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== अधिकार नही कर्तव्य निभाना ==
 
== अधिकार नही कर्तव्य निभाना ==
मनुष्य जीवन की अन्य अवस्थाओं की तुलना में वृद्धावस्था सबसे अंतिम एवं दीर्घ अवस्था है<ref>सच्चिदानन्द फडके, ७५ वर्ष, नासिक, सामाजिक कार्यकर्ता</ref>। "आजीवन शिक्षा" - यह भारतीय शिक्षा का सूत्र सामने रखते हुए वृद्धावस्था का इस दृष्टि से विचार करना चाहिए । वृद्धावस्था परिपक्वअवस्था है फिर भी यहाँ बहुत सी बाते सीखने का अवसर प्राप्त होता है। जीवन में मानअपमान, हारजीत, हर्षशोक, मानसम्मान आदि द्वंद्वों का तथा मोह, मद, क्रोध, आसक्ति जैसे दुर्गुणों का सामना होता रहता है। इसके परे जाने की सीख इस अवस्था में प्राप्त होती है तो अच्छा है। अब जीवन में प्राप्त सुखों से समाधानी, तृप्त होना और उनसे भी निवृत्त होना सीखना चाहिये | जीवन के अंतिम क्षण तक अपने नियत कर्म में व्यस्त रह सके इसलिये स्वास्थ्य सम्हालना चाहिये । नित्य ध्यान, प्राणायाम, योगाभ्यास करते रहना उसका उपाय है।
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मनुष्य जीवन की अन्य अवस्थाओं की तुलना में वृद्धावस्था सबसे अंतिम एवं दीर्घ अवस्था है<ref>सच्चिदानन्द फडके, ७५ वर्ष, नासिक, सामाजिक कार्यकर्ता</ref>। "आजीवन शिक्षा" - यह भारतीय शिक्षा का सूत्र सामने रखते हुए वृद्धावस्था का इस दृष्टि से विचार करना चाहिए । वृद्धावस्था परिपक्वअवस्था है तथापि यहाँ बहुत सी बाते सीखने का अवसर प्राप्त होता है। जीवन में मानअपमान, हारजीत, हर्षशोक, मानसम्मान आदि द्वंद्वों का तथा मोह, मद, क्रोध, आसक्ति जैसे दुर्गुणों का सामना होता रहता है। इसके परे जाने की सीख इस अवस्था में प्राप्त होती है तो अच्छा है। अब जीवन में प्राप्त सुखों से समाधानी, तृप्त होना और उनसे भी निवृत्त होना सीखना चाहिये | जीवन के अंतिम क्षण तक अपने नियत कर्म में व्यस्त रह सके इसलिये स्वास्थ्य सम्हालना चाहिये । नित्य ध्यान, प्राणायाम, योगाभ्यास करते रहना उसका उपाय है।
    
यही सीख हमारे निर्दोष पोतेपोतियों के सहवास से, अड़ोसपड़ोस के श्रेष्ठ जीवन व्यतीत करने वाले लोगों के उदाहरण से, जीवन मे कितनी कठिनाइयाँ आयी परंतु ईश्वर ने हमें उन्हे पार करने में किस रूप में कृपा की थी इस के चिंतन से, सद्ग्रथों के पठन से तथा भावपूर्ण संगीत के श्रवण से प्राप्त होती है । हम अपने जीवन के अनुभव के आधार पर अपने परिवारजन को बहुत सारी बातें वृद्धावस्था में सिखा सकते हैं। परंतु यह शिक्षा अब मौन रूप में होगी। सबके साथ हमारा प्रेमपूर्ण व्यवहार, सहयोग, कर्तव्यपरायणता, निःस्वार्थता, प्रसन्नता को देखते हुए अब हमारा मौन अध्यापन प्रभावी होगा। अगर कोई सलाह विमर्श की हमसे अपेक्षा करते हैं तो देने का सामर्थ्य हमारे में जरूर होना चाहिये। समाज की युवापीढ़ी और बालकों को प्रेमपूर्ण भाव से अनेक बातें सिखा सकते हैं। यह हमारे मातृत्व पितृत्व का दायरा बढ़ाने का प्रयत्न होगा । वृद्धावस्था में सीखने सिखाने में कुछ अवरोध भी आते हैं। पहला अवरोध हमारे शारीरिक स्वास्थ्य का । हमें अब यह दुनिया छोडने से पूर्व हमारा अनुभव सबको बटोरने की जल्दी होती है जब की युवापीढ़ी अपने सामर्थ्य के कारण उपदेश ग्रहण से विमुख रहती है यह दूसरा अवरोध है। अतः समचित्त रहने का अभ्यास हमें करना होता है । वृद्धावस्था की उचित मानसिकता हमें प्रौढावस्था से ही तैयार करनी चाहिये। खानपान, वित्ताधिकार, किसी व्यक्तिविशेष में आसक्ति कम करने का प्रयास करना चाहिये । अधिकार नहीं परंतु कर्तव्य पूर्ण निभाना ऐसी कसरत करने का प्रयास प्रौढ़ावस्था में ही करना चाहिये । संयमी, शान्त आनंदी, प्रसन्न, अनासक्त होना सबके साथ प्रेमपूर्ण व्यवहार उत्तम वृद्धावस्था के लक्षण हैं ।
 
