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यदि है तो उसके कारण क्या हैं और उनका प्रतीकार क्या है?
 
यदि है तो उसके कारण क्या हैं और उनका प्रतीकार क्या है?
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== हस्तदर्शन का विज्ञान एवं भूमि वन्दन ==
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प्रातः हाथका दर्शन शुभ हुआ करता है। कहा भी गया है-
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कराग्रे वसते लक्ष्मीः करमध्ये सरस्वती। करपृष्ठे च गोविन्दः प्रभाते कर-दर्शनम्।
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इस पद्यमें हाथके अग्रभागमें लक्ष्मीका, मध्यभागमें सरस्वतीका और पृष्ठभागमें गोविन्दका निवास कहा है।
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यह केवल 'कथनमात्र' नहीं; किन्तु ठीक भी है। हाथका महत्त्व किससे छिपा है | इसी हाथसे हम लक्ष्मी कमाते हैं, तब 'कराग्रे वसते लक्ष्मीः ठीक ही हुआ। इसी हाथसे लिखना-पढ़ना सीखकर हम सरस्वतीदेवीको प्राप्त करते हैं, तब 'करमध्ये सरस्वती' भी कहना ठीक हुआ। इसी हाथसे हम मालाकी मणियां घुमाकर भगवान् का स्मरण तथा जप करके गोविन्द को प्राप्त करते हैं। तब 'करपृष्ठे च गोविन्दः' कहना भी ठीक हुआ।
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संसारके सर्वस्व लक्ष्मी, सरस्वती और गोविन्द' जब हाथमें आ गये; तो हाथमें बड़ी शक्ति सिद्ध हुई । संसारमें यही तो वस्तुएँ अपेक्षित हैं, और चाहिये क्या ? ऐसी शक्तिको धारण करनेवाले, हमारी संसार-यात्राके एकमात्र अवलम्ब एवं लक्ष्मी आदिके प्रतिनिधि हाथका प्रातःकाल दर्शन शुभकारक ही सिद्ध हुआ; क्योंकि इसी हाथसे ही तो हमने सभी कार्य करने हैं।
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केवल पुराण ही हाथकी महत्ता बताते हों; ऐसा भी नहीं है। वेद भी उस हाथकी महत्ता इससे भी बढ़कर बताते हैं । देखिय-
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अयं मे हस्तो भगवान अयं मे भगवत्तरः । अयं मे विश्वभेषजोऽयं शिवाभिमर्शनः' (ऋ० १०।६०।१२)
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इस मन्त्रका देवता भी 'हस्त' है। इसमें हाथको भगवान और अतिशयितसामर्थ्ययुक्त और सब रोगोंका भेषजभूत (दवाईरूप) साधन-सम्पन्न स्वीकृत किया है।
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जो जितनी अधिक शक्तिवाला होगा; उसके हाथ में शक्ति भी उतनी ही अधिक होगी। इसलिए हम जिनकी वन्दना करके उनका आशीर्वाद चाहते हैं; वे भी अपने हाथसे ही हमारे सिरको स्पर्श करके आशीर्वाद देते हैं। हिप्नोटिज्मके अभिज्ञ अपने हाथमें शक्ति सम्भृत करके उससे अपने समक्षस्थित पुरुषको जैसा चाहे नाच नचाते हैं, उठाते हैं-बैठाते हैं। यहाँ तक कि बेहोश भी कर देते हैं। कई योगविद्याविशारद इसी हाथके स्पर्शसे विविध रोगियोंके रोगोंको दूर कर देते हैं । हाथमें शक्ति होनेसे ही विवाहमें दूसरेकी लड़कीके हाथको पुरुषके हाथ में दिलवाकर (पाणिग्रहण कर) उसे उसकी पत्नी बनवा देते हैं। हाथमें प्रेमकी भी स्थिति होनेसे मित्र मित्रोंके हाथका स्पर्श करते हैं। हाथमें अमृतके भी स्थित होनेसे गुरुओं द्वारा शिष्यको हाथसे मारने पर भी <blockquote>'सामृतैः पाणिभिनन्ति गुरवो न विषोक्षितैः' </blockquote>यह कथन प्रसिद्ध है। इससे हाथमें हानिजनक शत्रुओंकेलिए विष भी सन्निहित है-यह भी प्रतीत होता है। इस प्रकारके हमारे अवलम्बभूत, यजुर्वेद (बृहदारण्यकोपनिषद्) के <blockquote>'सर्वेषां कर्मणार्थ हस्तौ एकायनम्' (२।४।११)</blockquote>इन शब्दों में सब कर्मोके मूल-जिसके न होनेसे हम 'निहत्थे' कहे जाते हैं-सारी रात्रिके ग्रहनक्षत्रादि के प्रभावसे तथा प्रातःकालिक वायुसे पवित्र उस हाथके दर्शनसे हमारा शुभ होना सोपपत्तिक ही है।
