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सुधार जारि
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दारानगर , वाराणसी ।
 
दारानगर , वाराणसी ।
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<nowiki>#</nowiki>बिंदु_माधव  #काशी_खण्डोक्त
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<nowiki>#</nowiki>श्री_हरि_विष्णु_का_अग्निबिन्दु_ऋषि_से_संवाद
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प्रतिक्षपं कार्तिकिके कुर्वन ज्योत्स्नां प्रदीपजाम् |
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ममाग्रे भक्ति संयुक्तो गर्भध्वान्तं न  संविशेत्  ||
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आज्यवर्तिकमुर्जे  यो दीपं  मेःग्रे प्रभोधयेत् |
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बुद्धिभ्रंशं न चाप्नोति महामृत्युभये सति ||
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(#काशीखण्ड)
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~  कार्तिक मास की प्रत्येक रात्रि में मेरे आगे भक्तिपूर्वक दीप जलाने से व्यक्ति को गर्भ के अंधकार में नही पड़ना पड़ता (अर्थात मुक्ति मिल जाती है)
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जो कोई कार्तिक महीने में घी की बत्ती का दिया मेरे आगे जला देता है , महामृत्यु के भय होने पर भी उसकी बुद्धि में कुछ भ्रम नही पड़ता (अर्थात अंत समय मे भी उसकी मति नही खराब होती)
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<nowiki>#</nowiki>धनवंतरेश्वर_महादेव  #काशी_खण्डोक्त
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<nowiki>#</nowiki>श्री_धन्वंतरि_जी_प्राचीन_विग्रह
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<nowiki>#</nowiki>माता_अन्नपूर्णा
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<nowiki>#</nowiki>आदि_अन्नपूर्णा_विश्वभुजा_गौरी
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<nowiki>#</nowiki>धनवंतरेश्वर महादेव जो श्री धन्वंतरि जी द्वारा पूजित और स्थापित है।
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आज के दिन यहां दर्शन करने से आरोग्य लाभ मिलता है ।
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कार्तिक कृष्ण पक्ष त्रयोदशी
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2 नवंबर 2021, मंगलवार को धनतेरस का त्योहार देशभर में बड़ी धूम-धाम से मनाया जा रहा है. इस दिन मां लक्ष्मी, कुबेर देव और भगवान धनवंतरी की पूजा का विधान है. धनतेरस हर साल कार्तिक मास के कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी के दिन मनाई जाती है. धनतेरस को धनत्रयोदशी और धनवंतरी जयंती के नाम से भी जाना जाता है. कहते हैं कि इस दिन सुमद्र मंथन के दौरान भगवान धनवंतरी और मां लक्ष्मी प्रकट हुए थे, इसलिए आज के दिन इनकी पूजा की जाती है. कहते हैं कि जो भक्त विधि-विधान के साथ इनकी पूजा-अर्चना करते हैं उन्हें सालभर धन की कमी नहीं होती और मां लक्ष्मी की कृपा उनके परिवार पर बनी रहती है.
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धनतेरस के दिन भगवान गणेश, कुबेर जी और मां लक्ष्मी की पूजा विधि-विधान के साथ की जाती है ।
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<nowiki>#</nowiki>महिमा
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धन्वन्तरि जी जब प्रकट हुए थे तो उनके हाथो में अमृत से भरा कलश था। भगवान धन्वन्तरि चूंकि कलश लेकर प्रकट हुए थे इसलिए ही इस अवसर पर बर्तन खरीदने की परम्परा है। कहीं कहीं लोकमान्यता के अनुसार यह भी कहा जाता है कि इस दिन धन (वस्तु) खरीदने से उसमें तेरह गुणा वृद्धि होती है। इस अवसर पर लोग धनिया के बीज खरीद कर भी घर में रखते हैं। दीपावली के बाद इन बीजों को लोग अपने बाग-बगीचों में या खेतों में बोते हैं।
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धनतेरस के दिन चांदी खरीदने की भी प्रथा है; जिसके सम्भव न हो पाने पर लोग चांदी के बने बर्तन खरीदते हैं। इसके पीछे यह कारण माना जाता है कि यह चन्द्रमा का प्रतीक है जो शीतलता प्रदान करता है और मन में सन्तोष रूपी धन का वास होता है। संतोष को सबसे बड़ा धन कहा गया है। जिसके पास संतोष है वह स्वस्थ है, सुखी है, और वही सबसे धनवान है। भगवान धन्वन्तरि जो चिकित्सा के देवता भी हैं। उनसे स्वास्थ्य और सेहत की कामना के लिए संतोष रूपी धन से बड़ा कोई धन नहीं है। लोग इस दिन ही दीपावली की रात लक्ष्मी, गणेश की पूजा हेतु मूर्ति भी खरीदते हैं। हालाकि यह सब लोकवेद है, जिसका हमारे पवित्र ग्रंथो में कहीं भी वर्णन नहीं है। श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 16 के श्लोक 23 और 24 में इसे शाश्त्र विरुध्द साधना कहा गया है।
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धनतेरस की शाम घर के बाहर मुख्य द्वार पर और आंगन में दीप जलाने की प्रथा भी है। इस प्रथा के पीछे एक लोककथा है। कथा के अनुसार किसी समय में एक राजा थे जिनका नाम हेम था। दैव कृपा से उन्हें पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई। ज्योंतिषियों ने जब बालक की कुण्डली बनाई तो पता चला कि बालक का विवाह जिस दिन होगा उसके ठीक चार दिन के बाद वह मृत्यु को प्राप्त होगा। राजा इस बात को जानकर बहुत दुखी हुआ और राजकुमार को ऐसी जगह पर भेज दिया जहां किसी स्त्री की परछाई भी न पड़े। दैवयोग से एक दिन एक राजकुमारी उधर से गुजरी और दोनों एक दूसरे को देखकर मोहित हो गये और उन्होंने गन्धर्व विवाह कर लिया।
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विवाह के पश्चात विधि का विधान सामने आया और विवाह के चार दिन बाद यमदूत उस राजकुमार के प्राण लेने आ पहुंचे। जब यमदूत राजकुमार प्राण ले जा रहे थे उस वक्त नवविवाहिता उसकी पत्नी का विलाप सुनकर उनका हृदय भी द्रवित हो उठा। परन्तु विधि के अनुसार उन्हें अपना कार्य करना पड़ा। यमराज को जब यमदूत यह कह रहे थे, उसी समय उनमें से एक ने यम देवता से विनती की- हे यमराज! क्या कोई ऐसा उपाय नहीं है जिससे मनुष्य अकाल मृत्यु से मुक्त हो जाए। दूत के इस प्रकार अनुरोध करने से यम देवता बोले, हे दूत! अकाल मृत्यु तो कर्म की गति है, इससे मुक्ति का एक आसान तरीका मैं तुम्हें बताता हूं, सो सुनो। कार्तिक कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी रात जो प्राणी मेरे नाम से पूजन करके दीपमाला दक्षिण दिशा की ओर भेट करता है, उसे अकाल मृत्यु का भय नहीं रहता है। यही कारण है कि लोग इस दिन घर से बाहर दक्षिण दिशा की ओर दीप जलाकर रखते हैं।
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आज के दिन काशी में माता अन्नपूर्णा के दर्शन करने से व्यक्ति धन धान्य से परिपूर्ण रहता है और माँ अन्नपूर्णा की कृपा बनी रहती है ।
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पता-
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धन्वंतरि जी का विग्रह , सुडिया नीचीबाग, चौक पर है।
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धनवन्तरेश्वर लिंग , मृत्युंजय , मंदिर , दारा नगर पर है।
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अन्नपूर्णा मंदिर काशी विश्वनाथ मंदिर के पास ।
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आदि अन्नपूर्णा , मीरघाट , विशालाक्षी देवी के पास धर्मकुप के सामने
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<nowiki>#</nowiki>श्री_बिंदु_माधव        #काशी_खण्डोक्त
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बड़े बड़े पापियो के एकत्रित पाप पंचगंगा तीर्थ में कार्तिक मास में एक बार गोता लगाने से यही छूट जाते है ।
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पूर्वकाल में भृगुवंशी वेदशीरा नामक मुनि थे । शुचि नाम की प्रधान अप्सरा से उनको धूतपापा नाम की कन्या उत्त्पन्न हुई जिसका लालन पोषण मृगी (हिरणी) के दूध से हुआ , यह कन्या अत्यंत ही बुद्धिमान होने के कारण उपयुक्त वर पाने के लिए मुनि से उपाय पूछा ।
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मुनि के आज्ञानुसार धूतपापा ने काशी में आकर धुतपापेश्वर नामक शिव लिंग की स्थापना कर के घोर तप किया , जिसके फल स्वरूप विश्व्नाथ ने उनको अनेको वरदान दिए और संसार मे पवित्रतं वस्तु से भी पवित्र होने का वरदान दिया और धूतपापा के शरीर के रोम रोम में तीर्थो का निवास होगा ऐसा उपयुक्त वर देकर वेदशीरा मुनि के आश्रम भेज दिया ।
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कुछ समय पश्च्यात धर्मराज़ (यमराज) ने धूतपापा से गंधर्व विवाह करने का प्रस्ताव रखा जिसपर धूतपापा ने बारम्बार अपने पिता वेदशीरा से बात करने को कहा , पर कामातुर धर्म अपनी ही बात रटता रहा जिसमे अंत मे धूतपापा ने जल का आधार नद होने का श्राप दे दिया और धर्म ने धूतपापा को पाषाण (पत्थर) होने का ।
