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लेख सम्पादित किया
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== धर्मशिक्षा ==
 
== धर्मशिक्षा ==
मनुष्य का जन्म होता है तब वह अपने साथ अनेक सम्भावनाओं को लेकर आता है<ref>धार्मिक शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप (धार्मिक शिक्षा ग्रन्थमाला १): पर्व ६, प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखन एवं संपादन: श्रीमती इंदुमती काटदरे</ref>। वह अन्य प्राणियों के
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मनुष्य का जन्म होता है तब वह अपने साथ अनेक सम्भावनाओं को लेकर आता है<ref>धार्मिक शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप (धार्मिक शिक्षा ग्रन्थमाला १): पर्व ६, प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखन एवं संपादन: श्रीमती इंदुमती काटदरे</ref>। वह अन्य प्राणियों के समान प्रकृति के वश होकर केवल खाने पीने और सोने में ही अपना जीवन व्यतीत नहीं करता है। उसे बहुत कुछ करना होता है । विश्व भी उससे बहुत कुछ अपेक्षा करता है । अपना स्वयं का विकास करना और विश्व की अपेक्षायें पूर्ण करना उसका दायित्व बनता है। इस दायित्व को निभाने के लिये उसे लायक बनना होता है । बहुत सारी क्षमतायें अर्जित करनी होती हैं । इन क्षमताओं को अर्जित करने के लिये और अपने दायित्व को निभाने के लिये शिक्षा प्राप्त करनी होती है।
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समान प्रकृति के वश होकर केवल खाने पीने और सोने में
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जन्म से लेकर जीवन की अन्तिम साँस तक वह सीखता ही रहता है। नई नई बातें सीखकर वह अपने आपको विकसित करता रहता है । सीखने के क्रम में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण बात है अच्छा मनुष्य बनने की शिक्षा। मनुष्य धन, मान, प्रतिष्ठा, ज्ञान, अर्जित करे अथवा न करे, उसे अच्छा मनुष्य तो बनना ही है। अच्छे मनुष्य को ही सज्जन कहते हैं। विश्व का आधार सज्जनता है। दुनिया कानून और दण्ड से नहीं चलती, दुनिया मनुष्यों के हृदय में जो अच्छाई है उसी से चलती है। अच्छाई किसे कहते हैं? अपना और दूसरों का हित चाहना और उसीके अनुसार व्यवहार करना अच्छाई है। ऐसा व्यवहार करने के लिये कष्ट उठाना पड़े तो उठाना, त्याग करना पड़े तो करना, अपने आप को नियंत्रण में रखना पड़े तो रखना अच्छाई है। यह सब स्वतंत्रता पूर्वक और आनन्द से करना ही अच्छाई है । यदि स्वेच्छा और स्वतंत्रता नहीं हैं तो वह अच्छाई नहीं है, वह निहित स्वार्थ हेतु किया गया कार्य है।
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ही अपना जीवन व्यतीत नहीं करता है उसे बहुत कुछ
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अच्छा मनुष्य बनने की शिक्षा को वर्तमान में मूल्यशिक्षा कहा जाता है। संस्कारों का संकट आज इतना अधिक गहरा हो गया है कि सबको आज मूल्यशिक्षा की अनिवार्यता का अनुभव हो रहा है, इसलिये सभी क्षेत्रों में मूल्यशिक्षा विषयक चिन्तन, चर्चा, आयोजन एवं प्रयोग प्रारम्भ हो गये हैं । वास्तव में भारत में तो मूल्यशिक्षा का महत्त्व परापूर्व से स्वीकृत ही है। भारत में इसे मूल्यशिक्षा नहीं कहा गया। भारत में इसे संस्कारों की शिक्षा कहा गया है, सद्‌गुण एवं सदाचार की शिक्षा कहा गया है, दैवी संपद के अर्जन की शिक्षा कहा गया है। भारत में इसे धर्मशिक्षा कहा गया है। भारत में इसे इतना महत्त्वपूर्ण माना गया है कि व्यक्ति चाहे छोटा हो या बड़ा, राजा हो या रंक, मालिक हो या नौकर, उसे अच्छा तो होना ही चाहिये।
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करना होता है । विश्व भी उससे बहुत कुछ अपेक्षा करता
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सदगुणविकास की प्रक्रिया जीवनव्यवहार में अनुस्यूत होकर चलती है, इसे अलग से विषय बनाकर नहीं दी जाती। न इसका पाठ्यक्रम होता है, न पाठ्यपुस्तक, न परीक्षा। सदगुणों की शिक्षा विषय नहीं है, वह एक प्रक्रिया है जो निरन्तर चलती रहती है। मनुष्यजीवन के विकास की आधारशिला सद्‌गुणशिक्षा है। सम्पूर्ण शिक्षातंत्र का प्रारम्भबिन्दु सद्‌गुणशिक्षा है।
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है । अपना स्वयं का विकास करना और विश्व की अपेक्षायें
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=== मन की शिक्षा ===
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मूल्यशिक्षा को जिस प्रकार धर्म की, संस्कार या सद्‌गुण एवं सदाचार की शिक्षा कहते हैं उसी प्रकार चरित्रनिर्माण की शिक्षा भी कह सकते हैं । इस शिक्षा का सम्बन्ध मुख्य रूप से मनुष्य के मन के साथ है । इसलिये इसे मन की शिक्षा भी कह सकते हैं ।
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पूर्ण करना उसका दायित्व बनता है। इस दायित्व को
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हम जानते हैं कि सम्पूर्ण सृष्टि में केवल मनुष्य को ही अत्यन्त सक्रिय मन प्राप्त हुआ है । प्राकृत अवस्था में उसके सारे व्यवहार मन द्वारा परिचालित होते हैं। मनुष्य का मन अद्भुत पदार्थ है । वह अनेक प्रकार की शक्तियों का पुंज है, साथ ही साथ अनेक प्रकार की समस्याओं का उद्गमस्थान भी है । सकारात्मक और नकारात्मक दोनों तत्त्व समान रूप से मन में निवास करते हैं । अतः उसकी शिक्षा का विचार करने से पूर्व इसके स्वरूप को भलीभाँति जानना उपयुक्त रहेगा । मन की तीन शक्तियाँ हैं। ये हैं विचारशक्ति, भावनाशक्ति और इच्छाशक्ति ।
