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| === अपरा एकादशी व्रत === | | === अपरा एकादशी व्रत === |
− | ज्येष्ठ शुक्ल पक्ष में आने वाली एकादशी को अपरा एकादशी कहते हैं। इस दिन भगवान त्रिविक्रम की पूजा करनी चाहिए। इस दिन भगवान त्रिविक्रम की पूजा करके व्रत रखकर भगवान विक्रम को शुद्ध जल से स्नान कराकर स्वच्छ वस्त्र पहनायें फिर धूप, दीप, फूल से उनका पूजन करें। ब्राह्मणों को भोजन कराकर यथा शक्ति दक्षिणा दें। उनका आशीर्वाद प्राप्त कर उन्हें विदा करें। दिन में भगवान की मूर्ति के समक्ष बैठकर कीर्तन करें। रात्रि में मूर्ति के चरणों में शयन करें। इस दिन फलाहार करें। जो इस प्रकार व्रत करता है वह मोक्ष को प्राप्त हो स्वर्गलोक को जाता है। साथ ही इस व्रत के करने से पीपल के काटने का पाप दूर हो जाता है। | + | ज्येष्ठ शुक्ल पक्ष में आने वाली एकादशी को अपरा एकादशी कहते हैं। इस दिन भगवान त्रिविक्रम की पूजा करनी चाहिए। इस दिन भगवान त्रिविक्रम की पूजा करके व्रत रखकर भगवान विक्रम को शुद्ध जल से स्नान कराकर स्वच्छ वस्त्र पहनायें फिर धूप, दीप, फूल से उनका पूजन करें। ब्राह्मणों को भोजन कराकर यथा शक्ति दक्षिणा दें। उनका आशीर्वाद प्राप्त कर उन्हें विदा करें। दिन में भगवान की मूर्ति के समक्ष बैठकर कीर्तन करें। रात्रि में मूर्ति के चरणों में शयन करें। इस दिन फलाहार करें। जो इस प्रकार व्रत करता है वह मोक्ष को प्राप्त हो स्वर्गलोक को जाता है। साथ ही इस व्रत के करने से पीपल के काटने का पाप दूर हो जाता है। |
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| + | ==== अपरा एकादशी व्रत कथा- ==== |
| + | महीध्वज नामक एक धर्मात्मा राजा था जिसका छोटा भाई व्रतध्वज बड़ा ही क्रूर, अधर्मी और अन्यायी था। वह अपने बड़े भाई से बड़ा द्वेष रखता था। उस अवसरवादी पापिष्ठ ने एक दिन रात्रि में अपने बड़े भाई की हत्या करके उसकी देह को जंगल में पीपल के वृक्ष के नीचे गाड़ दिया। मृत्यु के उपरान्त वह राजा प्रेतात्मा रूप में पीपल के वृक्ष पर अनेक उत्पात करने लगा। अचानक एक दिन धौम्य नामक ऋषि उधर से गुजरे। उन्होंने तपोबल से प्रेत के उत्पात का कारण और जीवन वृतान्त समझा। ऋषि ने प्रसन्न होकर उस प्रेत को पीपल के वृक्ष से उतारा और परलोक विद्या का उपदेश दिया। अन्त में इस प्रेतात्मा से मुक्त होने के लिए उससे अपरा एकादशी का व्रत करने को कहा। जिससे वह राजा दिव्य शरीर वाला होकर स्वर्ग को चला गया। |
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| + | === बड़सौमत या बड़-सावित्री व्रत === |
| + | बड़सौमत ज्येष्ठ की अमावस्या को मनाई जाती है, इस दिन बड़ के पेड़ की पूजा करनी चाहिए। यह व्रत केवल औरतों को ही करना चाहिए। एक थाल में (जल, रोली, चावल, हल्दी, गुड़, भीगे चने) आदि लेकर बड़ के पेड़ के नीचे बैठना चाहिए। बड़ के तने पर रोली का टीका लगाकर चना, गुड़, चावल सबको बड़ के पेड़ के नीचे चढ़ा दें। घी का दीपक व धूप जलायें। तत्पश्चात् सूत के धागों को हल्दी में रंगकर बड़ के पेड़ पर लपेटते हुए सात परिक्रमा लें। बड़ के पत्तों की माला बनाकर पहन लें, कहानी सुनें, घर में बनी वस्तु व चने, रुपये रखकर बायने के रूप में पैर छूकर अपनी सासू मां को दें तथा उनका आशीर्वाद प्राप्त करें। इस दिन बड़ के पेड़ के साथ-साथ सत्यवान सावित्री और यमराज की पूजा की जाती है। तत्पश्चात् फलों का भक्षण किया जाता है। सावित्री ने इस व्रत के प्रभाव से अपने मृतक पति सत्यवान को धर्मराज से छुड़ा लिया था। सुवर्ण या मिट्टी से सावित्री, सत्यवान तथा भैंसे पर सवार यमराज की प्रतिमा बनाकर धूप, चन्दन, दीपक, रोली, केसर, से पूजा करनी चाहिए और सत्यवान - सावित्री की कथा सुनानी चाहिए । |
