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भारतीय स्वर्ग और नरक की कल्पना भी इन से पूर्णत: भिन्न है। स्वर्ग या नरक की प्राप्ति में परमात्मा सीधा न्याय करता है। उसे किसी मध्यस्थ की कोई आवश्यकता नहीं होती। वह सर्वशक्तिमान और सर्वज्ञानी होने से वह प्रत्येक द्वारा किये सत्कर्म और दुष्कर्म जानता है। प्रत्येक मनुष्य द्वारा किये इन सत्कर्मों के अनुसार ही परमात्मा उस के लिये स्वर्ग सुख या नरक यातनाओं की व्यवस्था करता है। जैसे ही स्वर्ग सुख या नरक यातनाओं के भोग पूरे हो जाते हैं, मनुष्य स्वर्ग सुख से वंचित और नरक यातनाओं से मुक्त हो जाता है। यह भोग हर मनुष्य अपने वर्तमान जन्म में और आगामी जन्मों में प्राप्त करता है। भारतीय सोच में तो सीधा सीधा गणित है। जितना सत्कर्म उतना सुख जितना दुष्कर्म उतना दु:ख। अभारतीय समाजों में सत्कर्म और दुष्कर्म की कोई संकल्पना ही नहीं है। हेवन या जन्नत का अर्थ है सदैव सुखी रहने की स्थिति और हेल और दोजख का अर्थ है हमेशा दुखी रहने की स्थिति।
 
भारतीय स्वर्ग और नरक की कल्पना भी इन से पूर्णत: भिन्न है। स्वर्ग या नरक की प्राप्ति में परमात्मा सीधा न्याय करता है। उसे किसी मध्यस्थ की कोई आवश्यकता नहीं होती। वह सर्वशक्तिमान और सर्वज्ञानी होने से वह प्रत्येक द्वारा किये सत्कर्म और दुष्कर्म जानता है। प्रत्येक मनुष्य द्वारा किये इन सत्कर्मों के अनुसार ही परमात्मा उस के लिये स्वर्ग सुख या नरक यातनाओं की व्यवस्था करता है। जैसे ही स्वर्ग सुख या नरक यातनाओं के भोग पूरे हो जाते हैं, मनुष्य स्वर्ग सुख से वंचित और नरक यातनाओं से मुक्त हो जाता है। यह भोग हर मनुष्य अपने वर्तमान जन्म में और आगामी जन्मों में प्राप्त करता है। भारतीय सोच में तो सीधा सीधा गणित है। जितना सत्कर्म उतना सुख जितना दुष्कर्म उतना दु:ख। अभारतीय समाजों में सत्कर्म और दुष्कर्म की कोई संकल्पना ही नहीं है। हेवन या जन्नत का अर्थ है सदैव सुखी रहने की स्थिति और हेल और दोजख का अर्थ है हमेशा दुखी रहने की स्थिति।
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अभारतीय समाज तो मोक्ष की कल्पना तक नहीं कर सके हैं। भारतीय मोक्ष की कल्पना भारतीय सोच को आध्यात्मिक बना देती है। '''देहभाव से मुक्ति ही मोक्ष है'''। जीवात्मा जब देह-भाव से ग्रस्त होता है तब उसमें करता भाव, भोक्ता भाव और ज्ञाताभाव आ जाते हैं। इन के अभाव में जीवात्मा अपने देहभाव से मुक्त हो जाता है। फिर उसमें और परमात्मा में अंतर नहीं रहा जाता। अधि का अर्थ है श्रेष्ठ या उत्तम। श्रीमदभगवदगीता १५ वें अध्याय के १७ में परमात्मा को उत्तम पुरूष कहा है। अर्थात् अधि-आत्मा ही परमात्मा होता है। देहभाव से मुक्त होकर परमात्मा से तादात्म्य की दिशा में बढ़ना ही जीवन है। ऐसी भारतीय मान्यता के कारण सम्पूर्ण जीवन और जीवन का हर पहलू अध्यात्म से ओतप्रोत होता है।  भारतीय समाज ने अपने सम्मुख व्यक्तिगत, सामाजिक और सृष्टिगत ऐसे तीन प्रकार के एक दूसरे से सुसंगत ऐसे लक्ष्य रखे हैं। लक्ष्य का निर्धारण करते समय वे ‘स्वभावज’ हों इसका ध्यान रखा गया है। व्यक्तिगत स्तर का लक्ष्य और सामाजिक स्तर का लक्ष्य परस्पर पूरक और पोषक होना आवश्यक है। इसी तरह सृष्टिगत लक्ष्य, व्यक्तिगत और समष्टिगत लक्ष्य ये तीनों परस्पर पूरक पोषक होना आवश्यक हैं।  व्यक्तिगत स्तर का लक्ष्य मोक्ष या त्रिवर्ग के माध्यम से अभ्यूदय है। यह सामाजिक लक्ष्य स्वतंत्रता को बाधक नहीं होना चाहिये। इसीलिये हमारे पूर्वजों ने कहा है:<blockquote>आत्मनो मोक्षार्थं जगत् हिताय च।</blockquote>मुझे मोक्ष मिले लेकिन जगत् का हित करते हुए मिले। और त्रिवर्ग में तो मूलत: धर्म का ही अधिष्ठान है और धर्माचरण सृष्टिगत लक्ष्य है। तीनों स्तरों के लक्ष्यों का नियामक धर्म ही है। इसलिये तीनों स्तरों के लक्ष्य परस्पर पूरक और पोषक बनें रहते हैं।
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अभारतीय समाज तो मोक्ष की कल्पना तक नहीं कर सके हैं। भारतीय मोक्ष की कल्पना भारतीय सोच को आध्यात्मिक बना देती है। '''देहभाव से मुक्ति ही मोक्ष है'''। जीवात्मा जब देह-भाव से ग्रस्त होता है तब उसमें करता भाव, भोक्ता भाव और ज्ञाताभाव आ जाते हैं। इन के अभाव में जीवात्मा अपने देहभाव से मुक्त हो जाता है। फिर उसमें और परमात्मा में अंतर नहीं रहा जाता। अधि का अर्थ है श्रेष्ठ या उत्तम। श्रीमदभगवदगीता १५ वें अध्याय के १७ में परमात्मा को उत्तम पुरूष कहा है। अर्थात् अधि-आत्मा ही परमात्मा होता है। देहभाव से मुक्त होकर परमात्मा से तादात्म्य की दिशा में बढ़ना ही जीवन है। ऐसी भारतीय मान्यता के कारण सम्पूर्ण जीवन और जीवन का हर पहलू अध्यात्म से ओतप्रोत होता है।  भारतीय समाज ने अपने सम्मुख व्यक्तिगत, सामाजिक और सृष्टिगत ऐसे तीन प्रकार के एक दूसरे से सुसंगत ऐसे लक्ष्य रखे हैं। लक्ष्य का निर्धारण करते समय वे ‘स्वभावज’ हों इसका ध्यान रखा गया है। व्यक्तिगत स्तर का लक्ष्य और सामाजिक स्तर का लक्ष्य परस्पर पूरक और पोषक होना आवश्यक है। इसी तरह सृष्टिगत लक्ष्य, व्यक्तिगत और समष्टिगत लक्ष्य ये तीनों परस्पर पूरक पोषक होना आवश्यक हैं।  व्यक्तिगत स्तर का लक्ष्य मोक्ष या त्रिवर्ग के माध्यम से अभ्युदय है। यह सामाजिक लक्ष्य स्वतंत्रता को बाधक नहीं होना चाहिये। इसीलिये हमारे पूर्वजों ने कहा है:<blockquote>आत्मनो मोक्षार्थं जगत् हिताय च।</blockquote>मुझे मोक्ष मिले लेकिन जगत् का हित करते हुए मिले। और त्रिवर्ग में तो मूलत: धर्म का ही अधिष्ठान है और धर्माचरण सृष्टिगत लक्ष्य है। तीनों स्तरों के लक्ष्यों का नियामक धर्म ही है। इसलिये तीनों स्तरों के लक्ष्य परस्पर पूरक और पोषक बनें रहते हैं।
    