यही सीख हमारे निर्दोष पोतेपोतियों के सहवास से, अड़ोसपड़ोस के श्रेष्ठ जीवन व्यतीत करने वाले लोगों के उदाहरण से, जीवन मे कितनी कठिनाइयाँ आयी परंतु ईश्वर ने हमें उन्हे पार करने में किस रूप में कृपा की थी इस के चिंतन से, सद्ग्रथों के पठन से तथा भावपूर्ण संगीत के श्रवण से प्राप्त होती है । हम अपने जीवन के अनुभव के आधार पर अपने परिवारजन को बहुत सारी बातें वृद्धावस्था में सिखा सकते हैं। परंतु यह शिक्षा अब मौन रूप में होगी। सबके साथ हमारा प्रेमपूर्ण व्यवहार, सहयोग, कर्तव्यपरायणता, निःस्वार्थता, प्रसन्नता को देखते हुए अब हमारा मौन अध्यापन प्रभावी होगा। अगर कोई सलाह विमर्श की हमसे अपेक्षा करते हैं तो देने का सामर्थ्य हमारे में जरूर होना चाहिये। समाज की युवापीढ़ी और बालकों को प्रेमपूर्ण भाव से अनेक बातें सिखा सकते हैं। यह हमारे मातृत्व पितृत्व का दायरा बढ़ाने का प्रयत्न होगा । वृद्धावस्था में सीखने सिखाने में कुछ अवरोध भी आते हैं। पहला अवरोध हमारे शारीरिक स्वास्थ्य का । हमें अब यह दुनिया छोडने से पूर्व हमारा अनुभव सबको बटोरने की जल्दी होती है जब की युवापीढ़ी अपने सामर्थ्य के कारण उपदेश ग्रहण से विमुख रहती है यह दूसरा अवरोध है। अतः समचित्त रहने का अभ्यास हमें करना होता है । वृद्धावस्था की उचित मानसिकता हमें प्रौढावस्था से ही तैयार करनी चाहिये। खानपान, वित्ताधिकार, किसी व्यक्तिविशेष में आसक्ति कम करने का प्रयास करना चाहिये । अधिकार नहीं परंतु कर्तव्य पूर्ण निभाना ऐसी कसरत करने का प्रयास प्रौढ़ावस्था में ही करना चाहिये । संयमी, शान्त आनंदी, प्रसन्न, अनासक्त होना सबके साथ प्रेमपूर्ण व्यवहार उत्तम वृद्धावस्था के लक्षण हैं ।
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वानप्रस्थ आश्रम के आखिरी दस साल और संन्यासाश्रम के पच्चीस साल को अनेक चिंतकों के मतानुसार वृद्धावस्था की संज्ञा दी गई है । सभी अवस्थाओं में यह आखिरी अवस्था जीवन का सबसे बड़ा कालखण्ड है। वृद्धावस्था के बिना बाकी सभी अवस्थाओं का अन्त है। सिर्फ वृद्धावस्था में जीवन ही समाप्त होता है । इसलिये वृद्धावस्था जीवन की सबसे महत्त्वपूर्ण अवस्था है । इस अवस्था के पूर्व व्यक्ति धर्म, अर्थ, काम पुरुषार्थों को यशस्वी पद्धती से पूर्ण करता है । हमारी संस्कति के अनुसार जीवन का अंतिम लक्ष्य मोक्षप्राप्ति है । इस अवस्था में मोक्ष प्राप्त करना अपेक्षित है । जगदूगुरु शंकराचार्य कहते हैं “ज्ञानविहिना सर्वमतेन । मुक्ति्नभवति जन्मशतेन' अर्थात्‌ मोक्षप्राप्त के लिये ज्ञान की आवश्यकता है । ज्ञान के लिये शिक्षा आवश्यक है ।
 
