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ब्राह्म मुहूर्त सबसे उत्तम समय है।सनातनीय आर्ष ग्रन्थोंके द्रष्टा-प्रणेता, ऋषि-महर्षियोंने दीर्घकालीन अन्वेषणके उपरान्त यह सिद्ध किया है कि आरोग्य, दीर्घजीवन, सौन्दर्य, प्रार्थना, अध्ययन, आराधना, शुभ कार्य, भगवच्चिन्तन तथा ध्यान आदि एवं रक्षाके नियमोंका सबसे सुन्दर समय ब्राह्ममुहूर्त है। महर्षियोंने ब्राह्ममुहूर्तको अनेक नामोंसे अभिहित किया है जैसे-अमृतवेला, ब्रह्मवेला, देववेला, ब्राह्मीवेला, मधुमयवेला आदि नामों से जाना जाता है।
 
ब्राह्म मुहूर्त सबसे उत्तम समय है।सनातनीय आर्ष ग्रन्थोंके द्रष्टा-प्रणेता, ऋषि-महर्षियोंने दीर्घकालीन अन्वेषणके उपरान्त यह सिद्ध किया है कि आरोग्य, दीर्घजीवन, सौन्दर्य, प्रार्थना, अध्ययन, आराधना, शुभ कार्य, भगवच्चिन्तन तथा ध्यान आदि एवं रक्षाके नियमोंका सबसे सुन्दर समय ब्राह्ममुहूर्त है। महर्षियोंने ब्राह्ममुहूर्तको अनेक नामोंसे अभिहित किया है जैसे-अमृतवेला, ब्रह्मवेला, देववेला, ब्राह्मीवेला, मधुमयवेला आदि नामों से जाना जाता है।
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यह  प्रातःकाल का अतिरमणीय, आह्लादजनक और कार्योपयोगी समय है। प्राचीन ग्रन्थों का अध्ययन करने से ज्ञात होता है कि संसार के समस्त महापुरुषों,विद्वानों और विद्यार्थियों के जीवन की यही विशेषता रही है कि वे ब्राह्म मुहूर्त में शयन नहीं करते थे ।इस वेला में छात्र भी अपना अपना पाठ मनोयोग पूर्वक हृदयंगम कर सकते हैं ।ब्राह्ममुहूर्त में जागरण से उन्होंने बहुत लाभ प्राप्त किये हैं अतः सभी व्यक्तियों को ब्राह्ममुहूर्त में उठकर शारीरिक एवं मानसिक स्वास्थ्य लाभ प्राप्त करना चाहिये। ब्रह्मचारी यदि सूर्योदय के उपरान्त उठे तो उसके लिये गौतम ऋषि के अनुसार प्रायश्चित्त के रूप में बिना खाये-पीये दिन भर खडे रहकर गायत्री मन्त्र का जप करना चाहिये ।अतः इस समय शयन करना उचित नहीं ।आचार्य चाणक्य कुक्कुट् की प्रशंसा करते हुये कहते हैं कि -<blockquote>प्रत्युत्थानं च युद्धं च संविभागं च बंधुषु।स्वयमाक्रम्य भुक्तं च शिक्षेच्चत्वारि कुक्कुटात्।।<ref>चाणक्य नीति</ref></blockquote>भावार्थ-मनुष्य को मुर्गे से उसकी चार आदतें जरूर सीखनी चाहिए. वो कहते हैं कि व्यक्ति को मुर्गे की तरह समय पर जागने की आदत होनी चाहिए. मनुष्य सुबह समय पर जाग जाए तो वो पूरा दिन समय अनुकूल काम कर सकता है और कामयाबी हासिल कर सकता है ।साथ ही यह उसके स्वास्थ्य के लिए भी लाभदायक होता है।पुरा काल से ही ब्राह्ममुहूर्तमें उठानेकी प्रकृतिकी टाइमपीस-घड़ी मुर्गाहुआ करता है ।
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यह  प्रातःकाल का अतिरमणीय, आह्लादजनक और कार्योपयोगी समय है। प्राचीन ग्रन्थों का अध्ययन करने से ज्ञात होता है कि संसार के समस्त महापुरुषों,विद्वानों और विद्यार्थियों के जीवन की यही विशेषता रही है कि वे ब्राह्म मुहूर्त में शयन नहीं करते थे ।इस वेला में छात्र भी अपना अपना पाठ मनोयोग पूर्वक हृदयंगम कर सकते हैं ।ब्राह्ममुहूर्त में जागरण से उन्होंने बहुत लाभ प्राप्त किये हैं अतः सभी व्यक्तियों को ब्राह्ममुहूर्त में उठकर शारीरिक एवं मानसिक स्वास्थ्य लाभ प्राप्त करना चाहिये। ब्रह्मचारी यदि सूर्योदय के उपरान्त उठे तो उसके लिये गौतम ऋषि के अनुसार प्रायश्चित्त के रूप में बिना खाये-पीये दिन भर खडे रहकर गायत्री मन्त्र का जप करना चाहिये ।अतः इस समय शयन करना उचित नहीं ।आचार्य चाणक्य कुक्कुट् की प्रशंसा करते हुये कहते हैं कि -<blockquote>प्रत्युत्थानं च युद्धं च संविभागं च बंधुषु।स्वयमाक्रम्य भुक्तं च शिक्षेच्चत्वारि कुक्कुटात्।।<ref>चाणक्य नीति</ref></blockquote>भावार्थ-मनुष्य को मुर्गे से उसकी चार आदतें जरूर सीखनी चाहिए वो कहते हैं कि व्यक्ति को मुर्गे की तरह समय पर जागने की आदत होनी चाहिए। मनुष्य सुबह समय पर जाग जाए तो वो पूरा दिन समय अनुकूल काम कर सकता है और कामयाबी हासिल कर सकता है ।साथ ही यह उसके स्वास्थ्य के लिए भी लाभदायक होता है।पुरा काल से ही ब्राह्ममुहूर्तमें उठानेकी प्रकृतिकी टाइमपीस-घड़ी मुर्गाहुआ करता है ।
    
