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=== रामेश्वरम् धाम ===
 
=== रामेश्वरम् धाम ===
तमिलनाडु राज्य के रामनाथपुरम जिले में रामेश्वरम् नामक एक विशाल द्वीप पर यह एक पवित्र स्थल स्थापित हैं | यह भारत के अत्यंत आदरणीय तीर्थस्थानों में से एक है | अति प्राचीन काल से यह मन्दिर अत्यंत पवित्र मान्यतायुक्त और सभी वर्गों के द्वारा पूजित रहा है | इसकी स्थापना श्रीराम ने की थी अतः इसका नाम रामेश्वर पड़ा | स्कन्द पुराण ',रामायण , रामचरित मानस , शिव पुराण नामक ग्रंथो में रामेश्वरम् की महिमा का वर्णन किया गया है |
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तमिलनाडु राज्य के रामनाथपुरम जिले में रामेश्वरम् नामक एक विशाल द्वीप पर यह एक पवित्र स्थल स्थापित हैं यह भारत के अत्यंत आदरणीय तीर्थस्थानों में से एक है अति प्राचीन काल से यह मन्दिर अत्यंत पवित्र मान्यतायुक्त और सभी वर्गों के द्वारा पूजित रहा है इसकी स्थापना श्रीराम ने की थी अतः इसका नाम रामेश्वर पड़ा स्कन्द पुराण ',रामायण , रामचरित मानस , शिव पुराण नामक ग्रंथो में रामेश्वरम् की महिमा का वर्णन किया गया है
    
लंका परचढ़ाई से पूर्व भगवान् राम ने यहाँ शिवपूजन कर आशीर्वाद प्राप्त किया। इसी प्रकार रावण-वध के बाद जगतमाता सीता के साथ सत्ययुग में हुई थी। सत्ययुग में नर और नारायण ने, त्रेता में भगवान लौटने  पर भी श्रीराम ने यहाँ पूजन किया तथा ब्रह्महत्या करने का दत्तात्रेय ने, द्वापर में वेद-व्यास और कलियुग में आदि शंकराचार्य ने इस क्षेत्र की प्रतिष्ठा बढ़ायी। बद्रीनाथ का मन्दिर नारायण पर्वत की तलहटी प्रायश्चित किया। पवनपुत्र हनुमान द्वारा कलास से लाया गया। शिवलिंग भी पास में ही स्थापित है। रामेश्वर के परकोटे में 22 पवित्र कुंप हैं जिनमें तीर्थयात्री स्नान कर स्वयं को धन्य मानते हैं। लंका पर चढ़ाई के लिए जो पुल बनवाया था, राम ने विभीषण की प्रार्थना पर अपने धनुष से तोड़ दिया। उसी स्थान परधनुषकोटितीर्थ स्थापित है।अवशत्थामा द्रौपदी-पुत्रों की हत्या का प्रायश्चित करने यहाँ आया था। रामेश्वरम् धाम के आसपासअनेक छोटे-बड़े मन्दिर हैं, जैसे लक्ष्मणेश्वर शिव, पंचमुखी हनुमान, श्रीराम-जानकी मन्दिर। महाशिवरात्रि, वैशाख पूर्णिमा, ज्येष्ठ पूर्णिमा, आषाढ़ कृष्ण अष्टमी, नवरात्र रामनवमी, वर्ष-प्रतिपदा, विजयादशमीआदि पर्वों पर यहाँ विशेष पूजा की जाती है तथा महोत्सव मनाये जाते हैं।  
 
लंका परचढ़ाई से पूर्व भगवान् राम ने यहाँ शिवपूजन कर आशीर्वाद प्राप्त किया। इसी प्रकार रावण-वध के बाद जगतमाता सीता के साथ सत्ययुग में हुई थी। सत्ययुग में नर और नारायण ने, त्रेता में भगवान लौटने  पर भी श्रीराम ने यहाँ पूजन किया तथा ब्रह्महत्या करने का दत्तात्रेय ने, द्वापर में वेद-व्यास और कलियुग में आदि शंकराचार्य ने इस क्षेत्र की प्रतिष्ठा बढ़ायी। बद्रीनाथ का मन्दिर नारायण पर्वत की तलहटी प्रायश्चित किया। पवनपुत्र हनुमान द्वारा कलास से लाया गया। शिवलिंग भी पास में ही स्थापित है। रामेश्वर के परकोटे में 22 पवित्र कुंप हैं जिनमें तीर्थयात्री स्नान कर स्वयं को धन्य मानते हैं। लंका पर चढ़ाई के लिए जो पुल बनवाया था, राम ने विभीषण की प्रार्थना पर अपने धनुष से तोड़ दिया। उसी स्थान परधनुषकोटितीर्थ स्थापित है।अवशत्थामा द्रौपदी-पुत्रों की हत्या का प्रायश्चित करने यहाँ आया था। रामेश्वरम् धाम के आसपासअनेक छोटे-बड़े मन्दिर हैं, जैसे लक्ष्मणेश्वर शिव, पंचमुखी हनुमान, श्रीराम-जानकी मन्दिर। महाशिवरात्रि, वैशाख पूर्णिमा, ज्येष्ठ पूर्णिमा, आषाढ़ कृष्ण अष्टमी, नवरात्र रामनवमी, वर्ष-प्रतिपदा, विजयादशमीआदि पर्वों पर यहाँ विशेष पूजा की जाती है तथा महोत्सव मनाये जाते हैं।  
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" श्री राम-जन्मभूमि होने का श्रेय पाने के कारण अयोध्या साकेत हो गयी। मर्यादापुरुषोत्तम के साथ अयोध्या के समस्त प्राणी उनके दिव्य धाम को चले गये, तब श्रीराम के पुत्र कुश ने इसे पुन: बसाया।अयोध्या के इतिहास से पता चलता है कि वर्तमान अयोध्या सम्राट विक्रमादित्य की बसायी हुई है।  
 
