− | शिशुअवस्था में संस्कार होते हैं। उस समय चरित्रनिर्माण होता है । बालअवस्था में आदतें बनती हैं, मानसनिर्माण होता है। उस समय चरित्रगठन भी होता है | इसी अवस्था में चरित्र की असंख्य छोटी मोटी बातें मनोदैहिक स्तर का अविभाज्य हिस्सा बनकर व्यक्ति के आचार विचार में अभिव्यक्त होती हैं। बालअवस्था में सीखी हुई आदतों को छोड़ना दुष्कर होता है । इस समय यदि सही आदतें पड़ गईं तो बालक सच्चरित्र बनता है, गलत पड़ गईं तो दुश्चरित्र | इस अवस्था में घर में पिता की भूमिका अत्यन्त महत्त्वपूर्ण होती है । घर में जब छ: से लेकर पन्द्रह वर्ष के बालक पल रहे होते हैं तब पिता को एक कुम्हार जैसी भूमिका निभानी होती है । कुम्हार ज मिट्ठी का घडा बनाता है तब गिली मिट्ठी को चाक पर चढ़ाता है और उसे जैसा चाहे वैसा आकार देता है। उस समय वह मिट्ठी के गोले पर जरा भी दबाव नहीं देता और किसी भी प्रकार की कठोरता नहीं बरतता । वह बहुत हल्के हाथ से उसे आकार देता है | परन्तु विशेषता यह है कि वह हल्के हाथ से व्यवहार करने पर भी जैसा चाहिये वैसा ही आकार देता है। घडे का आकार उसके पूर्ण नियंत्रण में होता है। उस समय वह जैसा आकार बनाता है घड़े का वही आकार जीवनपर्यन्त रहता है। ठीक उसी प्रकार से शिशु अवस्था में मातापिता बालक का संगोपन पूर्ण लाडप्यार से करते हुए भी उसका चरित्र जैसा चाहिये वैसा बनाते हैं। परन्तु कुम्हार घडे को आकार देने के बाद उसे चाक पर से उतारता है, तब छाया में रखकर उसका रक्षण नहीं करता । वह उस कच्चे घडे को अग्नि में डालकर पकाता है। पका घडा ही पानी भरने के काम में आता है। कच्चा घडा किसी काम का नहीं होता है। उसी प्रकार बालअवस्था में पिता अपनी सन्तान को संयम, अनुशासन, आज्ञापालन, नियमपालन, परिश्रम आदि की अग्नि में पकाता है और उसका चरित्रगठन करता है। कहने का तात्पर्य यह है कि जिसे आज मूल्यशिक्षा कहा जाता है और भारत में जिसे हमेशा से धर्मशिक्षा, संस्कारों की शिक्षा, सज्जनता की शिक्षा कहा जाता है वह प्रमुख रूप से गर्भावस्था, शिशुअवस्था और बालअवस्था में होती है और प्रमुख रूप से घर में ही होती है । | + | शिशुअवस्था में संस्कार होते हैं। उस समय चरित्रनिर्माण होता है । बालअवस्था में आदतें बनती हैं, मानसनिर्माण होता है। उस समय चरित्रगठन भी होता है | इसी अवस्था में चरित्र की असंख्य छोटी मोटी बातें मनोदैहिक स्तर का अविभाज्य हिस्सा बनकर व्यक्ति के आचार विचार में अभिव्यक्त होती हैं। बालअवस्था में सीखी हुई आदतों को छोड़ना दुष्कर होता है । इस समय यदि सही आदतें पड़ गईं तो बालक सच्चरित्र बनता है, गलत पड़ गईं तो दुश्चरित्र | इस अवस्था में घर में पिता की भूमिका अत्यन्त महत्त्वपूर्ण होती है । घर में जब छ: से लेकर पन्द्रह वर्ष के बालक पल रहे होते हैं तब पिता को एक कुम्हार जैसी भूमिका निभानी होती है । कुम्हार ज मिट्ठी का घड़ा बनाता है तब गिली मिट्ठी को चाक पर चढ़ाता है और उसे जैसा चाहे वैसा आकार देता है। उस समय वह मिट्ठी के गोले पर जरा भी दबाव नहीं देता और किसी भी प्रकार की कठोरता नहीं बरतता । वह बहुत हल्के हाथ से उसे आकार देता है | परन्तु विशेषता यह है कि वह हल्के हाथ से व्यवहार करने पर भी जैसा चाहिये वैसा ही आकार देता है। घडे का आकार उसके पूर्ण नियंत्रण में होता है। उस समय वह जैसा आकार बनाता है घड़े का वही आकार जीवनपर्यन्त रहता है। ठीक उसी प्रकार से शिशु अवस्था में मातापिता बालक का संगोपन पूर्ण लाडप्यार से करते हुए भी उसका चरित्र जैसा चाहिये वैसा बनाते हैं। परन्तु कुम्हार घडे को आकार देने के बाद उसे चाक पर से उतारता है, तब छाया में रखकर उसका रक्षण नहीं करता । वह उस कच्चे घडे को अग्नि में डालकर पकाता है। पका घड़ा ही पानी भरने के काम में आता है। कच्चा घड़ा किसी काम का नहीं होता है। उसी प्रकार बालअवस्था में पिता अपनी सन्तान को संयम, अनुशासन, आज्ञापालन, नियमपालन, परिश्रम आदि की अग्नि में पकाता है और उसका चरित्रगठन करता है। कहने का तात्पर्य यह है कि जिसे आज मूल्यशिक्षा कहा जाता है और भारत में जिसे हमेशा से धर्मशिक्षा, संस्कारों की शिक्षा, सज्जनता की शिक्षा कहा जाता है वह प्रमुख रूप से गर्भावस्था, शिशुअवस्था और बालअवस्था में होती है और प्रमुख रूप से घर में ही होती है । |
| बैसे तो भारत के लोग सदगुण, सदाचार, सज्जनता और अच्छाई किसे कहते हैं वह भलीभाँति जानते हैं, इसलिये यहाँ विस्तार से उसकी चर्चा करने की आवश्यकता नहीं है। केवल मोटे तौर पर एक सूची बनाई जा सकती है, जो इस प्रकार है । | | बैसे तो भारत के लोग सदगुण, सदाचार, सज्जनता और अच्छाई किसे कहते हैं वह भलीभाँति जानते हैं, इसलिये यहाँ विस्तार से उसकी चर्चा करने की आवश्यकता नहीं है। केवल मोटे तौर पर एक सूची बनाई जा सकती है, जो इस प्रकार है । |