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=== प्रातः भूमिवन्दन ===
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उस पर उठते ही पांव न रखना।
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प्रातः उठते ही अपनी आश्रयभूत भारतभूमिकी वन्दना करनी श्रेयस्कर हुआ करती है। तभी तो कहा है-
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जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी ।
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जन्मभूमिको स्वर्गसे भी बढ़कर माना गया है। इसीलिए वेदने भी उसे नमस्कार करनेका आदेश दिया है
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शिला भूमिरश्मा पांसुः सा भूमिः संधृता धृता। तस्यै हिरण्यवक्षसे पृथिव्या अकरं नमः' (अथर्व० १२।१।२६)।
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नमो मात्रे पृथिव्यै नमो मात्रे पृथिव्यै' (यजु०६।२२)
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यहाँ पर दो बार पृथिवी माताकी वन्दना करके वेदने अपने भक्तोंको उसकी पूजाका आदेश दे दिया है। इसीलिए वेदानुसारी पुराणोंने भी  उसे नमस्कार करके उस पर पांव रखनेकी क्षमा चाही है।<blockquote>समुद्रवसने देवि ! पर्वतस्तनमण्डिते। विष्णु-पत्नि ! नमस्तुभ्यं पादस्पर्श क्षमस्व मे॥</blockquote>इससे हम भारत-भूमिके भक्त भी बने रहेंगे, विलायती भूमियोंके प्रेमी न बनेंगे।
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उठते ही पृथिवीपर एकदम पाँव रखना लौकिक दृष्टिसे भी ठीक नहीं, क्योंकि-सारी रात हम बिस्तर पर सोते हैं; उसमें भी शीतकालमें रजाईसे अपने आपको ढककर सोते हैं। इस कारण निद्राके सबबसे हमारे अन्दर उष्णता पर्याप्त होती है, विशेषकर पैरोंमें; क्योंकि तब पांव प्रायः ढके रहते हैं; उस समय ठण्डे परमाणुओंसे युक्त भूमिमें एकदम ही पाँव रखना ठीक नहीं; क्योंकि-गर्मी-सर्दी पांवके ही द्वारा हमारे शरीर में तत्क्षण संक्रांत होती है। अतः कुछ देर तक खाट पर बैठकर निद्रा पूर्णतया दूर करके जब अधिक ऊष्मा हटकर उसका समीभाव हो जाता है, तब पांवका भूमि पर रखना ठीक होता है।
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इसके अतिरिक्त भारतभूमि हमारी माता है, हम उसके पुत्र हैं, जैसे कि अथर्ववेदसंहितामें कहा है-'माता भूमिः, पुत्रो अहं पपृथिव्याः' (१२।१।१२) और भूमि देवतारूप भी है। अतः उस पर पांव रखना उचित नहीं दीखता; पर अनिवार्य होनेसे कुछ समय उससे पादस्पर्शकेलिए क्षमा मांगना उचित भी है। हम जड़ पृथिवीसे प्रार्थना क्यों करें; तब हमें मूर्तिपूजक बनना पड़ेगा' ऐसा सोचना अपने आपको वेदानभिज्ञ सिद्ध करना है। अथर्व० तक
    
== शौचाचार एवं स्नानविधि। ==
 
== शौचाचार एवं स्नानविधि। ==
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== भोजन  विधि । ==
 
== भोजन  विधि । ==
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== पुराणादि अवलोकन,सायान्हकृत्य प्रभृति रात्रि शयनान्त विधि।- ==
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== पुराणादि अवलोकन,सायान्हकृत्य प्रभृति रात्रि शयनान्त विधि। ==
 
<references />
 
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