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व्यक्ति की गर्भाधान से विवाहसंस्कार तक की शिक्षा
घर में होती है और वह मातापिता ट्वारा होती है । परन्तु
गृहस्थाश्रम, वानप्रस्थाश्रम और संन्यास्ताश्रम में शिक्षा
किससे और कैसे मिलती है और लोक शिक्षा से उसका
क्या सम्बन्ध है यह विचारणीय विषय है । हम कुछ इस
प्रकार से विचार कर सकते हैं
१. गृहस्थाश्रम में शिक्षा
विद्यालयीन शिक्षा समाप्त होने के बाद, विवाह हो
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जाने के बाद स्वाध्याय, स्वचिन्तन और उसके आधार पर
व्यवहार यह मुख्य विषय बनता है। उस समय जिससे
स्वाभाविक रूप से परामर्श लिया जा सकता है वे हैं
मातापिता । प्रौठ वानप्रस्थ मातापिता अभी भी परामर्शक हैं
ही। विमर्श के लिये अन्य गृहस्थाश्रमी भी हैं।
विश्वविद्यालयों में और अपने अपने घरों में शिक्षित
युवावस्था के गृहस्थाश्रमी अब अपनी व्यवस्था से एकदूसरे
से विमर्श कर सीखते हैं । विभिन्न व्यवसायों के, विभिन्न
जातियों के, विभिन्न विचारधाराओं के, विभिन्न सम्प्रदायों के
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पर्व ५ : कुटुम्बशिक्षा एवं लोकशिक्षा
समूह संस्थाओं, मण्डलों और संगठनों के रूप में कार्यरत
होते हैं जो अपने अपने क्षेत्र की स्थिति का आकलन करते
हैं, उपलब्धियों और समस्याओं की चर्चा करते हैं,
समस्याओं का हल खोजने का प्रयास करते हैं, अपनी
सन्तानों की शिक्षा, संस्कार, चरित्र आदि के बारे में, अपने
व्यवसाय की स्थिति और विकास के बारे में, अपने
व्यवसाय के माध्यम से की जाने वाली समाजसेवा के बारे
में चर्चा करते हैं । यहाँ निरन्तर शिक्षा होती ही रहती है ।
गृहस्थ विभिन्न सामाजिक, सांस्कृतिक, धार्मिक
संगठनों से जुड़ते हैं । वहाँ समाजसेवा के प्रकल्प चलते
हैं । वहाँ सांस्कृतिक और राष्ट्रीय समस्याओं की चर्चा होती
है । उसमें हमारे लिये करणीय कार्य कया है इसकी भी चर्चा
होती है । ऐसे कार्यों में गृहस्थों की सहभागिता होती है ।
काम करते करते सीखने और सिखाने का यह अच्छा
माध्यम है । इसमें भी निःस्वार्थता और विवेक जितनी मात्रा
में होते हैं उतनी मात्रा में शिक्षा अच्छी चलती है ।
विशेष स्थिति में विशेष कार्य
प्राकृतिक और मानवसर्जित संकर्टों में समाज के सभी
सदस्यों को कुछ न कुछ करना होता है । साम्प्रदायिक दंगे,
आतंकवादियों के हमले, कारीगरों या अन्य व्यावसायिकों
की हडताल, आदि मानवसर्जित संकट हैं । कभी कभी ये
अल्प अवधि के होते हैं, कभी दीर्घ अवधि के । कभी
अधिक उग्र होते हैं, कभी कम उग्र । भूकम्प, बाढ़,
अतिवृष्टि, अकाल आदि प्राकृतिक आपदायें हैं । वे भी
कमअधिक मात्रा में भीषण होती हैं । ऐसे समय में हरेक को
अपने समाजधर्म का पालन करना होता है । यह सामाजिक
दायित्वबोध की शिक्षा है । इन संकटों का निवारण करना,