== मानव के व्यक्तित्व से संबंधित महत्वपूर्ण बातें ==
 
== मानव के व्यक्तित्व से संबंधित महत्वपूर्ण बातें ==
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'''मन के स्तर पर जीनेवाले को मानव कहते हैं'''। बुध्दि के स्तर पर जीनेवाले को महामानव और चित्त या आत्मिक स्तर पर जीनेवाले को और भी अधिक श्रेष्ठ मानव या नरोत्तम कहा जाता है।
 
'''मन के स्तर पर जीनेवाले को मानव कहते हैं'''। बुध्दि के स्तर पर जीनेवाले को महामानव और चित्त या आत्मिक स्तर पर जीनेवाले को और भी अधिक श्रेष्ठ मानव या नरोत्तम कहा जाता है।
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मानवेतर योनियों के प्राणियों को अपने स्वाभाविक प्राणिक आवेगों के अनुसार चलने मात्र की बुध्दि और मन मिला है। इसलिये सामान्यत: ये प्राणि स्वतंत्र कर्म नहीं कर सकते। केवल मानव को विशेष मन, बुध्दि, स्मृति आदि मिले हैं इस कारण वह अन्य प्राणियों से भिन्न, प्राणिक आवेगों से भिन्न और प्राणिक आवेगों के विपरीत भी कर्म करने की स्वतंत्रता ले सकता है। मानव व्यवहार की इस स्वतंत्रता का नियमन उस के कर्मों से होता है। यह नियमन कर्मसिध्दांत के आधार पर होता है। कर्मसिध्दांत की अधिक जानकारी के लिये ‘जीवनशैली के सूत्र‘ अध्याय में देखें। ऋणसिद्धांत का आधार भी कर्मसिद्धांत ही है।
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मानवेतर योनियों के प्राणियों को अपने स्वाभाविक प्राणिक आवेगों के अनुसार चलने मात्र की बुध्दि और मन मिला है। इसलिये सामान्यत: ये प्राणि स्वतंत्र कर्म नहीं कर सकते। केवल मानव को विशेष मन, बुध्दि, स्मृति आदि मिले हैं इस कारण वह अन्य प्राणियों से भिन्न, प्राणिक आवेगों से भिन्न और प्राणिक आवेगों के विपरीत भी कर्म करने की स्वतंत्रता ले सकता है। मानव व्यवहार की इस स्वतंत्रता का नियमन उस के कर्मों से होता है। यह नियमन कर्मसिध्दांत के आधार पर होता है। कर्मसिध्दांत की अधिक जानकारी के लिये ‘[[Elements of Hindu Jeevan Drishti and Life Style (भारतीय/हिन्दू जीवनदृष्टि और जीवन शैली के सूत्र)|जीवनशैली के सूत्र]]‘ अध्याय में देखें। ऋणसिद्धांत का आधार भी कर्मसिद्धांत ही है।
    
३. सृष्टि में मानव निर्माण तो सब से अंत में हुआ था। उससे पहले सृष्टि थी। सृष्टि के विलय की प्रक्रिया में भी मानव जाति नष्ट होने के उपरांत भी सृष्टि होगी।  सृष्टि को मानव की आवश्यकता नहीं है। लेकिन मानव सृष्टि के बगैर जी नहीं सकता। इसलिये मानव के लिये यह अनिवार्य है कि वह सृष्टि के साथ अपने को समायोजित करे। अपने सभी व्यवहार प्रकृति सुसंगत रखे। प्रकृति का संतुलन नहीं बिगाडे। सृष्टि चक्र को अबाधित रखे। वैसे भी सृष्टि या प्रकृति के साथ जब मानव खिलवाड़ करता है, एक सीमा तक तो प्रकृति उसे सहन कर लेती है। इस सीमा को लाँघने के बाद प्रकृति भी उसकी प्रतिक्रया देती है। इस प्रतिक्रया से मानव का ही नुकसान होता है।
 
३. सृष्टि में मानव निर्माण तो सब से अंत में हुआ था। उससे पहले सृष्टि थी। सृष्टि के विलय की प्रक्रिया में भी मानव जाति नष्ट होने के उपरांत भी सृष्टि होगी।  सृष्टि को मानव की आवश्यकता नहीं है। लेकिन मानव सृष्टि के बगैर जी नहीं सकता। इसलिये मानव के लिये यह अनिवार्य है कि वह सृष्टि के साथ अपने को समायोजित करे। अपने सभी व्यवहार प्रकृति सुसंगत रखे। प्रकृति का संतुलन नहीं बिगाडे। सृष्टि चक्र को अबाधित रखे। वैसे भी सृष्टि या प्रकृति के साथ जब मानव खिलवाड़ करता है, एक सीमा तक तो प्रकृति उसे सहन कर लेती है। इस सीमा को लाँघने के बाद प्रकृति भी उसकी प्रतिक्रया देती है। इस प्रतिक्रया से मानव का ही नुकसान होता है।
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४.  श्रेष्ठता के साथ दायित्व आता है। दायित्व बोध आना चाहिये। मानव को जो श्रेष्ठता परमात्मा से मिली है उस के कारण मानव का यह दायित्व बनता है कि वह विवेक से काम ले। प्रकृति नहीं बिगाडे। जीवश्रृंखला को नहीं तोडे। प्रकृति के साथ खिलवाड नहीं करे। दुर्बलों की सहायता करे। मानव को मिली श्रेष्ठ स्मृति के कारण ‘कृतज्ञता’, उपकार से उतराई होना यह मानव का अनिवार्य लक्षण है।  
 
४.  श्रेष्ठता के साथ दायित्व आता है। दायित्व बोध आना चाहिये। मानव को जो श्रेष्ठता परमात्मा से मिली है उस के कारण मानव का यह दायित्व बनता है कि वह विवेक से काम ले। प्रकृति नहीं बिगाडे। जीवश्रृंखला को नहीं तोडे। प्रकृति के साथ खिलवाड नहीं करे। दुर्बलों की सहायता करे। मानव को मिली श्रेष्ठ स्मृति के कारण ‘कृतज्ञता’, उपकार से उतराई होना यह मानव का अनिवार्य लक्षण है।  
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५.  भारतीय दृष्टि से मानव जीवन का लक्ष्य मोक्षप्राप्ति या मुक्ति है। व्यक्तिगत से ऊपर परमेष्ठीगत विकास है। इसी तरह मानव का सामाजिक स्तर पर लक्ष्य ‘स्वतंत्रता’ है। और सृष्टि के स्तरपर ‘धर्माचरण’ है। सृष्टि के नियमों के अनुकूल व्यवहार भी धर्म ही होता है। स्वतंत्रता का अर्थ स्वैराचार नहीं होता। स्वतंत्रता के साथ जिम्मेदारियाँ आतीं हैं। दायित्व आते हैं। धर्म के विषय में अधिक जानकारी के लिये अध्याय ३ ‘धर्म’ में देखें।
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५.  भारतीय दृष्टि से मानव जीवन का लक्ष्य मोक्षप्राप्ति या मुक्ति है। व्यक्तिगत से ऊपर परमेष्ठीगत विकास है। इसी तरह मानव का सामाजिक स्तर पर लक्ष्य ‘स्वतंत्रता’ है। और सृष्टि के स्तरपर ‘धर्माचरण’ है। सृष्टि के नियमों के अनुकूल व्यवहार भी धर्म ही होता है। स्वतंत्रता का अर्थ स्वैराचार नहीं होता। स्वतंत्रता के साथ जिम्मेदारियाँ आतीं हैं। दायित्व आते हैं। धर्म के विषय में अधिक जानकारी के लिये अध्याय ३ ‘[[Dharma: Bhartiya Jeevan Drishti (धर्म:भारतीय जीवन दृष्टि)|धर्म]]’ में देखें।
    
