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सुधार जारि
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ज्योतिष वह शास्त्र है, जिसमें आकाशमें स्थित ग्रह नक्षत्र आदि की गति, परिमाण, दूरी आदिका निश्चय किया जाता है। प्रायः समस्त भारतीय विज्ञान का लक्ष्य एकमात्र अपनी आत्माका विकासकर उसे परमात्मा में मिला देना या तत्तुल्य बना लेना है। दर्शन या विज्ञान सभी का ध्येय विश्व के अनसुलझे रहस्य को सुलझाना है। ज्योतिष भी विज्ञान होने के कारण समस्त ब्रह्माण्ड के रहस्य को व्यक्त करनेका प्रयत्न करता है। ज्योतिषशास्त्रका अर्थ प्रकाश देने वाला या प्रकाशके सम्बन्ध में बतलाने वाला शास्त्र होता है। अर्थात् जिस शास्त्रसे संसार का मर्म, जीवन-मरण का रहस्य और जीवन के सुख-दुःख के सम्बन्ध में पूर्ण प्रकाश मिले वह ज्योतिषशास्त्र है। भारतीय परम्परा के अनुसार ज्योतिष शास्त्र की उत्पत्ति ब्रह्माजी के द्वारा हुई है। ऐसा माना जाता है कि ब्रह्माजी ने सर्वप्रथम नारदजी को ज्योतिषशास्त्र का ज्ञान प्रदान किया तथा नारदजी ने लोक में ज्योतिषशास्त्र का प्रचार-प्रसार किया।
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परिचय॥
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परिभाषा॥
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ज्योतिष शास्त्र का इतिहास॥
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ज्योतिष की उपयोगिता॥
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ज्योतिष॥ Jyotisha
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वेदाङ्गज्योतिष का महत्त्व॥ Importance of Vedanga Jyotisha
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अप्रत्यक्षाणि शास्त्राणि विवादस्तेषु केवलम् । प्रत्यक्षं ज्योतिषं शास्त्रं चन्द्राऽक यत्र साक्षिणौ ॥
 
अप्रत्यक्षाणि शास्त्राणि विवादस्तेषु केवलम् । प्रत्यक्षं ज्योतिषं शास्त्रं चन्द्राऽक यत्र साक्षिणौ ॥
    
अभिप्राय यह है कि अन्य शास्त्रों का प्रत्यक्षीकरण सुलभ नहीं है, परन्तु ज्योतिष शास्त्र प्रत्यक्ष शास्त्र है। इसकी प्रमाणिकता के एकमात्र साक्षी सूर्य और चन्द्र हैं। आचार्यों ने ज्योतिष शास्त्र को तीन स्कन्धों में विभक्त किया है- सिद्धान्त, संहिता और होरा। इसके लिए यह श्लोक प्रसिद्ध है—<blockquote>सिद्धान्त संहिता होरा रूपस्कन्ध त्रयात्मकम् । वेदस्य निर्मलं चक्षुः ज्योतिषशास्त्रमकल्मषम् ॥</blockquote>इस प्रकार ज्योतिष शास्त्र के मुख्यतः दो ही स्कन्ध हैं- गणित एवं फलित।
 
