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# पितृदेवो भव - अपने पिता और पितर जिसे देवतास्वरूप है एैसे बनो। अर्थात् उनकी सेवा करते  रहो।  
 
# पितृदेवो भव - अपने पिता और पितर जिसे देवतास्वरूप है एैसे बनो। अर्थात् उनकी सेवा करते  रहो।  
 
# आचार्यदेवो भव - आचार्य मे देवत्व देखनेवाले बनो। आचार्य का कोई काम ना रुकने पावे, कोई इच्छा अधूरी ना रहे इस के लिये पूर्ण शक्ति के साथ प्रयत्न करते रहो। जिस से आचार्य का ज्ञानदान का काम निर्बाध चले और जीवनयापन सुख से चले।  
 
# आचार्यदेवो भव - आचार्य मे देवत्व देखनेवाले बनो। आचार्य का कोई काम ना रुकने पावे, कोई इच्छा अधूरी ना रहे इस के लिये पूर्ण शक्ति के साथ प्रयत्न करते रहो। जिस से आचार्य का ज्ञानदान का काम निर्बाध चले और जीवनयापन सुख से चले।  
# अतिथि देवो भव - पूर्व सूचना देकर आनेवाले का स्वागत तो हम करते ही है। किन्तु उसे अतिथि नही कहते। अतिथि का अर्थ है बगैर सूचना के अचानक घर मे आनेवाला अतिथि। ऐसे अतिथि के कारण शायद हमारे लिये असुविधा भी निर्माण होती होगी। तथापि एैसे हर अतिथि का स्वागत प्रसन्न मुख से, आसन और पानी देकर मधुर वाणी से करें। आसन ऐसा हो, जो अतिथि के श्रम का परिहार करे।  
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# अतिथि देवो भव - पूर्व सूचना देकर आनेवाले का स्वागत तो हम करते ही है। किन्तु उसे अतिथि नही कहते। अतिथि का अर्थ है बगैर सूचना के अचानक घर मे आनेवाला अतिथि। ऐसे अतिथि के कारण संभवतः हमारे लिये असुविधा भी निर्माण होती होगी। तथापि एैसे हर अतिथि का स्वागत प्रसन्न मुख से, आसन और पानी देकर मधुर वाणी से करें। आसन ऐसा हो, जो अतिथि के श्रम का परिहार करे।  
 
# यान्यनवद्यानि कर्माणि। तानि सेवितव्यानि। नो इतराणि। -  केवल अनिंद्य कर्म ही करें। जिन कर्मों के कारण हमारी समाज में निंदा न हो एैसे काम करें। अन्य अर्थात् जिनके कारण हमारी निंदा हो एैसे काम ना करें।  
 
# यान्यनवद्यानि कर्माणि। तानि सेवितव्यानि। नो इतराणि। -  केवल अनिंद्य कर्म ही करें। जिन कर्मों के कारण हमारी समाज में निंदा न हो एैसे काम करें। अन्य अर्थात् जिनके कारण हमारी निंदा हो एैसे काम ना करें।  
 
# यान्यस्माकं सुचरितानि। तानि त्वयोपास्यानि -  जिन गुरुजनों का आचरण शुभ है अर्थात् सर्वहितकारी है उन्ही की तुझे उपासना करनी चाहिये। दूसरे प्रकार के, चराचर के हित में ना होनेवाले कर्म करनेवालों की उपासना ना करें। अर्थात् मेरा आचरण भी यदि तुझे चराचर के हित की दृष्टि से अयोग्य लगे, तो मेरा भी अनुकरण ना करना।  
 
# यान्यस्माकं सुचरितानि। तानि त्वयोपास्यानि -  जिन गुरुजनों का आचरण शुभ है अर्थात् सर्वहितकारी है उन्ही की तुझे उपासना करनी चाहिये। दूसरे प्रकार के, चराचर के हित में ना होनेवाले कर्म करनेवालों की उपासना ना करें। अर्थात् मेरा आचरण भी यदि तुझे चराचर के हित की दृष्टि से अयोग्य लगे, तो मेरा भी अनुकरण ना करना।  
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अंत में गुरू शिष्य से कहते है - यह मेरा आदेश है। यही वेदों और उपनिषदों का कहना है। यही परमात्मा की इच्छा और आज्ञा है। तुझे एैसा ही आचरण करना चाहिये।  
 
