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| # अविश्वास पाश्चात्य जीवन, शासन व्यवस्था और न्याय व्यवस्था का आधारबिन्दू है। निरर्थकता भी इसमें समाहित है। पुलिस कहती है - हमारी दृष्टि में हर व्यक्ति अपराधी हो सकता है, कोई अपराधी है या नहीं यह देखना हमारा काम नहीं है। यह बात न्यायालय तय करेगा। और न्यायालय में इससे उलट कहा जाता है। न्यायालय में वैसे तो यह कहा जाता है कि हर मनुष्य जब तक कि उस का अपराध सिद्ध नहीं हो जाता वह निरपराध ही माना जाना चाहिये। किन्तु व्यवहार भिन्न है। हर व्यक्ति को कटघरे में खडे होने पर पहले अपने सच बोलने की भगवान की सौगंध लेकर दुहाई देनी पडती है। यह उस व्यक्ति पर अविश्वास बताने जैसा ही है। वास्तव में जिनका भगवान पर विश्वास है वे झूठ नहीं बोलते। बोल ही नहीं सकते। उन के लिये भगवान की सौगंध लेना निरर्थक है। जिनका भगवान पर विश्वास नहीं है वे कितनी भी भगवान की सौगंध खाए उन्हे झूठ बोलने से कोई रोक नहीं सकता। अर्थात उन के लिये भी भगवान की सौगंध खाना निरर्थक बात ही होती है। धार्मिक न्याय व्यवस्था में ऐसे अविश्वास के लिये या निरर्थक बातों के लिये कोई स्थान नहीं है। मनुष्य झूठ बोलने वाला है या नहीं यह जानने की शक्ति न्यायाधीश में होनी चाहिये। वह झूठ बोल रहा है यह निरीक्षण, परिक्षण और तहकीकात के आधारपर प्रस्थापित करने की कुशलता न्यायाधीश में होनी चाहिये । यह धार्मिक न्यायतंत्र में वांछित है। | | # अविश्वास पाश्चात्य जीवन, शासन व्यवस्था और न्याय व्यवस्था का आधारबिन्दू है। निरर्थकता भी इसमें समाहित है। पुलिस कहती है - हमारी दृष्टि में हर व्यक्ति अपराधी हो सकता है, कोई अपराधी है या नहीं यह देखना हमारा काम नहीं है। यह बात न्यायालय तय करेगा। और न्यायालय में इससे उलट कहा जाता है। न्यायालय में वैसे तो यह कहा जाता है कि हर मनुष्य जब तक कि उस का अपराध सिद्ध नहीं हो जाता वह निरपराध ही माना जाना चाहिये। किन्तु व्यवहार भिन्न है। हर व्यक्ति को कटघरे में खडे होने पर पहले अपने सच बोलने की भगवान की सौगंध लेकर दुहाई देनी पडती है। यह उस व्यक्ति पर अविश्वास बताने जैसा ही है। वास्तव में जिनका भगवान पर विश्वास है वे झूठ नहीं बोलते। बोल ही नहीं सकते। उन के लिये भगवान की सौगंध लेना निरर्थक है। जिनका भगवान पर विश्वास नहीं है वे कितनी भी भगवान की सौगंध खाए उन्हे झूठ बोलने से कोई रोक नहीं सकता। अर्थात उन के लिये भी भगवान की सौगंध खाना निरर्थक बात ही होती है। धार्मिक न्याय व्यवस्था में ऐसे अविश्वास के लिये या निरर्थक बातों के लिये कोई स्थान नहीं है। मनुष्य झूठ बोलने वाला है या नहीं यह जानने की शक्ति न्यायाधीश में होनी चाहिये। वह झूठ बोल रहा है यह निरीक्षण, परिक्षण और तहकीकात के आधारपर प्रस्थापित करने की कुशलता न्यायाधीश में होनी चाहिये । यह धार्मिक न्यायतंत्र में वांछित है। |
