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=== रमा या रम्भा एकादशी ===
 
=== रमा या रम्भा एकादशी ===
यह व्रत कार्तिक कृष्ण पक्ष की एकादशी को रखा जाता है। इस दिन भगवान का समस्त सामग्री से पूजन करें! भोग लगाकर आरती उतारें, आरती के उपरान्त भोग को बांट दें। फिर ब्राह्मणों को भोजन कराकर अपनी शक्ति के अनुसार दान-दक्षिणा देकर विदा करें। इस प्रकार जो व्रत धारण करता है, उसे इस लोक व परलोक दोनों में सुख मिलता है। एकादशी की कृपा से स्वर्ग में रम्भा या रमा आदि अप्सरायें सेवा करती हैं। रमा या रम्भा एकादशी की कथा-एक समय भारतवर्ष में एक मृचुकन्द नाम का दानी, धर्मपरायण और महाप्रतापी राजा हुआ था। उसको एकादशी व्रत पर पूरा विश्वास था, इसी कारण वह एकादशी व्रत धारण भी करता था। साथ ही साथ उसके राज्य में सभी नियमपूर्वक एकादशी का व्रत भी करते थे। उसके एक चन्द्रभागा नाम की एक रूपवती, गुणवती और धर्मपरायण पुत्री थी! बाप और बेटी दोनों ही भगवान केशव के पूर्ण भक्त थे। उनकी पुत्री चन्द्रभागा का विवाह राजा चन्द्रसेन के पुत्र के साथ हुआ, जो राजा मृचुकुन्द के पास ही रहता था। जब एकादशो आयी तो सभी व्यक्तियों ने व्रत धारण किया। सोभन कुमार ने कमजोर होते हुए भी व्रत धारण किया। सोभन कुमार को व्रत के प्रभाव से मन्दराचल पर्वत पर स्थित देवनगर में निवास मिला। वहां उसकी सेवा में रम्भादिक अप्सरायें भी धीं। एक दिन राजा मृचुकुन्द घूमता-घूमता मन्दराचल पर्वत पहुंचा, उसने वहां अपने दामाद को देखा। वह तभी अपनी पुत्री के पास लौट आया और आकर सम्पूर्ण वृतान्त अपनी पुत्री को कह सुनाया।
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यह व्रत कार्तिक कृष्ण पक्ष की एकादशी को रखा जाता है। इस दिन भगवान का समस्त सामग्री से पूजन करें! भोग लगाकर आरती उतारें, आरती के उपरान्त भोग को बांट दें। फिर ब्राह्मणों को भोजन कराकर अपनी शक्ति के अनुसार दान-दक्षिणा देकर विदा करें। इस प्रकार जो व्रत धारण करता है, उसे इस लोक व परलोक दोनों में सुख मिलता है। एकादशी की कृपा से स्वर्ग में रम्भा या रमा आदि अप्सरायें सेवा करती हैं। रमा या रम्भा एकादशी की कथा-एक समय भारतवर्ष में एक मृचुकन्द नाम का दानी, धर्मपरायण और महाप्रतापी राजा हुआ था। उसको एकादशी व्रत पर पूरा विश्वास था, इसी कारण वह एकादशी व्रत धारण भी करता था। साथ ही साथ उसके राज्य में सभी नियमपूर्वक एकादशी का व्रत भी करते थे। उसके एक चन्द्रभागा नाम की एक रूपवती, गुणवती और धर्मपरायण पुत्री थी! बाप और बेटी दोनों ही भगवान केशव के पूर्ण भक्त थे। उनकी पुत्री चन्द्रभागा का विवाह राजा चन्द्रसेन के पुत्र के साथ हुआ, जो राजा मृचुकुन्द के पास ही रहता था। जब एकादशो आयी तो सभी व्यक्तियों ने व्रत धारण किया। सोभन कुमार ने कमजोर होते हुए भी व्रत धारण किया। सोभन कुमार को व्रत के प्रभाव से मन्दराचल पर्वत पर स्थित देवनगर में निवास मिला। वहां उसकी सेवा में रम्भादिक अप्सरायें भी धीं। एक दिन राजा मृचुकुन्द घूमता-घूमता मन्दराचल पर्वत पहुंचा, उसने वहां अपने दामाद को देखा। वह तभी अपनी पुत्री के पास लौट आया और आकर सम्पूर्ण वृतान्त अपनी पुत्री को कह सुनाया। तब चन्द्रभागा ने अपने पिता से मंदराचल जाने की आज्ञा मांगी और वहां गयी। वहां पर रम्भादिक अप्सरायें दोनों पति-पत्नियों की सेवा किया करती थीं। इस प्रकार के समान सुख भोगने लगे।