इस मधुमय वेला में उठनेका एक अनोखा उपाय है कि सोने के पूर्व अपने मन को आज्ञा दें कि प्रातःकाल अमुक समय पर उठना है आपका मन आपको नियत समय पर जगा देगा ।यदि उठने में आलस्य न किया जाये तो विना अलार्म घडी की सहायता से स्वयं ब्रह्मवेला में उठने के अभ्यासी बन जयेंगे। ब्राह्ममुहूर्त में उठने के लिये दृढ संकल्पी होना अत्यावश्यक है।
 
इस मधुमय वेला में उठनेका एक अनोखा उपाय है कि सोने के पूर्व अपने मन को आज्ञा दें कि प्रातःकाल अमुक समय पर उठना है आपका मन आपको नियत समय पर जगा देगा ।यदि उठने में आलस्य न किया जाये तो विना अलार्म घडी की सहायता से स्वयं ब्रह्मवेला में उठने के अभ्यासी बन जयेंगे। ब्राह्ममुहूर्त में उठने के लिये दृढ संकल्पी होना अत्यावश्यक है।
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==जागरण का फल==
 
==जागरण का फल==
सनातनधर्ममें ब्राह्ममुहूर्तमें उठनेकी आज्ञा है-<blockquote>ब्राह्मे मुहूर्ते बुध्येत धर्मार्थों चानुचिन्तयेत् । कायक्लेशांश्च तन्मूलान् वेदतत्त्वार्थमेव च ।। (मनु० ४।९२)<ref>शिवराज, कौण्डिन्न्यायन। (२०१८) ''मनुस्मृति।'' वाराणसी-चौखम्बा विद्याभवन,(पृ० ३१४)।</ref></blockquote>स्नातक गृहस्थ ब्राह्मण ब्राह्म मुहूर्त में (रात के उपान्त्य मुहूर्त में) जगें, धर्म का और अर्थ का विचार करे, धर्म की और अर्थ की प्राप्ति में होने वाले शरीर के क्लेशों का भी विचार करें और वेद के तत्त्वार्थ का  चिन्तन भी करें। जैसे -कल्पका प्रारम्भ ब्रह्माके दिनका प्रारम्भ होता है उसीसमय ब्रह्माका दीर्घनिद्रामें विश्रान्त हुई सृष्टि के निर्माण एवं उत्थानका काल होता है। ज्ञानरूप वेदका प्राकट्यकाल भी वही होता है, उत्तम ज्ञानवाली एवं शुद्ध-मेधावती ऋषि-सृष्टि भी तभी होती है, सत्त्वयुग वा सत्ययुग भी तभी होता है धार्मिक प्रजा भी उसी प्रारम्भिक कालमें होती है, यह काल भी वैसा ही होता है।उसी ब्राह्मदिनका संक्षिप्त संस्करण यह ब्राह्ममुहूर्त होता है। यह भी सत्सृष्टि-निर्माणका प्रतिनिधि होनेसे सृष्टिका सचमुच निर्माण ही करता है। अपने निर्माण कार्यमें इस ब्राह्ममुहूर्तका उपयोग लेना हमारा एक आवश्यक कर्तव्य हो जाता है। इसके उपयोगसे हमें ऐहलौकिक-अभ्युदय एवं पारलौकिक-निःश्रेयस प्राप्त होकर सर्वाङ्गीण धर्मलाभ सम्भव हो जाता है।सूर्योदय के उपरान्त सोने का निषेध करते हुये आचार्य चाणक्य जी कहते हैं कि-<blockquote>कुचैलिनं दन्तमलोपधारिणं बह्वाशिनं निष्ठुरभाषिणं च। सूर्योदये चास्तमिते शयानं विमुञ्चतिश्रीर्यदि चक्रपाणि:।।</blockquote>अर्थ-मैले वस्त्र पहनने वाले,दन्तधावन न करने वाले,बहुत खाने वाले,कठोर बोलने वाले,सूर्योदय सूर्यास्त के समय सोनेवाले व्यक्ति को  क्यों न वह साक्षात् श्री नारायण जी हो लक्ष्मी जी त्याग देतीं हैं अर्थात न घर में पैसा और न मुखपर कान्ति रहती है।  