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बाद में वेदशीरा मुनि ने अपने तपोबल से अपनी पुत्री धूतपापा को चंद्रकांत शिला बना दिया और यह भी कहा कि तुम्हारे द्वारा वर्णित गुणों से सम्पन्न वही धर्म ही तुम्हारे अनुरूप भर्ता है और कहा कि धर्म ने भी तुम्हारी तरह कठोर तप कर के शिव से अनेक तरह के वरदान को प्राप्त किया है ।
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बाद में चंद्रकांत शिला से बह कर निकलने वाली धूतपापा नदी "धर्मनद" से संगत होकर सर्वपापनाशक हुई (धूतपापा और धर्मनद का संगम गंगा के उद्गम से भी पहले का है)।
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जब काशी में गंगा नही थी तब धर्मनद तीर्थ पर गभस्तिमान(सूर्यदेव) ने उग्र तप किया । उनके पसीने से किरणा नदी बह निकली और धूतपापा नदी में मिल गयी बाद में भगीरथ राजा द्वारा गंगा के साथ सरस्वती और यमुना आकर किरणा और धूतपापा से मिलकर पंचनद तीर्थ बनी ।
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यहां कार्तिक मास में स्नान के अनगिनत पुण्य है
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कृते धर्मनदं  नाम त्रेतायां    धूतपापकम् |
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द्वापरे बिन्दु तीर्थे च कलौ पञ्चनदं स्मृतम ||
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(#काशी_खण्ड)
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यह तीर्थ सतयुग में धर्मनद , त्रेता में धुतपापक , द्वापर में बिंदूतीर्थ और कलियुग में पंचनद(पंचगंगा) नाम से कहा गया है।
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न धूतपापा सदृश्यं तीर्थे क्वापि महीतले |
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यदेकस्नानतो नश्येदधम जन्मत्रयर्जित् ।।
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(#काशी_खण्ड)
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धूतपापा के समान कोई भी तीर्थ भूतल पर कही भी नही है , जो केवल एक ही बार स्नान करने से तीन जन्म के संचित पापों को विनष्ट कर डालता हो।
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<nowiki>#</nowiki>बिंदु_माधव  #काशी_खण्डोक्त
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<nowiki>#</nowiki>कार्तिक_मास_महात्म्य
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ऐकादशीं  समासाद्द  प्रबोधकरणीं मम |
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बिन्दुतीर्थ कृतस्नानो रात्रौ जागरणान्वितः ||
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दीपान् प्रबोध्यबहुशो ममालाङ्गकृत्य शक्तितः |
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तौर्य त्रिकविनोदेन पुराणश्रवणा दिभिः  ||
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तत्रान्नदानं  बहुशः कृत्वा  मत्प्रीतये नरः |
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महापातकयुक्तोःपि  न विशेत्प्रमदोदरम ||
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~प्रबोधिनी एकादशी के दिन बिंदूतीर्थ (पंचगंगाघाट,वाराणसी) में स्नान कर रात्रि जागरण करता हुआ व्यक्ति , बहुत से दियो को जला कर और यथा शक्ति मुझे अलंकृत कर , नाच , गाने , भजन , गायन विनोद के सहित तथा पुराण इत्यादि के श्रवण से बड़ा भारी महोत्सव करे (जब तक तिथि पूर्ण न होजाये) यदि वहां पर मेरे प्रीति के लिए बहुत सा अन्नदान अथवा जरूरतमंदो के लिए भंडार करें , तोह वह मनुष्य महापापी होने पर भी फिर किसी स्त्री के गर्भ में प्रवेश नही करता (मतलब मोक्ष को प्राप्त होता है) |
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प्रबोधिनी एकादशी 14 नवंबर 2021 से शुरू होकर 15 नवंबर को 6:40 को खत्म होगा ।
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बिंदु माधव मंदिर काशी में पंचगंगा घाट पर स्थित काशी के प्राचीनतम मंदिरों में से एक है ।
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<nowiki>#</nowiki>श्री_हरि_विष्णु_का_अग्नि_बिंदु_ऋषि_से_संवाद
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बिंदु तीर्थ (पंचगंगा घाट, काशी) में स्नान करके जो कोई यहां पर बिंदु माधव नाम से मेरी पूजा करता है , वही निर्वाण को प्राप्त होता है , हे मुने ! सतयुग में मैं अभी आदिमाधव के नाम से पूज्य हूँ , त्रेता में मुझे सर्व सिद्धि दायक अनंत माधव नाम से समझना चाहिए , द्वापर में पर्मार्थकर्ता मैं ही श्रीदमाधव संज्ञक हूँ और कलियुग में कलिमलध्वंशी बिंदुमाधव नाम से मुझे जानना चाहिए ।
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कलियुग में मनुष्य पापी होने के कारण मुझे नही समझ सकते।
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मेरी ही माया से मोहित जो लोग भेदभाव में ततपर होकर मेरी भक्ति करते है और विश्वेश्वर शिव से द्वेष करते है , वे सब मेरे ही शत्रु है और वे अंत मे पिशाचपद के भागी होते है , फिर पिशाच योनि पाने पर कालभैरव की आज्ञा से तीस हजार वर्ष तक दुख सागर में रहकर अंत मे फिर से भोलेनाथ के ही कहने पर मैं उन्हें मोक्ष देता हूं ।
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शिव द्रोही ममदास कहावे । सो नर सपनेहु मोहीं न पावे ।
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शंकर विमुख भक्ति चह मोरी । सो नर मूढ़ मंदमति थोरी ।।
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शंकर प्रिय मम द्रोही , शिव द्रोही ममदास
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ते नर करहीं कल्प भर , घोर नरक महं वास
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<nowiki>#</nowiki>बिंदु_माधव  #काशी_खण्डोक्त
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श्री बिंदु माधव की कथा
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जब अपने मायाजाल से राजा दिवोदास का उच्चाटन करने के पश्चात पदोदक तीर्थ पर आदिकेशव रूप से श्री हरि विष्णु प्रतिष्ठित होगये । वहां से चल कर काशी में विचरण करते करते काशी की महिमा का सुखपूर्वक चिंतन करते हुवे श्री हरि विष्णु पंचनद तीर्थ (पंचगंगा) पर पहुँच गए और पंचनद को देख कर वह काशी की महिमा और विशिष्टता से परमानंदित हुवे ।
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वही पर उन्हींने एक दुर्बल देह ऋषि को देखा , वह तपस्या रत ऋषि भी श्री हरि विष्णु के समीप पहुँचकर उनके रूप और महिमा को देखकर परम् प्रसन्न हुवे और स्तुति करने लगे ,
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ऋषि ने कहा आप ही स्तोता , स्तुति , और स्तवनीय सब कुछ है । अतः आप मेरी भव तृष्णा को दूर करें
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श्री हरि विष्णु ने स्तुति और तपस्या से प्रसन्न होकर ऋषि से वर याचना की बात कही -- ऋषि ने वर याचना करते हुवे पहला वर मांगा - मुमुक्षुजन हितार्थ 'पंचनद' पर आप स्थाई निवास करें और दूसरी वर याचना की -- श्री हरि विष्णु की चरण कमल में अविचल भक्ति बनी रहे । श्री विष्णु ने लोकोपकारार्थ  दोनों वर को तथास्तु कहते हुवे यह भी कहा कि मैं भी खुद यहां पंचनद पर निवास करना चाहता था , पर ऋषि की याचना पर अवश्य ही पंचनद तीर्थ पर बिंदु माधव के रूप में रहूंगा ।
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श्री हरि विष्णु - श्री माधव ने काशीवास् का भी बड़ा महात्म्य बताते हुवे कहा --
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स एव विद्वान जगति  स एव विजितेन्द्रियः |
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तावत्स्थास्याम्यहं चात्र यावत्काशी मुने त्तिवः ||
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प्रलयेःपि न्  नाशोस्याः शिवशूलाग्रसुस्थितेः |
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इत्याकर्ण गिरं विष्णोरगिन बिन्दुमर्हामुनिः ||
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संसार मे वही पंडित है , वही जितेंद्रिय है , वही धन्य पुण्यवान है जो काशी को पाकर फिर न छोड़े ।
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हे मुने ! जबतक काशी है , तब तक मैं यहां बना रहूंगा और शिव के त्रिशूल पर स्थित होने से इस काशी का प्रलयकाल में भी विनाश नही होता ।
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बिंदु माधव मंदिर , पंचगंगा घाट , वाराणसी (काशी) .
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<nowiki>#</nowiki>धर्मेश्वर_महादेव  #काशी_खण्डोक्त_लिंग
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माता पार्वती ने शंकर से पूछा हे शम्भो , आनंद कानन में कौन सा ऐसा शिव लिंग है , जो समस्त पापो का नाशक तथा स्मरण , दर्शनादि , असीम कल्याण का दाता है ?