इन आपदाओं में सहायता करना ही धर्म है । यह केवल
सरकार का विषय नहीं है । सरकार और समाज दोनों का
विषय है । इस कार्य में जो भी लोग जुडते हैं उनमें सीखने
वाले और सिखाने वाले दोनों होते हैं । प्रत्यक्ष काम करते
करते सीखना और सीखते सीखते करना इस शिक्षा का
स्वरूप होता है ।
मुख्य बात यह है कि किसी ने भी ऐसे समय में बिना
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काम किये और बिना सीखे नहीं रहना
चाहिये । ऐसे समय में सीखने से ही आगे किसी को
सिखाने के पायक भी बनते हैं ।
३. सम्प्रदाय सम्बन्धी शिक्षा
सम्प्रदाय को और सम्प्रदायपरस्ती को आज हेय बना
दिया गया है । इसका कारण स्वार्थ और राजनति तो है ही,
साथ में इस विषय में उचित शिक्षा का अभाव भी है जिसके
परिणाम स्वरूप सम्प्रदाय के अनुसार का विकृतिकरण हो
गया है । सम्प्रदाय हेय नहीं है, साम्प्रदायिक विद्रेष हेय है ।
परन्तु आज सम्प्रदाय और साम्प्रदायिक विट्रेष को एकदूसरे
के पर्याय के रूप में देखा जाता है । वास्तव में सम्प्रदाय
व्यक्तियों की आस्था का आलम्बन है । वह चरित्र की रक्षा
करने का साधन है । अतः सम्प्रदाय की शिक्षा की व्यवस्था
होना आवश्यक है । यह शिक्षा लोकशिक्षा का ही अंग है,
और महत्त्वपूर्ण अंग है । सम्प्रदाय सम्बन्धी शिक्षा के
आयाम इस प्रकार हो सकते हैं
१... सम्प्रदाय विषयक जानकारी : इसमें सम्पर्दाय का
उद्गम, उसके संस्थापक अथवा प्रवर्तक, सम्प्रदाय
का पवित्र ग्रन्थ, सम्प्रदाय की पहचान के साधन
आदि की जानकारी हो सकती है ।
सम्प्रदाय की पूजा पद्धति, उसके ब्रत उपवास,
आचार आदि की शिक्षा दी जानी चाहिये ।
सम्प्रदाय का धर्मतत्त्वसमझना अत्यन्त आवश्यक है ।
सम्प्रदाय का अन्य सम्प्रदायों के साथ तथा व्यापक
धर्म के साथ अविरोध होना अत्यन्त आवश्यक है ।
सम्प्रदाय के आचार्यों ट्वारा इसकी शिक्षा अनिवार्य
रूप से दी जानी चाहिये । इस हेतु से अन्य सम्प्रदायों
के विषय में जानना भी आवश्यक होता है ।
कभी कभी युवा पीढी साम्प्रदायिक आचारों का
पालन नहीं करती । इस स्थिति में परिस्थिति का
आकलन कर या तो आचारपद्धति में परिवर्तन अथवा
अच्छी शिक्षा की व्यवस्था करना आवश्यक हो जाता
है । सर्व पंथ समादर की शिक्षा देना प्रत्येक सम्प्रदाय
का कर्तव्य है ।
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अपने सम्प्रदाय का प्रचार करना
इृष्ट नहीं है। अपने सम्प्रदाय को श्रेष्ठ और अन्य
सम्प्रदायों को हेय मानना अधार्मिक है, अतः मूल से
ही यह नहीं होना चाहिये । कोई यदि अपनी प्रतीति
से और श्रद्धा से हमारे सम्प्रदाय का स्वीकार करना
चाहे या छोड़ना चाहे तो उसकी अनुमति होनी
चाहिये । हम देखते हैं कि आज ऐसा नहीं होता है ।
इस्लाम और इसाइयत सम्प्रदाय परिवर्तन के
अत्यधिक आग्रही होते हैं । अपना ही सम्प्रदाय
सर्वश्रेष्ठ मानने वाले और उसका रानीतिक उपयोग
