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| श्रीमद्भगवद्गीता (८- ४२,४३,४४) में चार वर्णों के गुण और कर्मों का वर्णन आता है। यह वर्ण उन के स्वभाव के अनुसार ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र ऐसे चार प्रकार के होते हैं। चराचर के हित में परिवर्तन करने के लिये यह आवश्यक है कि ब्राह्म-तेज और क्षात्रतेज का ठीक से समायोजन हो। ब्राह्मण वर्ग याने धर्मसत्ता का काम होगा चराचर के हित को ध्यान में रखते हुवे पुनरूत्थान की योजना (स्मृति) की प्रस्तुति करना। और धर्मशास्त्र के जानकार और अनुपालन कर्ता ऐसे क्षात्रतेज का यानी शासक का काम यह होगा कि वह धर्मसत्ता ने प्रस्तुत की हुई योजना को समाज में स्थापित करे। | | श्रीमद्भगवद्गीता (८- ४२,४३,४४) में चार वर्णों के गुण और कर्मों का वर्णन आता है। यह वर्ण उन के स्वभाव के अनुसार ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र ऐसे चार प्रकार के होते हैं। चराचर के हित में परिवर्तन करने के लिये यह आवश्यक है कि ब्राह्म-तेज और क्षात्रतेज का ठीक से समायोजन हो। ब्राह्मण वर्ग याने धर्मसत्ता का काम होगा चराचर के हित को ध्यान में रखते हुवे पुनरूत्थान की योजना (स्मृति) की प्रस्तुति करना। और धर्मशास्त्र के जानकार और अनुपालन कर्ता ऐसे क्षात्रतेज का यानी शासक का काम यह होगा कि वह धर्मसत्ता ने प्रस्तुत की हुई योजना को समाज में स्थापित करे। |
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− | प्रत्यक्ष प्रक्रिया शायद निम्न जैसी होगी: | + | प्रत्यक्ष प्रक्रिया संभवतः निम्न जैसी होगी: |
| # समर्पित, क्षमतावान और समाज तथा धर्म की योग्य समझ रखने वाले धर्माचार्यों के एक गट ने सामूहिक चिंतन के लिए एकत्रित आना। | | # समर्पित, क्षमतावान और समाज तथा धर्म की योग्य समझ रखने वाले धर्माचार्यों के एक गट ने सामूहिक चिंतन के लिए एकत्रित आना। |
| # 'धर्म' इस शब्द को उस के सही अर्थों में सर्व प्रथम सभी धर्माचार्यों, संप्रदायाचार्यों में स्थापित करना। | | # 'धर्म' इस शब्द को उस के सही अर्थों में सर्व प्रथम सभी धर्माचार्यों, संप्रदायाचार्यों में स्थापित करना। |
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| आज कल धार्मिक संविधान को ही “यही भारत की युगानुकूल स्मृति है” ऐसा लोग कहते हैं। इस में अनेकों दोष हैं। फिर इस में परिवर्तन कि प्रक्रिया जिन लोक-प्रतिनिधियों के अधिकार में चलती है, उन की विद्वत्ता और उन के धर्मशास्त्र के ज्ञान और आचरण के संबंध में न बोलना ही अच्छा है, ऐसी स्थिति है। इसलिये वर्तमान संविधान को ही वर्तमान भारत की स्मृति मान लेना ठीक नहीं है। | | आज कल धार्मिक संविधान को ही “यही भारत की युगानुकूल स्मृति है” ऐसा लोग कहते हैं। इस में अनेकों दोष हैं। फिर इस में परिवर्तन कि प्रक्रिया जिन लोक-प्रतिनिधियों के अधिकार में चलती है, उन की विद्वत्ता और उन के धर्मशास्त्र के ज्ञान और आचरण के संबंध में न बोलना ही अच्छा है, ऐसी स्थिति है। इसलिये वर्तमान संविधान को ही वर्तमान भारत की स्मृति मान लेना ठीक नहीं है। |
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− | गत दस ग्यारह पीढियों से हम इस अधार्मिक (अधार्मिक) प्रतिमान में जी रहे हैं। इस प्रतिमान के अनुसार सोचने और जीने के आदि बन गये हैं। इस लिये यह परिवर्तन संभव नहीं है ऐसा लगना स्वाभाविक ही है। किन्तु हमें यह समझना होगा कि इस प्रतिमान को भारत पर सत्ता के बल पर लादने के लिये भी अंग्रेजों को १२५-१५० वर्ष तो लगे ही थे। हजारों लाखों वर्षों से चले आ रहे धार्मिक प्रतिमान को वे केवल १५० वर्षों में बदल सके। फिर हमारे हजारों वर्षों से चले आ रहे जीवन के प्रतिमान को जो मुष्किल से १५० वर्षों के लिये खण्डित हो गया था, फिर से मूल स्थिति की दिशा में लाना ५०-६० वर्षों में असंभव नहीं है। शायद इस से भी कम समय में यह संभव हो सकेगा। किन्तु उस के लिये भगीरथ प्रयास करने होंगे। वैसे तो समाज भी ऐसे परिवर्तन की आस लगाये बैठा है। लेकिन क्या प्रबुध्द हिन्दू इस के लिये तैयार है? | + | गत दस ग्यारह पीढियों से हम इस अधार्मिक (अधार्मिक) प्रतिमान में जी रहे हैं। इस प्रतिमान के अनुसार सोचने और जीने के आदि बन गये हैं। इस लिये यह परिवर्तन संभव नहीं है ऐसा लगना स्वाभाविक ही है। किन्तु हमें यह समझना होगा कि इस प्रतिमान को भारत पर सत्ता के बल पर लादने के लिये भी अंग्रेजों को १२५-१५० वर्ष तो लगे ही थे। हजारों लाखों वर्षों से चले आ रहे धार्मिक प्रतिमान को वे केवल १५० वर्षों में बदल सके। फिर हमारे हजारों वर्षों से चले आ रहे जीवन के प्रतिमान को जो मुष्किल से १५० वर्षों के लिये खण्डित हो गया था, फिर से मूल स्थिति की दिशा में लाना ५०-६० वर्षों में असंभव नहीं है। संभवतः इस से भी कम समय में यह संभव हो सकेगा। किन्तु उस के लिये भगीरथ प्रयास करने होंगे। वैसे तो समाज भी ऐसे परिवर्तन की आस लगाये बैठा है। लेकिन क्या प्रबुध्द हिन्दू इस के लिये तैयार है? |
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