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| The connection of the Kṣatriyas with the Brahmins was very close. The prosperity of the two is repeatedly asserted in | | The connection of the Kṣatriyas with the Brahmins was very close. The prosperity of the two is repeatedly asserted in |
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− | Vājasaneyi Saṃhitā, v. 27; vii. 21; xviii. 14; xix. 5; xxxviii. 14, etc.; | + | === Saṃhitā === |
| + | Vājasaneyi Saṃhitā v. 27 |
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| + | उद् दिवꣳ स्तभानान्तरिक्षं पृण दृꣳहस्व पृथिव्याम् । द्युतानास् त्वा मारुतो मिनोतु मित्रावरुणौ ध्रुवेण धर्मणा । ब्रह्मवनि त्वा क्षत्रवनि त्वा रायस्पोषवनि पर्य् ऊहामि । ब्रह्म दृꣳह क्षत्रं दृꣳहायुर् दृꣳह प्रजां दृꣳह ॥ |
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| + | Vājasaneyi Saṃhitā vii. 21; |
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| + | सोमः पवते सोमः पवते ऽस्मै ब्रह्मणे ऽस्मै क्षत्रायास्मै सुन्वते यजमानाय पवत ऽ इष ऽ ऊर्जे पवते ऽ द्भ्य ऽ ओषधीभ्यः पवते द्यावापृथिवीभ्यां पवते सुभूताय पवते विश्वेभ्यस् त्वा देवेभ्यः ऽ । एष ते योनिर् विश्वेभ्यस् त्वा देवेभ्यः ॥ |
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| + | Vājasaneyi Saṃhitā xix. 5; |
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| + | ब्रह्म क्षत्रं पवते तेज ऽ इन्द्रियꣳ सुरया सोमः सुत ऽ आसुतो मदाय । शुक्रेण देव देवताः पिपृग्धि रसेनान्नं यजमानाय धेहि ॥ |
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| + | Vājasaneyi Saṃhitā xxxviii. 14 |
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| + | इषे पिन्वस्व । ऊर्जे पिन्वस्व । ब्रह्मणे पिन्वस्व । क्षत्राय पिन्वस्व । द्यावापृथिवीभ्यां पिन्वस्व । धर्मासि सुधर्म । अमेन्य् अस्मे नृम्णानि धारय ब्रह्म धारय क्षत्रम् धारय विषं धारय ॥ |
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| Taittirīya Saṃhitā, v. 1, 10, 3; | | Taittirīya Saṃhitā, v. 1, 10, 3; |
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− | Maitrayaṇī Saṃhitā, ii. 2, 3; iii. 1, 9; 2, 3; iv. 3, 9; | + | 3 वाचयति ब्रह्मणैव क्षत्रꣳ सꣳ शयति क्षत्रेण ब्रह्म तस्माद् ब्राह्मणो राजन्यवान् अत्य् अन्यम् ब्राह्मणं तस्माद् राजन्यो ब्राह्मणवान् अत्य् अन्यꣳ राजन्यम् मृत्युर् वा एष यद् अग्निः । अमृतꣳ हिरण्यम् । रुक्मम् अन्तरम् प्रति मुञ्चते । अमृतम् एव मृत्योर् अन्तर् धत्ते । एकविꣳशतिनिर्बाधो भवति । एकविꣳशतिर् वै देवलोका द्वादश मासाः पञ्चर्तवस् त्रय इमे लोका असाव् आदित्यः |
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| + | Maitrayaṇī Saṃhitā, ii. 2, 3; |
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| + | ब्रह्म चैव क्षत्रं च सयुजा अक |