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निभाने के लिये उसे लायक बनना होता है । बहुत सारी
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मन निरन्तर विचार करता रहता है। एक धारा के रूप में विचार चलते ही रहते हैं । कभी भी मन विचारों से खाली नहीं रहता । संकल्प एवं विकल्प के रूप में ये विचार चलते रहते हैं । मन भावनाओं का पुंज होता हैं। ये भाव भी सकारात्मक और नकारात्मक दोनों प्रकार के होते हैं । दया, करुणा, स्नेह, अनुकंपा आदि सकारात्मक भाव होते हैं और क्रोध, मद, मत्सर, लोभ आदि नकारात्मक भाव होते हैं । मन सदासर्वदा इन भावनाओं से परिचालित होता है । मन में अनन्त इच्छायें होती है । उसे हमेशा चाहिये, चाहिये ही होता रहता है । इन इच्छाओं की पूर्ति कभी भी नहीं हो सकती ।
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क्षमतायें अर्जित करनी होती हैं । इन क्षमताओं को अर्जित
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महाभारतकार ने सम्राट ययाति के मुख से इच्छाओं के सम्बन्ध में प्रसिद्ध उक्ति दी है<ref>महाभारत, आदि पर्व, अध्याय 75, श्लोक 50</ref> -<blockquote>न जातु कामः कामानामुपभोगेन शाम्यति।</blockquote><blockquote>हविषा कृष्णवर्त्मेव भूय एवाभिवर्धते।</blockquote>अर्थात्‌ अभि में हवि डालने से जिस प्रकार अग्नि शान्त होने के स्थान पर अधिक प्रज्वलित हो जाती है उसी प्रकार कामनाओं की पूर्ति करने से कामनायें शान्त होने के स्थान पर और वृद्धिंगत हो जाती हैं ।
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करने के लिये और अपने दायित्व को निभाने के लिये
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मन में निरन्तर इच्छायें बनी ही रहती हैं । मन की इन तीनों शक्तियों को संयमित किया जाय तो मन अनेक प्रकार की सिद्धियों को प्राप्त कर सकता है । संयम और नियम से रहने वाले मन के लिये कुछ भी असंभव नहीं होता । मन द्वंद्वात्मक है । संकल्प-विकल्प, राग-द्वेष, सुख-दुःख, मान-अपमान, हर्ष-शोक, आशा-निराशा आदि सब मन में रहते हैं । रुचि-अरुचि मन का ही विषय होता है । मन सभी कर्मेन्द्रियों और ज्ञानेन्द्रियों का स्वामी है । मन स्वयं ज्ञानेन्द्रिय भी है और कर्मन्द्रिय भी । इन दोनों इन्द्रियों का स्वामी बनकर वह दोनों को परिचालित करता है। कर्मेन्द्रियाँ क्रियाशील होती हैं और ज्ञानेन्द्रियाँ अनुभवशील अथवा संवेदनशील । मन इनका स्वामी बनकर इन्हें सद्‌गुण और सदाचार के लिये अथवा दुर्गुण एवं दुराचार के लिये प्रेरित करता है । उदाहरण के लिये पोषण हेतु अन्न, शरीर और प्राण की आवश्यकता है परन्तु विविध प्रकार के स्वाद का रस मन चाहता है । मन यदि संयमित है तो शरीर और प्राण को पोषण देने वाला अन्न उसे अच्छा लगता है परन्तु यदि संयमित नहीं तो शरीरस्वास्थ्य और प्राणों के पोषण की चिन्ता न करते हुए रसना के आनन्द में ही प्रवृत्त होता है । हित की उपेक्षा करता है, उपभोग में लिप्त होता है । श्रेय को छोडकर प्रेय के पीछे भागता है । मन जब काम-क्रोधादि विकारों से भरा रहता है तब उत्तेजित अवस्था में रहता है। उसे अशांत अवस्था भी कहते हैं । उत्तेजित अवस्था में विचार या व्यवहार का सन्तुलन और स्थिरता रहना असंभव है । उत्तेजना के कारण मन कब क्या करेगा यह कहना लगभग असंभव है । मन चंचल होता है । श्रीमदू भगवद्गीता में अर्जुन ने मन का यथार्थ वर्णन किया है । अर्जुन कहता है -<blockquote>चञ्चलं हि मनः कृष्ण प्रमाथि बलवद्दृढम्।</blockquote><blockquote>तस्याहं निग्रहं मन्ये वायोरिव सुदुष्करम्।।6.34।।</blockquote>अर्थात्‌
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शिक्षा प्राप्त करनी होती है ।
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हे कृष्ण, मन अत्यन्त चंचल है, जिद्दी है, बलवान है, दृढ़ है, उसका निग्रह करना वायु का निग्रह करने के समान अत्यंत कठिन है । मन एक समय में एक ही बात को पकड़ता है परन्तु चंचलता के कारण उस पर टिका नहीं रह सकता । क्षण के भी छोटे हिस्से में वह एक पदार्थ से दूसरे पदार्थ पर आता जाता रहता है । उसकी आने जाने की गति भी अत्यधिक है। विश्व के सभी गतिमान पदार्थों में मन का क्रम प्रथम आता है । उसके जितना तेज कोई नहीं भागता । और फिर जाने के लिये उसे किसी प्रकार के साधन की आवश्यकता नहीं होती है । ऐसा मन अपने वश में रहना भी बहुत ही कठिन है । मन जिस पदार्थ में आसक्त हो जाता है उससे अलग होना नहीं चाहता । मन जिससे विमुख रहता है उससे जुड़ना नहीं चाहता । ये दोनों काम उससे करवाना अत्यधिक कठिन बात है । ऐसा चंचल, उत्तेजनापूर्ण और आसक्ति से युक्त मन जब तक एकाग्र, शान्त और अनासक्त नहीं बनता तब तक सद्‌गुण और सदाचार असंभव हैं । मन को नियमन, नियंत्रण और संयम में रखे बिना संस्कार असंभव है। इस स्थिति में अच्छाई हमसे कोसों दूर रहेगी । अतः अच्छाई की शिक्षा के लिये मन की शिक्षा देना अनिवार्य बन जाता है ।
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जन्म से लेकर जीवन की अन्तिम साँस तक वह
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=== मन की शिक्षा कब दें ===