करने वाले ये लोग बलात् धर्मपरिवर्तन करते हैं ।
उन्होंने अनेक सम्प्रदायों को नष्टप्राय कर दिया है और
अनेक देशों को अपने सम्प्रदाय से व्याप्त कर दिया
है। इस स्थिति में अन्य सम्प्रदायों ने
सम्प्रदायपरिवर्तन न हो और सम्प्रदायपरिवर्तन के
प्रतिकार की शक्ति निर्माण हो इसका भी प्रयास करना
चाहिये । हर सम्प्रदाय को देश में सम्प्रदायों को लेकर
क्या समस्या है उसका अध्ययन करना चाहिये और
उसके निराकरण हेतु किये जाने वाले प्रयासों के
स्वरूप का निर्धारण करना चाहिये और सम्प्रदाय के
पथप्रदर्शक के निर्देशन में हर अनुयायी को व्यावहार
करना चाहिये । हर अनुयायी को अपने सम्प्रदाय का
ames पालन करने की और कट्टरता से बचने
की उदारता की शिक्षा साथ साथ मिलनी चाहिये ।
हमारा आज का प्रचलन ऐसा है कि ये सारी बातें हम
सरकार को सौंप देते हैं और हमारा दायरा व्यक्तिगत
जीवन तक सीमित कर लेते हैं । सम्प्रदाय प्रमुख को
चाहिये कि वह अपने अनुयायियों को सीमितता से
मुक्त करे ।
४. आचार विचार की शुद्धता
विद्यालयों और घरों में आचार विचार की शुद्धता का
आग्रह सुसंस्कृत समाज का लक्षण है। ऐसा ame
सिखाना शिक्षकों और मातापिताओं का दायित्व है, परन्तु
इनके लिये भी स्रोत मन्दिर, संस्था और धर्माचार्य हैं । ये
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भारतीय शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप
धर्माचार्य किसी न किसी सम्प्रदाय के होने पर भी आचार
विचार की शुद्धता सिखाने के लिये उन्होंने सम्प्रदाय से
ऊपर उठना चाहिये । उदाहरण के लिये
१... सार्वजनिक स्थानों पर कचरा नहीं फेंकना ।
2. तीर्थस्थानों पर प्लास्टीक की थैलियाँ और
डिब्बे नहीं फैंकना
3. व्यसनों से मुक्त रहना
¥. तामसी आहार नहीं करना और नहीं बेचना
५. . पोलीएस्टर के कपडे नहीं पहनना
६.. बिना स्नान किये रसोई या भोजनगृह में नहीं
जाना
७... अशिष्ट और असंस्कृत भाषा का प्रयोग नहीं
करना
é. अशिष्ट वेशपरिधान नहीं करना
९... स्वयं अपवित्र नहीं रहना और किसी स्थान या
पदार्थ को अपवित्र नहीं बनाना
१०, श्रद्धाकेन्द्रों की निन््दा नहीं करना
इस प्रकार से. सामाजिक सुरक्षा, सद्भावना,
समरसता, एकात्मता बनी रहे और समाज का, देश का
सामर्थ्य बढे ऐसे प्रयास होने चाहिये । ज्ञानक्षेत्र और धर्मक्षेत्र
का यह दायित्व है। मुख्य दायित्व धर्मकेन्द्र का है,
ज्ञानकेन्द्र को उसमें सहयोग करना है ।
५. सामाजिक कानून और राज्य का कानून
एक समय ऐसा था जब भारत में दो प्रकार के कानून
चलते थे । एक थे सामाजिक कानून और दूसरे थे राज्य के
कानून । दोनों में सामाजिक कानून अधिक प्रभावी थे
क्योंकि वे सामाजिक प्रतिष्ठा पर असर करते थे । सामाजिक
कानूनों का संचालन जाति पंचायतों ट्रारा होता था । रोटी
बेटी व्यवहार और व्यवसाय मुख्य रूप से उसका कार्यक्षेत्र