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सनातनधर्ममें ब्राह्ममुहूर्तमें उठनेकी आज्ञा है-<blockquote>ब्राह्मे मुहूर्ते बुध्येत धर्मार्थों चानुचिन्तयेत् । कायक्लेशांश्च तन्मूलान् वेदतत्त्वार्थमेव च ।। (मनु० ४।९२)<ref>शिवराज, कौण्डिन्न्यायन। (२०१८) ''मनुस्मृति।'' वाराणसी-चौखम्बा विद्याभवन,(पृ० ३१४)।</ref></blockquote>स्नातक गृहस्थ ब्राह्मण ब्राह्म मुहूर्त में (रात के उपान्त्य मुहूर्त में) जगें, धर्म का और अर्थ का विचार करे, धर्म की और अर्थ की प्राप्ति में होने वाले शरीर के क्लेशों का भी विचार करें और वेद के तत्त्वार्थ का  चिन्तन भी करें। जैसे -कल्पका प्रारम्भ ब्रह्माके दिनका प्रारम्भ होता है उसीसमय ब्रह्माका दीर्घनिद्रामें विश्रान्त हुई सृष्टि के निर्माण एवं उत्थानका काल होता है। ज्ञानरूप वेदका प्राकट्यकाल भी वही होता है, उत्तम ज्ञानवाली एवं शुद्ध-मेधावती ऋषि-सृष्टि भी तभी होती है, सत्त्वयुग वा सत्ययुग भी तभी होता है धार्मिक प्रजा भी उसी प्रारम्भिक कालमें होती है, यह काल भी वैसा ही होता है।उसी ब्राह्मदिनका संक्षिप्त संस्करण यह ब्राह्ममुहूर्त होता है। यह भी सत्सृष्टि-निर्माणका प्रतिनिधि होनेसे सृष्टिका सचमुच निर्माण ही करता है। अपने निर्माण कार्यमें इस ब्राह्ममुहूर्तका उपयोग लेना हमारा एक आवश्यक कर्तव्य हो जाता है।<ref>पं० दीनानाथशर्माशास्त्री सारस्वत, सनातन धर्मालोक, द्वितीयपुष्प (पृ०१५४)।</ref>इसके उपयोगसे हमें ऐहलौकिक-अभ्युदय एवं पारलौकिक-निःश्रेयस प्राप्त होकर सर्वाङ्गीण धर्मलाभ सम्भव हो जाता है।सूर्योदय के उपरान्त सोने का निषेध करते हुये आचार्य चाणक्य जी कहते हैं कि-<blockquote>कुचैलिनं दन्तमलोपधारिणं बह्वाशिनं निष्ठुरभाषिणं च। सूर्योदये चास्तमिते शयानं विमुञ्चतिश्रीर्यदि चक्रपाणि:।।</blockquote>अर्थ-मैले वस्त्र पहनने वाले,दन्तधावन न करने वाले,बहुत खाने वाले,कठोर बोलने वाले,सूर्योदय सूर्यास्त के समय सोनेवाले व्यक्ति को  क्यों न वह साक्षात् श्री नारायण जी हो लक्ष्मी जी त्याग देतीं हैं अर्थात न घर में पैसा और न मुखपर कान्ति रहती है।  
    