६.  मानव सदैव सुख की खोज करता रहता है। मानव के सारे प्रयास मूलत: सुखप्राप्ति के लिये होते हैं। सुख का अर्थ अनुकूल संवेदना है। सुख प्राप्ति के लिये निम्न बातें अनिवार्य होती हैं:  
 
६.  मानव सदैव सुख की खोज करता रहता है। मानव के सारे प्रयास मूलत: सुखप्राप्ति के लिये होते हैं। सुख का अर्थ अनुकूल संवेदना है। सुख प्राप्ति के लिये निम्न बातें अनिवार्य होती हैं:  
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वर्णों में परस्पर पूरकता और परस्पर अनुकूलता होती है। इसीलिये वेद कहते हैं कि चारों वर्ण एक शरीर के चार अंगों के समान हैं। जब ज्ञान का विषय होगा, स्वाभाविक स्ववतंत्रता की रक्षा का विषय होगा तो ब्राह्मण का, जब सुरक्षा का प्रश्न होगा,शासनिक स्वतंत्रता की रक्षा का विषय होगा तब क्षत्रिय का, जब उदरभरण का, आर्थिक स्वतंत्रता की रक्षा का विषय होगा तो वैश्य का और जब कला, कारीगरी, परिचर्या, मनोरंजन आदि का विषय होगा तो शूद्र का महत्व होगा।   
 
वर्णों में परस्पर पूरकता और परस्पर अनुकूलता होती है। इसीलिये वेद कहते हैं कि चारों वर्ण एक शरीर के चार अंगों के समान हैं। जब ज्ञान का विषय होगा, स्वाभाविक स्ववतंत्रता की रक्षा का विषय होगा तो ब्राह्मण का, जब सुरक्षा का प्रश्न होगा,शासनिक स्वतंत्रता की रक्षा का विषय होगा तब क्षत्रिय का, जब उदरभरण का, आर्थिक स्वतंत्रता की रक्षा का विषय होगा तो वैश्य का और जब कला, कारीगरी, परिचर्या, मनोरंजन आदि का विषय होगा तो शूद्र का महत्व होगा।   
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श्रेष्ठ और हीन का विवेक समझाने का, अभ्यूदय के साथ नि:श्रेयस की प्राप्ति का मार्गदर्शन करने का काम ब्राह्मण का होने से वह समाज का शिक्षक बन जाता है। स्वाभाविक स्वतंत्रता में शासनिक स्वतंत्रता और आर्थिक स्वतंत्रता दोनों का समावेश होता है। पूरे समाज की स्वाभाविक स्वतंत्रता की रक्षा का दायित्व उठाने के कारण शिक्षक सर्वोच्च आदर प्राप्ति का अधिकारी होता है। मोक्ष - इस परम लक्ष्य के कारण शिक्षक या गुरू का सम्मान सबसे अधिक होना उचित ही है।  
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श्रेष्ठ और हीन का विवेक समझाने का, अभ्युदय के साथ नि:श्रेयस की प्राप्ति का मार्गदर्शन करने का काम ब्राह्मण का होने से वह समाज का शिक्षक बन जाता है। स्वाभाविक स्वतंत्रता में शासनिक स्वतंत्रता और आर्थिक स्वतंत्रता दोनों का समावेश होता है। पूरे समाज की स्वाभाविक स्वतंत्रता की रक्षा का दायित्व उठाने के कारण शिक्षक सर्वोच्च आदर प्राप्ति का अधिकारी होता है। मोक्ष - इस परम लक्ष्य के कारण शिक्षक या गुरू का सम्मान सबसे अधिक होना उचित ही है।  
    
दूसरे क्रमांक पर शासनिक स्वतंत्रता याने सुरक्षा का विषय आता है। शासनिक स्वतंत्रता की जिम्मेदारी लेने के कारण शासक या क्षत्रिय वर्ग का सम्मान होना भी स्वाभाविक ही है।  
 
दूसरे क्रमांक पर शासनिक स्वतंत्रता याने सुरक्षा का विषय आता है। शासनिक स्वतंत्रता की जिम्मेदारी लेने के कारण शासक या क्षत्रिय वर्ग का सम्मान होना भी स्वाभाविक ही है।  
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किंतु अपने वर्ण के अनुसार व्यवहार नहीं करना और अपने ब्राह्मण या क्षत्रिय होने का दंभ भरना यह समाज के पतन की आश्वस्ति है। ऐसे लोग कठोर दण्ड के अधिकारी हैं।  
 
