देता, उन रोगों को अदृष्ट निमित्त जन्य रोग कहते हैं।
| |
− | | |
− | सूर्यादि ग्रह मनुष्य के शरीर के समस्त अंग, धातु, वात, प्त्त, कफ आदि त्रिदोष, आन्तरिक संरचना एवं संचालन प्रक्रिया का प्रतिनिधित्व करते हैं।
| |
| | | |
− | == ग्रह अधिष्ठित शरीराङ्ग॥ Planets Ruling The Body Parts ==
| + | जन्मलग्न के द्वारा यह ज्ञात हो सकता है कि बच्चेमें किन आधारभूत तत्त्वों की कमी रह गई है। ज्योतिषशास्त्र के ज्ञान के आधार पर ज्योतिषी पहले ही सूचित कर देते हैं शिशु को इस अवस्था में ये रोग होगा। |
− | नवग्रहों में सूर्य-चन्द्र आदि जिस राशि में बैठते हैं, उसके अनुरूप रोग-विचार होता है। तथापि उनका स्वतन्त्र रूपमें जिस अङ्ग पर प्रभाव या रोग विशेष होने की सम्भावना होती है उसे अधोलिखित सारणी द्वारा समझा जा सकता है<ref>श्री नलिनजी पाण्डे, आरोग्य अङ्क, ज्योतिष-रोग एवं उपचार, गोरखपुरः गीताप्रेस (पृ०२८३)।</ref>-
| |
− | {| class="wikitable"
| |
− | |+नवग्रह, रोग तथा तत्संबन्धित अङ्ग
| |
− | !ग्रह
| |
− | !अङ्ग
| |
− | !रोग
| |
− | |-
| |
− | |सूर्य
| |
− | |सिर, हृदय, ऑंख( दायीं), मुख, तिल्ली, गला, मस्तिष्क, पित्ताशय, हड्डी, रक्त, फेफडे, स्तन।
| |
− | |
| |
− | |-
| |
− | |चन्द्र
| |
− | |छाती, लार, गर्भ, जल, रक्त, लसिका, ग्रन्थियॉं, कफ, मूत्र, मन, ऑंख(बायीं), उदर, डिम्बग्रन्थि, जननाङ्ग(महिला)।
| |
− | |
| |
− | |-
| |
− | |मंगल
| |
− | |पित्त, मात्रक, मांसपेशी, स्वादेन्द्रिय, पेशीतन्त्र, तन्तु, बाह्य-जननाङ्ग, प्रोस्टेट, गुदा, रक्त, अस्थि-मज्जा, नाक, नस, ऊतक।
| |
− | |
| |
− | |-
| |
− | |बुध
| |
− | |स्नायु-तन्त्र, जीभ, ऑंत, वाणी, नाक, कान, गला, फेफडे।
| |
− | |
| |
− | |-
| |
− | |बृहस्पति
| |
− | |यकृत् , नितम्ब, जॉंघ, मांस, चर्बी, कफ, पॉंव।
| |
− | |
| |
− | |-
| |
− | |शुक्र
| |
− | |जननाङ्ग, ऑंख, मुख, ठुड्डी, गाल, गुर्दे, ग्लैण्ड, वीर्य।
| |
− | |
| |
− | |-
| |
− | |शनि
| |
− | |पॉंव, घुटने, श्वास, हड्डी, बाल, नाखून, दॉंत, कान।
| |
− | |
| |
− | |-
| |
− | |राहु, केतु
| |
− | |राहु मुख्यतः शरीरके ऊपरी हिस्से और केतु निचले धडको बतलाते हैं।
| |
− | |
| |
− | |}
| |
| | | |
| ज्योतिषशास्त्रके अनुसार विभिन्न ग्रह निम्न शरीर रचनाओं के नियन्त्रक होते हैं- | | ज्योतिषशास्त्रके अनुसार विभिन्न ग्रह निम्न शरीर रचनाओं के नियन्त्रक होते हैं- |
| + | #'''सूर्य-''' अस्थि, जैव-विद्युत् , श्वसन-तन्त्र। |
| + | #'''चन्द्रमा-''' रक्त, जल, अन्तःस्रावी ग्रन्थियॉं(हार्मोन्स)। |
| + | #'''मंगल-''' यकृत् , रक्तकणिकाऍं, पाचन-तन्त्र। |
| + | #'''बुध-''' अङ्ग-प्रत्यङ्ग स्थित तन्त्रिका जाल। |
| + | #'''बृहस्पति-''' नाडीतन्त्र, स्मृति, बुद्धि। |
| + | #'''शुक्र-''' वीर्य, रज, कफ, गुप्ताङ्ग। |
| + | #'''शनि-''' केन्द्रीय नाडीतन्त्र, मन। |
| + | #'''राहु एवं केतु-''' शरीरके अन्दर आकाश एवं अपानवायु। |