होता था । सामाजिक स्तर के झगडे निपटाना उनका काम
था । आर्थिक रूप में दण्ड लगाना, प्रायश्चित देना, रोटी-
बेटी निषेध करना, जातिबाह्य करना आदि दण्ड के प्रकार
होते थे । व्यक्ति को ये अन्तिम दो सहे नहीं जाते थे ।
इसलिये सामाजिक अपराध से लोग बचना चाहते थे ।
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पर्व ५ : कुटुम्बशिक्षा एवं लोकशिक्षा
सामाजिक स्तर पर सबसे बड़ा भय लोकनिन््दा का रहता
था। यह कानून के अन्तर्गत नहीं होता था । तो भी
अत्यन्त प्रभावी था । इससे बचने के लिये लोग अनेक
प्रकार से सावधानी बरतते थे । लोकनिन््दा कभी कभी
दुष्परिणामकारी होने पर भी कुल मिलाकर सामाजिक चरित्र
की रक्षा करती थी । उदाहरण के लिये कौट्म्बिक रिश्ता
नहीं है ऐसे किशोर किशोरी या युवक युवती साथ साथ देखे
गये तो निन््दा का विषय बनता था, अच्छे घर का युवक
व्यसन में फँस गया तो निन््दा का विषय बनता था ।
पड़ौसी, जातिबाँधव, मित्रमण्डली आदि से छिपाना या
बचना असम्भव था । इसी प्रकार से सज्जनता और सच्चरित्र
की प्रतिष्ठा भी उतनी ही सहजता से बन जाती है । यह
प्रतिष्ठा सही होती है । लोगों की परख बहुत सही होती
है।
धर्मशिक्षा का अभाव रहा तो सामाजिक कानून,
अन्यायपूर्ण बन जाते हैं, सामाजिक सदूभावना विदट्रेष में
बदल जाती है, सुरक्षा शोषण का कारण बन जाती है ।
कुरूढियों और अन्धविश्वासों का जोर जम जाता है ।
आज सामाजिक कानून का असस्तित्व ही नहीं रहा है
क्योंकि राज्य ने सभी भारतीय सामाजिक संस्थाओं को नष्ट
कर दिया है । भारतीय समाज सामाजिक कानूनों को ही
मान्य करता है, राज्य के कानून सामाजिक व्यवहार को या
तो लागू ही नहीं हैं या तो सामाजिक स्तर पर प्रतिष्ठित नहीं
है । इसलिये कानूनभंग ही सामान्य बन गया है । कानून का
पालन करना विवशत्ता है । परिणाम स्वरूप अपराधों की
संख्या और जघन्यता बढ गये हैं, वकीलों का व्यवसाय
फलफूल रहा है । न्यायालय कम पड़ रहे हैं और सामाजिक
सुरक्षा, सद्भाव, समरसता आदि सब नष्ट हो रहे हैं । धर्म
को विवाद का विषय बनाने तथा शिक्षा का यूरोपीकरण
करने का यह परिणाम है । इन दो कारणों को दूर किये
बिना लोकशिक्षा का सही आधार ही नहीं बनता । वास्तव
में इन्हें दूर करने के लिये ही प्रथम तो लोकशिक्षा की
आवश्यकता है । ये दो क्षेत्र भी तो धर्मसंस्था और
विद्यालयसंस्था के हैं । इस दृष्टि से अध्ययन, चिन्तन,
विट्रदूचर्चा और प्रबोधन इस क्रम में योजना करने की
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आवश्यकता होती है । ज्ञान और धर्म
के क्षेत्र के उत्पात के कारण से समाज व्यवस्था
छिन्नविच्छिन्न हो जाती है । गृहव्यवस्था और अर्थव्यवस्था
पर इसका विपरीत परिणाम होता है । उदाहरण के लिये
fed जीवनदृष्टि ने निम्नलिखित धारणायें उपहास,
अत्याचार और शिक्षा के माध्यम से समाज के मानस में
स्थापित कर दी हैं...