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=== गोवत्स द्वादशी का व्रत ===
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यह त्यौहार कार्तिक कृष्ण पक्ष की द्वादशी को मनाया जाता है। इस दिन गायों और बछड़ो की पूजा की जाती है। व्रत रखने वाला इस दिन प्रातः स्नान कर गाय और बछड़ों का पूजन करे। फिर उनको आटे का गोला बनाकर खिलाये। इस दिन गाय का दूध, गेहूं की बनी वस्तुएं और भैंस, बकरी का दूध और कटे फल नहीं खायें। इसके बाद गोवत्स द्वादशी की कहानी सुनें। फिर ब्राह्मणों को फल दान दें और उनका आशीर्वाद प्राप्त करें। गोवत्स द्वादशी की कथा-बहुत समय पूर्व की बात है। भारतवर्ष में एक स्वर्णपुष्ट नाम का एक बहुत रमणिक नगर था। वहां देवरावी नाम का राजा राज्य करता था। राजा बहुत धर्मात्मा, दानी और गोमाता का सेवक था। उसके यहां एक गाय, बछड़ा और मैंसें रहती थीं। उस राजा के दो रानियां थीं। एक का नाम सीता और एक का नाम गीता था। सीता भैंस से प्यार करती थी और उसे अपनी सखी की तरह मानती थी जबकि गीता गाय और बछड़े से प्रेम करती थी। वह गाय को सहेली और बछड़े को अपने बच्चे के समान प्रेम करती थी।
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एक दिन मैंस सीता से बोली-“हे रानी! गाय का बछड़ा होने से मुझे द्वेष है। सीता ने कहा अगर ऐसी बात है तो मैं सब काम ठीक कर लूंगी। सीता ने उसी दिन गाय के बछड़े को उठाकर गेहूं के ढेर में दवा दिया। इस बात का किसी को पता न चला। जब राजा खाना खाने गया तो उसके महल में मांस की वर्षा होने लगी। चारों ओर महल में मांस और रक्त दिखाई देने लगा। जो खाना रखा था वह पखाना बन गया। यह देख राजा बहुत चिन्ता में पड़ गया कि यह सब क्या है? उसी समय आकाशवाणी हुई कि राजन, तेरी स्त्री सीता ने गाय के बछड़े को काटकर गेहूं की ढेरी में दबा दिया है। इसी कारण यह सब हुआ है। इतना सुनकर राजा गुस्से से कांपने लगा। तभी दुबारा स्वर गूंजा कि हे राजन! कल गोवत्स द्वादशी है। अत: भैंस को राहर से बाहर निकालकर तुम व्रत रखकर गाय के बछड़े को मन में विचारकर उसकी पूजा करना। गाय, भैंस का दूध और फल नहीं खाना। साथ ही गेहूं की कोई वस्तु भी न खाना। तब तेरा सब पाप दूर हो जायेगा और बछड़ा भी जीवित हो जब गाय शाम को आयी तो वह भी बछड़े के बिना वेचैन हुई। दूसरे दिन राजा ने आकाशवाणी के अनुसार ही कार्य किया। पूजा करते समय जैसे ही बछड़े को मन याद किया वैसे ही बछड़ा गेहूं के ढेर से निकल आया। यह देखकर राजा बहुत
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