" श्री राम-जन्मभूमि होने का श्रेय पाने के कारण अयोध्या साकेत हो गयी। मर्यादापुरुषोत्तम के साथ अयोध्या के समस्त प्राणी उनके दिव्य धाम को चले गये, तब श्रीराम के पुत्र कुश ने इसे पुन: बसाया।अयोध्या के इतिहास से पता चलता है कि वर्तमान अयोध्या सम्राट विक्रमादित्य की बसायी हुई है।  
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उन्होंने अयोध्या में सरोवर, देवालय आदि बनवाये | सिद्ध सन्तों की कृपा से राम-जन्मस्थल पर दिव्य मन्दिर का निर्माण कराया। यह कोटि-कोटि हिन्दुओं का श्रद्धा-केन्द्र रहा है। यह कसौटी के ८४ स्तम्भों के ऊपर आधारित था। मुस्लिम आक्रान्ता बाबर ने सन १५२८ ई. में इस भव्य मन्दिर का विध्वंस कर दिया और इसके अवशेषों से अधूरी मस्जिद (बिना मीनार के तीन गुम्बद)बनवा दी। रामभक्तों ने जन्म-स्थान परपूजा का अधिकार कभी नहीं छोड़ा और न ही उस पर विधर्मियों के अधिकार को स्वीकार किया। अत: सतत संघर्ष करते रहे।इस संघर्ष में 7 युद्धों में तीन लाख से अधिक रामभक्तों ने अपने प्राणों की आहुति दी।
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उन्होंने अयोध्या में सरोवर, देवालय आदि बनवाये सिद्ध सन्तों की कृपा से राम-जन्मस्थल पर दिव्य मन्दिर का निर्माण कराया। यह कोटि-कोटि हिन्दुओं का श्रद्धा-केन्द्र रहा है। यह कसौटी के ८४ स्तम्भों के ऊपर आधारित था। मुस्लिम आक्रान्ता बाबर ने सन १५२८ ई. में इस भव्य मन्दिर का विध्वंस कर दिया और इसके अवशेषों से अधूरी मस्जिद (बिना मीनार के तीन गुम्बद)बनवा दी। रामभक्तों ने जन्म-स्थान परपूजा का अधिकार कभी नहीं छोड़ा और न ही उस पर विधर्मियों के अधिकार को स्वीकार किया। अत: सतत संघर्ष करते रहे।इस संघर्ष में 7 युद्धों में तीन लाख से अधिक रामभक्तों ने अपने प्राणों की आहुति दी।
    
इसी संघर्ष की कड़ी में संवत २०४६ वि. में देवोत्थान एकादशी को नये मन्दिर के निर्माण के लिए शिलान्यास का कार्य सम्पन्न हुआ। सन २०४७ को देवोत्थान एकादशी को मन्दिर-निर्माण के कार्य को आगे बढ़ाने के लिए प्रतीक रूप में कार्य सेवा का श्रीगणेश हुआ। तत्कालीन मुस्लिमपरस्त सरकार ने लाख रुकावटें खड़ीं की परन्तु रामभक्तों के ज्वार को न रोक सकी। सरकार ने खिसियानी बिल्ली खम्बा नोचे वाली उक्ति को चरितार्थ कर निहत्थे रामभक्तों पर गोली बरसायी जिससेअनेक बलिदान हुए और सैकड़ों घायल होकर राम-मन्दिर निर्माण के लिए होने वाली कार सेवा' में भाग लेने को उत्सुक हैं। अयोध्या न केवल वैष्णव सम्प्रदाय वरन् शैव,शाक्त, बौद्ध, जैन सभी मतमतान्तरों का पवित्र स्थानहै। दशम गुरु श्री गोविन्दसिंह ने रामजन्मभूमि की मुक्ति का प्रयास किया था।  
 
