Changes

Jump to navigation Jump to search
→‎दीपावली पूजन कथा: लेख सम्पादित किया
Line 155: Line 155:     
इसके अतिरिक्त अपनी सामर्थ्य के अनुसार भोज्य, भज्य पेय, घोल, चारों प्रकार के व्यंजन एवं पुष्प फलादि भी लक्ष्मीजी को भेंट करने चाहियें। तदनन्तर दीपदान का विधान है। दीपदान के समय कुछ दीपकों को अपने प्रियजनों के अनिष्ट की निवृत्ति के लिए मस्तष्क के चारों ओर से घुमाकर किसी चौराहे या श्मशान भूमि में रखवा देना चाहिये। नदी, तालाब, कुएं, चौराहे आदि सार्वजनिक स्थानों पर दीपदान करना चाहिये तथा ब्राह्मणों को दक्षिणा एवं भोजन वस्त्रादि से सत्कृत करना चाहिये।
 
इसके अतिरिक्त अपनी सामर्थ्य के अनुसार भोज्य, भज्य पेय, घोल, चारों प्रकार के व्यंजन एवं पुष्प फलादि भी लक्ष्मीजी को भेंट करने चाहियें। तदनन्तर दीपदान का विधान है। दीपदान के समय कुछ दीपकों को अपने प्रियजनों के अनिष्ट की निवृत्ति के लिए मस्तष्क के चारों ओर से घुमाकर किसी चौराहे या श्मशान भूमि में रखवा देना चाहिये। नदी, तालाब, कुएं, चौराहे आदि सार्वजनिक स्थानों पर दीपदान करना चाहिये तथा ब्राह्मणों को दक्षिणा एवं भोजन वस्त्रादि से सत्कृत करना चाहिये।
 +
 +
=== गोवर्धन पूजा (अन्न कूटोत्सव) ===
 +
कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा को अन्नकूट उत्सव मनाया जाता है। इसी दिन बालि पूजा, गोवर्धन पूजा इत्यादि होते हैं। इस दिन गोबर का अन्नकूट  बनाकर या उसके निकट विराजमान श्री कृष्ण के समान गाय और बगवाल बालों की पूजा होती है। इस दिन मन्दिरों में अनेक प्रकार की खादा सामग्रियों का भगवान को भोग लगाया जाता है |
 +
 +
==== गोवर्धन व अन्नकूट की कथा-. ====
 +
एक दिन भगवान श्रीकृष्ण ने नन्द बाबा  से कहा, हमारे गांव में ये तरह तरह के पकवान क्यों बनाये जा रहे हैं। इनका क्या महत्त्व है? नन्द बाबा बोले- हे कृष्णा काल इन्द्र की पूजा होगी। इन्द्र रोप वर्षा कर हमें अन्न देते है। गायों के लिए चारा देते हैं। तब भगवान कृष्ण कहने लो, बाबा हमारे गांव में गोवर्धन पर्वत साक्षात देवता हैं उनकी पूजा करो। ये हमारी पूजा स्वीकार करेंगे और प्रकट होकर स्वयं भोजन करेंगे। इन्द्र कुछ भी नहीं है उसकी आप व्यर्थ में ही पूजा करते हैं। कृष्ण की बात मानकर सभी गोप गोपिकायें गोवर्धन को पूजने के लिए गये। तब भगवान श्रीकृष्ण अपना चतुर्भुज रूप धरकर स्वयं गोवरधन पर्वत पर बैठ गये। गोपने गोपियों के भोग को खाने लगे। तभी से गोबरधन पर्वत का महत्व बढ़ गया। इन्द्र के स्थान पर सभी गोवरधन की ही पूजा करने लगे।
 +
 +
==== भैया दूज टीका ====
 +
भैया दूज टीका को कार्तिक शुक्ल पक्ष द्वितीया को मनाया जाता है। यह भाई-बहन के प्रेम का प्रतीक है। इस दिन भाई बहन को साथ साथ यमुना स्नान करना, तिलक लगवाना, भाई को बहिन के घर भोजन करना अति फलदायी होता इस दिन बहन भाई की पूजा करके उसको दीर्घायु और अपने सुहाग की हाथ जोड़कर यमराज से प्रार्थना करती है। इस दिन सूर्य तनया जमुनाजी ने अपने भाई यमराज को भोजन कराया था। इसलिए इसे यम द्वितीया भी कहते हैं। इस दिन श्रद्धा अनुसार भाई स्वर्ण वस्त्र, मुद्रा आदि बहन को दे। भैया दूज की कहानी-सूर्य देव की पत्नी का नाम संज्ञा देवी था। उसके एक पुत्र तथा एक पुत्री थी। लड़के का नाम यमराज और लड़की का नाम यमुना था। अपने पति सूर्य नारायण की तेज गर्मी के कारण संज्ञा उत्तरी ध्रुव में छाया बनकर रहने लगी। उस लाया से ताप्ती नदी और शनिश्चर का जन्म हुआ। उसके पश्चात संज्ञा से ही अश्विनी कुमार हुए जो आगे चलकर देवताओं के वैद्य बने। जी संज्ञा छाया बनकर उत्तरी धूप में रहती थी वह यमराज च यमुना के साथ सौतेली माँ का
1,192

edits

Navigation menu