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मन की शिक्षा को ही संस्कारों की शिक्षा कहते हैं । वही सद्‌गुण सदाचार की शिक्षा है। वही भावशिक्षा या मूल्यशिक्षा है । वही चरिन्ननिर्माण की शिक्षा है। वहीधर्मशिक्षा है। जैसा पूर्व में कहा गया है, यह शिक्षा औपचारिक रूप से नहीं दी जाती । केवल विद्यालय में नहीं दी जाती | इस शिक्षा का मुख्य केन्द्र घर होता है । घर संस्कारों की शिक्षा का महत्त्वपूर्ण केन्द्र है । घर में संस्कारों की शिक्षा जन्म से भी पूर्व से प्रारम्भ हो जाती है । गर्भावस्‍था में ही माता के माध्यम से बालक जीवन की मूल बातें सीख जाता है । माता के खानपान, विचार और व्यवहार, स्वाध्याय और सत्संग, भावना एवं कल्पना बालक के चरित्र का निर्माण करते हैं । इसलिये माता को ही बालक का प्रथम गुरु कहा गया है। अपने बालक को गुणवान और सच्चरित्र बनाना है तो माता को सदूगुणी और सदाचरणयुक्त होना चाहिये ।
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सीखता ही रहता है । नई नई बातें सीखकर वह अपने
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बालक जब कोख में पल रहा है तब अपने आहारविहार आदि को सुव्यवस्थित रखना चाहिये । इसी प्रकार जन्म के बाद घर का वातावरण संस्कारक्षम होना अत्यन्त आवश्यक है । बालक की ग्रहण करने की क्षमता अद्भुत होती है । वह जैसा देखता है वैसा ही करता है, जैसा सुनता है वैसा ही बोलता है, जिस वातावरण में पलता है उस वातावरण के विचारों, भावनाओं एवं दृष्टिकोण की तरंगों को पकड़ लेता है और उन्हें आत्मसात कर लेता है । अनकही बातों को भी समझ लेने की उसमें क्षमता होती है । करनी और कथनी का अन्तर उसे समझ में आ जाता है । वह शब्द छोड देता है और उसके पीछे जो भाव होता है उसको ग्रहण कर लेता है । इसलिये बालकों को चरित्रवान बनाने की इच्छा है तो घर में सभी परिवारजनों को अपने आचारविचार में शुद्ध और पवित्र रहना चाहिये, घर के वातारवण को भी शुद्ध और पवित्र रखना चाहिये । ऐसे घर में पले बालक को अच्छे घर का बालक कहते हैं, केवल धनी, शिक्षित या सत्ता के कारण प्रतिष्ठित घर के बालक को नहीं ।
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आपको विकसित करता रहता है ।
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हमारे समाजहितैषी और मनोविज्ञान के जानकार ऋषि इस तथ्य को जानते थे इसलिये उन्होंने शिशुसंगोपन के एक सम्पूर्ण शास्त्र की रचना की और दैनन्दिन व्यवहार की परम्परा के रूप में उसे घर घर में और जन जन के हृदय में स्थापित किया । इसके चलते ही घर घर में लोरी गाने का प्रचलन है । सोते समय बालक लोरी सुनते सुनते जो प्रेरणा ग्रहण करता है वह उसके चित्त पर अमिट संस्कार बनकर रह जाता है । प्रातःकाल के स्तोत्र और भजन का भी यही प्रभाव होता है । विश्व के अनेक महापुरुषों ने अपने बचपन के संस्मरणों को सुनाते समय कहा है कि अल्पशिक्षित माता के मुख से जो लोरियाँ, कहानियाँ और स्तोत्रादि सुने हैं उनका उनके चरित्र निर्माण में बहुत योगदान रहा है । इसी प्रकार माता जब प्रेमपूर्वक अपने हाथ से बालक को खिलाती है तब उसके स्पर्श के और उस भोजन के माध्यम से माता के हृदय के भाव भी बालक में संक्रान्त होते हैं और चिरस्थायी बनते हैं
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सीखने के क्रम में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण बात है अच्छा
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=== बालअवस्था में चरित्रशिक्षा ===
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शिशुअवस्था में संस्कार होते हैं। उस समय चरित्रनिर्माण होता है
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मनुष्य बनने की शिक्षा । मनुष्य धन, मान, प्रतिष्ठा, ज्ञान,
+
''बालअवस्था में वैसे तो भारत के लोग सद्‌गुण, सदाचार, सज्जनता आदतें बनती हैं, मानसनिर्माण होता है। उस समय... और अच्छाई किसे कहते हैं वह भलीभाँति जानते हैं,''
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अर्जित करे अथवा न करे, उसे अच्छा मनुष्य तो बनना ही
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''चरित्रगठन भी होता है । इसी अवस्था में चरित्र की असंख्य.. इसलिये यहाँ विस्तार से उसकी चर्चा करने की आवश्यकता''
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है । अच्छे मनुष्य को ही सज्जन कहते हैं । विश्व का आधार
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''छोटी मोटी बातें मनोदैहिक स्तर का अविभाज्य हिस्सा... नहीं है । केवल मोटे तौर पर एक सूची बनाई जा सकती है,''
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सज्जनता है। दुनिया कानून और दण्ड से नहीं चलती,
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''बनकर व्यक्ति के आचार विचार में अभिव्यक्त होती हैं ।.. जो इस प्रकार है ।''
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दुनिया मनुष्यों के हृदय में जो अच्छाई है उसीसे चलती है ।
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''बालअवस्था में सीखी हुई आदतों को छोड़ना दुष्कर होता एक सज्जन व्यक्ति को -''
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अच्छाई किसे कहते हैं ? अपना और दूसरों का हित
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''है । इस समय यदि सही आदतें पड़ गईं तो बालक सच्चरित्र .. *.... सत्यवादी और ईमानदार होना चाहिये,''
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चाहना और उसीके अनुसार व्यवहार करना अच्छाई है ।
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''बनता है, गलत पड़ गईं तो दुश्चरित्र इस अवस्था में घर में... *.. उद्यमशील और उद्योगपरायण होना चाहिये,''
   −
ऐसा व्यवहार करने के लिये कष्ट उठाना पड़े तो उठाना,