इसी संघर्ष की कड़ी में संवत २०४६ वि. में देवोत्थान एकादशी को नये मन्दिर के निर्माण के लिए शिलान्यास का कार्य सम्पन्न हुआ। सन २०४७ को देवोत्थान एकादशी को मन्दिर-निर्माण के कार्य को आगे बढ़ाने के लिए प्रतीक रूप में कार्य सेवा का श्रीगणेश हुआ। तत्कालीन मुस्लिमपरस्त सरकार ने लाख रुकावटें खड़ीं की परन्तु रामभक्तों के ज्वार को न रोक सकी। सरकार ने खिसियानी बिल्ली खम्बा नोचे वाली उक्ति को चरितार्थ कर निहत्थे रामभक्तों पर गोली बरसायी जिससेअनेक बलिदान हुए और सैकड़ों घायल होकर राम-मन्दिर निर्माण के लिए होने वाली कार सेवा' में भाग लेने को उत्सुक हैं। अयोध्या न केवल वैष्णव सम्प्रदाय वरन् शैव,शाक्त, बौद्ध, जैन सभी मतमतान्तरों का पवित्र स्थानहै। दशम गुरु श्री गोविन्दसिंह ने रामजन्मभूमि की मुक्ति का प्रयास किया था।  
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=== काशी ===
 
=== काशी ===
पूर्वी उत्तर प्रदेश में गंगा के तट पर स्थित, भगवान् शांकर की महिमा से मण्डित काशी (वाराणसी) को विश्व का प्राचीनतम नगर होने का गौरव प्राप्त है। यहाँ परशक्तिपीठ है, ज्योतिर्लिग है तथा यह सप्तपुरियों में से एक है। ऋग्वेद, शतपथ ब्राह्मण", नारद पुराण", महाभारत, रामायण, स्कन्द पुराण' आदि ग्रन्थों में काशी का वैभव-वर्णन श्रद्धा के साथ किया गया है। वरणा व असी नदी के मध्य स्थित होने के कारण इसका वाराणसी नाम प्रसिद्ध हुआ। बौद्धतीर्थ सारनाथ पास में ही स्थित है। विभिन्न विद्याओं के अध्ययन-केन्द्र, सभी पंथ-सम्प्रदायों के तीर्थ स्थल तथा भगवत्प्राप्ति के परम उपयुक्त क्षेत्र के रूप में काशी की प्रतिष्ठा है। शैव, शाक्त, वैष्णव, बौद्ध, जैन पंथों के उपासक काशी को पवित्र मानकर यात्रा-दर्शन करने यहाँ आते हैं। सातवें तथा तेइसवें तीर्थकरों का यहाँ आविर्भाव हुआ। भगवान बुद्ध ने अपना पहला उपदेश यहीं पास के सारनाथ में दिया। आदि शांकराचार्य नेअपनी धार्मिक दिग्विजय यात्रा यहीं से प्रारंभ कीथी। कबीर, रामानन्द, तुलसी सदृश संतों ने काशी कोअपनी कर्मभूमि बनाया। काशी में शास्त्रों के अध्ययन, अध्यापन की प्राचीन परम्परा रही है। भारत की सांस्कृतिक एकता को अक्षुण्ण रखने में काशी ने भारी योगदान किया है। यहाँ परतीन विश्वविद्यालय तथा कई संस्कृत अध्ययन केन्द्र हैं। प्रसिद्ध ज्योतिर्लिग काशी विश्वनाथ मन्दिर को औरंगजेब ने ध्वस्त कर उसके भग्नावशेषों पर मस्जिद बनवायी| कालान्तर में महारानी अहिल्याबाई ने मस्जिद के पास ही नवीन विश्वनाथ मन्दिर की प्रतिष्ठा करायी | महाराज रणजीत सिंह ने मन्दिर पर स्वणाँच्छादित शिखर चढ़ाया। काशी विश्वनाथ के मूल स्थान कोमुक्त कराने के प्रयास तेज हो गये हैं। मणिकर्णिका घाट, दशाश्वमेध घाट, केदारघाट, हनुमान घाट प्रमुख घाट हैं। हजारों मन्दिरों की नगरी काशी भारत की सांस्कृतिक राजधानी कही जा सकती है।  
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पूर्वी उत्तर प्रदेश में गंगा के तट पर स्थित, भगवान् शांकर की महिमा से मण्डित काशी (वाराणसी) को विश्व का प्राचीनतम नगर होने का गौरव प्राप्त है। यहाँ परशक्तिपीठ है, ज्योतिर्लिग है तथा यह सप्तपुरियों में से एक है। ऋग्वेद, शतपथ ब्राह्मण", नारद पुराण", महाभारत, रामायण, स्कन्द पुराण' आदि ग्रन्थों में काशी का वैभव-वर्णन श्रद्धा के साथ किया गया है। वरणा व असी नदी के मध्य स्थित होने के कारण इसका वाराणसी नाम प्रसिद्ध हुआ। बौद्धतीर्थ सारनाथ पास में ही स्थित है। विभिन्न विद्याओं के अध्ययन-केन्द्र, सभी पंथ-सम्प्रदायों के तीर्थ स्थल तथा भगवत्प्राप्ति के परम उपयुक्त क्षेत्र के रूप में काशी की प्रतिष्ठा है। शैव, शाक्त, वैष्णव, बौद्ध, जैन पंथों के उपासक काशी को पवित्र मानकर यात्रा-दर्शन करने यहाँ आते हैं। सातवें तथा तेइसवें तीर्थकरों का यहाँ आविर्भाव हुआ। भगवान बुद्ध ने अपना पहला उपदेश यहीं पास के सारनाथ में दिया। आदि शांकराचार्य नेअपनी धार्मिक दिग्विजय यात्रा यहीं से प्रारंभ कीथी। कबीर, रामानन्द, तुलसी सदृश संतों ने काशी कोअपनी कर्मभूमि बनाया। काशी में शास्त्रों के अध्ययन, अध्यापन की प्राचीन परम्परा रही है। भारत की सांस्कृतिक एकता को अक्षुण्ण रखने में काशी ने भारी योगदान किया है। यहाँ परतीन विश्वविद्यालय तथा कई संस्कृत अध्ययन केन्द्र हैं। प्रसिद्ध ज्योतिर्लिग काशी विश्वनाथ मन्दिर को औरंगजेब ने ध्वस्त कर उसके भग्नावशेषों पर मस्जिद बनवायी। कालान्तर में महारानी अहिल्याबाई ने मस्जिद के पास ही नवीन विश्वनाथ मन्दिर की प्रतिष्ठा करायी महाराज रणजीत सिंह ने मन्दिर पर स्वणाँच्छादित शिखर चढ़ाया। काशी विश्वनाथ के मूल स्थान कोमुक्त कराने के प्रयास तेज हो गये हैं। मणिकर्णिका घाट, दशाश्वमेध घाट, केदारघाट, हनुमान घाट प्रमुख घाट हैं। हजारों मन्दिरों की नगरी काशी भारत की सांस्कृतिक राजधानी कही जा सकती है।  
    