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| + | ==== व्रत की कथा- ==== |
| + | भद्र देश के राजा अश्वपति के यहां पुत्री के रूप में सर्वगुण सम्पन्न सावित्री का जन्म हुआ। राजकन्या ने धुमत्सेन के पुत्र सत्यवान की सुनकर उसे अपने पति रूप में वरण कर लिया। इधर जब यह बात देवऋषि नारदजी को पता चली तो वे अश्वपति से जाकर कहने लगे-आपकी कन्या ने वर खोजने में निःसन्देह भूल की है। नि:संदेह सत्यावान गुणवान और धर्मात्मा है किन्तु वह अल्पायु है। एक वर्ष के पश्चात् ही उसकी मृत्यु हो जायेगी। नारदजी की यह बात सुनकर राजा अश्वपति का चेहरा विर्वज हो गया। |
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| + | "वृक्षा न होहि देव ऋषि बानी " ऐसा विचार करके उन्होने अपनी पुत्री को समझाया कि ऐसे अल्पायु व्यक्ति के साथ विवाह करना उचित नहीं है। इसलिए कोई अन्य वर चुन लो। इस पर सावित्री बोली "पिताजी। आर्य कन्याये अपना वर ही वरण करती है। राजा एक बार आता देता है, पडित एक बार ही प्रतिज्ञा करते हैं। कन्यादान भी एक ही बार किया जाता है। अन चाहे जो हो सत्यवान को ही अपने पति के रूप में स्वीकार करूगी।" सावित्री ने सत्यवान के मृत्यु का समय मालूम कर लिया था। अन्ततः उन दोनों का विवाह हो गया। वह ससुराल पहुंचते ही सास ससुर की सेवा में दिन रात रहने लगी। समय बदला साविता के ससुर का जल क्षीण होता देखकर शत्रुओं ने राज्य छीन लिया। नारद का वचन साविती को दिन प्रतिदिन अधौर करता रहा। जब उसो जाना कि पति की मृत्यु का समय नजदीक आ गया है तो उसने तीन दिन पूर्व ही उपवास करना शुरू कर दिया। नारद द्वारा कथित तिथि पर पितरों का पूजन किया। नित्य ही सत्यवान लकड़ी काटने जंगल जाया करता था। उस दिन भी सत्यवान लकड़ी काटने जंगल जा रहा था तो सावित्री भी सास ससुर की माला से सत्यवान के साथ चलने को तैयार हो गयी। सत्यवान वन में पहुंचकर लकड़ी काटने वृया पर चढ़ गया। वृक्ष पर चढ़ते ही सत्यवान के सिर में असहनीय पीड़ा होने लगी। वह व्याकुल हो गया और से नीचे उतर गया। |
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| + | सावित्री अपना भविष्य समझ गयी और अपनी जांघ पर सत्यवान को लिटा लिया। उसी समय उसने दक्षिण दिशा से अत्यन्त प्रभावशाली महिषारूढ़ यमराज को आते देखा। धर्मराज सत्यवान के जीवन को लेकर जन चल दिये तो सावित्री भी उनके पीछे चल दी। पहले तो यमराज ने उसे दैवी विधान सुनाया, किन्तु उसको अपने पति में निष्ठा देखकर वर मांगने को कहा। सावित्री बोली-"मेरे सास-ससुर बनवासी और अन्य है। उन्हें आप दिव्य ज्योति प्रदान करें।" यमराज ने कहा-"ऐसा ही होगा। अब लौट जाओ।" यमराज की बात सुनकर उसने कहा-"भगवान मुझे अपने पतिदेव के पीछे - पीछे चलने में कोई परेशानी नहीं । पति अनुगमन मेरा कर्तव्य है।" यह सुनकर यमराज ने फिर वर मांगने को कहा। सावित्री बोली-"मारे ससुर का राज्य शत्रुओं ने छीन लिया है। उन्हें वह पुनः प्राप्त हो और ये धर्मपरायण हो।" यमराज ने ये घर भी दे दिया और लौट जाने को कहा किन्तु उसने उनका पीछा न छोड़ा। यमराज बोले-"एक घर और मांग लो।" सावित्री बोली-"मुन्ने वर दी कि मेरे सौ पुत्र हो।" यमराज ने 'तथास्तु' कहा और आगे चल दिया सावित्री बोली- देव, आप मेरे पति को तो लिए जा रहे हैं मेरे पुत्र कैसे होगा यमराज को उसके पति के प्राण छोड़ने पड़े। सावित्री को अभय-मुहाग का वरदान देकर अन्तर्ध्यान हो गये। इस तरह सावित्री उस वटवृक्ष के नीचे आई जहां पति का शरीर पड़ा था। |
