− | पितूकऋण और उससे उक्रण होने की संकल्पना को साकार करना कुटुम्ब के लिये परम कर्तव्य है । वर्तमान पीढ़ी को ज्ञान, कौशल, संस्कार, समृद्धि, व्यवसाय अपने पूर्वजों से प्राप्त होते हैं । उनका करण मानने की भावना भारतीय मानस में गहरी बैठी है । इस ऋण से मुक्त होने के लिये हर कुटुम्ब को प्रयास करना है । जिससे मिला उसे वापस नहीं किया जाता । अतः जिसे दे सर्के ऐसी नई पीढ़ी को जन्म देना प्रथम कर्तव्य है । इसलिये वंशपरम्परा को खण्डित नहीं होने देना यह प्रथम आवश्यकता है। विवाह-संस्कार का यह प्रथम प्रयोजन है । नई पीढ़ी को जन्म देकर पूर्वजों से जो मिला है वह सब उसे सौंपने का काम करना है । धरोहर को स्वीकार कर सके इस लायक नई पीढ़ी को बनाना है। साथ ही धरोहर को परिष्कृत और समृद्ध करते रहना है। पितृक्रण से मुक्त तभी हुआ जाता है जब नई पीढ़ी को यह सब देकर उसे ऋणी बना दें । इसी निमित्त से श्राद्ध, पुण्यतिथि और पूर्वजों के स्मरणार्थ चलने वाले सभी प्रकल्पों का आयोजन होता है ।
| + | पितृऋण और उससे उक्रण होने की संकल्पना को साकार करना कुटुम्ब के लिये परम कर्तव्य है । वर्तमान पीढ़ी को ज्ञान, कौशल, संस्कार, समृद्धि, व्यवसाय अपने पूर्वजों से प्राप्त होते हैं । उनका करण मानने की भावना भारतीय मानस में गहरी बैठी है । इस ऋण से मुक्त होने के लिये हर कुटुम्ब को प्रयास करना है । जिससे मिला उसे वापस नहीं किया जाता । अतः जिसे दे सकें, ऐसी नई पीढ़ी को जन्म देना प्रथम कर्तव्य है । इसलिये वंशपरम्परा को खण्डित नहीं होने देना यह प्रथम आवश्यकता है। विवाह-संस्कार का यह प्रथम प्रयोजन है । नई पीढ़ी को जन्म देकर पूर्वजों से जो मिला है वह सब उसे सौंपने का काम करना है । धरोहर को स्वीकार कर सके इस लायक नई पीढ़ी को बनाना है। साथ ही धरोहर को परिष्कृत और समृद्ध करते रहना है। पितृऋण से मुक्त तभी हुआ जाता है जब नई पीढ़ी को यह सब देकर उसे ऋणी बना दें । इसी निमित्त से श्राद्ध, पुण्यतिथि और पूर्वजों के स्मरणार्थ चलने वाले सभी प्रकल्पों का आयोजन होता है । |