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शिव जी ने कहा
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आनंद कानन (काशी) में धर्मेश्वर लिंग का स्थान धर्म पीठ नाम से प्रसिद्ध है । इसका दर्शन सर्व पापमोचक है । सूर्य पुत्र( यम)
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ने यही तुम्हारे सन्मुख (विश्वभुजा गौरी रूप जो माता पार्वती और आदि अन्नपूर्णा है) घोर तपस्या की थी ।
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उन्होंने केवल मेरे दर्शन के लिए ही यह उग्र समाधि लगा कर चारो युगों तक चार चौकड़ी तक तपस्या करते रहे । मैं उनकी तपस्या से कांचन शाख नामक महावट वृक्ष के नीचे जहाँ वह तपस्या रत थे मैं वहां गया और देखा कि सूर्य कांत नामक माटी का महालिंग स्थापित करके तपः स्थित थे , मैन यमराज को स्पर्श किया  और वर मांगने को कहा फिर भानु नंदन यम निष्कपट भाव से मेरी नाना प्रकार से स्तुति करने लगे और भूतल पर लेटकर साष्टांग दण्डवत करने लगे और ॐ नमः शिवाय मंत्र से हजारों बार प्रणाम करते ही रहे।
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वर मांगने के इक्षा न होने पर भी मैन खुद उनको वरदान दिया कि ' आज से तुम्हारा नाम धर्मराज होगा , तुम धर्म के शास्ता , धर्माधिकारी , समस्तकर्मसाक्षी होंगे । तुम्हारे थोड़े से ही पूजन से सबको बड़ा लाभ होगा ।
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धर्म पीठ स्थान कल्याणपद एवं महकल्याण को देने वाला है ,
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धर्मेश्वर सभी कामनाओं को पूर्ण करने वाला है , धर्मेश्वर का एक बार भी पत्र पुष्प दूर्वा और जल से जो पूजन कर लेगा तोह देवगण उसकी मंदार की मालाओं से पूजा करेंगे ।
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यहां गंगा स्नान और इस पीठ पर दान की भी बड़ी महिमा है।
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धर्मकुप में स्नान कर (जो शिव जी द्वारा खोदा गया है)कार्तिक शुक्ल अष्टमी व्रत , उत्साहपूर्वक जागरण का भी अपार महिमा है और यम की स्तुति भी महनीय है ।
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बाद में शिव जी ने फिर से वर मांगने को कहा तब भी यमराज आनंद के सरोवर में डूबकर बेसुध (निस्तब्ध) ही हो गए ।
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पता- विश्व भुजा गौरी के पास मीरघाट वाराणसी ।
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<nowiki>#</nowiki>कार्तिक_कृष्ण_पक्ष_पंचमी 25/10/21
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<nowiki>#</nowiki>पंचक्रोशेश्वर_महादेव
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आज के ही दिन शिव जी माता पार्वती और अपने गण (वीरभद्र , भैरव , यक्षों आदि) के साथ #पंचक्रोशी यात्रा की थी।
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इसीलिए आज के दिन काशी में पंचक्रोशी यात्रा करने का विधान प्राचीन समय से ही आरहा है । पंचक्रोशी यात्रा करने से
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यात्रियो के पाप नष्ट होते है , विघ्न और कष्ट दूर होते है और अंत मे मोक्ष प्राप्त होता है ।
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काशी के राजा श्री स्वर्गीय विभूति नारायण सिंह जी के माता द्वारा पंचक्रोशी मंदिर का निर्माण कराया गया था , यहां ऐसी मान्यता है कि इस मंदिर में दर्शन करने से और पांच फेरी लगाने से पंचक्रोशी यात्रा का फल मिलता है ।
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पंचक्रोश यात्रा मार्ग में जितने भी मंदिर पड़ते है , वह सभी इस मंदिर में पड़ते है जो लोग शरीर से असक्षम है वह विशेष रूप से यहां दर्शन कर के लाभ प्राप्त कर सकते है
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Ck5/32 गोला गली , चौक , वाराणसी ।
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<nowiki>#</nowiki>पंचगंगेश्वर_महादेव    #काशी_खण्डोक्त_मंदिर
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काशी के पंचगंगा घाट पर तैलंग स्वामी मंदिर के दीवार से सटा हुआ यह शिव लिंग जमीन से 20 ft नीचे है , स्थानीय लोगो के हिसाब से कुछ लोग इसे स्वयम्भू शिव लिंग मानते है तोह कुछ लोग का मानना है कि पंचगंगा तीर्थ द्वारा स्थापित किया गया है , और कुछ का कहना है कि यहां दर्शन करने से पंचगंगा स्नान का फल मिलता है ।
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काशी खण्ड पुराण के अनुसार यह लिंग अति शुभप्रद है , यहां दर्शन पूजन करने से जीवन मे शुभता आने लगती है ।
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<nowiki>#</nowiki>बिंदु_माधव_आरती_दर्शन
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यैर्न पन्चनदे स्नातं कार्तिके पापहारिणी |
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तेःद्यापि गर्भेतिष्ठ्ति पुनस्ते गर्भवासिनः ||
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कीर्णाधुतपापे च तस्मिन् धर्मनदे शुभे |
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स्त्रवन्त्यौपापसंहन्त्रयो वाराणस्यां शुभ द्रवे ||
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किरणा धूतपापा च पुण्यतोया सरस्वती |
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गङ्गा च यमुना चैव पन्चनद्दौत्र् प्रकीर्तिता ||
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(#काशी_खण्ड)
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जिन लोगो ने कार्तिक मास में पापहारी पंचनद तीर्थ में स्नान नही किया है , वे आज भी गर्भ में है और आगे भी गर्भ में वास करेंगे ।  वाराणसी में शुभ द्रव गंगा जी मे पवित्र दो धर्मनद+किरणा , धूतपापा गिरती है जो सभी पापों का संहार करती हैं । किरणा , धूत पापा , पवित्र जल वाली सरस्वती , गंगा , और यमुना ये पांच है ।
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पूरे कार्तिक मास बीतने तक गंगा जी या पंचगंगा तीर्थ में स्नान करके व्रत दान यज्ञ तथा तपस्या आदि साधना करनी चाहिए , क्योंकि जन्म से आज तक जो समय बीत गया है वह पुनः नही आएगा और तत्काल समय का लाभ जरूर लेना चाहिए ।
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पूरे कार्तिक मास में पंचगंगा घाट पर स्नान कर बिंदु माधव के दर्शन करने से मोक्ष की प्राप्ति होती है और घाट पर आकाश दीप जलाने से पित्रो को मोक्ष मिलता है
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<nowiki>#</nowiki>कार्तिक_मास_स्नान 21/10/21 से 19/11/21 तक
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<nowiki>#</nowiki>नित्य_बिंदु_माधव_दर्शन
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पन्चनद  नाम  तीर्थं  त्रय्लोक्यविश्रुतं  |
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तत्राप्लुतो न गृह्णीयाद्देहंना पाञ्चभौतिकम् ||
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आस्मिन् पन्चनदीनां च सम्भेदेघौघभेदिनि |
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स्नानमात्रात्प्रयात्येव भित्वा ब्रह्माण्डमण्डपं ||
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(काशीखण्ड)
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पंचनद पंचगंगा तीर्थ तीनो लोको में विख्यात है , वहाँ स्नान करने से पंच भौतिक शरीर प्राप्त नही होता अर्थात पुनः जन्म नही लेना पड़ता । पंच गंगा में स्नान करते ही मनुष्य ब्रह्मांड का भेदन करके प्रयाण करता है और ब्रह्मलोक को जाता है ।
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प्रयागमाघमासेतु सम्यक् स्नातस्य यत्फ़लम् |
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तत्फ़लम  स्याद्दिनैकेन  काश्यां  पञ्चनदे  ||
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स्नात्वा पन्चनदे तीर्थे  कृत्वा  च  पित्रतर्पणं |
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बिन्दुमाधवंभ्यचर्य  न  म्योजन्मभाग्भवेत्  ||
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(काशीखण्ड)
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प्रयागराज में माघ में अच्छी तरह एक मास तक स्नान करके जो फल प्राप्त होता है वह फल केवल एक बार पंचगंगा में स्नान करने से प्राप्त होता है । पंचगंगा में स्नान करके देव , ऋषि , पितर तर्पण कर बिंदु माधव का दर्शन करने से पुनर्जन्म नही होता है ।
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पंच गंगा घाट , बिंदु माधव मंदिर , वाराणसी
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<nowiki>#</nowiki>वाल्मीकेश्वर_महादेव  #काशीखण्डोक्त
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<nowiki>#</nowiki>अश्विन_शुक्ल_पक्ष_पूर्णिमा_दर्शन_यात्रा
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महर्षि वाल्मीकि द्वारा स्थापित इस लिंग के दर्शन से अदभुद ज्ञान की प्राप्ति होती है और शास्त्रो में रुचि बढ़ती है ।
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त्रिलोचन घाट पर त्रिलोचन महादेव मंदिर के प्रांगण में स्थित इस लिंग का आज विशेष रूप से दर्शन पूजन करना चाहिए
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महर्षि वाल्मीकि का वास्तविक नाम रत्नाकर था। पुराणों में वर्णित कथा के मुताबिक ये ऋषि प्रचेता के पुत्र थे। प्रचेता के पिता का नाम ब्रह्मा था। कहते हैं कि रत्नाकर जब छोटे थे तब एक भील ने उन्हें चुराकर अपने साथ ले गया और उनका पालन-पोषण करने लगा। भीलनी समाज जो कि डाकू समय की श्रेणी में आता है, उसमें पलने के कारण इनका आचरण भी डाकू जैसा ही हो गया। रत्नाकर अपने परिवार के भरण-पोषण के लिए राहगीरों को लूटने लगे। इसी क्रम में एक दिन नारद जी उस रास्ते से गुजर रहे थे जहां रत्नाकर लूटपाट करता था।