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| + | Maitrayaṇī Saṃhitā, iii. 1, 9; |
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| + | ब्रह्मणा वा एतत् क्षत्रं संश्यति, क्षत्रेण ब्रह्मा,ऽथो ब्रह्म चैव क्षत्रं च सयुजा अकर्, एतद्वा एषाभ्यनूक्ता ॥ ब्रह्म क्षत्रं सयुजा न व्यथेते इति, ब्रह्माह क्षत्रं जिन्वति क्षत्रियस्य । |
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| + | क्षत्रं ब्रह्म जिन्वति ब्राह्मणस्य यत् समीची कृणुतो वीर्याणि ॥ |
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| + | Maitrayaṇī Saṃhitā, iv. 3, 9; |
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| + | क्षत्रं वै मित्रो , ब्रह्म बृहस्पतिः, क्षत्रं चैव ब्रह्म चालभ्य दीक्षते, यस्य राष्ट्रं शिथिरमिव स्यात् तं एतेन याजयेन् मैत्राबार्हस्पत्येन, क्षत्रं वै मित्रो , ब्रह्म बृहस्पति, र्ब्रह्मणि वा एतत् क्षत्रं प्रतिष्ठापयति द्रढिम्नेऽशिथिरत्वाय |
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| Kāṭhaka Saṃhitā, xxix. 10; | | Kāṭhaka Saṃhitā, xxix. 10; |
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| + | क्षत्रं वा इन्द्राग्नी क्षत्रमिन्द्रः क्षत्रमेव संपाद्य प्रतिष्ठापयत्यथो क्षत्रेणैव पशून् ब्रह्मण उपोहत्याग्नेयो मध्ये भवत्यैन्द्रा अभित आग्नेयो वै ब्राह्मण ऐन्द्रो राजन्यो ब्रह्मणैव क्षत्रं मध्यतो व्यवसर्पति प्र पुरोधामाप्नोति य एवं वेदेन्द्राग्नी पशूनां भूयिष्ठभाजौ करोत्यग्नेराग्नेय इन्द्रस्यैन्द्र ऐन्द्राग्नस्सह तस्माद्ब्राह्मणश्च राजन्यश्च प्रजानां भूयिष्ठभाजा अथ वैश्वदेवोऽथ मारुतो विड्वै विश्वे देवा विण्मरुतो विशमेव संपाद्य तां क्षत्रायानुनियुनक्ति ब्रह्ममुखमेव क्षत्रं कृत्वा तस्मै विशमनुनियुनक्ति प्रसवायैव सावित्रो निर्वरुणत्वाय वारुणस्सम्यगेव ब्रह्म समूहति सम्यक् क्षत्रँ समीचीं विशं यत्रैव क्लृप्तैकादशिन्यालभ्यते कल्पते तत्र प्रजाभ्यो ब्राह्मण एव ब्राह्मणो भवति राजन्यो राजन्यो वैश्यो वैश्य |
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| + | === Brāhmaṇa === |
| Aitareya Brāhmaṇa, vii. 22; | | Aitareya Brāhmaṇa, vii. 22; |
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− | Śatapatha Brāhmaṇa, i. 2, 1, 7; iii. 5, 2, 11; 6, 1, 17; vi. 6, 3, 14. | + | तदु ह स्माह सौजात आराह्ळ्हरजीतपुनर्वण्यं वा एतद्यदेते आहुती इति यथा ह कामयेत तथैते कुर्याद्य इतोऽनुशासनं कुर्यादितीमे त्वेव जुहुयाद्ब्रह्म प्रपद्ये ब्रह्म मा क्षत्राद्गोपायतु ब्रह्मणे स्वाहेति तत्तदितीँ ब्रह्म वा एष प्रपद्यते यो यज्ञम्प्रपद्यते ब्रह्म वै यज्ञो यज्ञादु ह वा एष पुनर्जायते यो दीक्षते तम्ब्रह्म प्रपन्नं क्षत्रं न परिजिनाति ब्रह्म मा क्षत्राद्गोपायत्वित्याह यथैनम्ब्रह्म क्षत्राद्गोपायेद्ब्रह्मणे स्वाहेति तदेनत्प्रीणाति तदेनत्प्रीतं