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प्रातः हाथका दर्शन शुभ हुआ करता है। कहा भी गया है-
 
प्रातः हाथका दर्शन शुभ हुआ करता है। कहा भी गया है-
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कराग्रे वसते लक्ष्मीः करमध्ये सरस्वती। करपृष्ठे च गोविन्दः प्रभाते कर-दर्शनम्।
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कराग्रे वसते लक्ष्मी करमध्ये सरस्वती। करपृष्ठे च गोविन्दः प्रभाते कर-दर्शनम्।
    
इस पद्यमें हाथके अग्रभागमें लक्ष्मीका, मध्यभागमें सरस्वतीका और पृष्ठभागमें गोविन्दका निवास कहा है।  
 
इस पद्यमें हाथके अग्रभागमें लक्ष्मीका, मध्यभागमें सरस्वतीका और पृष्ठभागमें गोविन्दका निवास कहा है।  
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यह केवल 'कथनमात्र' नहीं; किन्तु ठीक भी है। हाथका महत्त्व किससे छिपा है | इसी हाथसे हम लक्ष्मी कमाते हैं, तब 'कराग्रे वसते लक्ष्मीः ठीक ही हुआ। इसी हाथसे लिखना-पढ़ना सीखकर हम सरस्वतीदेवीको प्राप्त करते हैं, तब 'करमध्ये सरस्वती' भी कहना ठीक हुआ। इसी हाथसे हम मालाकी मणियां घुमाकर भगवान् का स्मरण तथा जप करके गोविन्द को प्राप्त करते हैं। तब 'करपृष्ठे च गोविन्दः' कहना भी ठीक हुआ।
 
यह केवल 'कथनमात्र' नहीं; किन्तु ठीक भी है। हाथका महत्त्व किससे छिपा है | इसी हाथसे हम लक्ष्मी कमाते हैं, तब 'कराग्रे वसते लक्ष्मीः ठीक ही हुआ। इसी हाथसे लिखना-पढ़ना सीखकर हम सरस्वतीदेवीको प्राप्त करते हैं, तब 'करमध्ये सरस्वती' भी कहना ठीक हुआ। इसी हाथसे हम मालाकी मणियां घुमाकर भगवान् का स्मरण तथा जप करके गोविन्द को प्राप्त करते हैं। तब 'करपृष्ठे च गोविन्दः' कहना भी ठीक हुआ।
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संसारके सर्वस्व लक्ष्मी, सरस्वती और गोविन्द' जब हाथमें आ गये; तो हाथमें बड़ी शक्ति सिद्ध हुई । संसारमें यही तो वस्तुएँ अपेक्षित हैं, और चाहिये क्या ? ऐसी शक्तिको धारण करनेवाले, हमारी संसार-यात्राके एकमात्र अवलम्ब एवं लक्ष्मी आदिके प्रतिनिधि हाथका प्रातःकाल दर्शन शुभकारक ही सिद्ध हुआ; क्योंकि इसी हाथसे ही तो हमने सभी कार्य करने हैं।
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संसारके सर्वस्व लक्ष्मी, सरस्वती और गोविन्द' जब हाथमें आ गये; तो हाथमें बड़ी शक्ति सिद्ध हुई । संसारमें यही तो वस्तुएँ अपेक्षित हैं, और चाहिये क्या ? ऐसी शक्तिको धारण करनेवाले, हमारी संसार-यात्राके एकमात्र अवलम्ब एवं लक्ष्मी आदिके प्रतिनिधि हाथका प्रातःकाल दर्शन शुभकारक ही सिद्ध हुआ; क्योंकि इसी हाथसे ही तो हमें सभी कार्य करने हैं।
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केवल पुराण ही हाथकी महत्ता बताते हों; ऐसा भी नहीं है। वेद भी उस हाथकी महत्ता इससे भी बढ़कर बताते हैं । देखिय-
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केवल पुराण ही हाथकी महत्ता बताते हों; ऐसा भी नहीं है। वेद भी उस हाथकी महत्ता इससे भी बढ़कर बताते हैं । देखिये-
    
अयं मे हस्तो भगवान अयं मे भगवत्तरः । अयं मे विश्वभेषजोऽयं शिवाभिमर्शनः' (ऋ० १०।६०।१२)
 
अयं मे हस्तो भगवान अयं मे भगवत्तरः । अयं मे विश्वभेषजोऽयं शिवाभिमर्शनः' (ऋ० १०।६०।१२)
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इस मन्त्रका देवता भी 'हस्त' है। इसमें हाथको भगवान और अतिशयितसामर्थ्ययुक्त और सब रोगोंका भेषजभूत (दवाईरूप) साधन-सम्पन्न स्वीकृत किया है।
 