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''पिता की भूमिका अत्यन्त महत्त्वपूर्ण होती है । घर में जब. *.. ऋजु, विनयशील, मैत्नीपूर्ण और परोपकारी होना''
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त्याग करना पड़े तो करना, अपने आप को नियंत्रण में
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''छः से लेकर पन्द्रह वर्ष के बालक पल रहे होते हैं तब पिता चाहिये,''
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रखना पड़े तो रखना अच्छाई है । यह सब स्वतंत्रता पूर्वक
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''को एक कुम्हार जैसी भूमिका ari et el ree we = स्नेह, अनुकम्पा, दया, करुणा से युक्त होना चाहिये,''
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और आनन्द से करना ही अच्छाई है । यदि स्वेच्छा और
+
''मिट्टी का घडा बनाता है तब गिली मिट्टी को चाक पर सेवापरायण होना चाहिये,''
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स्वतंत्रता नहीं हैं तो वह अच्छाई नहीं है, वह निहित स्वार्थ
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''चढ़ाता है और उसे जैसा चाहे वैसा आकार देता है । उस... *... सामाजिक दायित्वबोध और देशभक्ति के गुणों से''
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हेतु किया गया कार्य है ।
+
''समय वह मिट्टी के गोले पर जरा भी दबाव नहीं देता और युक्त होना चाहिये,''
   −
२८१
+
''किसी भी प्रकार की कठोरता नहीं बरतता । वह बहुत हलके... *.. ईश्वरपरायण होना चाहिये,''
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अच्छा मनुष्य बनने की शिक्षा को वर्तमान में
+
''हाथ से उसे आकार देता है । परन्तु विशेषता यह है कि वह... *. श्रद्धा, विश्वास के गुणों से युक्त तथा दृढ़ मनोबल से''
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मूल्यशिक्षा कहा जाता है संस्कारों का संकट आज इतना
+
''हलके हाथ से व्यवहार करने पर भी जैसा चाहिये वैसा ही युक्त तथा निरहंकारी होना चाहिये ''
   −
अधिक गहरा हो गया है कि सबको आज मूल्यशिक्षा की
+
''आकार देता है । घड़े का आकार उसके पूर्ण नियंत्रण में इस सूची में और भी छोटी मोटी बातें जुड़ सकती''
   −
अनिवार्यता का अनुभव हो रहा है, इसलिये सभी क्षेत्रों में
+
''होता है । उस समय वह जैसा आकार बनाता है घड़े का... हैं । हम सबके लिये स्वीकार्य यह सूची है ।''
   −
मूल्यशिक्षा विषयक चिन्तन, चर्चा, आयोजन एवं प्रयोग
+
''वही आकार जीवनपर्यन्त रहता है । ठीक उसी प्रकार से''
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प्रारम्भ हो गये हैं ।
+
''शिशु अवस्था में मातापिता बालक का संगोपन पूर्ण''
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वास्तव में भारत में तो मूल्यशिक्षा का महत्त्व परापूर्व
+
''लाडप्यार से करते हुए भी उसका चरित्र जैसा चाहिये वैसा बालक में इन गुणों का विकास पुस्तकें पढ़ने से,''
   −
से स्वीकृत ही है। भारत में इसे मूल्यशिक्षा नहीं कहा
+
''बनाते हैं । परन्तु कुम्हार घडे को आकार देने के बाद उसे... नियम बनाने से, उपदेश देने से, डाँटने से या दण्ड अथवा''
   −
गया भारत में इसे संस्कारों की शिक्षा कहा गया है,
+
''चाक पर से उतारता है, तब छाया में रखकर उसका रक्षण.. लालच देने से नहीं होता मातापिता को अपने बालक में''
   −
सदूगुण एवं सदाचार की शिक्षा कहा गया है, दैवी संपदू के
+
''नहीं करता । वह उस कच्चे घडे को अग्नि में डालकर... इन गुणों का विकास करने हेतु निम्नलिखित बातों की ओर''
   −
अर्जन की शिक्षा कहा गया है। भारत में इसे धर्मशिक्षा
+
''पकाता है। पका घडा ही पानी भरने के काम में आता है । ध्यान देना चाहिये ।''
   −
कहा गया है । भारत में इसे इतना महत्त्वपूर्ण माना गया है
+
''कच्चा घडा किसी काम का नहीं होता है । उसी प्रकार... *... मातापिता बालकों को निःस्वार्थ और भरपूर प्रेम दें ।''
   −
कि व्यक्ति चाहे छोटा हो या बड़ा, राजा हो या रंक,
+
''बालअवस्था में पिता अपनी सन्तान को संयम, अनुशासन, ... *... मातापिता स्वयं चरित्रवान हों और उनका चस्त्र''
   −
मालिक हो या नौकर, उसे अच्छा तो होना ही चाहिये
+
''अज्ञापालन, नियमपालन, परिश्रम आदि की अग्नि में व्यवहार एवं वाणी में दिखाई दे ''
   −
सदूगुणविकास की प्रक्रिया जीवनव्यवहार में अनुस्यूत होकर
+
''पकाता है और उसका चरित्रगठन करता है। कहने का... *... मातापिता का व्यवहार पारदर्शी हो ।''
   −
चलती है, इसे अलग से विषय बनाकर नहीं दी जाती । न
+
''तात्पर्य यह है कि जिसे आज मूल्यशिक्षा कहा जाता है और... *... मातापिता अपने साथ साथ बालकों को व्यवहार''
   −
इसका पाठ्यक्रम होता है, न पाठ्यपुस्तक, न परीक्षा ।
+
''मातापिता इन गुणों की शिक्षा किस प्रकार दे सकते हैं ?''
   −
सदूगुणों की शिक्षा विषय नहीं है, वह एक प्रक्रिया है जो
+
''भारत में जिसे हमेशा से धर्मशिक्षा, संस्कारों की शिक्षा, करने के लिये प्रेरित करें ।''
   −
निरन्तर चलती रहती है । मनुष्यजीवन के विकास की
+
''सज्जनता की शिक्षा कहा जाता है वह प्रमुख रूप से... *. सगर्भावसथा से ही माता पवित्र एवं शुद्ध आचरण करे''
   −
आधारशिला wae है। सम्पूर्ण शिक्षातंत्र का
+
''गर्भावस्‍था, शिशुअवस्था और बालअवस्था में होती है और तथा स्वाध्याय, सत्संग एवं सेवा करे ।''
   −
प्रारम्भबिन्दु सद्‌गुणशिक्षा है ।
+
''प्रमुख रूप से घर में ही होती है । © छोटे बालकों को लोरी, कहानी और अच्छे दृश्यों''
   −
मन की शिक्षा
+
''र्ट््ड''
 