अभिप्राय यह है कि अन्य शास्त्रों का प्रत्यक्षीकरण सुलभ नहीं है, परन्तु ज्योतिष शास्त्र प्रत्यक्ष शास्त्र है। इसकी प्रमाणिकता के एकमात्र साक्षी सूर्य और चन्द्र हैं। आचार्यों ने ज्योतिष शास्त्र को तीन स्कन्धों में विभक्त किया है- सिद्धान्त, संहिता और होरा। इसके लिए यह श्लोक प्रसिद्ध है—<blockquote>सिद्धान्त संहिता होरा रूपस्कन्ध त्रयात्मकम् । वेदस्य निर्मलं चक्षुः ज्योतिषशास्त्रमकल्मषम् ॥</blockquote>इस प्रकार ज्योतिष शास्त्र के मुख्यतः दो ही स्कन्ध हैं- गणित एवं फलित।
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'''गणितशास्त्र''' – गणितशास्त्र गणना शब्द से बना है। जिसका अर्थ गिनना है। परन्तु गणना के बिना कोई भी क्रिया आसानी से सम्पन्न नहीं हो सकती। गणितशास्त्र का हमारे भारतीय आचार्यों ने दो भेद किया है। १. व्यक्त गणित और २. अव्यक्त गणित।
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'''गणितशास्त्र''' – गणितशास्त्र गणना शब्द से बना है। जिसका अर्थ गिनना है। परन्तु गणना के बिना कोई भी क्रिया आसानी से सम्पन्न नहीं हो सकती। गणितशास्त्र का हमारे भारतीय आचार्यों ने दो भेद किया है-
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# '''व्यक्त गणित'''- अंक गणित, रेखागणित (ज्यामिति), त्रिकोणमिति, चलन कलनादि माने जा सकते हैं।
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# '''अव्यक्त गणित-'''  में बीजगणित (अलज़ेबरा) कहा जाता है।
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व्यक्त गणित में अंक गणित, रेखागणित (ज्यामिति), त्रिकोणमिति, चलन कलनादि माने जा सकते हैं। अव्यक्त गणित में मुख्यतः बीजगणित जिसे अंग्रेजी में अलज़ेबरा कहा जाता है। अंकों द्वारा गणित क्रिया करके जोड़, घटाव, गुणा, भाग, वर्ग, वर्गमूल, घन, घनमूल, गुणन खण्ड तथा अन्य आवश्यक गणितीय क्रियाएँ की जाती हैं। आजकल आधुनिक जगत् में गणित का विस्तार अनेक रूपों में किया गया है । हमारे वेदों में भी वैदिक गणित बताया गया है । वैदिक मैथमेटिक्स की पुस्तकें भी प्रकाशित हैं ।<ref>श्रीरामचन्द्र पाठक, बृहज्जातकम् , ज्योति हिन्दी टीका, वाराणसीः चौखम्बा प्रकाशन (पृ०११-१३)।</ref>
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व्यक्त गणित में अंकों द्वारा गणित क्रिया करके जोड़, घटाव, गुणा, भाग, वर्ग, वर्गमूल, घन, घनमूल, गुणन खण्ड तथा अन्य आवश्यक गणितीय क्रियाएँ की जाती हैं। आजकल आधुनिक जगत् में गणित का विस्तार अनेक रूपों में किया गया है । हमारे वेदों में भी वैदिक गणित बताया गया है । वैदिक मैथमेटिक्स की पुस्तकें भी प्रकाशित हैं ।<ref>श्रीरामचन्द्र पाठक, बृहज्जातकम् , ज्योति हिन्दी टीका, वाराणसीः चौखम्बा प्रकाशन (पृ०११-१३)।</ref>
    
'''फलित ज्योतिष-''' फलादेश कथन की विद्या का नाम फलित ज्योतिष है। शुभाशुभ फलोंको बताना ही इस शास्त्र का परम लक्ष्य रहा है। इसकी भी अनेक विधाएँ आज प्रचलित हैं। जैसे चिकित्सा शास्त्र का मूल आयुर्वेद है परन्तु आज होमोपैथ तथा एलोपैथ भी प्रचलित हैं और इन विधाओं के द्वार भी रोगमुक्ति मिलती है। उसी तरह फलित ज्योतिष की भी कई विधाएँ जिनके द्वारा शुभाशुभ फल कहे जा सकते हैं। ये विधाएँ मुख्यतः निम्नलिखित हैं-
 
'''फलित ज्योतिष-''' फलादेश कथन की विद्या का नाम फलित ज्योतिष है। शुभाशुभ फलोंको बताना ही इस शास्त्र का परम लक्ष्य रहा है। इसकी भी अनेक विधाएँ आज प्रचलित हैं। जैसे चिकित्सा शास्त्र का मूल आयुर्वेद है परन्तु आज होमोपैथ तथा एलोपैथ भी प्रचलित हैं और इन विधाओं के द्वार भी रोगमुक्ति मिलती है। उसी तरह फलित ज्योतिष की भी कई विधाएँ जिनके द्वारा शुभाशुभ फल कहे जा सकते हैं। ये विधाएँ मुख्यतः निम्नलिखित हैं-
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त्रिस्कन्ध ज्योतिष॥
 