=== द्वारिकापुरी ===
 
=== द्वारिकापुरी ===
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=== कांचीपुरम ===
 
=== कांचीपुरम ===
उत्तर भारत में जो स्थान काशी को प्राप्त हैं. दक्षिण भारत में वही स्थान कांचीवरम् या कांची पुरम् को प्राप्त है। इसे दक्षिण की काशी कहा जाता है। कांची पुरम् तमिलनाडु के चिंगल पेठ जिले में मद्रास से लगभग ४० कि. मी. दक्षिण-पश्चिम में स्थित है। यह पल्लव राजाओं की राजधानी रही है। प्राचीन काल से शैव, वैष्णव, जैन तथा बौद्ध मतावलम्बी लोगों का यह प्रधान तीर्थ क्षेत्र रहा है। इस नगर के शिवकांची व विष्णुकांची नाम के दोभाग हैं। इस नगर में १०८ शिवस्थल माने गये हैं। कामाक्षी, एकाम्बर नाथ, कलासनाथ, राजसिंहेश्वर, वरदराज नामक यहाँ के प्रमुख मन्दिर हैं। जगद्गुरु आदि शंकराचार्य ने यहाँ कामकोटि पीठ की स्थापना की। रामानुजाचार्य के तत्त्वज्ञान का उद्गम-स्थान कांचीवरम् ही है। बौद्ध विद्वानों- नागार्जुन, बुद्धघोष, दिडनाग आदि का निवास भी कांची में था। ब्रह्मपुराण के अनुसार कांची को भगवान् शिव का नेत्र", माना गया है। कांची ५१ शक्ति पीठों में से भी एक है। यहाँ सती का ककाल गिरा था। कामाक्षी मन्दिर को शक्तिपीठ माना गया हैं। यहाँ ब्रह्माजी ने भी तपस्या की थी तथा भगवती लक्ष्मी का साक्षात्कार किया था|
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उत्तर भारत में जो स्थान काशी को प्राप्त हैं. दक्षिण भारत में वही स्थान कांचीवरम् या कांची पुरम् को प्राप्त है। इसे दक्षिण की काशी कहा जाता है। कांची पुरम् तमिलनाडु के चिंगल पेठ जिले में मद्रास से लगभग ४० कि. मी. दक्षिण-पश्चिम में स्थित है। यह पल्लव राजाओं की राजधानी रही है। प्राचीन काल से शैव, वैष्णव, जैन तथा बौद्ध मतावलम्बी लोगों का यह प्रधान तीर्थ क्षेत्र रहा है। इस नगर के शिवकांची व विष्णुकांची नाम के दोभाग हैं। इस नगर में १०८ शिवस्थल माने गये हैं। कामाक्षी, एकाम्बर नाथ, कलासनाथ, राजसिंहेश्वर, वरदराज नामक यहाँ के प्रमुख मन्दिर हैं। जगद्गुरु आदि शंकराचार्य ने यहाँ कामकोटि पीठ की स्थापना की। रामानुजाचार्य के तत्त्वज्ञान का उद्गम-स्थान कांचीवरम् ही है। बौद्ध विद्वानों- नागार्जुन, बुद्धघोष, दिडनाग आदि का निवास भी कांची में था। ब्रह्मपुराण के अनुसार कांची को भगवान् शिव का नेत्र", माना गया है। कांची ५१ शक्ति पीठों में से भी एक है। यहाँ सती का ककाल गिरा था। कामाक्षी मन्दिर को शक्तिपीठ माना गया हैं। यहाँ ब्रह्माजी ने भी तपस्या की थी तथा भगवती लक्ष्मी का साक्षात्कार किया था।
    