किंतु अपने वर्ण के अनुसार व्यवहार नहीं करना और अपने ब्राह्मण या क्षत्रिय होने का दंभ भरना यह समाज के पतन की आश्वस्ति है। ऐसे लोग कठोर दण्ड के अधिकारी हैं।  
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१४. संस्कारों के तीन प्रकार होते हैं। सहज, कृत्रिम और अन्वयागत। सहज में फिर तीन संस्कार होते हैं। योनि संस्कार (मानव योनि के), वर्ण संस्कार और राष्ट्रीयता के संस्कार । कृत्रिम में १६ या कुछ लोगों के अनुसार ४९ संस्कार होते हैं। पितरों और माता-पिता की ओर से प्राप्त संस्कारों को अन्वयागत संस्कार कहते हैं। अन्वयागत में माता-पिता और पूर्वजों के सहज संस्कार और तीव्र कृत्रिम संस्कार होते हैं। तीव्र कृत्रिम संस्कार दीर्घ अभ्यास के कारण बनीं आदतों के कारण होते हैं। इन संस्कारों में माता की ओर से पाँच पीढियों के मन से संबंधित और पिता की ओर से १४ पीढियों के शरीर से संबंधित संस्कार होते हैं। करीब की पीढि के संस्कार अधिक और दूर की पीढि के संस्कार कम होते हैं। १५. हर मानव सुर और असुर प्रवृत्तियों से भरा होता है। इसी प्रकार से समाज में भी सुर और असुर दोनों प्रवृत्तियों के लोग होते हैं। भर्तृहरि के अनुसार तो अपना कोई हित नहीं होते हुए भी औरों के अहित में आनंद लेनेवाले असूर से भी गये गुजरे लोग भी समाज में होते है। इन सभी के लिये सदाचार की शिक्षा की व्यवस्था करना समाज का दायित्व है।  जो बात अपने को प्रिय होती है उसे प्रेय कहते हैं। और जो अंतिमत: कल्याणकारी बात होती है उसे श्रेय कहते हैं। अपने प्रेय के लिये अन्यों का अहित करनेवाले को असुर कहते हैं। ऐसे मानव को भी श्रेय ही प्रेय लगने लग जाए इसलिये शिक्षा होती है। कुल मिलाकर शिक्षा का स्वरूप धर्मशिक्षा का होता है। पुरूषार्थ चतुष्ट्य की शिक्षा का होता है। १६. मानव अच्छा डॉक्टर बनता है, अच्छा व्यावसायिक आदि बनता है यह समाज के लिये महत्वपूर्ण बात होती है। किंतु इससे भी अधिक महत्वपूर्ण बात हर बालक के लिये यह है कि वह एक अच्छा बेटा, अच्छा भाई, अच्छा पति, अच्छा गृहस्थ, अच्छा पिता, अच्छा देशभक्त और अच्छा मानव बने। इसी तरह हर बालिका अच्छी बेटी, अच्छी बहन, अच्छी पत्नि, अच्छी गृहिणी, अच्छी देशभक्त और अच्छी मानव बनें यह अधिक महत्वपूर्ण होता है।  इसे सुनिश्चित करने के लिये सब से अधिक अवसर माता को होता है इसलिए सबसे अधिक जिम्मेदारी माता की होती है। दूसरे स्थानपर पिता जिम्मेदार होता है। कहा गया है ‘माता प्रथमो गुरू: पिता द्वितीयो’। इस में माता पिता समान घर के सब ज्येष्ठ लोगों का भी योगदान होता है। तीसरी जिम्मेदारी शिक्षक की होती है। ऐसी मान्यता है कि बालक के विकास में २५ प्रतिशत हिस्सा उसके पूर्वजन्मों के कर्मों का होता है। दूसरा २५ प्रतिशत उसे प्राप्त संस्कार और शिक्षा का होता है। तीसरा २५ प्रतिशत उसे मिले वातावरण, संगत, मित्र आदि का होता है। चौथा २५ प्रतिशत उसके अपने प्रयासों का होता है। इन हिस्सों का महत्वक्रम भी इसी क्रम से होता है। पूर्व कर्मों का प्रभाव सबसे अधिक, उसके उपरांत संस्कार और शिक्षा का आदि।  अन्य एक वर्गीकरण के अनुसार श्रेष्ठ मानव निर्माण के दो मुख्य पहलू हैं। पहला श्रेष्ठ जीवात्मा होना। और दूसरा है उसे अच्छी शिक्षा और संस्कार प्राप्त होना। इस दृष्टी से श्रेष्ठ मानव निर्माण में ५० प्रतिशत हिस्सा तो जन्म देनेवाले माता पिता का है। संस्कारों का काम भी घर में ही मुख्यत: चलता है। इसलिए संस्कारों का २५ प्रतिशत हिस्सा कुटुंब का होता है। शेष २५ प्रतिशत शिक्षा का जिसमें विद्यालयीन शिक्षा और लोकशिक्षा के माध्यमों का सहभाग होता है। समाज में यदि समस्याएँ हैं और बढ रहीं हैं तो माता, पिता और शिक्षक ये तीन लोग क्रम से इस के जिम्मेदार होते हैं।   १७. मानव के लिये कुछ बातें जन्मजात और कुछ समाज से प्राप्त होनेवाली होतीं हैं। पूर्व जन्मों के कर्मों के अनुसार आनेवाली बातें - दस इंद्रिय, मन, बुध्दि, चित्त, अहंकार, श्रेष्ठ जीवात्मा, प्रारब्ध (पूर्व कर्मों का पक गया है ऐसा फल) जो जन्म कुंडली में दिखाई देता है, त्रिगुणयुक्त व्यक्तित्व, त्रिदोषयुक्त शरीर, माता पिता आदि। माता-पिता से जन्म से प्राप्त होनेवाली बातें : पितर और उन की विरासत- सामाजिक प्रतिष्ठा, नाम, भौतिक समृध्दि,  शारीरिक स्वास्थ्य, जाति और आनुवांशिकता से आनेवाली बातें जैसे वर्ण, (त्रिदोषात्मक) शारीरिक स्वास्थ्य, व्यावसायिक और अन्य कुशलताएँ, परम्पराएँ आदि परीवार में और समाज में प्राप्त होनेवाली बातें : नाम, प्यार, आत्मीयता, रक्षण, पोषण, संस्कार, शिक्षण, आदतें, आर्थिक और पारिवारिक विरासत और परंपराएँ, सामाजिकता, सामाजिक प्रतिष्ठा, कुलधर्म, कुलाचार, विविध पारिवारिक यानी रक्तसंबंध के रिश्ते, विविध सामाजिक रिश्ते, सदाचार, धर्म आदि की शिक्षा आदि। १८. मानव के जन्म, जीवन और मृत्यू के चक्र में आयू की अवस्था के अनुसार निम्न बातें बदलतीं हैं। - प्यार-दुलार - रक्षण/पोषण - संस्कार और शिक्षण - क्षमताएँ - योग्यताएँ - भावनाएँ - आवश्यकताएँ - इच्छाएँ - जिम्मेदारियाँ - कर्तव्य /बोध - अधिकार/बोध इन का समायोजन सामाजिक संगठन और व्यवस्थाओं में होना आवश्यक है। इस हेतु से समाज भिन्न भिन्न प्रकार की प्रक्रियाओं को चलाता है, भिन्न भिन्न संगठन और व्यवस्थाएँ निर्माण करता है। १९. सामान्यत: गृहस्थ के लिये चारों आश्रमों के लोगों तथा अन्य जीव जगत के योगक्षेम की जिम्मेदारी के अलावा दो और महत्वपूर्ण जिम्मेदारियाँ होतीं हैं। पहली यह है कि वह धर्म चिंतन, धर्म शिक्षण और धर्म रक्षण (शासन) में लगे लोगों के योगक्षेम की व्यवस्था करे। दूसरी है समाज की विभिन्न भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति में सार्थक योगदान दे। धर्म चिंतन, धर्म शिक्षण और धर्म रक्षण (शासन) में लगे लोगों की संख्या का समाज की कुल आबादी के साथ संतुलन भी महत्वपूर्ण है। धर्म चिंतन, धर्म शिक्षण और धर्म रक्षण (शासन) में लगे लोगों के योगक्षेम की व्यवस्था करने से वह नि:श्रेयस को और भौतिक वस्तूओं के उत्पादन से वह व्यक्तिगत और सामाजिक स्तरपर अभ्यूदय को प्राप्त करता है। २०. भारतीय समाज में गृहस्थ के लिये तीन बातें आवश्यक मानीं गईं हैं। पहली बात यह है कि वह केवल धर्म की कमाई करे, दूसरे व्यय भी धर्मानुसार ही करे और तीसरे आवश्यकता से अतिरिक्त कमाई यथासंभव अधिक से अधिक दान में दे।  २१. सुख और सुविधा में अंतर होता है। सुविधा से सुख बढेगा यह आवश्यक नहीं है। जब सुविधा मानव को पंगु बना देती है, उसकी स्वाभाविक क्षमताओं को कुंठित कर देती है या स्वाभाविक क्षमताओं का क्षरण करती है तब वह दुख का कारण बनती है। इसलिये कितना सुविधाभोगी बनना यह विवेक महत्वपूर्ण है। सुविधाओं के विकास में दो बातें ध्यान में रखना चाहिये। पहली यह की सुविधा अक्षम लोगों की मदद के लिये होती है। दूसरी बात यह है कि उससे मानव की प्राकृतिक क्षमताओं में और सामाजिकता यानी पारिवारिक भावना और व्यवहार में वृध्दि हो। कम से कम हानि तो नहीं हो।  २२. कोई भी वस्तू खरीदते समय उस वस्तू की पर्यावरण सुसंगतता, सामाजिकता से सुसंगतता, उपयोगिता, सौंदर्यबोध और सबसे अंत में उसकी कीमत को महत्व देना चाहिये। २३. हर गृहस्थ को लोकहितकारी उत्पादक व्यवसाय करना चाहिये। इससे एक ओर तो वह अपनी सामजिक जिम्मेदारी का निर्वहन करता है तो दूसरी ओर वह (अधम गति से विपरीत) श्रेष्ठ गति को प्राप्त कर लेता है। २४. मनुष्य के शरीर की रचना शाकाहारी प्राणि के अनुसार है।  २५. हर मनुष्य शरीर, प्राण, मन, बुध्दि और चित्त का स्वामी होता है। ये पाँचों बातें हर मनुष्य की भिन्न होतीं हैं। परमात्व तत्व भी इन पाँच घटकों के माध्यम से ही अभि‘व्यक्त’ होता है। इसीलिये मनुष्य को व्यक्ति कहते हैं। और व्यक्ति के स्वभाव, क्षमताएँ, प्रभाव आदि को व्यक्तित्व कहते हैं। व्यक्तित्व से संबंधित कुछ बातें निम्न हैं। प्राणिक आवेग : आहार, निद्रा, भय और मैथुन ये चार प्राणिक आवेग हैं। ये मनुष्य और पशू दोनों में समान हैं। इसलिये मनुष्य भी प्राणि होता ही है। प्रत्येक व्यक्ति को सुख, दु:ख, ममता, प्रेम, आत्मीयता, तथा द्वेष, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर जैसे षड्विकार यानी मन की भावनाएँ होतीं हैं। आवश्यकताएँ और इच्छाएँ : प्राणिक आवेगों की पूर्ति को आवश्यकता और मन की चाहतों को इच्छा कहते हैं। आवश्यकताएँ मर्यादित और इच्छाएँ अमर्याद होतीं हैं। -  कर्म योनि : प्राणिक आवेगों की पूर्ति के लिये और इच्छाओं की पूर्ति के लिये जो बातें की जातीं हैं उन्हें कर्म कहते हैं। उसे प्राप्त मन और बुध्दि की श्रेष्ठता के कारण मनुष्य कर्म करने में स्वतंत्र होता है। यह कर्म ही मनुष्य के जीवन का नियमन करते हैं। इस नियमन को कर्म सिध्दांत के माध्यम से समझा जा सकता है। कर्मसिध्दांत की जानकारी के लिये कृपया ‘ भारतीय जीवन दृष्टी और जीवन शैली ‘ अध्याय में देखें। २६. समाज में व्यक्ति के दो प्रकार हैं। स्त्री और पुरूष। परमात्मा ने इन्हें जैसे ये आज हैं इसी स्वरूप में निर्माण किया था। समाज धारणा के लिये यानि समाज बना रहने के लिये के लिये स्त्री और पुरूष दोनों की आवश्यकता होती है। एक की अनुपस्थिति में समाज जी नहीं सकता। स्त्री और पुरूष एक दूसरे के पूरक होते हैं। बच्चे को जन्म देने का काम दोनों मिलकर करते हैं। अन्य एक भी ऐसा काम नहीं है जो स्त्री नहीं कर सकती या पुरूष नहीं कर सकता। किंतु इनको एक दूसरे से कई बातों में भिन्न बनाने में परमात्मा का कुछ प्रयोजन अवश्य है। इस प्रयोजन के अनुसार इनमें कार्य विभाजन होने से समाज ठीक चलता है। सुखी, समृध्द और चिरंजीवी बनता है। स्त्री-पुरूष संबंधों के विषय में थोड़ा अधिक गहराई से अब हम विचार करेंगे।
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१४. संस्कारों के तीन प्रकार होते हैं। सहज, कृत्रिम और अन्वयागत। सहज में फिर तीन संस्कार होते हैं। योनि संस्कार (मानव योनि के), वर्ण संस्कार और राष्ट्रीयता के संस्कार । कृत्रिम में १६ या कुछ लोगों के अनुसार ४९ संस्कार होते हैं।  
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पितरों और माता-पिता की ओर से प्राप्त संस्कारों को अन्वयागत संस्कार कहते हैं। अन्वयागत में माता-पिता और पूर्वजों के सहज संस्कार और तीव्र कृत्रिम संस्कार होते हैं। तीव्र कृत्रिम संस्कार दीर्घ अभ्यास के कारण बनीं आदतों के कारण होते हैं। इन संस्कारों में माता की ओर से पाँच पीढ़ियों के मन से संबंधित और पिता की ओर से १४ पीढ़ियों के शरीर से संबंधित संस्कार होते हैं। करीब की पीढ़ी के संस्कार अधिक और दूर की पीढ़ी के संस्कार कम होते हैं।
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१५. हर मानव सुर और असुर प्रवृत्तियों से भरा होता है। इसी प्रकार से समाज में भी सुर और असुर दोनों प्रवृत्तियों के लोग होते हैं। भर्तृहरि के अनुसार अपना कोई हित नहीं होते हुए भी औरों के अहित में आनंद लेने वाले असुर से भी गये गुजरे लोग भी समाज में होते है। इन सभी के लिये सदाचार की शिक्षा की व्यवस्था करना समाज का दायित्व है।   
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'''जो बात अपने को प्रिय होती है उसे प्रेय कहते हैं। और जो अंतिमत: कल्याणकारी बात होती है उसे श्रेय कहते हैं।'''
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अपने प्रेय के लिये अन्यों का अहित करनेवाले को असुर कहते हैं। ऐसे मानव को भी श्रेय ही प्रेय लगने लग जाए इसलिये शिक्षा होती है। कुल मिलाकर शिक्षा का स्वरूप धर्मशिक्षा का होता है। पुरूषार्थ चतुष्ट्य की शिक्षा का होता है।  
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१६. मानव अच्छा डॉक्टर बनता है, अच्छा व्यावसायिक आदि बनता है यह समाज के लिये महत्वपूर्ण बात होती है। किंतु इससे भी अधिक महत्वपूर्ण बात हर बालक के लिये यह है कि वह एक अच्छा बेटा, अच्छा भाई, अच्छा पति, अच्छा गृहस्थ, अच्छा पिता, अच्छा देशभक्त और अच्छा मानव बने। इसी तरह हर बालिका अच्छी बेटी, अच्छी बहन, अच्छी पत्नि, अच्छी गृहिणी, अच्छी देशभक्त और अच्छी मानव बनें यह अधिक महत्वपूर्ण होता है।  इसे सुनिश्चित करने के लिये सब से अधिक अवसर माता को होता है इसलिए सबसे अधिक जिम्मेदारी माता की होती है। दूसरे स्थान पर पिता जिम्मेदार होता है। कहा गया है ‘माता प्रथमो गुरू: पिता द्वितीयो’। इस में माता पिता समान घर के सब ज्येष्ठ लोगों का भी योगदान होता है। तीसरी जिम्मेदारी शिक्षक की होती है। ऐसी मान्यता है कि बालक के विकास में २५ प्रतिशत हिस्सा उसके पूर्वजन्मों के कर्मों का होता है। दूसरा २५ प्रतिशत उसे प्राप्त संस्कार और शिक्षा का होता है। तीसरा २५ प्रतिशत उसे मिले वातावरण, संगत, मित्र आदि का होता है। चौथा २५ प्रतिशत उसके अपने प्रयासों का होता है। इन हिस्सों का महत्वक्रम भी इसी क्रम से होता है। पूर्व कर्मों का प्रभाव सबसे अधिक, उसके उपरांत संस्कार और शिक्षा का आदि।  अन्य एक वर्गीकरण के अनुसार श्रेष्ठ मानव निर्माण के दो मुख्य पहलू हैं। पहला श्रेष्ठ जीवात्मा होना। और दूसरा है उसे अच्छी शिक्षा और संस्कार प्राप्त होना। इस दृष्टि से श्रेष्ठ मानव निर्माण में ५० प्रतिशत हिस्सा तो जन्म देनेवाले माता पिता का है। संस्कारों का काम भी घर में ही मुख्यत: चलता है। इसलिए संस्कारों का २५ प्रतिशत हिस्सा कुटुंब का होता है। शेष २५ प्रतिशत शिक्षा का जिसमें विद्यालयीन शिक्षा और लोकशिक्षा के माध्यमों का सहभाग होता है। समाज में यदि समस्याएँ हैं और बढ रहीं हैं तो माता, पिता और शिक्षक ये तीन लोग क्रम से इस के जिम्मेदार होते हैं।
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१७. मानव के लिये कुछ बातें जन्मजात और कुछ समाज से प्राप्त होनेवाली होतीं हैं।  
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पूर्व जन्मों के कर्मों के अनुसार आने वाली बातें - दस इंद्रिय, मन, बुध्दि, चित्त, अहंकार, श्रेष्ठ जीवात्मा, प्रारब्ध (पूर्व कर्मों का फल) जो जन्म कुंडली में दिखाई देता है, त्रिगुणयुक्त व्यक्तित्व, त्रिदोषयुक्त शरीर, माता पिता आदि।