| # पाश्चात्य शासनतंत्र में और न्यायतंत्र में जिस व्यक्तिपर न्याय की जिम्मेदारी है जिस के हाथों में न्याय व्यवस्था है उस के द्वारा किये अन्याय के लिये कोई उपाय नहीं है। नीचे की अदालत में यदि गलत न्याय दिया गया हो तो ऊपर की अदालत उसे बदल तो सकती है । किन्तु नीचे की अदालत के न्यायाधीश और वकीलों को दण्डित नहीं कर सकती। पुलिस किसी निरपराध को पकड़ लेती है । उसे पीडा देती है। उस के जीवन के कुछ महत्वपूर्ण काल का हरण कर लेती है। किन्तु उस के निरपराध सिद्ध होने पर उस निरपराध को कोई मुआवजा नहीं दिया जाता। और ना ही उस पुलिस अधिकारी को अपने कर्तव्य को ठीक से न निभाने के लिये दण्डित किया जाता है। धार्मिक शासन व्यवस्था और न्यायव्यवस्था में किसी अधिकारी फिर वह न्यायाधीश हो चाहे शासकीय अधिकारी, उस के दायरे में अपराध होने से वह अधिकारी अपराधी माना जाता था। किसी अधिकारी के क्षेत्र में आने वाले किसी के घर में चोरी हुए माल को वह अधिकारी यदि ढूँढने में असफल हो जाता था तो जिसका नुकसान हुआ है उस की नुकसान भरपाई उस अधिकारी को करनी पडती थी। | | # पाश्चात्य शासनतंत्र में और न्यायतंत्र में जिस व्यक्तिपर न्याय की जिम्मेदारी है जिस के हाथों में न्याय व्यवस्था है उस के द्वारा किये अन्याय के लिये कोई उपाय नहीं है। नीचे की अदालत में यदि गलत न्याय दिया गया हो तो ऊपर की अदालत उसे बदल तो सकती है । किन्तु नीचे की अदालत के न्यायाधीश और वकीलों को दण्डित नहीं कर सकती। पुलिस किसी निरपराध को पकड़ लेती है । उसे पीडा देती है। उस के जीवन के कुछ महत्वपूर्ण काल का हरण कर लेती है। किन्तु उस के निरपराध सिद्ध होने पर उस निरपराध को कोई मुआवजा नहीं दिया जाता। और ना ही उस पुलिस अधिकारी को अपने कर्तव्य को ठीक से न निभाने के लिये दण्डित किया जाता है। धार्मिक शासन व्यवस्था और न्यायव्यवस्था में किसी अधिकारी फिर वह न्यायाधीश हो चाहे शासकीय अधिकारी, उस के दायरे में अपराध होने से वह अधिकारी अपराधी माना जाता था। किसी अधिकारी के क्षेत्र में आने वाले किसी के घर में चोरी हुए माल को वह अधिकारी यदि ढूँढने में असफल हो जाता था तो जिसका नुकसान हुआ है उस की नुकसान भरपाई उस अधिकारी को करनी पडती थी। |
− | # पाश्चात्य न्यायतंत्र में प्रत्यक्ष घटनास्थल से दूरी को कोई महत्व नहीं है। तहसील के न्यायालय में से आगे जाकर तहसील के न्याय में कई बार परिवर्तन हो जाता है। इस में दो ही बातें हो सकती है। या तो तहसील का न्यायाधीश अयोग्य है या फिर ऊपर के न्यायालय का न्यायाधीश अयोग्य है। तहसील से ऊपर के न्यायालय में न्याय की सम्भावनाएँ कम ही होती जाती हैं। न्यायदान का केन्द्र घटना स्थल के जितना पास में होगा न्यायदान उतना ही अधिक अचूक होने की सम्भावनाएँ होती हैं। न्यायदान का केन्द्र जितना दूर उतनी अन्याय की सम्भावनाएँ अधिक होती है। फिर भी पाश्चात्य न्यायतंत्र में छोटे तहसील न्यायालय से आगे बढकर सर्वोच्च न्यायालय में सैंकड़ों मुकदमे जाते है। यह न्याय