| + | ग्रहदोषके अनुसार ही विभिन्न वनौषधियां ग्रह बाधा का निवारण करती हैं। शरीरमें वात,पित्त एवं कफ की मात्राका समन्वय रहनेपर ही शरीर साधारणतया स्वस्थ बना रहता है अतः स्वस्थ शरीर के लिये व्याधियों के ज्ञान पूर्वक उपचार हेतु ज्योतिष एवं आयुर्वेद शास्त्र का ज्ञान होना आवश्यक है। |
| | | |
− | # '''सूर्य-''' अस्थि, जैव-विद्युत् , श्वसन-तन्त्र।
| + | == उद्धरण॥ References == |
− | # '''चन्द्रमा-''' रक्त, जल, अन्तःस्रावी ग्रन्थियॉं(हार्मोन्स)।
| |
− | # '''मंगल-''' यकृत् , रक्तकणिकाऍं, पाचन-तन्त्र।
| |
− | # '''बुध-''' अङ्ग-प्रत्यङ्ग स्थित तन्त्रिका जाल।
| |
− | # '''बृहस्पति-''' नाडीतन्त्र, स्मृति, बुद्धि।
| |
− | # '''शुक्र-''' वीर्य, रज, कफ, गुप्ताङ्ग।
| |
− | # '''शनि-''' केन्द्रीय नाडीतन्त्र, मन।
| |
− | # '''राहु एवं केतु-''' शरीरके अन्दर आकाश एवं अपानवायु।
| |
− | | |
− | ==ज्योतिष में त्रिदोष॥ Tridoshas in Jyotisha==
| |
− | भारतीय दर्शन की मान्यतानुसार त्रिदोष चर्चा में चिकित्सा शास्त्र का जनक आयुर्वेद है। जिसे कुछ विद्वान् पञ्चमवेद भी कहते हैं। <nowiki>''</nowiki>शरीरं व्याधि मन्दिरम्<nowiki>''</nowiki> इस उक्ति के समाधान में आयुर्वेद शास्त्र की रचना हुई। आज चिकित्सा के कई रूप उपलब्ध हैं पर सभी का जन्मदाता आयुर्वेद ही है। आयुर्वेद, एलोपैथ तथा होम्योपैथ की चिकित्सा सम्पूर्ण देश में सर्वमान्य है। भारतीय चिकित्सा शास्त्र में त्रिदोष का वर्णन सर्वत्र है, अर्थात् वात, पित्त और कफ जन्य ही रोग होते हैं। चिकित्साशास्त्र इन्हीं पर आधारित है । ज्योतिष शास्त्र में भी त्रिदोष की चर्चा है। ग्रह नक्षत्रों का शास्त्र ज्योतिष है। नवग्रहों की प्रधानता ज्योतिष शास्त्र में वर्णित है। ये सभी ग्रह त्रिदोष से सम्बन्धित हैं। इनमें से कोई वातज, कोई पित्तज तथा कोई कफज है-
| |
− | | |
− | * '''वातज ग्रह-''' शनि, राहु केतु।
| |
− | * '''पित्तज ग्रह'''- सूर्य, मंगल, गुरु।
| |
− | * '''कफज ग्रह'''- शुक्र और चन्द्र।
| |
− | | |
− | बुध को तटस्थ(न्यूट्रल) कहा गया है, इन ग्रहों के दाय काल में अथवा इनके दुर्बल होने से उक्त त्रिदोषजन्य व्याधियाँ होती है। जिसे व्यवहार में भी अनुभव किया गया है
| |
− | ===वातजन्य व्याधियॉं===
| |
− | शनि, राहु, केतु के दुष्प्रभाव से वात जन्य व्याधियाँ होती हैं । यह पहले भी कहा जा चुका है । ये वात व्याधियाँ चिकित्सा शास्त्र के जनक आयुर्वेद शास्त्र के चरक संहिता में अस्सी प्रकार की बताई गई हैं । इन सभी के अनेक भेद तथा उपभेद भी हैं । जिसपर चिकित्साशास्त्र आधारित हैं । इसी प्रसंग में इन ८० प्रकार की वात व्याधियों का नाम चरक संहिता से संग्रहीत कर नीचे दिया जा रहा है-
| |
− | | |
− | {{columns-list|colwidth=10em|style=width: 800px; font-style: italic;|
| |
− | * १. नखभेद
| |
− | * २. व्यवाई
| |
− | * ३. पादशूल
| |
− | * ४. पाद भ्रंश
| |
− | * ५. पाद सुप्तता
| |
− | * ६. पाद खुड्डता
| |
− | * ७. गुल्मग्रह
| |
− | * ८. पिण्डिकोद्वेष्टन