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नारद जी को देखकर रत्नाकर ने उन्हें पकड़कर उनसे लूटपाट की और उन्हें बंधक बना लिया। नारद जी ने रत्नाकर से पूछा-“तुम ऐसा काम क्यों करते हो?” इस पर रत्नाकर ने जबाव दिया कि वह अपने परिवार के लिए ऐसा करता है। फिर नारद जी ने पूछा-“जिस परिवार के लिए तुम पाप कर रहे हो क्या वह तुम्हारे पापों को भोगेगा”? इस पर रत्नाकर जोशीले आवाज में बोला-“हां! हां! क्यों नहीं!” फिर नारद मुनि ने कहा- “एक बार अपने परिवार से पूछकर आओ, अगर हां कह दे तो मैं तुम्हें अपना सारा धन दे दूंगा।” जब रत्नाकर परिवार से पूछने गया तो किसी ने हां नहीं कहा।
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इस बात को सुनकर रत्नाकर को बहुत आघात पहुंचा और वह उसी दिन से ले लिया कि वह डाकू का काम नहीं करेगा। कहते हैं कि सालों तपस्या करने के बाद रत्नाकर को ज्ञान की प्राप्ति हुई। जिसके बाद वह रत्नाकर वाल्मीकि के नाम से जाना जाने लगा और रामायण नामक महाकाव्य संस्कृत भाषा में रच डाली।
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काशी में वाल्मीकेश्वर नाम से चार लिंग स्थापित है।
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1. भेलूपुर में नीलकंठ महादेव के बगल में बड़ा लिंग b20/15
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(मंदिर बंद रहता है)
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2. मलदहिया में वाल्मीकि टीला पर c21/14
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3. पिसाच मोचन कुंड के ऊपर c 21/39
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4. त्रिलोचन लिंग के बगल में बड़ा लिंग , त्रिलोचन घाट a 2/ 80 , वाराणसी ।
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<nowiki>#</nowiki>काशी_खण्डोक्त_लिंग
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<nowiki>#</nowiki>कंबलाश्वतरेश्वर महादेव    #राहु_रूपात्मक_शिव_लिंग
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<nowiki>#</nowiki>अश्वतरेश्वर महादेव      #केतु_रूपात्मक_शिव_लिंग
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पता - ck8/13 गोमठ काका राम की गली,गढ़वासी टोला, चौक, वाराणसी।
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कंबलाश्वतरेश्वर जिनको बहुत से लोग राह्वीश्वर और अश्वतरेश्वर को केतविश्वर के रूप में भी जानते है । स्थानीय लोगों के मत अनुसार यह दोनों लिंग त्रेतायुग कालीन है , इनके दर्शन से राहु और केतु ग्रह की शांति और इनसे सम्बंधित अनुकूल फल मिलने लगते है ।
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काशी में नवग्रह लिंग यात्रा में (यात्रा के जानकर लोग) राहु केतु के रुप में इन्ही का दर्शन कर के लाभ ग्रहण करते आये है।
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<nowiki>#</nowiki>ताम्र_वराह  #काशी_खण्डोक्त
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<nowiki>#</nowiki>एकादशी_विष्णु_दर्शन
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ताम्र वराह जो श्री हरि विष्णु जी के ही रूप है , इनका प्रादुर्भाव ताम्र द्वीप से काशी में हुआ है , (कोई विद्वान श्रीलंका को ताम्र द्वीप मानते है तोह कोई बर्मा को ताम्रद्वीप मानते है)
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जो भी लोग यहां नित्य दर्शन पूजन करते रहते है , उनकी हर मनोकामना पूर्ण होने लगती है और जैसे वराह अवतार ने डूबी हुई पृथ्वी को समुद्र तल से बाहर निकाला था वैसे ही यह ताम्र वराह अपने भक्तों को हर मुसीबत से बचाते है ।
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पता - ck 33 / 57 नील कंठ मोहल्ला , चौक वाराणसी ।
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<nowiki>#</nowiki>नीलकंठ_महादेव    #काशीखण्डोक्त
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<nowiki>#</nowiki>नीलकंठ_महादेव      #कालंजर_मध्यप्रदेश
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अश्विन मास विजय दशमी यात्रा  एवं एकादशी यात्रा
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15/10/21 से 16/10/21 तक
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<nowiki>#</nowiki>नीलकंठ_पक्षी_महिमा
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मान्यता यह है कि भगवान श्रीराम ने सुबह नीलकंठ पक्षी के दर्शन करने के बाद युद्धभूमि में रावण का वध किया था। इस कारण नीलकंठ को पूज्य पक्षी माना जाता है और आज भी लोग दशहरे के दिन सुबह-सुबह नीलकंठ पंछी के दर्शन कर यह त्योहार मनाते हैं। विजयादशमी के इस दिन पर क्षत्रिय शस्त्र पूजा करते हैं, तो ब्राह्मण शमी वृक्ष की पूजा करते हैं।
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मान्यता यह भी है कि नीलकंठ पक्षी को देखने से भगवान शिव के दर्शन हो जाते हैं और दिन शुभ होता है। नीलकंठ पक्षी को भगवान शिव का स्वरूप मानने का कारण भी है। भगवान शिव का कंठ नीला है, क्योंकि उन्होंने समुद्र से निकला हलाहल विष पान कर उसे अपने कंठ में धारण किया था। इसी तरह नीलकंठ पक्षी का भी कंठ नीला है। इसी कारण तो इसे यह नाम मिला है।
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नीलकंठ से जुड़ी कई कहावतें भी हैं, जैसे-नीलकंठ का दर्शन होय। मनवांछित फल पाए सोय। या नीलकंठ तुम नीले रहियो, हम पर कृपा बनाए रहियो।
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<nowiki>#</nowiki>काशी_में_नीलकंठ
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नीलकंठेश्वरं लिङ्गं काश्यां यै परि पूजितं
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नीलकठास्त ऐव स्युस्त ऐव शशिभूषणा
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जो लोग काशी धाम में नीलकंठेश्वर लिंग की पूजा करते हैं , वे स्वयं नीलकंठ और चंद्रभूषण हो जाते है ।
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<nowiki>#</nowiki>कालंजर_में_नीलकंठ
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किले में नीलकंठ महादेव मंदिर है। जहां समुद्र मंथन से निकले विष के रहस्य छिपे हुए हैं। कहा जाता है कि महादेव ने विषपान के बाद यहीं तपस्या कर विष के प्रभाव को खत्म कर काल की गति को मात दी थी। पांच फीट ऊंचा शिवलिंग विश्व का अनूठा और इकलौता है जिसमें विष पसीना बनकर रिसता रहता है।
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भक्त शरीर में लगाते हैं पसीना
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कालिंजर में अद्भुत शिवलिंग और इससे निकलने वाले पसीने का राज बेहद गहरा है। मान्यता है कि शिव ने समुद्र मंथन में जो विष पिया था उसका प्रभाव यहां दिखाई देता है और उसी प्रभाव की आस्था में सभी नतमस्तक हैं।
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बड़े दुख की बात है कि काशी खण्डोक्त लिंग नीलकंठ महादेव जो नीलकंठ मोहल्ला चौक पर था उसका , कॉरिडोर निर्माण के कारण मंदिर तोड़ दिया गया और तत्काल में दर्शन बंद कर दिया यह मंदिर जमीन से 40 फ़ीट नीचे के गहराई पर स्थित था ।
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पता -भेलूपुर रेवड़ी तालाब
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दूसरे नीलकंठ गौरीकेदारेश्वर मंदिर के पहले केदार घाट पर
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<nowiki>#</nowiki>पृथ्वीश्वर_महादेव        #काशी_खण्डोक्त
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विश्व के पहले राजा और राम जी के पूर्वज राजा पृथु द्वारा स्थापित लिंग ।
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ऐसा माना जाता है कि इन्होने ही सबसे पहले खेती की शुरुआत की थी , इसी कारण धरती को पृथ्वी कहा जाने लगा ।
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महाराज पृथु ने ही पृथ्वी को समतल किया जिससे वह उपज के योग्य हो पायी। महाराज पृथु से पहले इस पृथ्वी पर पुर-ग्रामादि का विभाजन नहीं था; लोग अपनी सुविधा के अनुसार बेखटके जहाँ-तहाँ बस जाते थे।
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महाराज पृथु अत्यन्त लोकहितकारी थे। उन्होंने विष्णु जी के दर्शन प्राप्त करने के लिए 99 अश्वमेध यज्ञ किये थे। सौवें यज्ञ के समय इन्द्र ने अनेक वेश धारण कर अनेक बार घोड़ा चुराया, परन्तु महाराज पृथु के पुत्र इन्द्र को भगाकर घोड़ा ले आते थे। इन्द्र के बारंबार कुकृत्य से महाराज पृथु अत्यन्त क्रोधित होकर उन्हें मार ही डालना चाहते थे कि यज्ञ के ऋत्विजों ने उनकी यज्ञ-दीक्षा के कारण उन्हें रोका तथा मन्त्र-बल से इन्द्र को अग्नि में हवन कर देने की बात कही, परन्तु ब्रह्मा जी के समझाने से  पृथु मान गये और यज्ञ को रोक दिया।  भगवान विष्णु ने उनकी भक्ति और मानवतावादी सोच के कारण उनको उसी क्षण दर्शन दिया और अनेकों वरदान भी दिए ।
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काशी में जब माता पार्वती और भगवान भोलेनाथ ने जब पंचक्रोशी यात्रा शुरू की थी तो बाबा पृथ्वीश्वर महादेव का दर्शन कर उन्हें अपना बड़ा भाई माना था।
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यहां पृथ्वीश्वर महादेव में ऐसी मान्यता है कि जो भी नित्य भक्ति भाव से यहां दर्शन करेगा तोह वह जल्द ही ऐश्वर्यवान और भूमिवान होजाता है ।