व्यवस्था की अव्यवस्था का लक्षण नहीं है तो और क्या है? धार्मिक न्याय व्यवस्था में गाँव के पंचों का निर्णय अंतिम माना जाता था। अपवाद स्वरूप ही कोई मुकदमा राजा के स्तर पर आगे जाता था। न्याय मिलने की सम्भावनाएँ गाँव के पंचों के न्याय में जितनी अधिक होंगी उतनी अन्य किसी भी स्तर पर नहीं हो सकती थीं। क्योंकि गाँव के पंच गाँव के हर व्यक्ति को अंदर बाहर से जाननेवाले होते है। उन के हाथों अन्याय होने की सम्भावनाएँ सामान्यत: हैं ही नहीं और हुई तो अपवाद स्वरूप ही हो सकती है। यह सामान्य ज्ञान की बात है। | + | # पाश्चात्य न्यायतंत्र में प्रत्यक्ष घटनास्थल से दूरी को कोई महत्व नहीं है। तहसील के न्यायालय में से आगे जाकर तहसील के न्याय में कई बार परिवर्तन हो जाता है। इस में दो ही बातें हो सकती है। या तो तहसील का न्यायाधीश अयोग्य है या फिर ऊपर के न्यायालय का न्यायाधीश अयोग्य है। तहसील से ऊपर के न्यायालय में न्याय की सम्भावनाएँ कम ही होती जाती हैं। न्यायदान का केन्द्र घटना स्थल के जितना पास में होगा न्यायदान उतना ही अधिक अचूक होने की सम्भावनाएँ होती हैं। न्यायदान का केन्द्र जितना दूर उतनी अन्याय की सम्भावनाएँ अधिक होती है। तथापि पाश्चात्य न्यायतंत्र में छोटे तहसील न्यायालय से आगे बढकर सर्वोच्च न्यायालय में सैंकड़ों मुकदमे जाते है। यह न्याय व्यवस्था की अव्यवस्था का लक्षण नहीं है तो और क्या है? धार्मिक न्याय व्यवस्था में गाँव के पंचों का निर्णय अंतिम माना जाता था। अपवाद स्वरूप ही कोई मुकदमा राजा के स्तर पर आगे जाता था। न्याय मिलने की सम्भावनाएँ गाँव के पंचों के न्याय में जितनी अधिक होंगी उतनी अन्य किसी भी स्तर पर नहीं हो सकती थीं। क्योंकि गाँव के पंच गाँव के हर व्यक्ति को अंदर बाहर से जाननेवाले होते है। उन के हाथों अन्याय होने की सम्भावनाएँ सामान्यत: हैं ही नहीं और हुई तो अपवाद स्वरूप ही हो सकती है। यह सामान्य ज्ञान की बात है। |
| # पाश्चात्य कानून के अनुसार अपराध और दण्ड का समीकरण है। इस में मनुष्य की वृत्तियो को, स्वभाव को कोई स्थान नहीं है। अर्थात् अंग्रेजी न्यायतंत्र में न्याय को ऑब्जेक्टिव्ह याने व्यक्तिनिरपेक्ष माना जाता है। सब्जेक्टिव्ह अर्थात् व्यक्तिसापेक्ष नहीं माना जाता। एक विशिष्ट अपराध के लिये कानून द्वारा निर्धारित दण्ड सबके लिये समान होगा। व्यक्ति सदाचारी है और अनजाने में उस से अपराध हो गया है, इस से न्यायतंत्र को कोई लेनादेना नहीं होता। वर्तमान समाज में बढते अपराधीकरण का यह भी एक प्रमुख कारण है। सम्राट विक्रम के सभा की एक न्यायकथा का वर्णन चीनी प्रवासी ने किया है। यह कथा धार्मिक न्यायदृष्टि के इस व्यक्तिसापेक्षता के महत्व को अधोरेखित करनेवाली है। कथा ऐसी है - विक्रम के सभा में एक मुकदमा आया। चार अपराधी थे। अपराध सिद्ध हो गया था। अपराध सब ने मान्य कर लिया था। चारों की पार्श्वभूमि विक्रम के गुप्तचरों ने पहले ही एकत्रित की