=== अवन्तिका ===
 
=== अवन्तिका ===
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=== मल्लिकार्जुन ===
 
=== मल्लिकार्जुन ===
मल्लिकार्जुन नामक ज्योतिर्लिग श्रीशैल पर्वत पर स्थित है। श्रीशैल आन्ध्र प्रदेश में कर्नूल जिले के अन्तर्गत पवित्र कृष्णा नदी के तटपर है। इसे दक्षिण का कैलास भी कहा जाता है। कृष्णा नदी की जिस शाखा पर यह तीर्थ स्थित हैं उसे पातालगंगा नाम दिया गया है। श्रीशैल पर भगवान शंकर पार्वती के साथ सदैव विराजमान रहते हैं. यह मान्यता हैं। यहाँ पार्वती को मल्लिका तथा शिव को अर्जुन नाम दिया गया है। पौराणिक कथा के अनुसारअपने रुष्टपुत्र स्वामी कार्तिकेय को मनाने के लिए शिव-शक्ति यहाँ पधारे और ज्योतिर्लिग के रूप में विराजमान हो गये ।एक स्थानीय कथा के अनुसार एक राजकन्या अपने पिता के दुर्व्यवहार से बचने के लिए श्रीशैल पर्वत पर गोप-ग्वालों के मध्य रहने लगी। ग्वालों की एक शयामा गाय थी जो खूब दूध देती थी। कुछ दिन उस गाय ने दूध देना बन्द कर दिया | जाँच करने पर पता चला कि गाय स्वेच्छा से शिखर पर स्थित शिवलिंग पर अपना दूध चढ़ा देती है। तब वहाँ एक मन्दिर का निर्माण कराया गया और शिवलिंग मल्लिकार्जुन के नाम से जगतप्रसिद्ध हुआ। यहाँ पर स्थित एक शिलालेख के अनुसार स्वयं शिव एक आखेटक के रूप में पधारे तथा यहाँ के शान्त और मनोरम वातावरण के कारण यहीं विराजित हो गये । इस मन्दिर को पुरातत्वेत्ता डेढ़ से दो हजार वर्ष पुराना मानते हैं। शिवरात्रि के अवसर पर यहाँ विशाल मेला लगता है। मन्दिर की पश्चिमी दिशा में जगदम्बा का मन्दिर हैं। यहाँ पर पार्वती को माधवी या भ्रमराम्बा के नाम से पुकारा जाता है।भ्रमराम्बा ५१ शक्तिपीठों में से एक है। नवरात्र में यहाँ मेला लगता है। यहाँ पर सती की ग्रीवा का पतन हुआ था। महाभारत के वन पर्व, शिव पुराण तथा पद्म पुराण में इस क्षेत्र के मन्दिर का निर्माण कराया गया। ११ मई १९५१ को भारत के प्रथम राष्ट्रपति महात्म्य का वर्णन किया गया है।   
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मल्लिकार्जुन नामक ज्योतिर्लिग श्रीशैल पर्वत पर स्थित है। श्रीशैल आन्ध्र प्रदेश में कर्नूल जिले के अन्तर्गत पवित्र कृष्णा नदी के तटपर है। इसे दक्षिण का कैलास भी कहा जाता है। कृष्णा नदी की जिस शाखा पर यह तीर्थ स्थित हैं उसे पातालगंगा नाम दिया गया है। श्रीशैल पर भगवान शंकर पार्वती के साथ सदैव विराजमान रहते हैं. यह मान्यता हैं। यहाँ पार्वती को मल्लिका तथा शिव को अर्जुन नाम दिया गया है। पौराणिक कथा के अनुसारअपने रुष्टपुत्र स्वामी कार्तिकेय को मनाने के लिए शिव-शक्ति यहाँ पधारे और ज्योतिर्लिग के रूप में विराजमान हो गये ।एक स्थानीय कथा के अनुसार एक राजकन्या अपने पिता के दुर्व्यवहार से बचने के लिए श्रीशैल पर्वत पर गोप-ग्वालों के मध्य रहने लगी। ग्वालों की एक शयामा गाय थी जो खूब दूध देती थी। कुछ दिन उस गाय ने दूध देना बन्द कर दिया जाँच करने पर पता चला कि गाय स्वेच्छा से शिखर पर स्थित शिवलिंग पर अपना दूध चढ़ा देती है। तब वहाँ एक मन्दिर का निर्माण कराया गया और शिवलिंग मल्लिकार्जुन के नाम से जगतप्रसिद्ध हुआ। यहाँ पर स्थित एक शिलालेख के अनुसार स्वयं शिव एक आखेटक के रूप में पधारे तथा यहाँ के शान्त और मनोरम वातावरण के कारण यहीं विराजित हो गये । इस मन्दिर को पुरातत्वेत्ता डेढ़ से दो हजार वर्ष पुराना मानते हैं। शिवरात्रि के अवसर पर यहाँ विशाल मेला लगता है। मन्दिर की पश्चिमी दिशा में जगदम्बा का मन्दिर हैं। यहाँ पर पार्वती को माधवी या भ्रमराम्बा के नाम से पुकारा जाता है।भ्रमराम्बा ५१ शक्तिपीठों में से एक है। नवरात्र में यहाँ मेला लगता है। यहाँ पर सती की ग्रीवा का पतन हुआ था। महाभारत के वन पर्व, शिव पुराण तथा पद्म पुराण में इस क्षेत्र के मन्दिर का निर्माण कराया गया। ११ मई १९५१ को भारत के प्रथम राष्ट्रपति महात्म्य का वर्णन किया गया है।   
    