g. भारत में खियों का शोषण होता है और उन्हें निम्न
माना जाता है । उन्हें इस शोषण से बचाने की
आवश्यकता है । उनकी मुक्ति के लिये आन्दोलन
चलाना चाहिये ।
भारत का समाज पिछड़ा है क्योंकि यहाँ बालविवाह
होता है । व्यक्ति की स्वतन्त्रता का नाश होता है ।
उसे अपना करिअर तय करने का भी अधिकार नहीं
है। इस स्थिति से इस समाज का उद्धार करना
चाहिये ।
भारत में वर्णव्यवस्था और जातिव्यवस्था एक बहुत
बडा सामाजिक दृषण है। यह वर्गभेद है । इसे
मिटाना ही चाहिये ।
यहाँ विज्ञान और तकनीकी का विकास नहीं हो
सकता क्योंकि लोगों में इसके लिये आवश्यक बुद्धि
नहीं है ।
यहाँ लोग असभ्य और अशिष्ट हैं । पुरुष आधे कपड़े
पहनते हैं और feat vet aed हैं । विधवाओं को
पुनर्विवाह की अनुमति नहीं है पुरुषों को है। यह
बड़ी असमानता है और अन्याय है ।
पत्थर को, नदी को, वृक्ष को, बन्दर को, हाथी को
देवता मानने वाली भारत की प्रजा जंगली है । सभ्य
जीवन के उच्च तत्त्वों की इन्हें समझ नहीं है ।
ये तो कुछ उदाहरण हैं इसी प्रकार की गलत
धारणायें, जो अज्ञान और मत्सरजनित हैं, ब्रिटीशोंने
भारतीयों के मानस में स्थापित की हैं । दुर्भाग्य से भारत के
शिक्षित समाज के मन को धारणायें सत्य ही लगती हैं । इन
धारणाओं के चलते समाज की व्यवस्थायें छिन्नविच्छिन्न हो
गई हैं । बिगड़ी हुई स्थिति को और पक्की करने के लिये
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कानून बनाये गये । उन बातों को ठीक
करने हेतु धर्माचार्यों और विद्वानों ने खास कोई प्रयास नहीं
किया, उल्टे उसका लाभ उठाने के प्रयास हुए ।
इस स्थिति को ठीक करने के लिये एक ओर विद्वानों
ने ज्ञानात्मक पद्धति से और दूसरी ओर धर्माचार्यों ने
मनोवैज्ञानिक पद्धति से लोकशिक्षा के व्यापक प्रयास करने
चाहिये । परराष्ट्र के सीमा पर के आक्रमण के सामने जिस
प्रकार प्रजा जाग्रत होती है उसी प्रकार परराष्ट्र के सांस्कृतिक
आक्रमण का प्रतिरोध करने के लिए भी प्रजा में जागृति
निर्माण करने का प्रयास करना चाहिये ।
कई विषय ऐसे होते हैं जिनका ज्ञानात्मक और
मनोवैज्ञानिक निदान करना आवश्यक होता है । उदाहरण के
लिये महानगरों में बड़े घर के, अच्छे घर के लड़के अधिक
मात्रा में नशाखोरी के शिकार बनते हैं, चौदह पन्द्रह की
आयु के बच्चे आत्महत्या करते हैं, बड़ी आयु तक
लड़कियाँ विवाह के लिये तैयार नहीं होती हैं। इन
सामाजिक समस्याओं के मूल कारण ढूँढना आवश्यक है ।
उसके बाद उसका उपचार किया जा सकता है । निदान और
उपचार का काम सरकार को सॉंप देने से समस्या हल नहीं
होती । सरकार इसके लिये कानून बनाने से और दण्ड का
प्रावधान करने से अधिक कुछ नहीं कर सकती ।
लोकजागरण के अभियान करती है, उस कार्य में यश मिला
ऐसा मानती है और मनवाती है परन्तु वास्तव में उसे यश
मिलता नहीं क्योंकि सरकारी प्रयासों से सुलझने वालीं ये
समस्यायें नहीं हैं। यह कार्य लोकशिक्षा का है जो
धर्माचार्यों द्वारा होना चाहिये ।
६. वानप्रस्थाश्रम और लोकशिक्षा
वास्तव में सभी वानप्रस्थियों का मुख्य दायित्व
समाजसेवा का है और समाजसेवा का मुख्य कार्य