| |
− | * ९. गृध्रसी
| |
− | * १०. जानुभेद
| |
− | * ११. जानुविश्लेष
| |
− | * १२. उरुस्तम्भ
| |
− | * १३. उरुसाद
| |
− | * १४. पाङ्गुल्य
| |
− | * १५. गुदभ्रंश
| |
− | * १६. गुदार्ति
| |
− | * १७. वृषणोत्क्षेप
| |
− | * १८. शेफस्तम्भ
| |
− | * १९. वक्षणान
| |
− | * २०. श्रोणिमेद
| |
− | * २१. विड्भेद
| |
− | * २२. उदावर्त
| |
− | * २३. खञ्जता
| |
− | * २४. कुब्जता
| |
− | * २५. वामनत्व
| |
− | * २६. तृक्ग्रह
| |
− | * २७. पुष्टग्रह
| |
− | * २८. पार्श्वावमर्द
| |
− | * २९. उदरावेष्ट
| |
− | * ३०. हृन्मोह
| |
− | * ३१. हृदद्रव
| |
− | * ३२. वक्षोघर्ष
| |
− | * ३३. वक्षोपरोध
| |
− | * ३४. वक्षस्तोद
| |
− | * ३५. वाडूशोष
| |
− | * ३६. ग्रवास्तम्भ
| |
− | * ३७. मन्यास्तम्भ
| |
− | * ३८. कण्ठोध्वंस
| |
− | * ३९. हनुभेद
| |
− | * ४०. ओष्ठभेद
| |
− | * ४१. अक्षिभेद
| |
− | * ४२. दन्तभेद
| |
− | * ४३. दन्तशैथिल्य
| |
− | * ४४. मूकत्व
| |
− | * ४५. वाक्संग
| |
− | * ४६. काषायस्यता
| |
− | * ४७. मुख शोष
| |
− | * ४८ अरसज्ञता
| |
− | * ४९. घ्राणनाश
| |
− | * ५०. कर्णमूल
| |
− | * ५१.
| |
− | * ५२. उच्चैश्रुति
| |
− | * ५३. बहरापन
| |
− | * ५४. वर्त्मस्तम्भ
| |
− | * ५५. वर्त्मसंकोच
| |
− | * ५६. तिमिर
| |
− | * ५७. नेत्रशूल
| |
− | * ५८. अक्षिब्युदास
| |
− | * ५९. ब्रूव्युदास
| |
− | * ६०. शंखभेद
| |
− | * ६१. ललाटभेद
| |
− | * ६२. शिरःशूल
| |
− | * ६३. केशभूमिस्फुटन
| |
− | * ६४. आदिंत
| |
− | * ६५. एकाङ्गरोग
| |
− | * ६६. सर्वाङ्गरोग
| |
− | * ६७. आक्षेपक
| |
− | * ६८. दण्डक
| |
− | * ६९. तम
| |
− | * ७०. भ्रम
| |
− | * ७१. वैपयु
| |
− | * ७२. जम्भाई
| |
− | * ७३. हिचकी
| |
− | * ७४. विषाद
| |
− | * ७५. अतिप्रलाप
| |
− | * ७६. रुक्षता
| |
− | * ७७. परुषता
| |
− | * ७८. श्यावशरीर
| |
− | * ७९. लाल शरीर
| |
− | * ८०. अस्वप्न अनवस्थित}}
| |
− | ये मुख्यतः वात जन्य व्याधियाँ हैं । शनि, राहु, तथा केतु ग्रह की दुर्बलता, अनिष्ट अरिष्ट सूचक होने पर उक्त व्याधियों का होना सुनिश्चित है ।
| |
− | | |
− | ===पित्तजन्य व्याधियॉं===
| |
− | पित्तजन्य ४० प्रकार की व्याधियाँ (रोग) होती हैं । हमारे ज्योतिष शास्त्र के अनुसार सूर्य, मंगल तथा गुरु के दुर्बल तथा अरिष्ट सूचक होने पर अघोलिखित व्याधियाँ (रोग) होती हैं, जिनकी नामावली अधोलिखित हैं-
| |
− | | |
− | {{columns-list|colwidth=10em|style=width: 800px; font-style: italic;|
| |
− | * १. ओष
| |
− | * २. प्लोष
| |
− | * ३. दाह
| |
− | * ४. दवधु
| |
− | * ५. धूमक
| |
− | * ६. अम्लक
| |
− | * ७. विदाह
| |
− | * ८. अन्तरदाह
| |
− | * ९. अंशदाह
| |
− | * १०. उष्माधिक्य
| |
− | * ११. अतिश्वेद
| |
− | * १२. अङ्गरान्ध
| |
− | * १३. अङ्कावदरण
| |
− | * १४. शोणितक्लेद
| |
− | * १५. मांस क्लेद
| |
− | * १६. त्वक्टाह
| |
− | * १७. त्वगवदरण
| |
− | * १८. चरमावदरण