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माता-पिता से जन्म से प्राप्त होने वाली बातें : पितर और उन की विरासत- सामाजिक प्रतिष्ठा, नाम, भौतिक समृध्दि,  शारीरिक स्वास्थ्य, जाति और आनुवांशिकता से आनेवाली बातें जैसे वर्ण, (त्रिदोषात्मक) शारीरिक स्वास्थ्य, व्यावसायिक और अन्य कुशलताएँ, परम्पराएँ आदि परिवार में और समाज में प्राप्त होनेवाली बातें : नाम, प्यार, आत्मीयता, रक्षण, पोषण, संस्कार, शिक्षण, आदतें, आर्थिक और पारिवारिक विरासत और परंपराएँ, सामाजिकता, सामाजिक प्रतिष्ठा, कुलधर्म, कुलाचार, विविध पारिवारिक यानी रक्तसंबंध के रिश्ते, विविध सामाजिक रिश्ते, सदाचार, धर्म आदि की शिक्षा आदि।
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१८. मानव के जन्म, जीवन और मृत्यू के चक्र में आयू की अवस्था के अनुसार निम्न बातें बदलतीं हैं।  
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- प्यार-दुलार
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- रक्षण/पोषण
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- संस्कार और शिक्षण
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- क्षमताएँ
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- योग्यताएँ
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- भावनाएँ
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- आवश्यकताएँ
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- इच्छाएँ
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- जिम्मेदारियाँ
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- कर्तव्य/बोध  
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- अधिकार/बोध
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इन का समायोजन सामाजिक संगठन और व्यवस्थाओं में होना आवश्यक है। इस हेतु से समाज भिन्न भिन्न प्रकार की प्रक्रियाओं को चलाता है, भिन्न भिन्न संगठन और व्यवस्थाएँ निर्माण करता है।  
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१९. सामान्यत: गृहस्थ के लिये चारों आश्रमों के लोगों तथा अन्य जीव जगत के योगक्षेम की जिम्मेदारी के अलावा दो और महत्वपूर्ण जिम्मेदारियाँ होतीं हैं। पहली यह है कि वह धर्म चिंतन, धर्म शिक्षण और धर्म रक्षण (शासन) में लगे लोगों के योगक्षेम की व्यवस्था करे। दूसरी है समाज की विभिन्न भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति में सार्थक योगदान दे। धर्म चिंतन, धर्म शिक्षण और धर्म रक्षण (शासन) में लगे लोगों की संख्या का समाज की कुल आबादी के साथ संतुलन भी महत्वपूर्ण है। धर्म चिंतन, धर्म शिक्षण और धर्म रक्षण (शासन) में लगे लोगों के योगक्षेम की व्यवस्था करने से वह नि:श्रेयस को और भौतिक वस्तुओं के उत्पादन से वह व्यक्तिगत और सामाजिक स्तरपर अभ्युदय को प्राप्त करता है।  
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२०. भारतीय समाज में गृहस्थ के लिये तीन बातें आवश्यक मानीं गईं हैं।  
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पहली बात यह है कि वह केवल धर्म की कमाई करे, दूसरे व्यय भी धर्मानुसार ही करे और तीसरे आवश्यकता से अतिरिक्त कमाई यथासंभव अधिक से अधिक दान में दे।   
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२१. सुख और सुविधा में अंतर होता है। सुविधा से सुख बढेगा यह आवश्यक नहीं है। जब सुविधा मानव को पंगु बना देती है, उसकी स्वाभाविक क्षमताओं को कुंठित कर देती है या स्वाभाविक क्षमताओं का क्षरण करती है तब वह दुख का कारण बनती है। इसलिये कितना सुविधाभोगी बनना यह विवेक महत्वपूर्ण है। सुविधाओं के विकास में दो बातें ध्यान में रखना चाहिये। पहली यह कि सुविधा अक्षम लोगों की मदद के लिये होती है। दूसरी बात यह है कि उससे मानव की प्राकृतिक क्षमताओं में और सामाजिकता यानी पारिवारिक भावना और व्यवहार में वृध्दि हो। कम से कम हानि तो नहीं हो।   
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२२. कोई भी वस्तु खरीदते समय उस वस्तु की पर्यावरण सुसंगतता, सामाजिकता से सुसंगतता, उपयोगिता, सौंदर्यबोध और सबसे अंत में उसकी कीमत को महत्व देना चाहिये।
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२३. हर गृहस्थ को लोकहितकारी उत्पादक व्यवसाय करना चाहिये। इससे एक ओर तो वह अपनी सामजिक जिम्मेदारी का निर्वहन करता है तो दूसरी ओर वह (अधम गति से विपरीत) श्रेष्ठ गति को प्राप्त कर लेता है। २४. मनुष्य के शरीर की रचना शाकाहारी प्राणि के अनुसार है।   
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२५. हर मनुष्य शरीर, प्राण, मन, बुध्दि और चित्त का स्वामी होता है। ये पाँचों बातें हर मनुष्य की भिन्न होतीं हैं। परमात्व तत्व भी इन पाँच घटकों के माध्यम से ही अभि‘व्यक्त’ होता है। इसीलिये मनुष्य को व्यक्ति कहते हैं। और व्यक्ति के स्वभाव, क्षमताएँ, प्रभाव आदि को व्यक्तित्व कहते हैं।
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व्यक्तित्व से संबंधित कुछ बातें निम्न हैं।
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प्राणिक आवेग : आहार, निद्रा, भय और मैथुन ये चार प्राणिक आवेग हैं। ये मनुष्य और पशू दोनों में समान हैं। इसलिये मनुष्य भी प्राणि होता ही है।
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प्रत्येक व्यक्ति को सुख, दु:ख, ममता, प्रेम, आत्मीयता, तथा द्वेष, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर जैसे षड्विकार यानी मन की भावनाएँ होतीं हैं।
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आवश्यकताएँ और इच्छाएँ : प्राणिक आवेगों की पूर्ति को आवश्यकता और मन की चाहतों को इच्छा कहते हैं। आवश्यकताएँ मर्यादित और इच्छाएँ अमर्याद होतीं हैं। -  कर्म योनि : प्राणिक आवेगों की पूर्ति के लिये और इच्छाओं की पूर्ति के लिये जो बातें की जातीं हैं उन्हें कर्म कहते हैं। उसे प्राप्त मन और बुध्दि की श्रेष्ठता के कारण मनुष्य कर्म करने में स्वतंत्र होता है। यह कर्म ही मनुष्य के जीवन का नियमन करते हैं। इस नियमन को कर्म सिध्दांत के माध्यम से समझा जा सकता है। कर्मसिध्दांत की जानकारी के लिये कृपया ‘ [[Elements of Hindu Jeevan Drishti and Life Style (भारतीय/हिन्दू जीवनदृष्टि और जीवन शैली के सूत्र)|भारतीय जीवन दृष्टि और जीवन शैली]] ‘ अध्याय में देखें।
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२६. समाज में व्यक्ति के दो प्रकार हैं। स्त्री और पुरूष। परमात्मा ने इन्हें जैसे ये आज हैं इसी स्वरूप में निर्माण किया था। समाज धारणा के लिये यानि समाज बना रहने के लिये के लिये स्त्री और पुरूष दोनों की आवश्यकता होती है। एक की अनुपस्थिति में समाज जी नहीं सकता। स्त्री और पुरूष एक दूसरे के पूरक होते हैं। बच्चे को जन्म देने का काम दोनों मिलकर करते हैं। अन्य एक भी ऐसा काम नहीं है जो स्त्री नहीं कर सकती या पुरूष नहीं कर सकता। किंतु इनको एक दूसरे से कई बातों में भिन्न बनाने में परमात्मा का कुछ प्रयोजन अवश्य है। इस प्रयोजन के अनुसार इनमें कार्य विभाजन होने से समाज ठीक चलता है। सुखी, समृध्द और चिरंजीवी बनता है। स्त्री-पुरूष संबंधों के विषय में थोड़ा अधिक गहराई से अब हम विचार करेंगे।
    