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| + | ईश्वर की अनुकम्पा से उसमें जीवन का संचार हुआ और सत्यवान उठकर बैठ गया। दोनों हर्ष से प्रेमालिंगन करके राजधानी की तरफ लौट चले। सत्यवान के माता-पिता को भी दिव्य ज्योति प्राप्त हुई। इस प्रकार सत्यवान और सावित्री चिरकाल तक राज्य-सुख भोगते रहे। यह व्रत सुहागिन स्त्रियों को अवश्य करना चाहिए। ज्येष्ठ कृष्ण अमावस्या को रखे जाने वाला यह व्रत सुहागिन स्त्रियों के लिए विशेष प्रभावी है। इस व्रत को सच्चे मन व श्रद्धा से रखने वाली स्त्रियों का सुहाग सदैव अचलं रहता है। |
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| + | === रम्भा तृतीय व्रत === |
| + | यह तृतीय ज्येष्ठ मास की शुक्ल पक्ष की तृतीया को आती है। इस दिन भगवान व ब्राह्मण की पूजा करनी चाहिए। इस दिन व्रत रखकर पहले भगवान की मूर्ति को स्नान करायें फिर वस्त्राभूषण पहनाकर उनकी धूप-दीप से पूजा करें। यह व्रत धर्म में आस्था बढ़ाता है। इस दिन गौमाता का दान बताया है। इसकी पूजा करने वाली नारी धन-धान्य व सन्तान से मुक्त हो पति को सुख देती हुई स्वर्ग को जाती है। प्रात:काल होने पर नदी पर स्नान करें। पांच ब्राह्मणों का वरण करें? वेदों में स्थापित करके पुरुष सूक्त के मंत्रों से शर्करा, घृत, तिल, पायस आदि से हवन करें। पश्चात् पूर्णाहुति दें और हवन को समाप्त करके ब्राह्मणी को दक्षिणा देः गो का दान करें। अपनी शक्ति के अनुसार ब्राह्मणों को भोजन करायें। छाता, जूता आदि का दान करें। अपने आचार्य को प्रतिमा का दान करें। किसी प्रकार की दास कंजूसी न करें। इस प्रकार व्रत करने से सफल हो जाता है। |
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| + | ==== व्रत कथा- ==== |
| + | प्राचीन काल में हिमवान नाम वाला एक पर्वतों का राजा था, यद्यपि उसके पास सब सिद्धियां थीं परन्तु उसके कोई सन्तान नहीं थी इसलिए बहुत दु:खी रहता था और उसकी स्त्री मैना भी बहुत दु:खी रहती थी। उस राजा ने सन्तान के लिए कई व्रत और दान किये परन्तु सब ही निष्फल चले गये। मैना ने सोचा कि सन्तानरहित स्त्री का जीवन धिक्कार है। इस प्रकार वह दुःखी होकर भगवान विष्णु की शरण में गई। तब नारदजी वहां विष्णु भगवान की सेवा में उपस्थित थे, मैना को पूर्णासन द्रत करने को कहा। नारदजी ने कहा-"मैना! ज्येष्ठ की तृतीया के दिन तुम इस व्रत को विधिपूर्वक करो।" इस उपदेश को सुनकर मैना सब कर्मों को त्यागकर भगवान विष्णु का स्मरण करके इस व्रत को करने लगी। भगवान विष्णु की कृपा से इस व्रत के समाप्त होने पर जगतमयी माया उत्पन्न हुई और मैना को वर मांगने के लिए कहा। तब मैना ने कहा-“हे देवी! यदि आप प्रसन है तो मो आंगन में आकर ली।" दब जगदम्बा ने कहा-पिसा ही दर और मैं क्या होकर तुम्हारे घर में जन्म लूगी।" यह समाचार सुलकर हिमवान की बड़ी प्रानता ही कुछ समय व्यतीत हो जाने पर मीना गार्थवती होगी जिस प्रकारकी अभिलाषा पूर्ण दुई, से हर किसी की हो। |