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Prithvishwar Mahadev Mandir , maqbulalam road , pandeypur , khajuri marg , varanasi
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<nowiki>https://maps.app.goo.gl/18A3CqG5nuckmsQR8</nowiki>
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<nowiki>#</nowiki>गोकर्णेश्वर_महादेव        #काशी_खण्डोक्त_लिंग
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काशी में गोकर्णेश्वर लिंग को शिव जी के कान का हिस्सा माना जाता है ।
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काशी में गोकर्णेश्वर लिंग , कर्नाटक में गोकर्ण शहर और रावण से संबंधित महाबलेश्वर लिंग का प्रतिनिधित्व करता है । महाबलेश्वर लिंग को गोकर्णेश्वर नाम से भी जाना जाता है ।
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<nowiki>#</nowiki>गोकर्ण_अर्थात_गाय का कान ,  यह भी एक दिलचस्प तथ्य है कि नदियों के संगम पर बसे इस गाँव का आकार भी गाय के कान जैसा ही प्रतीत होता है। यहाँ अनेक ख़ूबसूरत मंदिर हैं, जो लोगों की आस्था का केन्द्र हैं। यहाँ दो महत्त्वपूर्ण नदियों, 'गंगावली' और 'अघनाशिनी' का संगम भी देखने को मिलता है।
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<nowiki>#</nowiki>कथा
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लंका का राजा रावण जो भगवान शिव का परम भक्त था, उसने एक बार कठोर तपस्या करके भगवान शिव को प्रसन्न किया। इस तप से प्रसन्न होकर शिव ने रावण को वर मांगने को कहा। वरदान स्वरूप रावण ने शिव जी से अत्मलिंग की मांग रखी। इस पर भगवान शिव ने उसे वह शिवलिंग दे दिया, परंतु साथ ही एक निर्देश देते हुए कहा की यदि वह इस शिवलिंग को जहाँ भी जमीन मे रखेगा, यह वहीं स्थापित हो जाएगा और फिर वहाँ से इसे कोई डिगा नहीं सकेगा। अत: इसे जमीन पर मत रखना। रावण अत्मलिंग को हाथ में लेकर लंका के लिए निकल पड़ा। इस लिंग की प्राप्ति से वह और भी ज़्यादा ताकतवर एवं अमर हो सकता था। नारद मुनि को इस बात का पता चला तो उन्होंने भगवान गणेश से इस दुविधा को हल करने की मदद मांगी। इस पर भगवान गणेश को एक तरकीब सूझी, जिसके तहत उन्होंने सूर्य को ढँक कर संध्या का भ्रम निर्मित किया।
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रावण जो नियमित रूप से सांध्य पूजा किया करता था, इस शिवलिंग के कारण धर्म संकट में पड़ गया। इस बीच गणेश जी ब्राह्मण के वेश में वहाँ प्रकट हुए। रावण ने उस ब्राह्मण स्वरूप गणेश से आग्रह किया कि वह उस अत्मलिंग को कुछ समय के लिए पकड़ ले ताकि वह पूजा कर सके। गणेश भगवान को इसी बात का इंतज़ार था। अत: उन्होंने शिवलिंग को ले लिया, परंतु रावण के समक्ष यह बात रखी कि यदि उसे देर होती है तो वह आवश्यकता पड़ने पर तीन बार ही रावण को पुकारेगा और यदि वह नहीं आया तो फिर उस शिवलिंग को धरती पर रख देगा। रावण ने बात मान ली। अब वह पूजा करने लगा। रावण के पूजा में ध्यान लगाते ही गणेश जी ने उस लिंग को वहीं भूमि पर जो गोकर्ण क्षेत्र था, रख दिया और अंतर्ध्यान हो गए। जब रावण ने पूजा समाप्त की तो उसने शिवलिंग को भूमि रखा पाया। उसने बहुत बल पूर्वक प्रयत्न किये, किंतु अब वह लिंग को जमीन से उठा नहीं पाया तभी उसने इस लिंग को महाबलेश्वर का नाम दिया ।
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गोकर्ण शहर को दक्षिण का काशी भी कहा जाता है और काशी में गोकर्णेश्वर का दर्शन करने से महाबलेश्वर के दर्शन का फल मिलता है।
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मान्यता अनुसार गोकर्णेश्वर महादेव से अपनी किसी भी व्यथा को बताने से उसका निराकरण जल्द ही होजाता है ।
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काशी में गोकर्णेश्वर का पता - d 50 /33 कोदई की चौकी  दैलु की गली
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<nowiki>#</nowiki>ज्ञानवापी_तीर्थ    #काशी_खण्डोक्त
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~सर्वेभ्यस्तितिर्थमुख्येभ्यः प्रत्यक्ष ज्ञानदा मुने |
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सर्वज्ञानमयी  चैषा सर्व लिङ्ग मयि  शुभा ||
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साक्षाछिवमयि मूर्ति ज्ञार्नकृज्ज्ञान वापिका |
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(#काशीखण्ड्)
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यह ज्ञानवापी सम्पूर्ण तीर्थो में मुख्य , प्रत्यक्ष ज्ञान देने वाली और सम्पूर्ण ज्ञानरूप पवित्र सम्पूर्ण लिंगमयी साक्षात शिव मूर्ति को धारण करने वाली , ज्ञान कराने वाली ज्ञानवापी नाम से प्रसिद्ध है ।
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~दुर्लभं तु कलो देवैस्तजलम हय्म्रितो पमम् |
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तरणं  सर्वजन्तुनां  पानात्पापस्य नाशनं  ||
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(#शिवपुराण )
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सभी प्राणियो को मुक्ति देने वाला तथा अमृत के सदृश्य उस वापि का जल कलियुग मे देवताओ को भी दुर्लभ  है | उसके जल को पिने से मनुष्य के सभी पाप नष्ट जाते है
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~देवस्य दक्षिणे भागे वापि तिष्ठति शोभना |
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तस्यास्तथोदकं पीत्वा पुनर्जन्म न विद्यते ||
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(#लिङ्गपुराण)
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अविमुक्तेश्वर लिङ्ग के दक्षिण दिशा मे एक सुन्देर वापि है, जिसके जल पिने से मनुष्य का पुनर्जन्म नही होता |
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~यैस्तु तत्र जलं पीतं कृतास्ते हि मानवाः |
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तेषां तु तारकं ज्ञानमुत्पत्स्यति न संशयः ||
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(#तिर्थचिन्तामणि)
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जो मनुष्य ज्ञान वापि का जल पिते है, उनके सभी मनोरथ सिद्ध् हो जाते है, इसमे लेश मात्र भी संशय नही है |
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~उपास्य संध्यां ज्ञानोदे यत्पापं काल लोपजं |
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क्षणेन  तदपा कृत्य ज्ञानवान जायते  नरः  ||
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(#स्कन्दपुराण)
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कर्म करने के लिये विहित काल के लोप होने के कारण उत्पन्न पाप, ज्ञान वापि मे संध्या करने से एक क्षण मे हि दुर होजाते है और मनुष्य ज्ञान वान हो जाता है |
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~ज्ञानोदतीर्थंसंस्पर्शादश्चमेधफलं  लभेत् |
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स्पर्शनाचमनाभ्यां च राजसुयाश्मेधयोः ||
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(#पद्मपुराण)
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ज्ञानवापी तीर्थ के दर्शन से अश्वमेध यज्ञ फल की प्राप्ति होती है , और उसके स्पर्श और आचमन से राजसूय अश्वमेध फल की प्राप्ति होती है ।
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पता- काशी विश्वनाथ मंदिर वाराणसी
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<nowiki>#</nowiki>सिद्धेश्वर_महादेव    #काशीखण्डोक्त_लिंग
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~सिद्धकुण्डे नरः स्नात्वा दृष्ट्वा सिद्धेश्वरं महत् |
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सर्वासामेव सिद्धीनां पारं  मच्यछति मानवः ||
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(#काशी_खण्ड)
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सिद्धकुण्ड(चन्द्रकूप) में स्नान करके तथा सिद्धेश्वर भगवान का दर्शन करके व्यक्ति सभी सिद्धियो में पारंगत होता है अर्थात सभी सिद्धियां पा जाता है ।
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सिद्धेश्वर एक स्वयम्भू लिंग है जो सिद्धेश्वरी देवी मंदिर के प्रांगण में है , इनके ठीक बगल में चंद्रमा द्वारा स्थापित चन्द्रेश्वर लिंग भी विराजमान है , जो व्यक्ति यहां सिद्धेश्वर लिंग का रुद्राभिषेक करता है तोह उसके सभी प्रकार के कार्य पूर्ण होने लगते है । सिद्धि पा जाने का मतलब कार्य करने में पारंगत (master) होना ही है व्यक्ति हमेशा अपने कार्य क्षेत्र में सबसे आगे रहता है ।
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चन्द्रकूप में स्नान और जल का पान करने से हमारे पितृगण भी संतुष्ट होते है  , इसलिए यह स्थान सर्वदा पूजनीय है ।
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पता - ck7/124  सिद्धेश्वरी गली , सिद्धेश्वरी मंदिर , संकटा मंदिर मार्ग , चौक , वाराणसी ।
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नित्यं विश्वेश  विश्वेश विश्वनाथेति यो जपेत् |
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त्रिसन्ध्यं    तंसुकृतिनं    जपाम्य्ह्म  पिध्रुवं ||
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(#पद्म_पुराण)
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जो नित्य विश्वेश्वर विश्वेश्वर , हे विश्वनाथ विश्वनाथ ऐसा जपता है , विश्वनाथ जी कहते है कि तीनों संध्यायो में मैं भी उसे जपता हु अर्थात मै उनको इस संसार से तार देता हूं ।