== वैज्ञानिक अंश ==
 
== वैज्ञानिक अंश ==
इस समयका वातावरण सात्त्विक शान्त जीवनप्रद और स्वास्थ्यप्रदायक होता है। इसी समय वृक्ष अशुद्ध वायुको आत्मसात् कर लेते हैं और शुद्ध वायु (आक्सिजन गैस) हमें देते हैं। कमल आदि इसी समय खिलते हैं। नदी आदिका जल सम्पूर्ण रात्रिके तारामण्डलके एवं चन्द्रमाके प्रभावको आत्मसात् करके इसी समय उसे व्यक्त करता है। इसके संसर्गसे ही सुरभित और उदय होनेवाले दिनकरके निर्मल किरणों के प्रभावसे पवित्र हुई वायु हमारा आत्मिक एवं मानसिक कल्याण करती है। सूर्य ही समस्त क्रियाओं तथा विद्युत्शक्ति, प्राणशक्ति आदि समस्त शक्तियों का आकर होता है। सभी धातुएँ सभी जीव सब मनुष्य इसीकी शक्तिका अवलम्बन लेते हैं और बहुत सबल रहते हैं। उसके प्रभावसे हमारे मन और बुद्धि आलोकित हो उठते हैं। रात्रिमूलक-तमोगुण और तमोमूलक-जड़ता हट जाती है। यदि इस सुन्दर समयमें भी हम निद्रादेवी में आसक्त रहें तब हम अपनी आयुको स्वयं घटानेवाले सिद्ध हो सकते हैं। क्योंकि निद्रामें तन्मूलक दौर्बल्यवश वह वायु हमें लाभके बदले हानि भी पहुँचा सकती है-<blockquote>देवो दुर्बल-घातकः।</blockquote>दुर्बल के तो देवता भी सहायक नहीं होते हैं।वैसा करने पर हमारा आलस्य बढ़ जाता है स्फूर्ति नष्ट हो जाती है।उस समय उठ बैठनेसे निद्रामूलक दुर्बलता नष्ट होकर हममें बल उत्पन्न होता है। तब वही वायु हमें लाभदायक सिद्ध होता है। जैसा कि सतसई सप्तक में श्याम सुन्दर दास जी कहते हैं-<blockquote>सबै सहायक सबलके कोउ न निबल सहाय।</blockquote>इस दोहे में कवि कहते हैं कि जो व्यक्ति शक्तिशाली होता है उसी के सहायक अधिकांश लोग होते हैं।इस समय सम्पूर्ण दिनकी थकावट और चिन्ता आदि रात्रिके सोनेसे दूर होकर हमारा मस्तिष्क शुद्ध तथा शान्त एवं नवशक्तियुक्त हो जाता है, और मुखकी कान्ति एवं रक्तिमा चमक जाती है। मन प्रफुल्लित हो उठता है, शरीर निरोग रहता है। यही समय शुद्ध मेधाका होता है। इसी समय मनः-प्रसत्ति होनेसे प्रतिभाका उदय होता है। उत्तम ग्रन्थकार इसी समय ग्रन्थ लिख रहे होते हैं।