अंत में गुरू शिष्य से कहते है - यह मेरा आदेश है। यही वेदों और उपनिषदों का कहना है। यही परमात्मा की इच्छा और आज्ञा है। तुझे एैसा ही आचरण करना चाहिये।  
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उपरोक्त दायित्वों का विचार करते है तो ध्यान मे आता है की बहुत विचारपूर्वक यह कर्तव्य बताये गये है। यह त्रिकालाबाधित तो है लेकिन इन के अलावा भी युगानुकूल कुछ दायित्व होते है। जैसे किसी समय भारतवर्ष में जनसंख्या बढाने की आवश्यकता थी। तब आशिर्वाद भी दस बच्चोंं का दिया जाता था। यह आशिर्वाद व्यवहार में भी लाया जाता था। पृथ्वि के संसाधन घटे और जनसंख्या बढी तो आशिर्वाद अष्टपुत्र सौभाग्यवती भव हो गया। व्यवहार भी आशिर्वाद के अनुरूप होने लगा। आज के युग की दृष्टि से समाज का सातत्य और सामथ्र्य बना रहने के लिये आवश्यक संतानें शायद वह आठ से कम हों, निर्माण करने का दायित्व गृहस्थ को निभाना चाहिये। पूर्व काल में युद्ध बहुत हुवा करते थे। युद्धों में पुरूष मरते थे। समाज की सुरक्षा की दृष्टि से पुरूषों की संख्या अधिक रहना समाज की आवश्यकता थी।  आज स्थिती बदल गयी है इसलिये संतान निर्माण में आशिर्वाद और व्यवहार दोनों में स्त्री पुरुष की दृष्टि से अंतर ना करना यह गृहस्थ का दायित्व है। राष्ट्र के प्रति स्वतंत्र मार्गदर्शन उपरोक्त दायित्वसूचि मे नही है। मनुस्मृति में बताये अनुसार सेनापति का काम, राज्य-शासन का काम, और न्यायदान का काम और संपूर्ण प्रजापर अधिकार करने का काम वेदरूपि शास्त्र जाननेवाला गृहस्थ ( स्त्री-पुरुष ) ही कर सकता है। एैसे स्त्री-पुरुषों के हाथ में राष्ट्र की धुरा साैपने का काम भी प्रनुख रूप से गृहस्थ ( स्त्री-पुरुष ) का है।   
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उपरोक्त दायित्वों का विचार करते है तो ध्यान मे आता है की बहुत विचारपूर्वक यह कर्तव्य बताये गये है। यह त्रिकालाबाधित तो है लेकिन इन के अलावा भी युगानुकूल कुछ दायित्व होते है। जैसे किसी समय भारतवर्ष में जनसंख्या बढाने की आवश्यकता थी। तब आशिर्वाद भी दस बच्चोंं का दिया जाता था। यह आशिर्वाद व्यवहार में भी लाया जाता था। पृथ्वि के संसाधन घटे और जनसंख्या बढी तो आशिर्वाद अष्टपुत्र सौभाग्यवती भव हो गया। व्यवहार भी आशिर्वाद के अनुरूप होने लगा। आज के युग की दृष्टि से समाज का सातत्य और सामथ्र्य बना रहने के लिये आवश्यक संतानें संभवतः वह आठ से कम हों, निर्माण करने का दायित्व गृहस्थ को निभाना चाहिये। पूर्व काल में युद्ध बहुत हुवा करते थे। युद्धों में पुरूष मरते थे। समाज की सुरक्षा की दृष्टि से पुरूषों की संख्या अधिक रहना समाज की आवश्यकता थी।  आज स्थिती बदल गयी है इसलिये संतान निर्माण में आशिर्वाद और व्यवहार दोनों में स्त्री पुरुष की दृष्टि से अंतर ना करना यह गृहस्थ का दायित्व है। राष्ट्र के प्रति स्वतंत्र मार्गदर्शन उपरोक्त दायित्वसूचि मे नही है। मनुस्मृति में बताये अनुसार सेनापति का काम, राज्य-शासन का काम, और न्यायदान का काम और संपूर्ण प्रजापर अधिकार करने का काम वेदरूपि शास्त्र जाननेवाला गृहस्थ ( स्त्री-पुरुष ) ही कर सकता है। एैसे स्त्री-पुरुषों के हाथ में राष्ट्र की धुरा साैपने का काम भी प्रनुख रूप से गृहस्थ ( स्त्री-पुरुष ) का है।   
    
इसलिये उपरोक्त 20 दायित्वों के साथ समायोजित कर वर्तमान युग के अनुसार गृहस्थ (स्त्री-पुरुष) के दायित्व फिर से शब्दबद्ध करने  होंगे। वर्तमान से सुसंगत इन सभी दायित्वों का संक्षेप में अब हम विचार करेंगे।  
 
इसलिये उपरोक्त 20 दायित्वों के साथ समायोजित कर वर्तमान युग के अनुसार गृहस्थ (स्त्री-पुरुष) के दायित्व फिर से शब्दबद्ध करने  होंगे। वर्तमान से सुसंगत इन सभी दायित्वों का संक्षेप में अब हम विचार करेंगे।  

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