वानप्रस्थ आश्रम के आखिरी दस साल और संन्यासाश्रम के पच्चीस साल को अनेक चिंतकों के मतानुसार वृद्धावस्था की संज्ञा दी गई है । सभी अवस्थाओं में यह आखिरी अवस्था जीवन का सबसे बड़ा कालखण्ड है। वृद्धावस्था के बिना बाकी सभी अवस्थाओं का अन्त है। सिर्फ वृद्धावस्था में जीवन ही समाप्त होता है । इसलिये वृद्धावस्था जीवन की सबसे महत्त्वपूर्ण अवस्था है । इस अवस्था के पूर्व व्यक्ति धर्म, अर्थ, काम पुरुषार्थों को यशस्वी पद्धती से पूर्ण करता है । हमारी संस्कति के अनुसार जीवन का अंतिम लक्ष्य मोक्षप्राप्ति है । इस अवस्था में मोक्ष प्राप्त करना अपेक्षित है । जगदूगुरु शंकराचार्य कहते हैं “ज्ञानविहिना सर्वमतेन । मुक्ति्नभवति जन्मशतेन' अर्थात्‌ मोक्षप्राप्त के लिये ज्ञान की आवश्यकता है । ज्ञान के लिये शिक्षा आवश्यक है ।
# वृद्धावस्था में व्यक्ति को क्या सीखना है, इसकी शिक्षा मिलना आवश्यक है । मोक्ष याने जीवन समाप्ति के बाद की अवस्था नहीं है, अपितु जीवन में ही यह अवस्था प्राप्त करना आवश्यक है । इस अवस्था में क्रियाशील नहीं, केवल कर्तव्यशील होना आवश्यक है। कुटुम्ब तथा समाज में पूरा जीवन बिताते समय जो ज्ञान और अनुभव मिलता है उसका लाभ बाकी सारे लोगों को कैसे हो सकता है यह मानसिकता आवश्यक होती है । कुटुम्ब और समाज में कमलदल समान जीवन बिताना आना चाहिये । यही बात सीखनी चाहिये । अपने पास जो ज्ञान है वह स्वेच्छा से लोगों को देना, वह भी अलिप्त होकर ऐसा व्यवहार आवश्यक है । प्राचीन काल में वानप्रस्थ में सभी लोग वन मे जाकर रहते थे । संन्यासाश्रममें प्रवास करते हुए समाज को अपने अनुभव तथा ज्ञानभण्डार का फायदा कैसे होगा इस का विचार करते थे । आज यह बात नहीं हो सकती फिर भी तत्वतः समाज में रहकर संन्यस्त वृत्ति धारण करना और दूसरों के लिये जीवन जीना, उसके लिये आवश्यक शिक्षा लेना जरुरी है ।
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# वृद्धावस्था में व्यक्ति को क्या सीखना है, इसकी शिक्षा मिलना आवश्यक है । मोक्ष याने जीवन समाप्ति के बाद की अवस्था नहीं है, अपितु जीवन में ही यह अवस्था प्राप्त करना आवश्यक है । इस अवस्था में क्रियाशील नहीं, केवल कर्तव्यशील होना आवश्यक है। कुटुम्ब तथा समाज में पूरा जीवन बिताते समय जो ज्ञान और अनुभव मिलता है उसका लाभ बाकी सारे लोगों को कैसे हो सकता है यह मानसिकता आवश्यक होती है । कुटुम्ब और समाज में कमलदल समान जीवन बिताना आना चाहिये । यही बात सीखनी चाहिये । अपने पास जो ज्ञान है वह स्वेच्छा से लोगों को देना, वह भी अलिप्त होकर ऐसा व्यवहार आवश्यक है । प्राचीन काल में वानप्रस्थ में सभी लोग वन मे जाकर रहते थे । संन्यासाश्रममें प्रवास करते हुए समाज को अपने अनुभव तथा ज्ञानभण्डार का फायदा कैसे होगा इस का विचार करते थे । आज यह बात नहीं हो सकती तथापि तत्वतः समाज में रहकर संन्यस्त वृत्ति धारण करना और दूसरों के लिये जीवन जीना, उसके लिये आवश्यक शिक्षा लेना जरुरी है ।
 
# वृद्धावस्था में प्रत्येक व्यक्ति अपने संपर्क में आये सभी व्यक्तियों को अपने पास जो ज्ञान है वह उन्हें देने का प्रयत्न करे । अनुभव संपन्नता और ज्ञान संपन्नता का समाज के लिये उपयोग हो ऐसा अपना व्यवहार एवं आचरण रखे । सभी लोग इस आचरण, अवलोकन कर के स्वयं सीखेंगे । संपर्क के व्यक्तियों को बोलकर सिखाने की आवश्यकता नहीं ।
 
# वृद्धावस्था में प्रत्येक व्यक्ति अपने संपर्क में आये सभी व्यक्तियों को अपने पास जो ज्ञान है वह उन्हें देने का प्रयत्न करे । अनुभव संपन्नता और ज्ञान संपन्नता का समाज के लिये उपयोग हो ऐसा अपना व्यवहार एवं आचरण रखे । सभी लोग इस आचरण, अवलोकन कर के स्वयं सीखेंगे । संपर्क के व्यक्तियों को बोलकर सिखाने की आवश्यकता नहीं ।
 
# वृद्धावस्था में शरीर की ज्ञानेन्द्रियाँ एवं कर्मेंद्रियां क्षीण होती हैं । परन्तु बुद्धि तथा आत्मा का बल बना रहता है । इसलिये वृद्ध एवं उनके संपर्क में आनेवालों के बीच “स्व' की बाधा हो सकती है । दोनों के अहम् का टकराव हो सकता है । इस टकराव से वृद्धों को बचना चाहिये ।
 
# वृद्धावस्था में शरीर की ज्ञानेन्द्रियाँ एवं कर्मेंद्रियां क्षीण होती हैं । परन्तु बुद्धि तथा आत्मा का बल बना रहता है । इसलिये वृद्ध एवं उनके संपर्क में आनेवालों के बीच “स्व' की बाधा हो सकती है । दोनों के अहम् का टकराव हो सकता है । इस टकराव से वृद्धों को बचना चाहिये ।

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