=== महाकालेश्वर ===
 
=== महाकालेश्वर ===
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=== घुश्मेश्वर ===
 
=== घुश्मेश्वर ===
द्वादश ज्योतिलिंग में अन्तिम घुश्मेश्वर है। घुश्मेश्वर या घुसुणेश्वर नाम से भी इसका वर्णन किया जाता है | घुश्मेश्वर मंदिर दौलताबाद  (देवगिरि) के पास स्थित वेरूल गाँव में है। यह प्रसिद्ध गुफा-मन्दिर एलोरा से मात्र एक-डेढ़ किमी.पर है। कुछ महानुभाव एलोरा के कैलास मन्दिर को ही घुश्मेश्वर मानते हैं। घुश्मेश्वर ज्योतिर्लिग की स्थापना पतिपरायणा तथा शिवभक्ति घुश्मा की तपस्या तथा निष्काम भावना के कारण हुई। घुश्मा का अतीव सुन्दर बालक उसकी सौत सुदेहा के षड्यंत्र का शिकार हुआ। सुदेहा ने बालक के शव को एक सरोवर में फेंकवा दिया। घुश्मा सदैव की भांति शिवपूजा में व्यस्त रही तथा पूजा-समाप्ति पर जब पार्थिव लिंग विसर्जित कर लौटने लगी तो उसका पुत्र जीवित होकर उसके चरणों में आ गिरा। परन्तु घुश्मा इस सब को प्रभुलीला मानकर आनन्दमग्न हो गयी। तब शिव स्वयं प्रकट हो गये। घुश्मा ने सुदेहा को क्षमा करने की प्रार्थना की, साथ ही लोक-कल्याण हेतु शिव से वहीं विराजित रहने का वर माँगा। भगवान् शांकर एवमस्तु कहकर वहीं वास करने लगे। उसी स्थान पर मन्दिर बना। महारानी अहिल्याबाई ने यहाँ अति सुन्दर मन्दिर का निर्माण कराया। मन्दिर के पास शिवालय नामक पवित्र सरोवर हैं। पास में ही सहसलिंग, पातालेश्वर व सूर्यश्वर के मन्दिर है। शिवपुराण में घुश्मेश्वर की महिमा का वर्णन इस प्रकार है:   
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द्वादश ज्योतिलिंग में अन्तिम घुश्मेश्वर है। घुश्मेश्वर या घुसुणेश्वर नाम से भी इसका वर्णन किया जाता है घुश्मेश्वर मंदिर दौलताबाद  (देवगिरि) के पास स्थित वेरूल गाँव में है। यह प्रसिद्ध गुफा-मन्दिर एलोरा से मात्र एक-डेढ़ किमी.पर है। कुछ महानुभाव एलोरा के कैलास मन्दिर को ही घुश्मेश्वर मानते हैं। घुश्मेश्वर ज्योतिर्लिग की स्थापना पतिपरायणा तथा शिवभक्ति घुश्मा की तपस्या तथा निष्काम भावना के कारण हुई। घुश्मा का अतीव सुन्दर बालक उसकी सौत सुदेहा के षड्यंत्र का शिकार हुआ। सुदेहा ने बालक के शव को एक सरोवर में फेंकवा दिया। घुश्मा सदैव की भांति शिवपूजा में व्यस्त रही तथा पूजा-समाप्ति पर जब पार्थिव लिंग विसर्जित कर लौटने लगी तो उसका पुत्र जीवित होकर उसके चरणों में आ गिरा। परन्तु घुश्मा इस सब को प्रभुलीला मानकर आनन्दमग्न हो गयी। तब शिव स्वयं प्रकट हो गये। घुश्मा ने सुदेहा को क्षमा करने की प्रार्थना की, साथ ही लोक-कल्याण हेतु शिव से वहीं विराजित रहने का वर माँगा। भगवान् शांकर एवमस्तु कहकर वहीं वास करने लगे। उसी स्थान पर मन्दिर बना। महारानी अहिल्याबाई ने यहाँ अति सुन्दर मन्दिर का निर्माण कराया। मन्दिर के पास शिवालय नामक पवित्र सरोवर हैं। पास में ही सहसलिंग, पातालेश्वर व सूर्यश्वर के मन्दिर है। शिवपुराण में घुश्मेश्वर की महिमा का वर्णन इस प्रकार है:   
    