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गच्क्षता  तिष्ठता वापि  स्वपता जग्रताथवा |
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काशीत्येष महामन्त्रो येन जप्तः स निर्गम ||
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जो प्राणी चलते , स्थिर रहते , सोते और जागते हुवे हर समय  ' ' काशी ' इस दो अक्षरों के महामंत्र को जपते रहते है , वे इस कराल संसार मे निर्भय रहते है (अर्थात इस भयानक संसार से मुक्त हो जाते है) ।
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योजनानां शतस्थोपी विमुक्तम संस्मरेद्यदि |
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बहुपातक  पुर्णोःपि पदं  गच्छत्यनामयम  ||
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काशी विश्वनाथ से एक सौ योजन (1200 किलोमीटर दूर) पर स्थित रहने पर भी जो काशी नगरी का स्मरण करता है । वह पापी होते हुवे भी सभी पापो से मुक्त हो जाता है ।
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शिव शिव ,  काशी काशी  ,  गंगा गंगा
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1 #महेश्वर    ( #काशी_खण्ड_स्वयम्भू_लिंग )
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2 #पिता_महेश्वर ( #काशी_खण्ड_स्वयम्भू_लिंग )
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3 #पर_पिता_महेश्वर ( #काशी_खण्ड_स्वयम्भू_लिंग)
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<nowiki>#</nowiki>महेश्वर_यात्रा
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1. #महेश्वर या #उमा_महेश्वर यह स्वयंभू लिंग मणिकर्णिका घाट की सीढ़ी पर मढ़ी के नीचे इनका स्थान है यह  काशी विश्वनाथ के आह्वान पर काशी आये थे । यह साक्षात ही शिव रूप है और इनके पूजा से शिव जी और माता पार्वती तुरन्त प्रसन्न हो जाते है। महेश्वर लिंग काशी के विशाल शिव लिंगो में आते है ।
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<nowiki>#</nowiki>Maheshwar_mahadev (kashi khand)
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<nowiki>https://maps.app.goo.gl/8U1zMrPy6Zmsh4WUA</nowiki>
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2. #पिता_महेश्वर शिव जी का( पिता रूपात्मक  लिंग ) यह स्वयंभू लिंग भी मणिकर्णिका के (काशी खण्ड में लिखित )परिक्षेत्र में ही पड़ता । यह भी काशी विश्वनाथ के आह्वान पर गया क्षेत्र से काशी में आये यहां ऐसा मानना है कि यहां शास्त्रोक्त पूजा अर्चना करने से हमारे 20 पित्रो को मुक्ति मिल जाती है , प्राचीन समय मे यह मंदिर सिद्धेश्वरी देवी मंदिर (चन्द्रेश्वर + चन्द्रकूप ) से जुड़ा हुआ था(पर अब दोनों मंदिर के मार्ग अलग होगये है ) चन्द्रकूप में सोमवती अमावस्या के दिन यहां श्राद्ध तर्पण से पित्रो को मुक्ति मिलती है ।
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पित्र पक्ष में भी यहां पूजा से पित्र प्रसन्न होते है और शिवरात्रि में भी विशेष पूजा होती है यहां । बहुत तेजोमय जागृत लिंग होने के कारण यहां 40 ft ऊपर से ही दर्शन होता है और सावन के सोमवार और शिवरात्रि को ही नीचे जा कर दर्शन मिलता है ।
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<nowiki>#</nowiki>pita_maheshwar (#kashikhandokt)
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<nowiki>https://maps.app.goo.gl/xnSgNsc3KYnnsdYX9</nowiki>
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3. #पर_पिता_महेश्वर  शिव जी का परपिता ( दादा )रूपात्मक यह स्वयंभू लिंग मणिकर्णिका के परिक्षेत्र में पड़ता है और पिता महेश्वर मंदिर के गली में ठीक पहले इनका (लिंग) स्थान  शीतला माता के मंदिर परिसर में है ।
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यह भी काशी विश्वनाथ के आह्वान (बुलाने ) पर यह काशी आये ।
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<nowiki>#</nowiki>Shital_mata_mandir
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<nowiki>https://maps.app.goo.gl/BJAE8b4BpHDWXgoZA</nowiki>
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यह तीनों लिंग काशी के मणिकर्णिका क्षेत्र में है और क्रूर निर्दयी मुग़लो के आतंक से बचे हुवे है । काशी में ज्यादातर शिव लिंग और प्राचीन मंदिर  मुग़लो द्वारा  तोड़ दी गयी थी जिसमे ज्यादातर लिंगो और मंदिरों की पुनःस्थापना हुई है ।
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<nowiki>#</nowiki>बद्रीनाथ_जी          #काशीखण्डोक्त
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<nowiki>#</nowiki>पौष_शुक्ल_पूर्णिमा_दर्शन
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<nowiki>#</nowiki>काशी_खण्डोक्त_चारधाम_यात्रा
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काशी में बद्रीनारायण घाट पर ही बद्रीनारायण का मंदिर है , घाट के समक्ष गंगा में नर-नारायण तीर्थ की स्थिति मानी गई है। स्कन्दपुराण में ऐसी मान्यता है कि नर.नारायण तीर्थ में स्नान के पश्चात बद्रीनारायण के दर्शन-पूजन से उत्तराखंड स्थित बद्रीनाथ जी के दर्शन के समान पुण्य प्राप्त होता है।
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बद्रीनारायण मंदिर के अतिरिक्त घाट पर नागेश्वर शिव मंदिर भी स्थापित है। पौष माह में घाट पर स्नान करने का विशेष महात्म्य है और पौष मास की पूर्णिमा में यहां दर्शन का विधान प्राचीन समय से ही चला आरहा है (यह यात्रा काशीखण्डोक्त यात्रा है) ।
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काशी में चार धाम भी है , जहां दर्शन करने से उस धाम का पूर्ण फल प्राप्त होता है ।
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1. #बद्रीनारायण  -- 1/72 बद्रीनारायण घाट
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2. #जगन्नाथ  -- रामघाट b1/151
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3. #सेतुबंधरामेश्वरम -- मान मन्दिर घाट d 16/2
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4. #द्वारकानाथ  -- संकुल धारा b 22/ 195
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<nowiki>#</nowiki>श्री_गौरी_केदारेश्वर    #काशी_खण्डोक्त
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<nowiki>#</nowiki>काशी के केदारखण्ड के प्रधान लिंग
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<nowiki>#</nowiki>मकर_संक्रांति_प्राकट्य_दिवस
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गौरी_केदारेश्वर_महात्म्य :-
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पार्वती जी के केदारेश्वर लिंग की महात्म्य की कथा पूछने पर शिव जी कहते है कि ---
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जो कोई भी पुरुष दृढ़ चित्त होकर केदारेश्वर की यात्रा करने की इक्षा करता है , उसके जन्म भर के पाप उसी क्षण में नष्ट हो जाते है ।
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और जो कोई जो कोई काशी के केदार की यात्रा के लिए घर से  निकल पड़ता है , उसके दो जन्म के अर्जित पाप भी शरीर से निकल जाते है ।
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एवं जो कोई आधा मार्ग साध लेता है , उसके तीन जन्म के पाप देहरुप से बाहर निकल कर भाग जाते है , यदि कोई घर भी रहकर संध्या समय तीन बार केदार का नाम लेता है तोह उसे केदार की यात्रा का फल निश्चय ही मिलता है ।
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केदारनाथ के शिवालय का शिखर देख और वहां जल पीकर सभी जो अपने सात जन्मों के पाप से छूट जाते है और हरपाप कुंड (गौरी कुंड, केदारघाट वाराणसी में स्थित) में स्नान और केदारेश्वर के पूजन करले तोह करोड़ो जन्म के पाप खत्म होजाते है और अंत मे मुक्ति प्राप्त होती है ।
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हरपाप कुंड (गौरी कुंड) पर श्राध्द करने से सात पितरो का उद्धार हो शिव लोक में निवास पाता है ।
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<nowiki>#</nowiki>प्राचीन_कथा  जिसको शिव जी ने माता पार्वती की सुनाया था :-
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एक ब्राह्मण का लड़का पिता के यज्ञोपवीत कर देने पर ब्रह्मचर्य का व्रत धारण कर उज्जैनी से काशी में आया , वह काशी आकर बहुत प्रसन्न हुआ और अपने आचार्य से उसने परमोत्तम पाशुपत व्रत को ग्रहण किया ।
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उस शिष्य का नाम वशिष्ठ था । देखते ही देखते वह समस्त शिव भक्तों में प्रधान होगया और नियमानुसार हरपाप कुंड में स्नान करता था  साथ ही नित्य ही भस्म से स्नान कर शिव लिंग और गुरु की पूजा करता था।
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एक बार जब वह 12 वर्ष का था तोह अपने गुरु के साथ केदारेश्वर की यात्रा के लिए हिमालय पर्वत पर गया । जहां जाने से आमजन मानस को कुछ भी पश्चाताप नही करना पड़ता था । हिमालय पर पहुँच कर वशिष्ठ के आचार्य तपस्वी हिरण्यगर्भ की मृत्यु होगयी फिर कुछ ही देर में सभी के देखते देखते ही शिव जी के पार्षद लोग उनको दिव्य विमान पर चढ़ा कर कैलाश पर ले गए (क्योंकि , केदारेश्वर के उद्देश्य से जो कोई भी यात्रा करता है , वह यदि आधे मार्ग में आकर यदि मर जाये तोह बहुत दिन तक कैलाश में वास करता है)
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इस घटना को देखकर वह तपस्वी वशिष्ठ निश्चित रूप से केदार को ही लिंगो में सबसे बड़ा समझने लगा । इसके पश्चात वह केदारेश्वर की यात्रा करके फिर काशी में लौट आया और इसी नियम को धारण करके रिती रिवाज से उसका पालन करने लगा और प्रतिवर्ष चैत्र की पूर्णिमा को जब तक में जीता रहूंगा काशी में रहने पर भी केदारेश्वर का दर्शन किया करूंगा ।