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मूल्यशिक्षा को जिस प्रकार धर्म की, संस्कार या
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सदूगुण एवं सदाचार की शिक्षा कहते हैं उसी प्रकार
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चरित्रनिर्माण की शिक्षा भी कह सकते हैं । इस शिक्षा का
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सम्बन्ध मुख्य रूप से मनुष्य के मन के साथ है । इसलिये
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इसे मन की शिक्षा भी कह सकते हैं ।
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हम जानते हैं कि सम्पूर्ण सृष्टि में
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केवल मनुष्य को ही अत्यन्त सक्रिय मन प्राप्त हुआ है ।
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प्राकृत अवस्था में उसके सारे व्यवहार मन द्वारा परिचालित
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होते हैं। मनुष्य का मन अद्भुत पदार्थ है । वह अनेक
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प्रकार की शक्तियों का पुंज है, साथ ही साथ अनेक प्रकार
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की समस्याओं का उद्गमस्थान भी है । सकारात्मक और
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नकारात्मक दोनों तत्त्व समान रूप से मन में निवास करते
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हैं । अतः उसकी शिक्षा का विचार करने से पूर्व इसके
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स्वरूप को भलीभाँति जानना उपयुक्त रहेगा ।
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मन की तीन शक्तियाँ हैं। ये हैं विचारशक्ति,
  −
 