"ईदुशां चैव लिंग च दूष्ट्रवा पापै: प्रमुच्यते।  
 
"ईदुशां चैव लिंग च दूष्ट्रवा पापै: प्रमुच्यते।  
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= शक्तिपीठ =
 
= शक्तिपीठ =
भारतवर्ष भौगोलिक एवं सांस्कृतिक दृष्टि से एक रहा है | समय - समय पर विकसित उपासना पद्धतियों से इसकी एकात्मता अधिक पुष्ट हुई है | विभिन्न पन्थो के पवित्र तीर्थ समस्त राष्ट्र में फैले हुए है | सम्पूर्ण भारत भूमि उनके लिए पवित्र है | शैव मतावलम्बियों के प्रमुख तीर्थ आसेतु - हिमाचल सभी दिशाओं में फैले है | शक्ति के उपासको के पूज्य तीर्थ शक्तिपीठ भी इसी प्रकार सर्व दूर एकात्मता का सन्देश देते है | इनकी संख्या ५१ है | तंत्र - चूड़ामणि में ५३ शक्ति पीठो का वर्णन किया गया है , परन्तु वामगंड (बाएं कपोल ) के गिरने की पुनरुक्ति हुई है , अतः ५२ शक्ति पीठ रह जाते है | प्रसिद्धि ५१ शक्तिपीठो की ही है | शिव - चरित्र , दाक्षायणीतंत्र एवं योगिनीहृदय - तंत्र में इक्यावन ही गिनाये गये है |
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भारतवर्ष भौगोलिक एवं सांस्कृतिक दृष्टि से एक रहा है समय - समय पर विकसित उपासना पद्धतियों से इसकी एकात्मता अधिक पुष्ट हुई है विभिन्न पन्थो के पवित्र तीर्थ समस्त राष्ट्र में फैले हुए है सम्पूर्ण भारत भूमि उनके लिए पवित्र है शैव मतावलम्बियों के प्रमुख तीर्थ आसेतु - हिमाचल सभी दिशाओं में फैले है शक्ति के उपासको के पूज्य तीर्थ शक्तिपीठ भी इसी प्रकार सर्व दूर एकात्मता का सन्देश देते है इनकी संख्या ५१ है तंत्र - चूड़ामणि में ५३ शक्ति पीठो का वर्णन किया गया है , परन्तु वामगंड (बाएं कपोल ) के गिरने की पुनरुक्ति हुई है , अतः ५२ शक्ति पीठ रह जाते है प्रसिद्धि ५१ शक्तिपीठो की ही है शिव - चरित्र , दाक्षायणीतंत्र एवं योगिनीहृदय - तंत्र में इक्यावन ही गिनाये गये है
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एक  प्रसिद्द पौराणिक कथा के अनुसार आद्या शक्ति ने प्रजापति दक्ष के घर जन्म लिया | प्रजापति दक्ष ने अपनी इस पुत्री का नाम सती रखा | बड़ी होने पर सती ने पति रूप में शिव की प्राप्ति के लिए तप किया | प्रसन्न होकर भगवान शिव ने सती को अपनी पत्नी के रूप में स्वीकार कर लिया और कैलास पर जा विराजे | कुछ समय पश्चात् प्रजापति दक्ष ने एक विशाल यज्ञ का आयोजन किया | इस आयोजन में दक्ष ने भगवान शिव को छोड़कर सभी देवो और देवियों को आमंत्रित किया | पिता के यहाँ यज्ञ होने का समाचार पाकर भगवती सती बिना आमंत्रण के ही पिता के घर जा पहुँची | यज्ञ में शिवजी की उपेक्षा को सती सहन न कर सकी और योगबल से प्रदीप्त अग्नि में प्राण त्याग दिये | समाचार मिलाने पर शिव क्षोभ से भर गये | दक्ष - यज्ञ को नष्ट कर सती के शव को कंधे पर रखकर शिवजी उन्मत हो घुमते रहे |
