उपर्युक्त तीनों प्रकार से विकास होने से परमेष्ठिगत् विकास अपने आप हो जाता है । अहं ब्रह्मास्मि, तत् त्वं असि और सर्वं खल्विदं ब्रह्मं । अर्थात् मैं ही वह परमात्मतत्व हूं, तुम भी वह परमात्वत्व ही हो और चराचर में वह परमात्मतत्व ही व्याप्त है इस की अनुभूति होना ही परमेष्ठिगत् विकास है । यही पूर्णत्व है । यही मोक्ष है । यही नर का नारायण बनाना है| यही अहंकार विजय है| यही मानव जीवन का लक्ष्य है । | उपर्युक्त तीनों प्रकार से विकास होने से परमेष्ठिगत् विकास अपने आप हो जाता है । अहं ब्रह्मास्मि, तत् त्वं असि और सर्वं खल्विदं ब्रह्मं । अर्थात् मैं ही वह परमात्मतत्व हूं, तुम भी वह परमात्वत्व ही हो और चराचर में वह परमात्मतत्व ही व्याप्त है इस की अनुभूति होना ही परमेष्ठिगत् विकास है । यही पूर्णत्व है । यही मोक्ष है । यही नर का नारायण बनाना है| यही अहंकार विजय है| यही मानव जीवन का लक्ष्य है । |