थी। विक्रम ने न्याय दिया। एक को तो केवल इतना कहा कि तुम जिस कुटुम्ब के हो उसे यह शोभा नहीं देता। उसे बस इतना ही कहकर छोड दिया गया। दूसरे को थोडी अधिक कठोरता से उलाहना देकर छोड दिया गया। तीसरे को हंटर से पाँच बार मारकर छोड दिया गया। चौथे की गधे पर बिठाकर शहर में अशोभायात्रा निकालने की आज्ञा दी गई। चीनी प्रवासी आश्चर्य में पड गया कि यह कैसा न्याय है? उसने विक्रम से इस का कारण जानना चाहा। विक्रम ने उसे कहा, मेरे साथ चलो। दोनों वेश बदलकर निकल पड़े। पहले अपराधी के घर गये। देखा! वहाँ मातम मनाया जा रहा है। जिस युवक ने अपराध किया था उसने गले में फाँस लगाकर आत्महत्या कर ली है। दूसरे के घर गये तो जानकारी मिली कि वह युवक शर्म के मारे घर छोडकर चला गया है। तीसरे के घर गये तो पता चला कि वह युवक आया है तब से उसने अपने को एक कमरे में बन्द कर लिया है। किसी को मूंह नहीं दिखा रहा है। चौथे को देखने गये तो पता चला कि उसकी अशोभा-यात्रा जब शहर में उस युवक के घर के सामने से निकली तब उसने चिल्लाकर अपनी माँ से कहा 'अभी थोडी देर में मैं घर आ रहा हूं। बहुत भूख लगी होगी। जरा कुछ अच्छा सा खाना बनाना' । यह एक ऐतिहासिक सत्यकथा है। इस से धार्मिक न्यायदृष्टि का व्यक्ति-सापेक्षता का सिद्धात समझ में आता है। | | # पाश्चात्य कानून के अनुसार अपराध और दण्ड का समीकरण है। इस में मनुष्य की वृत्तियो को, स्वभाव को कोई स्थान नहीं है। अर्थात् अंग्रेजी न्यायतंत्र में न्याय को ऑब्जेक्टिव्ह याने व्यक्तिनिरपेक्ष माना जाता है। सब्जेक्टिव्ह अर्थात् व्यक्तिसापेक्ष नहीं माना जाता। एक विशिष्ट अपराध के लिये कानून द्वारा निर्धारित दण्ड सबके लिये समान होगा। व्यक्ति सदाचारी है और अनजाने में उस से अपराध हो गया है, इस से न्यायतंत्र को कोई लेनादेना नहीं होता। वर्तमान समाज में बढते अपराधीकरण का यह भी एक प्रमुख कारण है। सम्राट विक्रम के सभा की एक न्यायकथा का वर्णन चीनी प्रवासी ने किया है। यह कथा धार्मिक न्यायदृष्टि के इस व्यक्तिसापेक्षता के महत्व को अधोरेखित करनेवाली है। कथा ऐसी है - विक्रम के सभा में एक मुकदमा आया। चार अपराधी थे। अपराध सिद्ध हो गया था। अपराध सब ने मान्य कर लिया था। चारों की पार्श्वभूमि विक्रम के गुप्तचरों ने पहले ही एकत्रित की थी। विक्रम ने न्याय दिया। एक को तो केवल इतना कहा कि तुम जिस कुटुम्ब के हो उसे यह शोभा नहीं देता। उसे बस इतना ही कहकर छोड दिया गया। दूसरे को थोडी अधिक कठोरता से उलाहना देकर छोड दिया गया। तीसरे को हंटर से पाँच बार मारकर छोड दिया गया। चौथे की गधे पर बिठाकर शहर में अशोभायात्रा निकालने की आज्ञा दी गई। चीनी प्रवासी आश्चर्य में पड गया कि यह कैसा न्याय है? उसने विक्रम से इस का कारण जानना चाहा। विक्रम ने उसे कहा, मेरे साथ चलो। दोनों वेश बदलकर निकल पड़े। पहले अपराधी के घर गये। देखा! वहाँ मातम मनाया जा रहा है। जिस युवक ने अपराध किया था उसने गले में फाँस