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| + | === गंगा दशहरा === |
| + | ज्येष्ठ सुदी दरामी को गंगा दशहरा कहा जाता है। इसी दिन नदियों में श्रेष्ठ गंगाजी भगीरथ द्वारा स्वर्गलोक से पृथ्वी पर अवतरित हुई थीं। ज्येष्ठ शुक्ल दशमी सोमवार और हस्त नक्षत्र होने पर यह तिथि घोर पापों को नष्ट करने वाली मानी गयी है। हस्त नक्षत्र में बुधवार के दिन गंगावतरण हुआ था। यह तिथि अधिक महत्त्वपूर्ण है। इस तिथि में स्नान, दान, तर्पण से सब पापों का विनाश होता है। इसलिए इसका नाम दशहरा पड़ा है। व्रत की कथा-प्राचीन काल में अयोध्या नगरी में एक सगर नाम के राजा राज्य करते थे। उनके केशिनी और सुमति नामकी दो रानियां थीं। पहली रानी के अंशुमान नामक पुत्र का उल्लेख मिलता है, किन्तु दूसरी रानी सुमति के साठ हजार पुत्र थे। उसी समय यज्ञ की पूर्ति के लिए एक घोड़ा छोड़ा। इन्द्र यज्ञ को भंग करने के लिए उस घोड़े को चुराकर कपिल मुनि के आश्रम में बांध आये। राजा ने उसे खोजने के लिए साठ हजार पुत्रों को भेजा। खोजते-खोजते वे कपिल मुनि के आश्रम में पहुंचे तथा समाधिस्थ मुनि की क्रोधाग्नि में जलकर भस्म हो गये। |
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| + | अपने-अपने पितृत्व चरणों को खोजता हुआ अंशुमान जब मुनि-आश्रम में पहुंचा तो महात्मा गरुड़ से भस्म होने का सम्पूर्ण वृतान्त जाना। गरुड़जी ने यह भी बताया कि यदि तुम इन सबकी मुक्ति चाहते हो तो स्वर्ग से गंगाजी को पृथ्वी पर लाना पड़ेगा। इस समय अश्व को ले जाकर अपने पितामह के यज्ञ को पूर्ण कराओ, उसके बाद यह कार्य करना। अंशुमान ने घोड़े सहित यज्ञ मण्डप पर पहुंचकर सगर को सम्पूर्ण वृतान्त कह सुनाया। महाराज सगर की मृत्यु के उपरान्त अंशुमान और उनके पुत्र दिलीप जीवन- पर्यन्त तपस्या करके भी गंगाजी को पृथ्वी पर ना ला सके। अन्त में राजा दिलीप के पुत्र भागीरथ ने गंगाजी को इस लोक में लाने के लिए गोकर्ण तीर्थ में जाकर कठोर तपस्या की, इस तरह तपस्या करते-करते कई वर्ष बीत गये, तब ब्रह्माजी प्रसन्न हुए और गंगाजी को पृथ्वीलोक में ले जाने का वरदान दिया। ब्रह्माजी के कमण्डल से छूटने के पश्चात् समस्या यह थी कि गंगाजी को सम्भालेगा कौन? विधाता ने बताया कि भूलोक में भगवान शंकर के सिवाय किसीमें यह शक्ति नहीं जो गंगाजी के वेग को सम्भाल सके। इस आदेश के अनुसार भागीरथ को फिर एक अंगूठे के बल पर खड़ा होकर भगवन शंकर की आराधना करनी पड़ी । शंकर जी प्रसन्न हुए और गंगा जी को धारण करने के लिए जटा फैलाकर तैयार हो गये । गंगा जी देवलोक से छोड़ी गई और शंकरजी की जटाओं को भेदकर धरातल पर चली जाउंगी । |
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| + | पुराणों में ऐसा उल्लेख मिलता कि गंगाजी शंकर की जटाओं में कई वर्षो तक भ्रमण कराती रही परन्तु निकालने का कहीं भी रास्ता नहीं मिला । भागीरथ के पुनः अनुनय विनय करने पर नन्दीश्वर से प्रसन्न होकर हिमालय में ब्रह्मा जी के द्वारा निर्मित बिन्दुसार में गंगाजी को छोड़ दिया । उस समय इनकी सात धराये हो गयी । आगे आगे भागीरथ चल रहे थे पीछे पीछे गंगाजी चल रही थी । धरातल पर गनगा जी के आते ही हाहाकार मच गया । जिस मार्ग से गंगाजी जा रही थी उसी मार्ग में ऋषिराज जन्हू का आश्रम और तपोस्थल