इस मन्त्रका देवता भी 'हस्त' है। इसमें हाथको भगवान और अतिशयितसामर्थ्ययुक्त और सब रोगोंका भेषजभूत (दवाईरूप) साधन-सम्पन्न स्वीकृत किया है।
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जो जितनी अधिक शक्तिवाला होगा; उसके हाथ में शक्ति भी उतनी ही अधिक होगी। इसलिए हम जिनकी वन्दना करके उनका आशीर्वाद चाहते हैं; वे भी अपने हाथसे ही हमारे सिरको स्पर्श करके आशीर्वाद देते हैं। हिप्नोटिज्मके अभिज्ञ अपने हाथमें शक्ति सम्भृत करके उससे अपने समक्षस्थित पुरुषको जैसा चाहे नाच नचाते हैं, उठाते हैं-बैठाते हैं। यहाँ तक कि बेहोश भी कर देते हैं। कई योगविद्याविशारद इसी हाथके स्पर्शसे विविध रोगियोंके रोगोंको दूर कर देते हैं । हाथमें शक्ति होनेसे ही विवाहमें दूसरेकी लड़कीके हाथको पुरुषके हाथ में दिलवाकर (पाणिग्रहण कर) उसे उसकी पत्नी बनवा देते हैं। हाथमें प्रेमकी भी स्थिति होनेसे मित्र मित्रोंके हाथका स्पर्श करते हैं। हाथमें अमृतके भी स्थित होनेसे गुरुओं द्वारा शिष्यको हाथसे मारने पर भी <blockquote>'सामृतैः पाणिभिनन्ति गुरवो न विषोक्षितैः' </blockquote>यह कथन प्रसिद्ध है। इससे हाथमें हानिजनक शत्रुओंकेलिए विष भी सन्निहित है-यह भी प्रतीत होता है। इस प्रकारके हमारे अवलम्बभूत, यजुर्वेद (बृहदारण्यकोपनिषद्) के <blockquote>'सर्वेषां कर्मणार्थ हस्तौ एकायनम्' (२।४।११)</blockquote>इन शब्दों में सब कर्मोके मूल-जिसके न होनेसे हम 'निहत्थे' कहे जाते हैं-सारी रात्रिके ग्रहनक्षत्रादि के प्रभावसे तथा प्रातःकालिक वायुसे पवित्र उस हाथके दर्शनसे हमारा शुभ होना सोपपत्तिक ही है।
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जो जितनी अधिक शक्तिवाला होगा; उसके हाथ में शक्ति भी उतनी ही अधिक होगी। इसलिए हम जिनकी वन्दना करके उनका आशीर्वाद चाहते हैं; वे भी अपने हाथसे ही हमारे सिरको स्पर्श करके आशीर्वाद देते हैं। कई ज्यौतिष(सामुद्रिक)विद्याविशारद इसी हाथमें स्थित्रेखाओं द्वारा  विविध रोगियोंके रोगोंको दूर कर देते हैं ।हाथमें अमृत के भी स्थित होनेसे गुरुओं द्वारा शिष्यको हाथसे मारने पर भी  
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उन्हीं के सन्तान विद्वान्, सभ्य और सुशिक्षित होते हैं, जो पढ़ाने में सन्तानों का लाड़न कभी नहीं करते किन्तु ताड़ना ही करते रहते हैं। इसमें व्याकरण महाभाष्य का प्रमाण है-
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'''सामृतैः पाणिभिर्घ्नन्ति गुरवो न विषोक्षितैः।'''
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'''लालनाश्रयिणो दोषास्ताडनाश्रयिणो गुणाः।।'''
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'''अर्थ'''-जो माता, पिता और आचार्य, सन्तान और शिष्यों का ताड़न करते हैं वे जानो अपने सन्तान और शिष्यों को अपने हाथ से अमृत पिला रहे हैं और जो सन्तानों वा शिष्यों का लाड़न करते हैं वे अपने सन्तानों और शिष्यों को विष पिला के नष्ट भ्रष्ट कर देते हैं। क्योंकि लाड़न से सन्तान और शिष्य दोषयुक्त तथा ताड़ना से गुणयुक्त होते हैं और सन्तान और शिष्य लोग भी ताड़ना से प्रसन्न और लाड़न से अप्रसन्न सदा रहा करें। परन्तु माता, पिता तथा अध्यापक लोग ईर्ष्या, द्वेष से ताड़न न करें किन्तु ऊपर से भयप्रदान और भीतर से कृपादृष्टि रक्खें।
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यह कथन प्रसिद्ध है। इससे हाथमें हानिजनक शत्रुओंकेलिए विष भी सन्निहित है-यह भी प्रतीत होता है। इस प्रकारके हमारे अवलम्बभूत, यजुर्वेद (बृहदारण्यकोपनिषद्) के <blockquote>'सर्वेषां कर्मणार्थ हस्तौ एकायनम्' (२।४।११)</blockquote>इन शब्दों में सब कर्मोके मूल-जिसके न होनेसे हम 'निहत्थे' कहे जाते हैं-सारी रात्रिके ग्रहनक्षत्रादि के प्रभावसे तथा प्रातःकालिक वायुसे पवित्र उस हाथके दर्शनसे हमारा शुभ होना सोपपत्तिक ही है।
    
=== प्रातः भूमिवन्दन ===
 
=== प्रातः भूमिवन्दन ===
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