| शब्द 'धर्म' और उसके लिये प्रयुक्त अंग्रेजी शब्द 'religion' इस अनर्थ का सबसे बडा उदाहरण है । सामाजिक सांस्कृतिक जीवनरचना के कई चाबी समान शब्द इस प्रक्रिया का शिकार बने हुए हैं । उदाहरण के लिये राष्टृ - Nation, संस्कृति - Culture, आत्मा - Soul, अध्यात्मिक — Spiritual आदि | | | शब्द 'धर्म' और उसके लिये प्रयुक्त अंग्रेजी शब्द 'religion' इस अनर्थ का सबसे बडा उदाहरण है । सामाजिक सांस्कृतिक जीवनरचना के कई चाबी समान शब्द इस प्रक्रिया का शिकार बने हुए हैं । उदाहरण के लिये राष्टृ - Nation, संस्कृति - Culture, आत्मा - Soul, अध्यात्मिक — Spiritual आदि | |
− | साथ ही इसी श्रेणी के कई शब्द अंग्रेजी भाषा में अस्तित्व में ही नहीं हैं?। उदाहरण के लिये 'दर्शन', 'प्रसाद', 'पुण्य', 'प्रणाम',गुरु, 'गुरुदक्षिणा' , 'भिक्षा' आदि । ये केवल शब्द नहीं हैं, ये जीवनदृष्टि के परिचायक प्रतिमान हैं । इन्हें अंग्रेजी भाषा में समझाना यह भाषाकीय दृष्टि से ही नहीं तो सांस्कृतिक दृष्टि से लगभग असंभव हो जाता है । फिर भी अंग्रेजी भाषा में जब तक इसे समझाया नहीं जाता है तब तक इसे स्वीकृति नहीं मिलती ऐसा भी दिखाई देता है। संस्कृत को भी अंग्रेजी में समझना अनिवार्य सा बन जाता है । अंग्रेजी का यह प्रभाव बौद्धिक से अधिक मनोवैज्ञानिक है । मन से मानी हुई श्रेष्ठता या कनिष्ठता बुद्धि से सिद्ध होने वाली श्रेष्ठता या कनिष्ठता से भिन्न होती है । शास्त्रचर्चा में बुद्धि से होने वाला व्यवहार मान्य होता है, मन द्वारा समर्थित नहीं । अतः प्रथम तो हमें अंग्रेजी और अंग्रेजीयत के मानसिक प्रभाव से मुक्त होने की आवश्यकता पड़ेगी । | + | साथ ही इसी श्रेणी के कई शब्द अंग्रेजी भाषा में अस्तित्व में ही नहीं हैं?। उदाहरण के लिये 'दर्शन', 'प्रसाद', 'पुण्य', 'प्रणाम',गुरु, 'गुरुदक्षिणा' , 'भिक्षा' आदि । ये केवल शब्द नहीं हैं, ये जीवनदृष्टि के परिचायक प्रतिमान हैं । इन्हें अंग्रेजी भाषा में समझाना यह भाषाकीय दृष्टि से ही नहीं तो सांस्कृतिक दृष्टि से लगभग असंभव हो जाता है । तथापि अंग्रेजी भाषा में जब तक इसे समझाया नहीं जाता है तब तक इसे स्वीकृति नहीं मिलती ऐसा भी दिखाई देता है। संस्कृत को भी अंग्रेजी में समझना अनिवार्य सा बन जाता है । अंग्रेजी का यह प्रभाव बौद्धिक से अधिक मनोवैज्ञानिक है । मन से मानी हुई श्रेष्ठता या कनिष्ठता बुद्धि से सिद्ध होने वाली श्रेष्ठता या कनिष्ठता से भिन्न होती है । शास्त्रचर्चा में बुद्धि से होने वाला व्यवहार मान्य होता है, मन द्वारा समर्थित नहीं । अतः प्रथम तो हमें अंग्रेजी और अंग्रेजीयत के मानसिक प्रभाव से मुक्त होने की आवश्यकता पड़ेगी । |