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एक  प्रसिद्द पौराणिक कथा के अनुसार आद्या शक्ति ने प्रजापति दक्ष के घर जन्म लिया प्रजापति दक्ष ने अपनी इस पुत्री का नाम सती रखा बड़ी होने पर सती ने पति रूप में शिव की प्राप्ति के लिए तप किया प्रसन्न होकर भगवान शिव ने सती को अपनी पत्नी के रूप में स्वीकार कर लिया और कैलास पर जा विराजे कुछ समय पश्चात् प्रजापति दक्ष ने एक विशाल यज्ञ का आयोजन किया इस आयोजन में दक्ष ने भगवान शिव को छोड़कर सभी देवो और देवियों को आमंत्रित किया पिता के यहाँ यज्ञ होने का समाचार पाकर भगवती सती बिना आमंत्रण के ही पिता के घर जा पहुँची यज्ञ में शिवजी की उपेक्षा को सती सहन न कर सकी और योगबल से प्रदीप्त अग्नि में प्राण त्याग दिये समाचार मिलाने पर शिव क्षोभ से भर गये दक्ष - यज्ञ को नष्ट कर सती के शव को कंधे पर रखकर शिवजी उन्मत हो घुमते रहे । सर्वदेवमय  परमेश्वर विष्णु ने शिव - मोह - शमन तथा साधको की सिद्धि एवं कल्याण के लिए सुदर्शन चक्र द्वारा सती के शव के विभिन्न अंगो को भिन्न - भिन्न स्थलों पर गिरा दिया । जहाँ - जहाँ वे अंग पतित हुए (पड़े), वहीँ - वहीँ शक्तिपीठ स्थापित हुए । इनका वर्णन निम्नानुसार है :-
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१ . हिंगुला : बलोचिस्तान (वर्तमान पाकिस्तान के अन्तर्गत)प्रान्त में कराची से पश्चिमोत्तर दिशा में लगभग १४५ किलोमीटर दूर हिंगोस नदी के तट पर देवी भैरवी ज्योति के रूप में गुफा के अन्दर      प्रतिष्ठित हैं।
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२ . किरीट :हावड़ा-बरहरवा मार्ग पर खगराघाट रोड स्टेशन से १२  कि.मी. दूर वटनगर नामक स्थान पर गंगा के पवित्र तट पर देवी विमला रूप में विराजमान है।
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३. वृन्दावन : मथुरा में मथुरा-वृन्दावन मार्ग पर स्थित भूतेश्वर महादेव मन्दिर में देवी उमाशक्ति रूप में भूतेश भैरव के साथ पूजित है।
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४. करवीर : कोल्हापुर (महाराष्ट्र) का महालक्ष्मी मन्दिर जिसे अम्बाजी का मन्दिर भी कहा जाता है, यहीं पर देवी जाग्रत रूप में महिषमर्दिनी नाम से प्रतिष्ठित है।
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५. सुगन्धा : पूर्वी बंगाल (वर्तमान बांगला देश)में उग्रतारा शक्तिपीठ के नाम से विख्यात शिकारपुर नामक ग्राम में देवी सुनन्दा नदी के तट पर स्थित है। आज यहाँ प्राचीन मन्दिर खण्डहर रूप में अवशिष्ट है।
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६. अपणाँ ( करतोया तट) : बांगलादेशान्तर्गत बौगड़ा सयान - स्थानक (रेलवे स्टेशन) से लगभग 32 कि.मी. दूर नैऋत्यकोण (दक्षिण-पश्चिम) में भवानीपुर ग्राम में करतोया नदी के तट पर देवी अपणाँ नाम से स्थित है। यह स्थान भी आज उपेक्षित पड़ा हैं ।
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७. श्रीपर्वत : लद्दाख (लेह) मेंश्रीपर्वत शिखर पर देवी श्रीसुन्दरी रूप में विराजमान है। सिलहट (असम) के पास जैतपुर नामक स्थान पर भी इस पीठ के स्थित होने की बात कही जाती है, परन्तु पीठ - स्थान की ठीक ठीक जानकारी नहीं मिलाती ।
    
==References==
 
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