| |
− | * १९. रक्तकोष्ठ
| |
− | * २०. रक्तविस्फोट
| |
− | * २१. रक्तपित्त
| |
− | * २२. रक्तमण्डल
| |
− | * २३. हरितत्त्व
| |
− | * २४. हारिद्रवत्व
| |
− | * २५. नीलिका
| |
− | * २६. कथ्या
| |
− | * २७. कामला
| |
− | * २८. तिक्तास्यता
| |
− | * २९. लोहितगन्धास्यता
| |
− | * ३०. अक्षिपाक
| |
− | * ३१. तृष्णाधिक्य
| |
− | * ३२. अतृप्ति
| |
− | * ३३. आस्यविपाक
| |
− | * ३४. गलपाक
| |
− | * ३५. अक्षिपाक
| |
− | * ३६. गुदपाक
| |
− | * ३७. मुडपाक और जीवादान
| |
− | * ३८. तमः प्रवेश
| |
− | * ३९. नेत्र शूल
| |
− | * ४०. अमलका हरा वर्ण या पीला वर्ण}}। गुरु, सूर्य तथा मंगल के कारण ये व्याधियाँ होती हैं। इसलिये इन ग्रहों के दायकाल में इनका निदान तथा समाधान आवश्यक है।
| |
− | | |
− | ===कफजन्य व्याधियॉं॥===
| |
− | कफ जन्य रोग चन्द्रमा और शुक्र के प्रभाव से होते हैं। चन्द्र और शुक्र दोनों ग्रहों की प्रकृति शीतल है। शीतव्याधि से २० प्रकार के रोग उत्पन्न होते हैं। जिसकी चर्चा चिकित्सा शास्त्र में महर्षि चरक ने चरक संहिता के २०वें अध्याय में वर्णित किया है। इन रोगों के भी उपरोग अनेकों हैं। जिसकी चर्चा आयुर्वेद शास्त्र में विस्तार पूर्वक की गयी है। ये व्याधियाँ प्रसंगतः अधोलिखित रूप से यहाँ दी जा रही हैं-
| |
− | | |
− | {{columns-list|colwidth=10em|style=width: 800px; font-style: italic;|
| |
− | * १. तृप्ति
| |
− | * २. तन्द्रा
| |
− | * ३. निद्राधिक्य
| |
− | * ४. स्तैमित्य
| |
− | * ५. गुरुगात्रता
| |
− | * ६. आलस्य
| |
− | * ७. मुखमाधुर्य
| |
− | * ८. मुखस्राव
| |
− | * ९. श्लेष्मोगिरण
| |
− | * १०. मलस्याधिक्य
| |
− | * ११. बलासक
| |
− | * १२. अपचन
| |
− | * १३. हृदयोपलेप
| |
− | * १४. कण्ठोपलेप
| |
− | * १५. धमनीप्रतिचय
| |
− | * १६. गलगण्ड
| |
− | * १७. अतिस्थौल्य
| |
− | * १८. शीताग्निता
| |
− | * १९. उदर्द
| |
− | * २०. श्वेतावगासता (मूत्र, नेत्र का श्वेत होना)।}}
| |
− | | |
− | इन तथ्यों के आधार पर चिकित्साशास्त्र और ज्योतिष शास्त्र का तादात्म्य सम्बन्ध है । इसीलिये चिकित्सा को ज्योतिष से जोड़कर कार्य किया जाय तो अधिकाधिक लाभ तथा नैरुज्यता प्रदान की जा सकती है । ग्रह और राशियाँ सभी त्रिदोष युक्त हैं । संस्कृत में लिङ्ग भेद प्रसंग में तीन लिङ्गों का वर्णन आया है । १. स्त्री लिङ्ग, २. पुलिङ्ग, ३. नपुंसक लिङ्ग। ग्रहों में भी बुध को नपुंसक कहा गया है । बुध जिस ग्रह के साथ रहता है वह उसी के अनुरूप फल प्रदान करता है । अतः बुध ग्रह के दाय काल में बुध की स्थिति तथा साहचर्य पर विचार कर रोगों के विषय में फलादेश करना चाहिए| वात-पित्त-कफ तीनों में ग्रह साहचर्य के अनुसार गुणदोष का ज्ञान कर बुध ग्रह की स्थिति जानकर फल कहना उचित होगा । बुध को न्यूट्रल कहा गया है । अतः गुण, स्वभाव का भी उसी के आधार पर निरूपण करना चाहिए।
| |
− | | |
− | == उद्धरण॥ == | |
| [[Category:Vedangas]] | | [[Category:Vedangas]] |