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भावनाशक्ति और इच्छाशक्ति ।
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मन निरन्तर विचार करता रहता है। एक धारा के
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रूप में विचार चलते ही रहते हैं । कभी भी मन विचारों से
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खाली नहीं रहता । संकल्प एवं विकल्प के रूप में ये
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विचार चलते रहते हैं ।
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मन भावनाओं का पुंज होता हैं। ये भाव भी
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सकारात्मक और नकारात्मक दोनों प्रकार के होते हैं । दया,
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करुणा, स्नेह, अनुकंपा आदि सकारात्मक भाव होते हैं और
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क्रोध, मद, मत्सर, लोभ आदि नकारात्मक भाव होते हैं ।
  −
 
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मन सदासर्वदा इन भावनाओं से परिचालित होता है ।
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मन में अनन्त इच्छायें होती है । उसे हमेशा चाहिये,
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चाहिये ही होता रहता है । इन इच्छाओं की पूर्ति कभी भी
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नहीं हो सकती । महाभारतकार ने सम्राट ययाति के मुख से
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इच्छाओं के सम्बन्ध में प्रसिद्ध उक्ति दी है -
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न जातु कामः कामानामू उपभोगेन शाम्यति ।
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हविषा कृष्णवर्त्मव भूय एवाभिवर्धते ।।
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अर्थात्‌ अभि में हवि डालने से जिस प्रकार अग्ि
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शान्त होने के स्थान पर अधिक प्रज्वलित हो जाती है उसी
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प्रकार कामनाओं की पूर्ति करने से कामनायें शान्त होने के
  −
 
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स्थान पर और वृद्धिंगत हो जाती हैं ।
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मन में निरन्तर इच्छायें बनी ही रहती हैं ।
  −
 
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मन की इन तीनों शक्तियों को संयमित किया जाय तो
  −
 
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मन अनेक प्रकार की सिद्धियों को प्राप्त कर सकता है ।
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संयम और नियम से रहने वाले मन के लिये कुछ भी
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असंभव नहीं होता ।
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२८२
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भारतीय शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप
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मन ट्न्द्रात्सक है । संकल्प-विकल्प, राग-ट्रेष,
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सुख-दुःख, मान-अपमान, हर्ष-शोक, आशा-निराशा
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आदि सब मन में रहते हैं ।
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रुचि-अरुचि मन का ही विषय होता है ।
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मन सभी कर्मेन्ट्रियों और ज्ञानेन्द्रियों का स्वामी है ।
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मन स्वयं ज्ञानेन्द्रिय भी है और कर्मन्द्रिय भी । इन दोनों
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  −
इन्द्रियों का स्वामी बनकर वह दोनों को परिचालित करता
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  −
है। कर्मन्ट्रियाँ क्रियाशील होती हैं. और ज्ञानेन्ट्रियाँ
  −
 
  −
अनुभवशील अथवा संवेदनशील । मन इनका स्वामी बनकर
  −
 
  −
इन्हें सदूगुण और सदाचार के लिये अथवा दुर्गुण एवं
  −
 
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दुराचार के लिये प्रेरित करता है । उदाहरण के लिये पोषण
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हेतु अन्न, शरीर और प्राण की आवश्यकता है परन्तु विविध
  −
 
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प्रकार के स्वाद का रस मन चाहता है । मन यदि संयमित है
  −
 