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इसी प्रकार वशिष्ठ की केदारनाथ की एकसठ 61 यात्रा बड़े हर्ष से हुई , बालो के सफेद होजाने और शरीर के वृद्ध होजाने के कारण दूसरे तपस्वी भी उसे केदारनाथ की यात्रा के लिए मना करने लगे पर वशिष्ठ का उत्साह जरा भी कम नही हुआ उसने सोचा कि मार्ग में ही मैं मर जाऊंगा तोह मेरी भी गति मेरे गुरु के तरह हो जावेगी ।
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इस प्रकार से सोच रखने वाले महान तपस्वी से मैं बड़ा प्रसन्न हुआ और उसके स्वप्न में उस वशिष्ठ से वर मांगने को बोला पर वशिष्ठ ने यह बोल बोल दिया कि स्वप्न तोह झूठा होता है ।
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फिर मैंने बोला कि अपवित्र लोगो का स्वप्न झूठा होता है पर तुम्हारे जैसे जितेंद्रिय का स्वप्न सर्वाथा सच्चा होता है । उसी क्षण वशिष्ठ ने आपने साथ के तपस्वियों पर आशीर्वाद देने को कहा , उस परोपकारी वशिष्ठ की इस बात को सुन कर तथास्तु बोल कर उसके पुण्य को दुगना बढा दिया और उसी पुण्य के बल पर उससे फिर वरदान मांगने को कहा , फिर वशिष्ठ ने मुझे हिमालय से आकर  काशी में वास करने के लिए वर मांगा , तत्काल ही मैंने हिमालय के केदारेश्वर लिंग के 16 कलाओं से मात्र 1 कला वहां छोड़ कर 15 कलाओं से काशी में गौरी केदारेश्वर के नाम से हरपाप कुंड के पास वास करने लगा ।
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वशिष्ठ के साथ के सभी तपस्वी भी हरपाप कुंड में स्नान करके सिद्धि को प्राप्त हो गए , तभी से मैं अविमुक्त क्षेत्र में विशेष करके कलियुग के समय इसी लिंग में साधक लोग के सिद्धि के लिए सदैव वास् करने लगा ।
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हिमालय में केदारेश्वर के दर्शन से सात गुना फल काशी में केदारेश्वर के दर्शन से मिलता है ।
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जैसे हिमाचल में गौरी कुंड है वैसे ही काशी में हरपाप कुंड , हंस तीर्थ और मधुश्रवा भी काशी में है ।
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यह हरपाप  तोह पहले सात जन्मों के ही पाप हरता था पर गंगा के आ जाने से करोड़ो जन्मों का पाप हरने लगा ।
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यहां पर पूर्वकाल में दो कौवे लड़ते हुवे आकाश से गिर पड़े थे तोह देखते ही देखते वह हंस बन गए तभी से तोह यह तीर्थ हंस तीर्थ हुआ इसी तीर्थ में गौरी के स्नान करने से यह गौरी कुंड कहलाने लगा ।
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केदारघाट की गंगा मधुश्रवा कहलाती है क्योंकि वह यहां महाअन्धकार को हरती है और अनेक जन्मों के पापों को हरती है ।
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हरपाप के पास यहां पर मानस नामक सरोवर ने पूर्वकाल में बड़ी कठोर तपस्या की थी इसीलिए यह मानस तीर्थ कहलाने लगा ।
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नोट - हरपाप कुंड और मानस तीर्थ अब समय के हिसाब से लुप्त होगये है और गौरी कुंड में भी प्रायः जल नही रहता , अब
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गंगा स्नान कर के केदारेश्वर के दर्शन का विधान हो गया है ।
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केदार तीर्थ में स्नान कर यदि कोई भी पिंडदान करेगा तोह उसके 100 पित्र मुक्त होजाएंगे ।
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यदि भौमवती अमावश्या के दिन कोई श्राद्ध करें तोह गया श्राध्द करने की कोई जरूरत नही पड़ेगी ।
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यदि कोई केदारेश्वर की दर्शन यात्रा करना चाहता है तोह उसको बुद्धि जरूर देनी चाहिए कि केदारेश्वर के स्पर्श से तुम कृतकृत्य हो जावोगे ।
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यदि कोई चैत्र मास की कृष्ण चतुर्दशी को व्रत रहकर प्रातः काक तीन घुट जल वही पर पी लेवे तोह उसके हृदय में केदारेश्वर लिंग का वास होजाता है ।
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जो कोई धन , वस्त्र और अन्न इत्यादि के द्वारा केदारेश्वर के भक्त की भी पूजा करता है तोह वह अपने जन्म भर के पापों से छूटकर मेरे स्थान को प्राप्त होता है ।
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छह महीने तक जो कोई प्रतिदिन त्रिकाल केदारनाथ को प्रणाम करता है , उसे यमराज सदैव नमस्कार करते है ।
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कलयुग में केदारनाथ जी महिमा जो समझ गया वह सर्वज्ञ है ।
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जो कोई एक बार भी केदारेश्वर के दर्शन करता है वह मेरा अनुचर बन जाता है ।
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और जो केदारेश्वर की कथा को सुनता है वह निष्पाप होकर शिवलोक में निवास प्राप्त करता है ।
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यह कथा स्कन्दपुराण के काशी खण्ड के अध्याय 77 से ली गयी है ।
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पता- काशी में केदार घाट पर गौरी केदारेश्वर नाम से प्रसिद्ध मंदिर ।
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<nowiki>#</nowiki>कामेश्वर_महादेव        #काशी_खण्डोक्त
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<nowiki>#</nowiki>शनि_प्रदोष_यात्रा 15- 01-22
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~ एक समय महातपस्वी दुर्वासा ऋषि जब शिव लिंग स्थापना के उद्देश्य से काशी आये और यहां की सुंदरता देख कहने लगे कि यह काशी पूरी तोह पशु पक्षियों के भी आनंद को बढ़ाने वाली है और यह विश्वनाथपूरी मेरे चित्त को जिस प्रकार आकृष्ट कर रही है वैसा आकर्षण न पूरे भूमण्डल , आकाश , पाताल और ना ही स्वर्ग में है । इस प्रकार काशी के प्रशंसा कर के दुर्वासा ऋषि शिव लिंग स्थापना और शिव पूजा के लिए कुंड तैयार करके शांत चित्त से विशेष कठोर तपस्या में लीन होगये , परन्तु जब तपस्या का कोई फल नही दिखा तोह वह क्रोधित होकर कहने लगे कि मुझे और मेरे कठोर तप को धिक्कार और सभी को अपने माया जाल से ठगने वाली काशी को धिक्कार है ।
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ऐसा कहते हुवे दुर्वासा ऋषि काशी में किसी को भी मुक्ति न मिले ऐसा श्राप देने को उठ खड़े हुवे तभी एक प्रहसीतेश्वर नामक शिवलिंग दुर्वासा ऋषि के श्राप से काशी को बचाने के लिए प्रकट हुआ और शिव जी ने दुर्वासा ऋषि के तप से प्रसन्न हो कर वर मांगने को कहा - - इतना सुन कर श्राप देने को तैयार मुद्रा में खड़े दुर्वासा ऋषि लज्जित हो गए और कहा कि जो भी व्यक्ति काशी के नाम को जपता है वही बड़ा तपस्वी है और सभी यज्ञों का फल उसी को मिलता है और गर्भवास से भी मुक्ति मिलती है ।
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ऐसा कह कर शिव की स्तुति के बाद दुर्वासा ऋषि ने शिव जी से कहा कि यहां प्रकट हुआ शिव लिंग कामद नाम से और जो मेरे द्वारा बनाया हुआ कुंड काम कुंड नाम से जाना चाहिए ।
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शिव जी ने तथास्तु बोल कर दुर्वासा ऋषि द्वारा स्थापित लिंग कामेश्वर की संज्ञा दी कर और सभी कामनाओं के पूर्ति करने का वरदान दिया
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जो भी व्यक्ति शनि प्रदोष के दिन काम कुंडमें स्नान कर कामेश्वर महादेव के दर्शन करेगा उसकी हर मनोकामना पूर्ण होगी और कभी काम जनित दोष से यम यातना नही प्राप्त करेगा और सभी पाप से वंचित होजायेगा ऐसा कह कर उसी लिंग में समाहित होगये ।
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पता -मछोदरी मार्ग पर प्रसिद्ध मंदिर
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<nowiki>#</nowiki>पवनेश्वर_महादेव        #काशीखण्ड
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<nowiki>#</nowiki>वायु_देव_द्वारा_स्थापित
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पुरा कश्यपदायादः  पुतात्मेति च विश्रुतः।
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धुर्जटे राजधान्यां स चचार विपुलं तपः।।
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वाराणस्यां माहाभागो वर्षाणांयुतं  शतं ।
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स्थापयित्वा महालिङ्गं पावनं पवनेश्वरम् ।।
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यस्य दर्शनमात्रेन पूतात्मा जायते नरः ।
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पापकञ्चुकमूत्सृज्य स वसेत् पावने पुरे ।।
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(#काशीखण्ड)
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पूर्वकाल में कश्यप ऋषि के पुत्र जो कि पूतात्मा नाम से प्रसिद्द थे , उन महाभाग ने शिव की राजधानी वाराणसी पूरी में अत्यंत पावन लिंग स्थापित कर के दस लाख वर्ष कर कठिन तपस्या किया जिससे उस पवन लिंग का नाम पवनेश्वर हुआ ।
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इस शिव लिंग के केवल दर्शन से ही मनुष्य पूतात्मा हो जाता है और अंत मे पाप कुंचक को छोड़कर पवनपुर में निवास करता है ।
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पूतात्मा (पवनदेव) के कठिन तप से प्रसन्न होकर शिव जी उन्ही के द्वारा स्थापित लिंग से ज्योति रूप में प्रकट होकर पवन को (वायु देव) को बिना कुछ मांगे ही अनेको वरदान दिए जिसमे उन्होंने