था । तपस्या अदि में विघ्न समझकर गंगाजी को पी गये, फिर देवताओं की प्रार्थना पर उन्हें पुनः जांघ से निकल दिया । तभी से ये जन्हू की पुत्री जान्हवी कहलाई । इस प्रकार अनेक स्थलों से तरन करन करती हुई जान्हवी ने कपिल मुनि के आश्रम में पहुंचकर सागर के साठ हजार पुत्रो के भस्मावशेष को तरकर मुक्त किया । उसी समय ब्रह्मा जी ने प्रकट होकर भागीरथ के कठिन ताप और सगर के साठ हजार पुत्रो के अमर होने का वर दिया , तदन्तर यह घोषित किया की तुम्हारे नाम से गंगाजी का नाम भागीरथी होगा । अब तुम अयोध्या में राजकाज संभालो । ऐसा कहकर ब्रहमाजी अंतर्ध्यान हो गए । इस वरदान से भागीरथ को पुत्रलाभ हुआ और सुखपूर्वक राज्य भोगकर परलोक गमन किया । |
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| + | === निर्जला एकादशी === |
| + | ज्येष्ठ शुक्ल पक्ष एकादशी को निर्जला एकादशी या भीमसेनी एकादशी कहते हैं क्योकि वेदव्यास की आज्ञाअनुसार भीमसेन ने इसे धारण किया था | शास्त्रों के अनुसार इस एकादशी व्रत से दीर्घायु और मोक्ष मिलता हैं| इस दिन जल नही पीना चाहिए | इस एकादशी के व्रत रहने से वर्ष की पूरी चौबीस एकादशियो का फल मिलता हैं | यह व्रत करने के बाद द्वादशी को ब्रह्मा वेला में उठकर स्नान, दान और ब्राह्मण को भोजन करना चाहिए | इस दिन – “ओम नमः भगवते वाशुदेवय |“ इस मन्त्र का जाप करना चाहिए | इस व्रत में गोदान, स्वर्णदान, छत्र,फल आदि का दान करना वान्क्षनीय हैं इस व्रत के प्रभाव से मनुष्य पापों से मुक्त हो मोक्ष प्राप्त करता हैं| |
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| + | '''व्रत की कथा –'''एक समय की बात है कि भीमसेन ने व्यास जी से कहा –“हे भगवान! युधिष्ठिर,अर्जुन ,नकुल ,सहदेव ,द्रोपदी व माता कुंती भी एकादसी के दिन व्रत करते हैं| मुझे भी इस व्रत को करने के लिए कहती हैं| मै कहता हूँ कि मैं भूख बर्दाश्त नहीं कर सकता | मै दान देकर और वासुदेव भगवान की अर्चना करके उन्हें प्रसन कर लूंगा |बिना व्रत किए जिस तरह से हो सके मुझे एकादशी व्रत का फल बताइये |मैं बिना काया –कष्ट के ही फल चाहता हूँ,” इस पर वेद व्यास जी बोले –“हे वृकोदर! यदि तुम्हे स्वर्ग लोक प्रिय है और नर्क से सुरक्षित रहना चाहते हो तो दोनों एकादशियो का व्रत रखना होगा|” |
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| + | भीमसेन बोला –“हे देव! एक समय के भोजन से मेरा कम नही चल सकेगा |मेरे उदर में वृक नामकअग्नि निरंतर प्रज्जवलित होती रहती है |पर्याप्त भोजन करने पर भी मेरी क्षुधा शांत नहीं होती |
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| + | हे ऋषिवर !आप कृपा कर मुझे ऐसा उपाय बताइये जिसके करने मात्र से मेरा कल्याण हो|” |
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| + | व्यास जी बोले –“हे भद्र! ज्येष्ठ की एकादशी को निर्जल व्रत कीजिये |स्नान आचमन में जल ग्रहण कर सकते हैं | अन्न बिलकुल भी ग्रहण न करे | अन्नाहार लेने से व्रत खण्डित हो जायेगा |” व्यास की आज्ञा अनुसार भीमसेन ने बड़े साहस के साथ निर्जला एकादशी का व्रत किया |जिसके फलस्वरूप प्रातः होते होते ज्ञानहीन हो गये |तब पाण्डवो ने गंगाजल, तुलसी ,चरणामृत प्रसाद लेकर उनकी मूर्च्छा दूर की |तभी से भीमसेन पाप मुक्त हो गये | |
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