क्षत्राद्गोपायत्यथानूबन्ध्यायै समिष्टयजुषामुपरिष्टात्क्षत्रम्प्रपद्ये क्षत्रम्मा ब्रह्मणो गोपायतु क्षत्राय स्वाहेति तत्तदितीँ क्षत्रं वा एष प्रपद्यते यो राष्ट्रम्प्रपद्यते क्षत्रं हि राष्ट्रं तं क्षत्रम्प्रपन्नम्ब्रह्म न परिजिनाति क्षत्रम्मा ब्रह्मणो गोपायत्वित्याह यथैनं क्षत्रम्ब्रह्मणो गोपायेत्क्षत्राय स्वाहेति तदेनत्प्रीणाति तदेनत्प्रीतम्ब्रह्मणो गोपायति सैषेष्टापूर्तस्यैवापरिज्यानिः क्षत्त्रियस्य यजमानस्य यदेते आहुती तस्मादेते एव होतव्ये॥7.22॥ 34.4 (145) |
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| + | Śatapatha Brāhmaṇa, i. 2, 1, 7; |
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| + | स उपदधाति । ध्रुवमसि पृथिवीं दृंहेति पृथिव्या एव रूपेणैतदेव दृंहत्येतेनैव द्विषन्तं भ्रातृव्यमवबाधते ब्रह्मवनि त्वा क्षत्रवनि सजातवन्युपदधामि भ्रातृव्यस्य वधायेति बह्वी वै यजुःस्वाशीस्तद्ब्रह्म च क्षत्रं चाशास्त उभे वीर्य सजातवनीति भूमा वै सजातास्तद्भूमानमाशास्त उपदधामि भ्रातृव्यस्य वधायेति यदि नाभिचरेद्यद्य अभिचरेदमुष्य वधायेति ब्रूयादभिनिहितमेव सव्यस्य पाणेरङ्गुल्या भवति - १.२.१.[७] |
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| + | Śatapatha Brāhmaṇa iii. 5, 2, 11; |
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| + | तस्यामाघारयति । सिंह्यसि स्वाहेत्यथापरयोरुत्तरस्यां सिंह्यस्यादित्यवनिः स्वाहेत्यथापरयोर्दक्षिणस्यां सिंह्यसि ब्रह्मवनिः क्षत्रवनिः स्वाहेति बह्वी वै यजुःष्वाशीस्तद्ब्रह्म च क्षत्रं चाशास्त उभे वीर्ये - ३.५.२.[११] |
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| + | Śatapatha Brāhmaṇa iii. 6, 1, 17; |
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| + | अथ पर्यूहति । ब्रह्मवनि त्वा क्षत्रवनि रायस्पोषवनि पर्यूहामीति बह्वी वै यजुःष्वाशीस्तद्ब्रह्म च क्षत्रं चाशास्त उभे वीर्ये रायस्पोषवनीति भूमा वै रायस्पोषस्तद्भूमानमाशास्ते - ३.६.१.१७ |
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| + | Śatapatha Brāhmaṇa vi. 6, 3, 14. |
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| + | स पुरोहितस्यादधाति । संशितं मे ब्रह्म संशितं वीर्यं बलं संशितं क्षत्रं जिष्णु यस्याहमस्मि पुरोहित इति तदस्य ब्रह्म च क्षत्रं च संश्यति - ६.६.३.[१४] |
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| Pañcaviṃśa Brāhmaṇa, xi. 11, 9; | | Pañcaviṃśa Brāhmaṇa, xi. 11, 9; |
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| + | ; ११.११.९ ब्राह्मणजातेरभिवृद्धिहेतुताकथनं |
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| + | ब्रह्म वै पूर्वं अहः क्षत्रं द्वितीयं यद्गायत्रीषु ब्रह्म साम भवति ब्रह्म तद्यशसार्धयति ब्रह्म हि गायत्री |
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| ==References== | | ==References== |