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इस समयका वातावरण सात्त्विक शान्त जीवनप्रद और स्वास्थ्यप्रदायक होता है। इसी समय वृक्ष अशुद्ध वायुको आत्मसात् कर लेते हैं और शुद्ध वायु (आक्सिजन गैस) हमें देते हैं। कमल आदि इसी समय खिलते हैं। नदी आदिका जल सम्पूर्ण रात्रिके तारामण्डलके एवं चन्द्रमाके प्रभावको आत्मसात् करके इसी समय उसे व्यक्त करता है। इसके संसर्गसे ही सुरभित और उदय होनेवाले दिनकरके निर्मल किरणों के प्रभावसे पवित्र हुई वायु हमारा आत्मिक एवं मानसिक कल्याण करती है। सूर्य ही समस्त क्रियाओं तथा विद्युत्शक्ति, प्राणशक्ति आदि समस्त शक्तियों का आकर होता है। सभी धातुएँ सभी जीव सब मनुष्य इसीकी शक्तिका अवलम्बन लेते हैं और बहुत सबल रहते हैं। उसके प्रभावसे हमारे मन और बुद्धि आलोकित हो उठते हैं। रात्रिमूलक-तमोगुण और तमोमूलक-जड़ता हट जाती है। यदि इस सुन्दर समयमें भी हम निद्रादेवी में आसक्त रहें तब हम अपनी आयुको स्वयं घटानेवाले सिद्ध हो सकते हैं। क्योंकि निद्रामें तन्मूलक दौर्बल्यवश वह वायु हमें लाभके बदले हानि भी पहुँचा सकती है जैसा कि इस उक्ति में कहा गया है -देवो दुर्बल घातकः।दुर्बल के तो देवता भी सहायक नहीं होते हैं।वैसा करने पर हमारा आलस्य बढ़ जाता है स्फूर्ति नष्ट हो जाती है।उस समय उठ बैठनेसे निद्रामूलक दुर्बलता नष्ट होकर हममें बल उत्पन्न होता है। तब वही वायु हमें लाभदायक सिद्ध होता है। जैसा कि सतसई सप्तक में श्याम सुन्दर दास जी कहते हैं-सबै सहायक सबलके कोउ न निबल सहाय। कवि कहते हैं कि जो व्यक्ति शक्तिशाली होता है उसी के सहायक अधिकांश लोग होते हैं।इस समय सम्पूर्ण दिनकी थकावट और चिन्ता आदि रात्रिके सोनेसे दूर होकर हमारा मस्तिष्क शुद्ध तथा शान्त एवं नवशक्तियुक्त हो जाता है, और मुखकी कान्ति एवं रक्तिमा चमक जाती है। मन प्रफुल्लित हो उठता है, शरीर निरोग रहता है। यही समय शुद्ध मेधाका होता है। इसी समय मनः-प्रसत्ति होनेसे प्रतिभाका उदय होता है। उत्तम ग्रन्थकार इसी समय ग्रन्थ लिख रहे होते हैं।
 
