प्रयत्नपूर्वक प्राप्त की हुई विद्या शिष्य के लिए 'तेजस्वी' होनी चाहिए । तेजस्वी शब्द से अनेक बातें ध्यान में आती हैं । शिष्य के मन की शंकाओं के जाले पूर्णतया साफ होकर, मलिनता दूर किये हुए शुद्ध स्वर्ण की भाँति शिष्य का अध्ययन तेजस्वी बनना चाहिए । सीखे हुए विषय पर प्रभुत्व प्राप्त होने से शिष्य उस विषय का अधिकारी माना जाना चाहिए । जिस विषय की विद्या, जैसे शस्त्रविद्या, वास्तुविद्या आदि जो भी उसने प्राप्त की है उसका व्यवहार में प्रयोग करना आना चाहिए। अर्थात् शिष्य मात्र पाठक ही बने यह अपेक्षित नहीं है । विद्या जब उसके व्यवहार में उतरेगी तभी उसका अध्ययन 'तेजस्वी' बनकर प्रकाश फैला रहा है ऐसा कहा जायेगा । इस तरह शिष्य का अध्ययन तेजस्वी बनना चाहिए । इस सम्बन्ध में एक शंका उत्पन्न होती है कि गुरु का अध्ययन भी तेजस्वी बनना चाहिए ऐसा क्यों कहा है ? इसका उत्तर यह है कि गुरु भले ही शिक्षा देने वाला है फिर भी उसका अध्ययन तो आजन्म चलता ही रहता है । गुरु जो विषय सिखाता है उसमें निरन्तर वृद्धि होनी चाहिए, जो भी नया साहित्य प्रकाशित हुआ है उन सबका ज्ञान गुरु को होना चाहिए । उसी प्रकार पढ़ाते समय भी उसका ज्ञान मर्मग्राही और गंभीर होना चाहिए । इस बात को ध्यान में रखकर विचार करते हैं तो गुरु का अध्ययन भी तेजस्वी बनना चाहिए यह कथन सर्वथा उचित प्रतीत होता है । अतः शांतिमंत्र के चौथे वाक्य में हम दोनों का अध्ययन तेजस्वी बने' ऐसी प्रार्थना की गई है ।
+
प्रयत्नपूर्वक प्राप्त की हुई विद्या शिष्य के लिए 'तेजस्वी' होनी चाहिए । तेजस्वी शब्द से अनेक बातें ध्यान में आती हैं । शिष्य के मन की शंकाओं के जाले पूर्णतया साफ होकर, मलिनता दूर किये हुए शुद्ध स्वर्ण की भाँति शिष्य का अध्ययन तेजस्वी बनना चाहिए । सीखे हुए विषय पर प्रभुत्व प्राप्त होने से शिष्य उस विषय का अधिकारी माना जाना चाहिए । जिस विषय की विद्या, जैसे शस्त्रविद्या, वास्तुविद्या आदि जो भी उसने प्राप्त की है उसका व्यवहार में प्रयोग करना आना चाहिए। अर्थात् शिष्य मात्र पाठक ही बने यह अपेक्षित नहीं है । विद्या जब उसके व्यवहार में उतरेगी तभी उसका अध्ययन 'तेजस्वी' बनकर प्रकाश फैला रहा है ऐसा कहा जायेगा । इस तरह शिष्य का अध्ययन तेजस्वी बनना चाहिए । इस सम्बन्ध में एक शंका उत्पन्न होती है कि गुरु का अध्ययन भी तेजस्वी बनना चाहिए ऐसा क्यों कहा है ? इसका उत्तर यह है कि गुरु भले ही शिक्षा देने वाला है तथापि उसका अध्ययन तो आजन्म चलता ही रहता है । गुरु जो विषय सिखाता है उसमें निरन्तर वृद्धि होनी चाहिए, जो भी नया साहित्य प्रकाशित हुआ है उन सबका ज्ञान गुरु को होना चाहिए । उसी प्रकार पढ़ाते समय भी उसका ज्ञान मर्मग्राही और गंभीर होना चाहिए । इस बात को ध्यान में रखकर विचार करते हैं तो गुरु का अध्ययन भी तेजस्वी बनना चाहिए यह कथन सर्वथा उचित प्रतीत होता है । अतः शांतिमंत्र के चौथे वाक्य में हम दोनों का अध्ययन तेजस्वी बने' ऐसी प्रार्थना की गई है ।