  −
तो शरीर और प्राण को पोषण देने वाला अन्न उसे अच्छा
  −
 
  −
लगता है परन्तु यदि संयमित नहीं तो शरीरस्वास्थ्य और
  −
 
  −
प्राणों के पोषण की चिन्ता न करते हुए रसना के आनन्द में
  −
 
  −
ही प्रवृत्त होता है । हित की उपेक्षा करता है, उपभोग में
  −
 
  −
लिप्त होता है । श्रेय को छोडकर प्रेय के पीछे भागता है ।
  −
 
  −
मन जब काम-क्रोधादि विकारों से भरा रहता है तब
  −
 
  −
उत्तेजित अवस्था में रहता है। उसे अशांत अवस्था भी
  −
 
  −
कहते हैं । उत्तेजित अवस्था में विचार या व्यवहार का
  −
 
  −
सन्तुलन और स्थिरता रहना असंभव है । उत्तेजना के कारण
  −
 
  −
मन कब क्या करेगा यह कहना लगभग असंभव है ।
  −
 
  −
मन चंचल होता है । श्रीमदू भगवद्गीता में अर्जुन ने
  −
 
  −
मन का यथार्थ वर्णन किया है । अर्जुन कहता है -
  −
 
  −
चंचल हि मनः कृष्ण प्रमाथि बलवदू दृढम्‌ ।
  −
 
  −
तस्याहं निग्रहं मन्ये वायोरिव सुदुष्करम्‌ ।।
  −
 
  −
अर्थात्‌
  −
 
  −
हे कृष्ण, मन अत्यन्त चंचल है, जिद्दी है, बलवान
  −
 
  −
है, दृढ़ है, उसका निग्रह करना वायु का निग्रह करने के
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  −
समान अत्यंत कठिन है ।
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मन एक समय में एक ही बात को पकड़ता है परन्तु
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चंचलता के कारण उस पर टिका नहीं रह सकता । क्षण के
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भी छोटे हिस्से में वह एक पदार्थ से दूसरे पदार्थ पर आता
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जाता रहता है । उसकी आने जाने की गति भी अत्यधिक
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पर्व ६ : शक्षाप्रक्रियाओं का सांस्कृतिक स्वरूप
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है। विश्व के सभी गतिमान पदार्थों में मन का क्रम प्रथम
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आता है । उसके जितना तेज कोई नहीं भागता । और फिर
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जाने के लिये उसे किसी प्रकार के साधन की आवश्यकता
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नहीं होती है । ऐसा मन अपने वश में रहना भी बहुत ही
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कठिन है । मन जिस पदार्थ में आसक्त हो जाता है उससे
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अलग होना नहीं चाहता । मन जिससे विमुख रहता है उससे
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जुड़ना नहीं चाहता । ये दोनों काम उससे करवाना
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अत्यधिक कठिन बात है ।
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ऐसा चंचल, उत्तेजनापूर्ण और आसक्ति से युक्त मन
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जब तक एकाग्र, शान्त और अनासक्त नहीं बनता तब तक
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सदूगुण और सदाचार असंभव हैं । मन को नियमन, नियंत्रण
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और संयम में रखे बिना संस्कार असंभव है । इस स्थिति में
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अच्छाई हमसे कोसों दूर रहेगी ।
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अतः अच्छाई की शिक्षा के लिये मन की शिक्षा देना
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अनिवार्य बन जाता है ।
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मन की शिक्षा कब दें
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मन की शिक्षा को ही संस्कारों की शिक्षा कहते हैं ।
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वही सदूगुण सदाचार की शिक्षा है। वही भावशिक्षा या
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मूल्यशिक्षा है । वही चरिन्ननिर्माण की शिक्षा है। वही
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धर्मशिक्षा है ।
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जैसा पूर्व में कहा गया है, यह शिक्षा औपचारिक रूप
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से नहीं दी जाती । केवल विद्यालय में नहीं दी जाती |
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इस शिक्षा का मुख्य केन्द्र घर होता है । घर संस्कारों
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की शिक्षा का महत्त्वपूर्ण केन्द्र है । घर में संस्कारों की शिक्षा
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जन्म से भी पूर्व से प्रारम्भ हो जाती है । गर्भावस्‍था में ही
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माता के माध्यम से बालक जीवन की मूल बातें सीख जाता
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है । माता के खानपान, विचार और व्यवहार, स्वाध्याय और
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सत्संग, भावना एवं कल्पना बालक के चरित्र का निर्माण
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करते हैं । इसलिये माता को ही बालक का प्रथम गुरु कहा
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गया है । अपने बालक को गुणवान और सच्चरित्र बनाना है
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तो माता को सदूगुणी और सदाचरणयुक्त होना चाहिये ।
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बालक जब कोख में पल रहा है तब अपने आहारविहार
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आदि को सुव्यवस्थित रखना चाहिये ।
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इसी प्रकार जन्म के बाद घर का वातावरण
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संस्कारक्षम होना अत्यन्त आवश्यक
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है । बालक की ग्रहण करने की क्षमता अद्भुत होती है ।
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वह जैसा देखता है वैसा ही करता है, जैसा सुनता है वैसा
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ही बोलता है, जिस वातावरण में पलता है उस वातावरण
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के विचारों, भावनाओं एवं दृष्टिकोण की तरंगों को पकड़
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लेता है और उन्हें आत्मसात कर लेता है । अनकही बातों
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को भी समझ लेने की उसमें क्षमता होती है । करनी और
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कथनी का अन्तर उसे समझ में आ जाता है । वह शब्द
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छोड देता है और उसके पीछे जो भाव होता है उसको ग्रहण
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कर लेता है । इसलिये बालकों को चरित्रवान बनाने की
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इच्छा है तो घर में सभी परिवारजनों को अपने
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आचारविचार में शुद्ध और पवित्र रहना चाहिये, घर के
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वातारवण को भी शुद्ध और पवित्र रखना चाहिये । ऐसे घर
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में पले बालक को अच्छे घर का बालक कहते हैं, केवल
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धनी, शिक्षित या सत्ता के कारण प्रतिष्ठित घर के बालक
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को नहीं ।
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हमारे समाजहितैषी और मनोविज्ञान के जानकार ऋषि
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इस तथ्य को जानते थे इसलिये उन्होंने शिशुसंगोपन के एक
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सम्पूर्ण शास्त्र की रचना की और दैनन्दिन व्यवहार की
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परम्परा के रूप में उसे घर घर में और जन जन के हृदय में
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स्थापित किया । इसके चलते ही घर घर में लोरी गाने का
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प्रचलन है । सोते समय बालक लोरी सुनते सुनते जो प्रेरणा
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ग्रहण करता है वह उसके चित्त पर अमिट संस्कार बनकर
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रह जाता है । प्रातःकाल के स्तोत्र और भजन का भी यही
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प्रभाव होता है । विश्व के अनेक महापुरुषों ने अपने बचपन
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के संस्मरणों को सुनाते समय कहा है कि अल्पशिक्षित
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माता के मुख से जो लोरियाँ, कहानियाँ और स्तोत्रादि सुने
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हैं उनका उनके चरित्र निर्माण में बहुत योगदान रहा है । इसी
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प्रकार माता we waged अपने हाथ से बालक को
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खिलाती है तब उसके स्पर्श के और उस भोजन के माध्यम
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से माता के हृदय के भाव भी बालक में संक्रान्त होते हैं
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और चिरस्थायी बनते हैं ।
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बालअवस्था में चरित्रशिक्षा
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शिशुअवस्था में संस्कार होते हैं। उस समय
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भारतीय शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप
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चरित्रनिर्माण होता है । बालअवस्था में वैसे तो भारत के लोग सदूगुण, सदाचार, सज्जनता
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आदतें बनती हैं, मानसनिर्माण होता है। उस समय... और अच्छाई किसे कहते हैं वह भलीभाँति जानते हैं,
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चरित्रगठन भी होता है । इसी अवस्था में चरित्र की असंख्य.. इसलिये यहाँ विस्तार से उसकी चर्चा करने की आवश्यकता
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छोटी मोटी बातें मनोदैहिक स्तर का अविभाज्य हिस्सा... नहीं है । केवल मोटे तौर पर एक सूची बनाई जा सकती है,
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बनकर व्यक्ति के आचार विचार में अभिव्यक्त होती हैं ।.. जो इस प्रकार है ।
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बालअवस्था में सीखी हुई आदतों को छोड़ना दुष्कर होता एक सज्जन व्यक्ति को -
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है । इस समय यदि सही आदतें पड़ गईं तो बालक सच्चरित्र .. *.... सत्यवादी और ईमानदार होना चाहिये,
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बनता है, गलत पड़ गईं तो दुश्चरित्र । इस अवस्था में घर में... *.. उद्यमशील और उद्योगपरायण होना चाहिये,
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पिता की भूमिका अत्यन्त महत्त्वपूर्ण होती है । घर में जब. *.. ऋजु, विनयशील, मैत्नीपूर्ण और परोपकारी होना
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छः से लेकर पन्द्रह वर्ष के बालक पल रहे होते हैं तब पिता चाहिये,
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को एक कुम्हार जैसी भूमिका ari et el ree we = स्नेह, अनुकम्पा, दया, करुणा से युक्त होना चाहिये,
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मिट्टी का घडा बनाता है तब गिली मिट्टी को चाक पर सेवापरायण होना चाहिये,
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चढ़ाता है और उसे जैसा चाहे वैसा आकार देता है । उस... *... सामाजिक दायित्वबोध और देशभक्ति के गुणों से
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समय वह मिट्टी के गोले पर जरा भी दबाव नहीं देता और युक्त होना चाहिये,
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किसी भी प्रकार की कठोरता नहीं बरतता । वह बहुत हलके... *.. ईश्वरपरायण होना चाहिये,
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हाथ से उसे आकार देता है । परन्तु विशेषता यह है कि वह... *. श्रद्धा, विश्वास के गुणों से युक्त तथा दृढ़ मनोबल से
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हलके हाथ से व्यवहार करने पर भी जैसा चाहिये वैसा ही युक्त तथा निरहंकारी होना चाहिये ।
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आकार देता है । घड़े का आकार उसके पूर्ण नियंत्रण में इस सूची में और भी छोटी मोटी बातें जुड़ सकती
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होता है । उस समय वह जैसा आकार बनाता है घड़े का... हैं । हम सबके लिये स्वीकार्य यह सूची है ।
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वही आकार जीवनपर्यन्त रहता है । ठीक उसी प्रकार से
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शिशु अवस्था में मातापिता बालक का संगोपन पूर्ण
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लाडप्यार से करते हुए भी उसका चरित्र जैसा चाहिये वैसा बालक में इन गुणों का विकास पुस्तकें पढ़ने से,
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बनाते हैं । परन्तु कुम्हार घडे को आकार देने के बाद उसे... नियम बनाने से, उपदेश देने से, डाँटने से या दण्ड अथवा
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चाक पर से उतारता है, तब छाया में रखकर उसका रक्षण.. लालच देने से नहीं होता । मातापिता को अपने बालक में
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नहीं करता । वह उस कच्चे घडे को अग्नि में डालकर... इन गुणों का विकास करने हेतु निम्नलिखित बातों की ओर
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पकाता है। पका घडा ही पानी भरने के काम में आता है । ध्यान देना चाहिये ।
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कच्चा घडा किसी काम का नहीं होता है । उसी प्रकार... *... मातापिता बालकों को निःस्वार्थ और भरपूर प्रेम दें ।
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बालअवस्था में पिता अपनी सन्तान को संयम, अनुशासन, ... *... मातापिता स्वयं चरित्रवान हों और उनका चस्त्र
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अज्ञापालन, नियमपालन, परिश्रम आदि की अग्नि में व्यवहार एवं वाणी में दिखाई दे ।
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पकाता है और उसका चरित्रगठन करता है। कहने का... *... मातापिता का व्यवहार पारदर्शी हो ।
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तात्पर्य यह है कि जिसे आज मूल्यशिक्षा कहा जाता है और... *... मातापिता अपने साथ साथ बालकों को व्यवहार
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मातापिता इन गुणों की शिक्षा किस प्रकार दे सकते हैं ?
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भारत में जिसे हमेशा से धर्मशिक्षा, संस्कारों की शिक्षा, करने के लिये प्रेरित करें ।
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सज्जनता की शिक्षा कहा जाता है वह प्रमुख रूप से... *. सगर्भावसथा से ही माता पवित्र एवं शुद्ध आचरण करे
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गर्भावस्‍था, शिशुअवस्था और बालअवस्था में होती है और तथा स्वाध्याय, सत्संग एवं सेवा करे ।
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प्रमुख रूप से घर में ही होती है । © छोटे बालकों को लोरी, कहानी और अच्छे दृश्यों
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र्ट््ड
      