== स्त्री और पुरूष संबंधी भारतीय सोच ==
 
== स्त्री और पुरूष संबंधी भारतीय सोच ==
भारतीय सोच के अनुसार स्त्री और पुरूष दोनों एकसाथ ही निर्माण हुवे थे। श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय 3 के श्लोक 10 में कहा है - सहयज्ञा: प्रजा सृष्ट: .... प्रजा अर्थात् स्त्री और पुरूष साथ ही पप्रदा हुवे थे। स्त्री और पुरूष की भिन्नता का बुध्दियुक्त सोच के आधार पर भारतीय मनीषियों ने मूल्यांकन किया है। - परमात्मा ने सृष्टि को एक संतुलन के साथ बनाया है। स्त्री और पुरूष दोनों एक दूसरे के बिना अधूरे होते है । दोनों की पूर्ण बनने की चाह ही स्त्री और पुरूष में परस्पर आकर्षण निर्माण करती है।  - संसार में प्रत्येक वस्तू के निर्माण में परमात्मा का कोई प्रयोजन होता है। स्त्री की और पुरूष की शारीरिक और मानसिक भिन्नता का भी कुछ प्रयोजन है। दोनों की भूमिकाएं भिन्न किंतु परस्पर पूरक होंगी।  - परमात्मा से ही बना होने के कारण, परमात्मपद ( पूर्णत्व ) प्राप्ति की दिशा में आगे बढना ही प्रत्येक मानव के जीवन का लक्ष्य है। लेकिन शारीरिक रचना के कारण, सुरक्षा की आवश्यकता के कारण स्त्री के पूर्णत्व की दिशा में विकास का मार्ग अधिक कठिन होता है।  - पारीवारिक मामलों में स्त्री को निर्णय का अधिकार और सामाजिक मामलों में जहाँ परिवार से बाहर के वातावरण का संबंध होता है, स्त्री के लिये सुरक्षा की समस्या निर्माण हो सकती है, उस में पुरूष को निर्णय का अधिकार भारतीय परिवार और समाज व्यवस्था की विशेषता रही है। - हिंदू शास्त्र बताते है ' आत्मवत् सर्वभूतेषू ' या ' आत्मन: प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत् '। अर्थ है - जो बात अपने लिये अयोग्य या प्रतिकूल समझते हो उसे औरों के लिये भी अयोग्य और प्रतिकूल समझो और उसे मत करो। इसी का विस्तार है ' मातृवत् परदारेषू '। अपनी बहन, बेटी, माता और पत्नि के साथ अन्य पुरूष अभद्र व्यवहार न करें, सम्मान का व्यवहार करें ऐसी यदि आप औरों से अपेक्षा करते है तो आप भी किसी अन्य की बहन, बेटी, पत्नि या माता के साथ अभद्र व्यवहार न करें, उन्हे सम्मान दें। समाज में स्त्री को योग्य स्थान और सम्मान मिले इस दृष्टि से स्त्री को माँ के रूप में देखा गया। अपनी पत्नि को छोडकर अन्य सभी स्त्रियों के प्रति माता की भावना को सुसंस्कार कहा गया। - समाज में स्त्री को योग्य स्थान और सम्मान मिले इस दृष्टि से स्त्री को माँ के रूप में देखा गया। यह भी कहा गया कि - यत्र नार्यस्तु पुज्यंते रमंते तर देवता: । अर्थ : जहाँ नारी की पूजा होती है वहाँ देवता रहते है अर्थात् वह समाज देवता स्वरूप बन जाता है। सुख समृध्दि से भर जाता है।  
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भारतीय सोच के अनुसार स्त्री और पुरूष दोनों एकसाथ ही निर्माण हुवे थे। श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय 3 के श्लोक 10 में कहा है - सहयज्ञा: प्रजा सृष्ट: .... प्रजा अर्थात् स्त्री और पुरूष साथ ही पप्रदा हुवे थे। स्त्री और पुरूष की भिन्नता का बुध्दियुक्त सोच के आधार पर भारतीय मनीषियों ने मूल्यांकन किया है। - परमात्मा ने सृष्टि को एक संतुलन के साथ बनाया है। स्त्री और पुरूष दोनों एक दूसरे के बिना अधूरे होते है । दोनों की पूर्ण बनने की चाह ही स्त्री और पुरूष में परस्पर आकर्षण निर्माण करती है।  - संसार में प्रत्येक वस्तु के निर्माण में परमात्मा का कोई प्रयोजन होता है। स्त्री की और पुरूष की शारीरिक और मानसिक भिन्नता का भी कुछ प्रयोजन है। दोनों की भूमिकाएं भिन्न किंतु परस्पर पूरक होंगी।  - परमात्मा से ही बना होने के कारण, परमात्मपद ( पूर्णत्व ) प्राप्ति की दिशा में आगे बढना ही प्रत्येक मानव के जीवन का लक्ष्य है। लेकिन शारीरिक रचना के कारण, सुरक्षा की आवश्यकता के कारण स्त्री के पूर्णत्व की दिशा में विकास का मार्ग अधिक कठिन होता है।  - पारीवारिक मामलों में स्त्री को निर्णय का अधिकार और सामाजिक मामलों में जहाँ परिवार से बाहर के वातावरण का संबंध होता है, स्त्री के लिये सुरक्षा की समस्या निर्माण हो सकती है, उस में पुरूष को निर्णय का अधिकार भारतीय परिवार और समाज व्यवस्था की विशेषता रही है। - हिंदू शास्त्र बताते है ' आत्मवत् सर्वभूतेषू ' या ' आत्मन: प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत् '। अर्थ है - जो बात अपने लिये अयोग्य या प्रतिकूल समझते हो उसे औरों के लिये भी अयोग्य और प्रतिकूल समझो और उसे मत करो। इसी का विस्तार है ' मातृवत् परदारेषू '। अपनी बहन, बेटी, माता और पत्नि के साथ अन्य पुरूष अभद्र व्यवहार न करें, सम्मान का व्यवहार करें ऐसी यदि आप औरों से अपेक्षा करते है तो आप भी किसी अन्य की बहन, बेटी, पत्नि या माता के साथ अभद्र व्यवहार न करें, उन्हे सम्मान दें। समाज में स्त्री को योग्य स्थान और सम्मान मिले इस दृष्टि से स्त्री को माँ के रूप में देखा गया। अपनी पत्नि को छोडकर अन्य सभी स्त्रियों के प्रति माता की भावना को सुसंस्कार कहा गया। - समाज में स्त्री को योग्य स्थान और सम्मान मिले इस दृष्टि से स्त्री को माँ के रूप में देखा गया। यह भी कहा गया कि - यत्र नार्यस्तु पुज्यंते रमंते तर देवता: । अर्थ : जहाँ नारी की पूजा होती है वहाँ देवता रहते है अर्थात् वह समाज देवता स्वरूप बन जाता है। सुख समृध्दि से भर जाता है।  
    