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अपनी अष्ट मूर्ति के अंतर्गत वायव्यकोण का दिगपाल का पद दिया(पुराणानुसार दसों दिशाओं के पालन करने वाले देवताओं में से एक) । और साथ ही सर्वत्र गामी , सर्वत्र तत्वों के ज्ञाता एवं सब किसी के आयुष्यरूप होने का वरदान दिया।
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और कहा कि
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तव लिङ्गमिदं दिव्यं ये द्रक्ष्यन्तिह मानवाः।
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सर्व भोगसमृधास्ते त्वल्लोक सुखभागिनः ।।
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(#काशीखण्ड)
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जो लोग तुम्हारे द्वारा स्थापित इस दिव्य लिंग का दर्शन करेंगे , वे सब यहां समस्त भोगों से परिपूर्ण होकर अंत मे तुम्हारे लोक के सुखभागी होंगे ।
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और साथ ही
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जो मनुष्य , जन्मभर में एक बार भी पवनेश्वर लिंग का सुगंधित जल से स्नान एवं सुगंधित चंदन पुष्पादि के द्वारा यथोक्त विधि से पूजन कर लेता है , वह मेरे लोक में ससम्मान सहित निवास करता है । ज्येष्ठेश्वर के पश्चिम भाग में और वायुकुण्ड के उत्तर दिशा में पवनेश्वर लिंग की आराधना करने से तत्काल ही पवित्र होजाता है । इतना कह कर शिव जी इसी पवनेश्वर लिंग में समाहित होगये ।
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पहले यहां पवन देव (वायुदेव) द्वारा बनाया गया वायु कुंड भी था जो अब लुप्त हो चुका है । यह लिंग अत्यंत ही प्राचीन और जमीन के 20 " फ़ीट नीचे है ।
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<nowiki>#</nowiki>वायव्य दिशा : उत्तर और पश्चिम दिशा के मध्य में वायव्य दिशा का स्थान है। इस दिशा के देव वायुदेव हैं और इस दिशा में वायु तत्व की प्रधानता रहती है।
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पता -  भूत भैरव गली , करनघन्टा , वाराणासी ।
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<nowiki>#</nowiki>कुबेरेश्वर_महादेव  या  #धनदेश्वर_महादेव
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<nowiki>#</nowiki>काशीखण्डोक्त
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<nowiki>#</nowiki>पौष_मास_की_यात्रा  20/12/21 से  17/1/22 तक
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प्राचीन समय की बात है जब ब्रह्मा के मानस पुत्र विश्रवा उत्पन्न हुवे और विश्रवा के पुत्र वैश्रवण (कुबेर)हुवे जिनका निवास स्थान अलकापुरी था ।
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पिछले जन्म के फल के कारण कुबेर का मन काशी में शिव लिंग की स्थापना कर कठिन तप करने का हुआ ।
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उन्होंने 10 लाख वर्षो तक कठिन तप किया ऐसा तप अब तक सिर्फ शिव द्वारा ही किया गया था ।
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तप से प्रसन्न होकर शिव जी ने कुबेर को अपना मित्र मन साथ ही सभी निधियो का स्वामी , धन के देवता और गुह्यको(अर्ध देवता , धन दौलत के रक्षक) का अधीश्वर(मालिक) , धन के दाता , राजाओं के राजा और पुण्यजनों के अधिपति होने का वरदान दिया । जिससे इनका नाम धनद पड़ा ।
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वही जब माता पार्वती पर कुबेर की बायीं नजर पड़ी तोह माता का सौभाग्य देख कर अचंभित हो गए , जिससे उनकी बायीं आँख फुट गयी और माता ने उनको एकलिंग नाम से प्रसिद्ध होने का वरदान दिया और कुबेर नाम की उपाधि भी दी और कहा कि :-
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त्वयेदं स्थापितं लिङ्गं तव नाम्ना भविष्यति ।
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सिद्धिदं  साधकानां  च सर्व पापहरं परम्  ।।
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न धनेन वियुज्येत न सख्या न च बान्धवैः ।
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कुबेरेश्वरलिङ्गस्य कुर्याद्यो    दर्शनं  नरः  ।।
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विश्वेशाद्दक्षीणे भागे कुबेरेशं    समर्चयेत  ।
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नरो लिप्येत नो पापैर्न दरिद्र्येन नोःसुखैः ।।
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(#काशीखण्ड)
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तुम्हारा स्थापित यह लिंग शिव साधको के लिए परम सिद्धिप्रद और पापहर एवं तुम्हारे नाम से विदित होगा ।
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जो कोई मनुष्य कुबरेश्वर लिंग का दर्शन करेगा , उसे धन की कमी कभी नही होगी , न मित्र से वियोग होगा न ही स्वजनों से दूरी होगी ।
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जो मनुष्य विश्व्नाथ के दक्षिण भाग में ( वर्तमान में अन्नपूर्णा मन्दिर परिषर में )  स्थित इस कुबरेश्वर लिंग का दर्शन पूजन करेगा वह कभी पाप , दरिद्रता और दुख से परेशान नही होगा।
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प्राचीन काल मे यहां धनद कुंड भी था जो अब लुप्त हो चुका है , धनद कुंड में स्नान और उस कुंड के जल से धनदेश्वर महादेव का जलाभिषेक करने से बड़ा लाभ मिलता था ।
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काशीखण्ड पुराण के अनुसार इस यात्रा को गुह्यक (जो की कुबेर के अनुचर है , अर्ध देवयोनि में आते है और गुह्यक कुबेर के अथाह संपत्ति के रक्षक होते है) करते है और धनवान होकर कुबेर के धन की रक्षा करते है ।
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यह कुबरेश्वर महादेव का लिंग अन्नपूर्णा मन्दिर परिषर में है , और एक दूसरा कुबरेश्वर का बड़ा लिंग जो विश्वनाथ मंदिर के पास जमीन में था उसको विश्वनाथ कॉरिडोर के तहत तोड़ दिया गया है ।
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<nowiki>#</nowiki>वृषेश्वर_महादेव  #काशी_खण्डोक्त
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आगादिह महादेवो वृषेशो वृषभध्वजात्  ।
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बाणेश्वरस्य  लिङ्गष्य  समीपे वृषदः सदा ।।
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(#काशीखण्ड्)
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~धर्मप्रद लिंग वृषेश्वर , जो कि वृषभध्वज तीर्थ से यहाँ आकर बाणेश्वर महादेव के समीप में सदैव शोभायान रहते है ।
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काशी में वृषेश्वर लिंग का स्थापना महादेव के परम भक्त नंदी द्वारा किया गया है।
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काशीखण्ड पुराण के हिसाब से वृषेश्वर लिंग वृषभध्वज तीर्थ से काशी में नन्दी जी के आग्रह पर आये थे । वृषेश्वर के दर्शन पूजन से वृषभध्वजेश्वर महादेव के दर्शन का फल मिलता है।
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(वृषभध्वजेश्वर लिंग काशी से कुछ दूर सलारपुर - कपिलधारा पर स्थित है)
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काशी में वृषेश्वर लिंग का प्रादुर्भाव नंदी के द्वारा हुआ है ।
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वृषेश्वर लिंग चतुर्दश लिंगो में से एक है जिसकी दर्शन यात्रा करने से मुक्ति अवश्य ही मिलती है ।
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आषाढ़ कृष्ण पक्ष दशमी तिथि को इनकी यात्रा का प्रावधान है।
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वृषेश्वर लिंग का स्थान उत्तर दिग्देव यात्रा के 201 शिव लिंगो में भी है , इस यात्रा को करने से समस्त जन्मों के पाप कट कर मोक्ष मिल जाता है ।
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प्राचीन समय मे यहां वृषेश नामक कूप(कुँवा) भी था जिसका पता अब नही लगता पर मंदिर प्रांगण में एक कूप है जिसको वृषेश कूप से जोड़ कर देखा जा सकता है । यहां श्राद्ध तर्पण करने का भी बहुत फल मिलता है ।
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पता- k 58/78 गुरु गोरखनाथ का टीला , मैदागिन , वाराणसी।
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इस मंदिर से थोड़ा पहले बाणेश्वर महादेव का भी मन्दिर है।
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<nowiki>#</nowiki>अत्युग्रह_नरसिंह      #काशीखण्डोक्त
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अतिउग्र नरसिंह यह नरसिंह भगवान का रूप काशी में बहुत ही उग्र रूप से निवास करते है । काशी और काशीवासियो की सदैव रक्षा करते रहते है ।
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इस तीर्थ के बारे में भगवान माधव विष्णु ने अग्निबिन्दु ऋषि से कहा था कि :--
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अतिउग्र नरसिंहोःहं  कल्शेश्वर पश्चिमे।
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अत्युग्रमपि पापोघं  हरामि श्रध्यार्चितः।।
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(#काशीखण्ड)
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कल्शेश्वर शिव लिङ्ग के पश्चिम भाग में मैं अत्युग्रह नरसिंह के नाम से राहत हूं । श्रद्धा से उनका पूजन करने पर बड़ी उग्र पापराशि (जो अक्षय कर्मो के बाद भी इंसान को दुख देती है और पीछा नही छोड़ती) को भी दूर कर देता हूं ।
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पता -ck 8/21 गौमठ (संकठा जी मन्दिर मार्ग के पास) , चौक , वाराणसी
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