त्रिस्कन्ध ज्योतिष॥
==ज्योतिष में त्रिदोष॥==
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== ज्योतिष और आयुर्वेद॥ Jyotisha And Aayurveda ==
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ज्योतिषशास्त्र और चिकित्साशास्त्र का सम्बन्ध प्राचीन कालसे रहा है। आयु एवं आयुर्ज्ञान संबन्धी आयुर्वेदशास्त्र अनादि है। आयुर्वेद का स्थल बहुत विस्तीर्ण है, जिसमें उसका ज्योतिष के साथ भी समावेश प्राप्त होता है। आयुर्वेद में औषधिके अतिरिक्त दैवव्यपाश्रय चिकित्साके अन्तर्गत मणि एवं मन्त्रों से चिकित्सा करने का विधान है। पूर्वकालमें एक सुयोग्य चिकित्सकके लिये ज्योतिष-विषयका ज्ञाता होना अनिवार्य था। इससे रोग-निदान में सरलता होती थी। ज्योतिष-शास्त्रके द्वारा रोगकी प्रकृति, रोगका प्रभाव-क्षेत्र, रोगका निदान और साथ ही रोगके प्रकट होनेकी अवधि तथा कारणोंका भलीभॉंति विश्लेषण किया जा सकता हैं।
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== परिचय॥ ==
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=== ग्रह अधिष्ठित शरीराङ्ग॥ ===
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नवग्रहों में सूर्य-चन्द्र आदि जिस राशि में बैठते हैं, उसके अनुरूप रोग-विचार होता है। तथापि उनका स्वतन्त्र रूपमें  जिस अङ्ग पर प्रभाव या रोग विशेष होने की सम्भावना होती है उसे अधोलिखित सारणी द्वारा समझा जा सकता है<ref>श्री नलिनजी पाण्डे, आरोग्य अङ्क, ज्योतिष-रोग एवं उपचार, गोरखपुरः गीताप्रेस (पृ०२८३)।</ref>-
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{| class="wikitable"
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|+नवग्रह, रोग तथा तत्संबन्धित अङ्ग
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!ग्रह
 +
!अङ्ग
 +
!रोग
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|-
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|सूर्य
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|सिर, हृदय, ऑंख( दायीं), मुख, तिल्ली, गला, मस्तिष्क, पित्ताशय, हड्डी, रक्त, फेफडे, स्तन।
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|
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|-
 +
|चन्द्र
 +
|छाती, लार, गर्भ, जल, रक्त, लसिका, ग्रन्थियॉं, कफ, मूत्र, मन, ऑंख(बायीं), उदर, डिम्बग्रन्थि, जननाङ्ग(महिला)।
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|
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|-
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|मंगल
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|पित्त, मात्रक, मांसपेशी, स्वादेन्द्रिय, पेशीतन्त्र, तन्तु, बाह्य-जननाङ्ग, प्रोस्टेट, गुदा, रक्त, अस्थि-मज्जा, नाक, नस, ऊतक।
 +
|
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|-
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|बुध
 +
|स्नायु-तन्त्र, जीभ, ऑंत, वाणी, नाक, कान, गला, फेफडे।
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|
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|-
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|बृहस्पति
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|यकृत् , नितम्ब, जॉंघ, मांस, चर्बी, कफ, पॉंव।
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|
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|-
 +
|शुक्र
 +
|जननाङ्ग, ऑंख, मुख, ठुड्डी, गाल, गुर्दे, ग्लैण्ड, वीर्य।
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|
 +
|-
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|शनि
 +
|पॉंव, घुटने, श्वास, हड्डी, बाल, नाखून, दॉंत, कान।
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|
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|-
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|राहु, केतु
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|राहु मुख्यतः शरीरके ऊपरी हिस्से और केतु निचले धडको बतलाते हैं।
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|
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|}
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ज्योतिषशास्त्रके अनुसार विभिन्न ग्रह निम्न शरीर रचनाओं के नियन्त्रक होते हैं-
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# '''सूर्य-''' अस्थि, जैव-विद्युत् , श्वसन-तन्त्र।
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# '''चन्द्रमा-''' रक्त, जल, अन्तःस्रावी ग्रन्थियॉं(हार्मोन्स)।
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# '''मंगल-''' यकृत् , रक्तकणिकाऍं, पाचन-तन्त्र।
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# '''बुध-''' अङ्ग-प्रत्यङ्ग स्थित तन्त्रिका जाल।
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# '''बृहस्पति-''' नाडीतन्त्र, स्मृति, बुद्धि।
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# '''शुक्र-''' वीर्य, रज, कफ, गुप्ताङ्ग।
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# '''शनि-''' केन्द्रीय नाडीतन्त्र, मन।
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# '''राहु एवं केतु-''' शरीरके अन्दर आकाश एवं अपानवायु।
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====ज्योतिष में त्रिदोष॥====
 