== भारतीय स्त्री विषयक दृष्टि - तत्व और व्यवहार ==
 
== भारतीय स्त्री विषयक दृष्टि - तत्व और व्यवहार ==
 
उपर्युक्त स्त्री विषयक भारतीय दृष्टि से सब परिचित है। फिर प्रश्न उठता है कि वर्तमान में भारतीय समाज में स्त्री की दुरवस्था क्याप्त है? इस के लिये थोडा इतिहास देखना पडेगा। दो बडे कारण समझ में आते है। एक तो बाप्रध्द काल में महात्मा गौतम बुध्द के निर्वाण के पश्चात् कई बाप्रध्द विहार अनप्रतिकता के अड्डे बन गये थे। बाप्रध्द मत को राजाश्रय मिला हुवा था। यौवन में स्त्री का पुरूषों के प्रति और पुरूष का स्त्री के प्रति याप्रन आकर्षण अत्यंत स्वाभाविक बात है। फिर याप्रवन में विवेक और अनुभव भी कुछ कम ही होते है। ऐसी युवतियाँ इस स्वाभाविक आकर्षण के कारण विहारों में शरण लेतीं थीं। उन्हें वापस लाना असंभव हो जाता था। इसलिये सावधानी के ताप्रर पर स्त्रियों का घर से बाहर निकलना पूर्णत: बंद नहीं हुवा तो भी बहुत कम हो गया। दूसरे मुस्लिम आक्रांताओं ने जो अत्याचार स्त्रियों पर किये, स्त्रियों को जबरन उठाकर अरब देशों में बेचा इस से आतंकित होकर स्त्रियों का घर से बाहर निकलना पूर्णत: बंद हो गया। स्त्री शिक्षा के मामले में और इसलिये अन्य सभी मामलों में भी बहुत पिछड गई।
 
उपर्युक्त स्त्री विषयक भारतीय दृष्टि से सब परिचित है। फिर प्रश्न उठता है कि वर्तमान में भारतीय समाज में स्त्री की दुरवस्था क्याप्त है? इस के लिये थोडा इतिहास देखना पडेगा। दो बडे कारण समझ में आते है। एक तो बाप्रध्द काल में महात्मा गौतम बुध्द के निर्वाण के पश्चात् कई बाप्रध्द विहार अनप्रतिकता के अड्डे बन गये थे। बाप्रध्द मत को राजाश्रय मिला हुवा था। यौवन में स्त्री का पुरूषों के प्रति और पुरूष का स्त्री के प्रति याप्रन आकर्षण अत्यंत स्वाभाविक बात है। फिर याप्रवन में विवेक और अनुभव भी कुछ कम ही होते है। ऐसी युवतियाँ इस स्वाभाविक आकर्षण के कारण विहारों में शरण लेतीं थीं। उन्हें वापस लाना असंभव हो जाता था। इसलिये सावधानी के ताप्रर पर स्त्रियों का घर से बाहर निकलना पूर्णत: बंद नहीं हुवा तो भी बहुत कम हो गया। दूसरे मुस्लिम आक्रांताओं ने जो अत्याचार स्त्रियों पर किये, स्त्रियों को जबरन उठाकर अरब देशों में बेचा इस से आतंकित होकर स्त्रियों का घर से बाहर निकलना पूर्णत: बंद हो गया। स्त्री शिक्षा के मामले में और इसलिये अन्य सभी मामलों में भी बहुत पिछड गई।
स्वाधीनता के पश्चात यह अपेक्षा थी की शिक्षा राष्ट्रीय बनेगी, भारतीय बनेगी, सेमेटिक मजहबों के प्रभाव से बाहर निकलेगी । दो तीन पीढियों में स्त्री को योग्य स्थान दिलाएगी। लेकिन ऐसा नहीं हुवा।  वर्तमान में भारतीय स्त्री, जिस में अभी कुछ भारतीयता शेष है, वह बहुत संभ्रम में है। उस के विरासत में मिले संस्कार उस की शिक्षा से मेल नहीं खाते। वर्तमान शिक्षा की झंझा उसे पश्चिमी रहन सहन की ओर घसीटती रहती है। जो पाश्चात्य शिक्षा से प्रभावित है ऐसी स्त्रियाँ भी अपेक्षा तो यह करतीं है कि हर अन्य पुरूष उन की ओर ध्यान अवश्य दे किन्तु उन्हों ने तय की हुई मर्यादा को नहीं लांघे। उन से आदर से व्यवहार करे। किन्तु इस के लिये वह अपने बच्चों पर ऐसे संस्कार करने के लिये न तो तप्रयार है और न ही सक्षम।
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स्वाधीनता के पश्चात यह अपेक्षा थी की शिक्षा राष्ट्रीय बनेगी, भारतीय बनेगी, सेमेटिक मजहबों के प्रभाव से बाहर निकलेगी । दो तीन पीढ़ियों में स्त्री को योग्य स्थान दिलाएगी। लेकिन ऐसा नहीं हुवा।  वर्तमान में भारतीय स्त्री, जिस में अभी कुछ भारतीयता शेष है, वह बहुत संभ्रम में है। उस के विरासत में मिले संस्कार उस की शिक्षा से मेल नहीं खाते। वर्तमान शिक्षा की झंझा उसे पश्चिमी रहन सहन की ओर घसीटती रहती है। जो पाश्चात्य शिक्षा से प्रभावित है ऐसी स्त्रियाँ भी अपेक्षा तो यह करतीं है कि हर अन्य पुरूष उन की ओर ध्यान अवश्य दे किन्तु उन्हों ने तय की हुई मर्यादा को नहीं लांघे। उन से आदर से व्यवहार करे। किन्तु इस के लिये वह अपने बच्चों पर ऐसे संस्कार करने के लिये न तो तप्रयार है और न ही सक्षम।
    
== समाज में कामों का वर्गीकरण ==
 
== समाज में कामों का वर्गीकरण ==
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