   
===आयुर्वेदीय लाभ===
 
===आयुर्वेदीय लाभ===
 
वैद्यकशास्त्र के समस्त आचार्यों ने उषःपान करने का समय ब्राह्ममुहूर्त माना है । ब्राह्ममुहूर्त में जागरण के अनन्तर उषःपान के आयुर्वेदीय लाभ इस प्रकार हैं-  
 
वैद्यकशास्त्र के समस्त आचार्यों ने उषःपान करने का समय ब्राह्ममुहूर्त माना है । ब्राह्ममुहूर्त में जागरण के अनन्तर उषःपान के आयुर्वेदीय लाभ इस प्रकार हैं-  
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जो मनुष्य आठ अंजलि (लगभग १ गिलास) रात्रि में ताम्र पात्र में रखा पानी पीता है और ऐसा नियमपूर्वक करता है वह जरा-वृद्धत्व को सहज प्राप्त नहीं होकर आरोग्य लाभ प्राप्त करके शतायु होने का गुण लाभ प्राप्त करता है।<ref>निर्णय सागर पंचाग</ref>
 
जो मनुष्य आठ अंजलि (लगभग १ गिलास) रात्रि में ताम्र पात्र में रखा पानी पीता है और ऐसा नियमपूर्वक करता है वह जरा-वृद्धत्व को सहज प्राप्त नहीं होकर आरोग्य लाभ प्राप्त करके शतायु होने का गुण लाभ प्राप्त करता है।<ref>निर्णय सागर पंचाग</ref>
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भाव प्रकाश में स्पष्ट उल्लेख है कि-<blockquote>सवितुरूदयकाले प्रसृतिः सलिलस्य य: पिवेदष्टौ।रोगजरापरिमुक्तो जीवेद्वत्सरशतं साग्रम् ॥</blockquote><blockquote>अम्भसः प्रसृतोरष्टौ सूर्याऽनुदिते पिबेत् । वातपित्तकफान् जित्वा जीवेद्वर्षशतं सुखी॥</blockquote>भावार्थ- यह कि सूर्योदय पूर्व में जल की आठ अंजलि जो मनुष्य पीता है ।वह वृद्धावस्था से मुक्त होकर सौ  वर्ष तक जीता है। सूर्योदय के पूर्व जलपान से वात-पित्त-कफ विकृति दूर होकर शतायु का वरदान प्राप्त होता है।साथ ही उष: पान विधान से बवासीर-कोष्ठबद्धता, कब्ज, शोथ, संग्रहणी, ज्वर, जठर, जरा, कुष्ठ, मेद विकार, मूत्राघात, रक्तपत्ति, कर्णविकार, गलरोग, शिरारोग, कटिशूल, नेत्र रोगों का पलायन होता है।ताम्बे के पात्र में रात में रखा जल सुबह सूर्योदय के पूर्व तुलसी के पत्तों के साथ पीने से सोने में सुहागा इस लोकोक्ति के समान धर्म समझना चाहिये।
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भाव प्रकाश में स्पष्ट उल्लेख है कि-<blockquote>सवितुरूदयकाले प्रसृतिः सलिलस्य य: पिवेदष्टौ।रोगजरापरिमुक्तो जीवेद्वत्सरशतं साग्रम् ॥</blockquote><blockquote>अम्भसः प्रसृतोरष्टौ सूर्याऽनुदिते पिबेत् । वातपित्तकफान् जित्वा जीवेद्वर्षशतं सुखी॥</blockquote>भावार्थ- यह कि सूर्योदय पूर्व में जल की आठ अंजलि जो मनुष्य पीता है ।वह वृद्धावस्था से मुक्त होकर सौ  वर्ष तक जीता है। सूर्योदय के पूर्व जलपान से वात-पित्त-कफ विकृति दूर होकर शतायु का वरदान प्राप्त होता है।साथ ही उष: पान विधान से बवासीर-कोष्ठबद्धता, कब्ज, शोथ, संग्रहणी, ज्वर, जठर, जरा, कुष्ठ, मेद विकार, मूत्राघात, रक्तपत्ति, कर्णविकार, गलरोग, शिरारोग, कटिशूल, नेत्र रोगों का पलायन होता है।ताम्बे के पात्र में रात में रखा जल सुबह सूर्योदय के पूर्व तुलसी के पत्तों के साथ पीने से सोने में सुहागा इस लोकोक्ति के समान धर्म समझना चाहिये।<ref>जीवनचर्या अंक,२०१०,ब्राह्ममुहूर्त में जागरणसे लाभ, डॉ० श्री विद्यानन्द जी,गीताप्रेस गोरखपुर (पृ०२८२)।</ref>
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==== जल नेति ====
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==== नासिका द्वारा जलपान ====
 