लोकशिक्षा है । उनके ट्वारा की जाने वाली लोकशिक्षा
ज्ञानात्मक, भावात्मक और क्रियात्मक तीनों प्रकार की
होती है । अपनी अपनी रुचि के अनुरूप सभी वानप्रस्थियों
को अपने काम का चयन करना चाहिये । परन्तु इसमें एक
बात की सावधानी रखने की आवश्यकता है । विद्यालय
BBR
भारतीय शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप
करता है वही कार्य बिना शुल्क और वेतन के करना यह
लोकशिक्षा नहीं है, विद्यालय शिक्षा है । हॉस्पिटल में भर्ती
हुए क्रग्गों की परिचर्या करना, उनके रिश्तेदारों के लिये
भोजन की व्यवस्था करना हॉस्पिटल के काम में सहयोग है,
लोकशिक्षा नहीं है । गरीबों के लिये निःशुल्क शिक्षा के वर्ग
चलाना विद्यालय के कार्य में सहयोग है, लोकशिक्षा नहीं
है। बच्चों के लिये संस्कारवर्ग चलाना कुट्म्ब के काम का
पर्याय है, लोकशिक्षा नहीं है । ये at seed वानप्रस्थियों
को इसलिये चलाने पड़ते हैं क्योंकि सम्बन्धित लोग अर्थात्
शिक्षक, डॉक्टर अथवा मातापिता अपना काम करते नहीं
हैं, वानप्रस्थियों को करने हेतु विवश कर देते हैं।
वानप्रस्थियों की समाज सेवा के अन्य अनेक आयाम हैं
जिनमें लोकशिक्षा मुख्य है, और लोकशिक्षा के अनेक
आयामों की चर्चा पूर्व में हुई ही है । वानप्रस्थियों ने अपने
आप को लोकशिक्षा के अनेक कामों के लिये सक्षम भी
बना लेना चाहिये। वे यदि घर में रहते हैं तो उन्हें
लोकशिक्षा के आयामों को घर के साथ भी जोड़ना
चाहिये । वानप्रस्थाश्रम में प्रौद और वृद्ध दोनों का समावेश
होता है । प्रौद वानप्रस्थियों को समाजसेवा के ऐसे काम
करने चाहिये जिनमें शारीरिक श्रम भी होता हो परन्तु वृद्धों
को शिक्षा का ही काम करना चाहिये । पूर्व में अन्य काम
किये हुए होने के कारण अब वे शिक्षा देने के लिये सक्षम
भी हो जाते हैं ।
७. संन्यासियों द्वारा लोकशि क्षा
संन्यासी को स्वंय के लिये भी त्याग, तप और
मुमुक्षा की शिक्षा की आवश्यकता है और समाज को भी
उसने इन्हीं बातों की शिक्षा देनी चाहिये । परन्तु इसमें एक
बात की विशेषता है । संन्यासी, वानप्रस्थी और गृहस्थ के
लिये त्याग, तप और मुमुक्षा स्वरूप भिन्न भिन्न होता है ।
संन्यासी इस बात की स्पष्ट समझ विकसित करे और गृहस्थ
और वानप्रस्थ का इस प्रकार से प्रबोधन करे यह अपेक्षित
है।
इस प्रकार कुट्म्ब में रहकर भी लोकशिक्षा का कार्य
हो सकता है, किंबहुना वह होना ही चाहिये । विद्यालय
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पर्व ५ : कुटुम्बशिक्षा एवं लोकशिक्षा
शिक्षा, कुट्म्बशिक्षा और लोकशिक्षा में समरसता निर्माण आज इस लोकशिक्षा के बारे में
होनी चाहिये । इस दृष्टि से समय समय पर शिक्षकों, भी बहुत परिवर्तन की आवश्यकता है । समाजसेवा का भी
अभिभावकों और धर्माचार्यों ने एकत्र आने की आवश्यकता... व्यवसायीकरण हो गया है जिससे बचना भारी पड़ रहा है ।
रहती है । भारत का सामाजिक सांस्कृतिक इतिहास देखें तो... समाजसेवा की हमारी संकल्पना भी बदल गई है। इस
ध्यान में आता है कि ये सारी व्यवस्थायें एकदूसरे के साथ... स्थिति में मूल चिन्तन की बहुत आवश्यकता है ।
आन्तरिक रूप से जुड़ी हुई थीं ।