लगाकर आत्महत्या कर ली है। दूसरे के घर गये तो जानकारी मिली कि वह युवक शर्म के मारे घर छोडकर चला गया है। तीसरे के घर गये तो पता चला कि वह युवक आया है तब से उसने अपने को एक कमरे में बन्द कर लिया है। किसी को मूंह नहीं दिखा रहा है। चौथे को देखने गये तो पता चला कि उसकी अशोभा-यात्रा जब शहर में उस युवक के घर के सामने से निकली तब उसने चिल्लाकर अपनी माँ से कहा 'अभी थोडी देर में मैं घर आ रहा हूं। बहुत भूख लगी होगी। जरा कुछ अच्छा सा खाना बनाना' । यह एक ऐतिहासिक सत्यकथा है। इस से धार्मिक न्यायदृष्टि का व्यक्ति-सापेक्षता का सिद्धात समझ में आता है। |
| # पाश्चात्य कानून व्यवस्था में शासन सर्वोपरि होने से सर्वोच्च अधिकार संसद को होते है। संसद के सदस्य बनने के लिये कानून का विशेषज्ञ होना आवश्यक नहीं है। पाश्चात्य व्यवस्था में कानून से अनभिज्ञ लोग न्याय क्या है और अन्याय क्या है यह तय करते है। लोकतंत्र में तो यह स्थिति और भी बिगड जाती है। संसद के निर्णय बहुमत से होते है। विद्वानों का समाज में कभी भी बहुमत नहीं होता। जब सामान्य लोग जिन्हें न्याय और न्यायतंत्र की ठीक से जानकारी नहीं हैं, न्यायतंत्र को नियंत्रित करने लगेंगे तो न्याय नहीं होगा यह छोटा बच्चा भी बता सकता है। लोकतंत्र व्यवस्था में न्यायतंत्र में भी मतपेटी की राजनीति चलती है। इस राजनीति के चलते समाज का बलशाली गुट दुर्बल गुट पर हावी हो जाता है। कानून बलशाली गुट के हित में झुक जाता है। सरकारी नौकरियों में आरक्षण के विषय में यही हो रहा है। जिनका उपद्रव मूल्य अधिक है उन के हित में कानून झुक जाता है । धार्मिक न्यायप्रणाली में न्यायतंत्र शासक के अधीन नहीं होता था। धर्मसभा और न्यायसभा के विद्वान न्यायतंत्र का और कानून का स्वरूप तय करते थे। | | # पाश्चात्य कानून व्यवस्था में शासन सर्वोपरि होने से सर्वोच्च अधिकार संसद को होते है। संसद के सदस्य बनने के लिये कानून का विशेषज्ञ होना आवश्यक नहीं है। पाश्चात्य व्यवस्था में कानून से अनभिज्ञ लोग न्याय क्या है और अन्याय क्या है यह तय करते है। लोकतंत्र में तो यह स्थिति और भी बिगड जाती है। संसद के निर्णय बहुमत से होते है। विद्वानों का समाज में कभी भी बहुमत नहीं होता। जब सामान्य लोग जिन्हें न्याय और न्यायतंत्र की ठीक से जानकारी नहीं हैं, न्यायतंत्र को नियंत्रित करने लगेंगे तो न्याय नहीं होगा यह छोटा बच्चा भी बता सकता है। लोकतंत्र व्यवस्था में न्यायतंत्र में भी मतपेटी की राजनीति चलती है। इस राजनीति के चलते समाज का बलशाली गुट दुर्बल गुट पर हावी हो जाता है। कानून बलशाली गुट के हित में झुक जाता है। सरकारी नौकरियों में आरक्षण के विषय में यही हो रहा है। जिनका उपद्रव मूल्य अधिक है उन के हित में कानून झुक जाता है । धार्मिक न्यायप्रणाली में न्यायतंत्र शासक के अधीन नहीं होता था। धर्मसभा और न्यायसभा के विद्वान न्यायतंत्र का और कानून का स्वरूप तय करते थे। |