ब्राह्ममुहूर्त में नाकसे जल पीनेसे अनेक लाभ होते हैं ।रात्रि का अंधकार दूर होने पर जो मनुष्य प्रात:काल नाक से पानी पीता है उसके नेत्रों के अनेक विकार नष्ट हो जाते हैं ।उसकी बुद्धि सचेष्ट होती एवं स्मरण शक्ति बढती है ।हृदय को बल प्राप्त होता है ।मल मूत्र के रोग मिट जाते हैं और क्षुधाकी वृद्धि होती है तथा विविध रोगों को नष्ट करने की पात्रता प्राप्त होती है।रात्रिपर्यन्त तॉंबेके पात्र में जो जल रखा हो उसको स्वच्छ वस्त्र से छानकर नाकसे पीना अमृतपान के समान है। मूर्छा-पित्त-गरमी-दाह-विष-रक्त विकारमदात्य-परिश्रम, भ्रम, तमकश्वास, वमन और उर्ध्वगत रक्त पित्त इन रोगों में शीतल जल पीना चाहिये। परन्तु पसली के दर्द, जुकाम, वायु विकार, गले के रोग, कब्ज-कोष्ठबद्धता, जुलाब लेने के बाद, नवज्वर, अरूचि, संग्रहणी, गुल्म, खांसी, हिचकी रोग में शीतल जल नहीं पीना चाहिए कुछ  गरम करके जल पीना चाहिये।
 
ब्राह्ममुहूर्त में नाकसे जल पीनेसे अनेक लाभ होते हैं ।रात्रि का अंधकार दूर होने पर जो मनुष्य प्रात:काल नाक से पानी पीता है उसके नेत्रों के अनेक विकार नष्ट हो जाते हैं ।उसकी बुद्धि सचेष्ट होती एवं स्मरण शक्ति बढती है ।हृदय को बल प्राप्त होता है ।मल मूत्र के रोग मिट जाते हैं और क्षुधाकी वृद्धि होती है तथा विविध रोगों को नष्ट करने की पात्रता प्राप्त होती है।रात्रिपर्यन्त तॉंबेके पात्र में जो जल रखा हो उसको स्वच्छ वस्त्र से छानकर नाकसे पीना अमृतपान के समान है। मूर्छा-पित्त-गरमी-दाह-विष-रक्त विकारमदात्य-परिश्रम, भ्रम, तमकश्वास, वमन और उर्ध्वगत रक्त पित्त इन रोगों में शीतल जल पीना चाहिये। परन्तु पसली के दर्द, जुकाम, वायु विकार, गले के रोग, कब्ज-कोष्ठबद्धता, जुलाब लेने के बाद, नवज्वर, अरूचि, संग्रहणी, गुल्म, खांसी, हिचकी रोग में शीतल जल नहीं पीना चाहिए कुछ  गरम करके जल पीना चाहिये।
  
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