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पर्व ६ : शक्षाप्रक्रियाओं का सांस्कृतिक स्वरूप
 
पर्व ६ : शक्षाप्रक्रियाओं का सांस्कृतिक स्वरूप
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तथा मधुर संगीत के माध्यम से संस्कार देने की
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तथा मधुर संगीत के माध्यम से संस्कार देने की व्यवस्था हो । सदाचार सिखाया जाय तथा आग्रहपूर्वक उसका पालन करवाया जाय । परिवार के सम्पूर्ण वातावरण में अच्छाई की प्रतिष्ठा दिखाई देनी चाहिये । सच्चरित्र का महत्त्व धनसंपत्ति, सत्ता और ज्ञान से भी अधिक माना जाना चाहिये ।  
 
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व्यवस्था हो ।
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सदाचार सिखाया जाय तथा अप्रहपूर्वक उसका
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पालन करवाया जाय ।
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परिवार के सम्पूर्ण वातावरण में अच्छाई की प्रतिष्ठा
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दिखाई देनी चाहिये । सच्चरित्र का महत्त्व धनसंपत्ति,
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सत्ता और ज्ञान से भी अधिक माना जाना चाहिये ।
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बडी आयु में सद्गुणशि क्षा
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ऐसा नहीं है कि शिशु एवं बाल अवस्था के बाद
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संस्कारों की शिक्षा की कोई आवश्यकता नहीं है । शिशु
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एवं बाल अवस्था संस्कारों के लिये नींव है । उसकी उपेक्षा
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करके बड़ी आयु में संस्कारों की शिक्षा देने का कोई अर्थ
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नहीं होता, परन्तु बडी आयु में भी संस्कारों की शिक्षा की
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आवश्यकता रहती ही है । भगवान रामकृष्ण परमहंस कहते
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थे कि अपने लोटे को प्रतिदिन माँजकर साफ रखना होता
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है । शिशु एवं बाल अवस्था के सम्यक्‌
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प्रयासों से हमारे चरित्र का लोटा यदि साफ एवं चमकीला
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हो गया हो, और वह सोने या चाँदी जैसा मूल्यवान हो तो
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भी उसे प्रतिदिन के प्रयासों से साफ रखना ही होता है ।
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अतः किशोर एवं युवावस्था में भी संस्कारों की शिक्षा की
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ओर ध्यान देना आवश्यक है ।
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किशोर अवस्था में शारीरिक और मानसिक ब्रह्मचर्य
  −
 
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की रक्षा, त्याग, सेवा, संयम, सादगी और कठोर परिश्रम
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करना अत्यन्त आवश्यक है। आगे युवावस्था में दान,
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नीति एवं. परिश्रमपूर्वक sats, ast की सेवा,
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समाजसेवा, देश की रक्षा में योगदान, स्वाध्याय एवं सत्संग
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आदि का निरन्तर क्रम बना रहना चाहिये ।
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ये सारी बातें हमारी जीवनशैली का अभिन्न अंग
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बनना आवश्यक है । ऐसे सज्जन व्यक्तियों के कारण ही
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समाज सुसंस्कृत एवं गुणबान बनता है । ऐसा समाज ही
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श्रेष्ठ समाज होता है ।
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=== बडी आयु में सद्गुणशिक्षा ===
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ऐसा नहीं है कि शिशु एवं बाल अवस्था के बाद संस्कारों की शिक्षा की कोई आवश्यकता नहीं है । शिशु एवं बाल अवस्था संस्कारों के लिये नींव है । उसकी उपेक्षा करके बड़ी आयु में संस्कारों की शिक्षा देने का कोई अर्थ नहीं होता, परन्तु बडी आयु में भी संस्कारों की शिक्षा की आवश्यकता रहती ही है । भगवान रामकृष्ण परमहंस कहते थे कि अपने लोटे को प्रतिदिन माँजकर साफ रखना होता है । शिशु एवं बाल अवस्था के सम्यक्‌ प्रयासों से हमारे चरित्र का लोटा यदि साफ एवं चमकीला हो गया हो, और वह सोने या चाँदी जैसा मूल्यवान हो तो भी उसे प्रतिदिन के प्रयासों से साफ रखना ही होता है ।
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कर्मशिक्षा
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अतः किशोर एवं युवावस्था में भी संस्कारों की शिक्षा की ओर ध्यान देना आवश्यक है । किशोर अवस्था में शारीरिक और मानसिक ब्रह्मचर्य की रक्षा, त्याग, सेवा, संयम, सादगी और कठोर परिश्रम करना अत्यन्त आवश्यक है। आगे युवावस्था में दान, नीति एवं परिश्रमपूर्वक अर्थार्जन, बड़ों की सेवा, समाजसेवा, देश की रक्षा में योगदान, स्वाध्याय एवं सत्संग आदि का निरन्तर क्रम बना रहना चाहिये । ये सारी बातें हमारी जीवनशैली का अभिन्न अंग बनना आवश्यक है । ऐसे सज्जन व्यक्तियों के कारण ही समाज सुसंस्कृत एवं गुणबान बनता है । ऐसा समाज ही श्रेष्ठ समाज होता है ।
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== कर्मशिक्षा ==
 
समाज जिस प्रकार सुसंस्कृत एवं सज्जन होना
 
समाज जिस प्रकार सुसंस्कृत एवं सज्जन होना
  

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