ज्ञान का मूल स्रोत वेद है। वेदों की महिमा देश-देशान्तर में स्तुत्य है। वेद चार हैं तथा चार उपवेद भी हैं । हमारे संस्कृत वाङ्मय में चार वेदों का नाम सर्वविदित है । जो इस प्रकार हैं- १. ऋग्वेद, २. यजुर्वेद, ३. सामवेद, एवं ४. अथर्ववेद । इन वेदों के सरलीकरण के लिये वेदाङ्गों की रचना हुयी जिसे छह शास्त्र के नाम से व्यवहृत किया जाता है । ये षट्शास्त्र इस प्रकार हैं—शिक्षा, कल्प, निरुक्त, व्याकरण, छन्द और ज्योतिष हैं । अब यहाँ त्रिदोष चर्चा में चिकित्सा शास्त्र का जनक आयुर्वेद है जिसे कुछ विद्वान् पञ्चमवेद भी कहते हैं। <nowiki>''</nowiki>शरीरं व्याधि मन्दिरम्<nowiki>''</nowiki> इस उक्ति के समाधान में आयुर्वेद शास्त्र की रचना हुई। आज चिकित्सा के कई रूप उपलब्ध हैं पर सभी का जन्मदाता आयुर्वेद ही है। आयुर्वेद, एलोपैथ तथा होम्योपैथ की चिकित्सा सम्पूर्ण देश में सर्वमान्य है। भारतीय चिकित्सा शास्त्र में त्रिदोष का वर्णन सर्वत्र है, अर्थात् वात, पित्त और कफ जन्य ही रोग होते हैं। चिकित्साशास्त्र इन्हीं पर आधारित है । हमारे ज्योतिष शास्त्र में भी त्रिदोष की चर्चा है। ग्रह नक्षत्रों का शास्त्र ज्योतिष हैं । नवग्रहों की प्रधानता ज्योतिष शास्त्र में वर्णित है। ये सभी ग्रह त्रिदोष से सम्बन्धित हैं। इनमें से कोई वातज, कोई पित्तज तथा कोई कफज है। इस प्रकार मुख्य रूप से शनि, राहु, केतु वात व्याधि सूचक कहे गए हैं। सूर्य, मंगल, गुरु पित्तज हैं तथा शुक्र, चन्द्र कफज हैं। बुध को तटस्थ (न्यूट्रल) कहा गया है। इन ग्रहों के दाय काल में अथवा इनके दुर्बल होने से उक्त त्रिदोषजन्य व्याधियाँ होती है। जिसे व्यवहार में भी अनुभव किया गया है।
 
ज्ञान का मूल स्रोत वेद है। वेदों की महिमा देश-देशान्तर में स्तुत्य है। वेद चार हैं तथा चार उपवेद भी हैं । हमारे संस्कृत वाङ्मय में चार वेदों का नाम सर्वविदित है । जो इस प्रकार हैं- १. ऋग्वेद, २. यजुर्वेद, ३. सामवेद, एवं ४. अथर्ववेद । इन वेदों के सरलीकरण के लिये वेदाङ्गों की रचना हुयी जिसे छह शास्त्र के नाम से व्यवहृत किया जाता है । ये षट्शास्त्र इस प्रकार हैं—शिक्षा, कल्प, निरुक्त, व्याकरण, छन्द और ज्योतिष हैं । अब यहाँ त्रिदोष चर्चा में चिकित्सा शास्त्र का जनक आयुर्वेद है जिसे कुछ विद्वान् पञ्चमवेद भी कहते हैं। <nowiki>''</nowiki>शरीरं व्याधि मन्दिरम्<nowiki>''</nowiki> इस उक्ति के समाधान में आयुर्वेद शास्त्र की रचना हुई। आज चिकित्सा के कई रूप उपलब्ध हैं पर सभी का जन्मदाता आयुर्वेद ही है। आयुर्वेद, एलोपैथ तथा होम्योपैथ की चिकित्सा सम्पूर्ण देश में सर्वमान्य है। भारतीय चिकित्सा शास्त्र में त्रिदोष का वर्णन सर्वत्र है, अर्थात् वात, पित्त और कफ जन्य ही रोग होते हैं। चिकित्साशास्त्र इन्हीं पर आधारित है । हमारे ज्योतिष शास्त्र में भी त्रिदोष की चर्चा है। ग्रह नक्षत्रों का शास्त्र ज्योतिष हैं । नवग्रहों की प्रधानता ज्योतिष शास्त्र में वर्णित है। ये सभी ग्रह त्रिदोष से सम्बन्धित हैं। इनमें से कोई वातज, कोई पित्तज तथा कोई कफज है। इस प्रकार मुख्य रूप से शनि, राहु, केतु वात व्याधि सूचक कहे गए हैं। सूर्य, मंगल, गुरु पित्तज हैं तथा शुक्र, चन्द्र कफज हैं। बुध को तटस्थ (न्यूट्रल) कहा गया है। इन ग्रहों के दाय काल में अथवा इनके दुर्बल होने से उक्त त्रिदोषजन्य व्याधियाँ होती है। जिसे व्यवहार में भी अनुभव किया गया है।
 
===वातजन्य व्याधियॉं ॥===
 
===वातजन्य व्याधियॉं ॥===
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इन तथ्यों के आधार पर चिकित्साशास्त्र और ज्योतिष शास्त्र का तादात्म्य सम्बन्ध है । इसीलिये चिकित्सा को ज्योतिष से जोड़कर कार्य किया जाय तो अधिकाधिक लाभ तथा नैरुज्यता प्रदान की जा सकती है । ग्रह और राशियाँ सभी त्रिदोष युक्त हैं । संस्कृत में लिङ्ग भेद प्रसंग में तीन लिङ्गों का वर्णन आया है । १. स्त्री लिङ्ग, २. पुलिङ्ग, ३. नपुंसक लिङ्ग। ग्रहों में भी बुध को नपुंसक कहा गया है । बुध जिस ग्रह के साथ रहता है वह उसी के अनुरूप फल प्रदान करता है । अतः बुध ग्रह के दाय काल में बुध की स्थिति तथा साहचर्य पर विचार कर रोगों के विषय में फलादेश करना चाहिए| वात-पित्त-कफ तीनों में ग्रह साहचर्य के अनुसार गुणदोष का ज्ञान कर बुध ग्रह की स्थिति जानकर फल कहना उचित होगा । बुध को न्यूट्रल कहा गया है । अतः गुण, स्वभाव का भी उसी के आधार पर निरूपण करना चाहिए।
 
इन तथ्यों के आधार पर चिकित्साशास्त्र और ज्योतिष शास्त्र का तादात्म्य सम्बन्ध है । इसीलिये चिकित्सा को ज्योतिष से जोड़कर कार्य किया जाय तो अधिकाधिक लाभ तथा नैरुज्यता प्रदान की जा सकती है । ग्रह और राशियाँ सभी त्रिदोष युक्त हैं । संस्कृत में लिङ्ग भेद प्रसंग में तीन लिङ्गों का वर्णन आया है । १. स्त्री लिङ्ग, २. पुलिङ्ग, ३. नपुंसक लिङ्ग। ग्रहों में भी बुध को नपुंसक कहा गया है । बुध जिस ग्रह के साथ रहता है वह उसी के अनुरूप फल प्रदान करता है । अतः बुध ग्रह के दाय काल में बुध की स्थिति तथा साहचर्य पर विचार कर रोगों के विषय में फलादेश करना चाहिए| वात-पित्त-कफ तीनों में ग्रह साहचर्य के अनुसार गुणदोष का ज्ञान कर बुध ग्रह की स्थिति जानकर फल कहना उचित होगा । बुध को न्यूट्रल कहा गया है । अतः गुण, स्वभाव का भी उसी के आधार पर निरूपण करना चाहिए।
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== उद्धरण॥ ==
 
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