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| {{One source|date=January 2019}} | | {{One source|date=January 2019}} |
− | भारत में शिक्षा का लक्ष्य बालक के व्यक्तित्व का सर्वांगीण विकास है ऐसा कुछ लोग मानते हैं तो कुछ लोग समग्र विकास को मानते हैं। यूरो अमरीकी सोच के अनुसार सोचनेवाले ‘ओल राऊंड डेव्हलपमेंट ऑफ पर्सनालिटी’ को शिक्षा का लक्ष्य मानते हैं। किन्तु ‘सर्वांगीण’, ‘समग्र’ और ओल राऊंड इन के अर्थों में बहुत अंतर है। ‘समग्र” के अर्थ सर्वांगीण से भी अधिक व्यापक और सटीक हैं। अंग्रेजी में जिसे पर्सनॅलिटी कहते है वह और धार्मिक (धार्मिक) व्यक्तित्व की संकल्पना यह भिन्न बातें है । पर्सनॅलिटी शब्द लॅटीन शब्द ‘पर्सोना’ से बना है । पर्सोना का अर्थ है मुखौटा। अर्थात् मनुष्य का वास्तविक स्वरूप नहीं। मनुष्य ने धारण किया मुखौटा। याने बाहर से दिखनेवाला रूप । | + | भारत में शिक्षा का लक्ष्य बालक के व्यक्तित्व का सर्वांगीण विकास है ऐसा कुछ लोग मानते हैं तो कुछ लोग समग्र विकास को मानते हैं। यूरो अमरीकी सोच के अनुसार सोचनेवाले ‘ओल राऊंड डेव्हलपमेंट ऑफ पर्सनालिटी’ को शिक्षा का लक्ष्य मानते हैं। किन्तु ‘सर्वांगीण’, ‘समग्र’ और ओल राऊंड इन के अर्थों में बहुत अंतर है। ‘समग्र” के अर्थ सर्वांगीण से भी अधिक व्यापक और सटीक हैं। अंग्रेजी में जिसे पर्सनॅलिटी कहते है वह और धार्मिक व्यक्तित्व की संकल्पना यह भिन्न बातें है । पर्सनॅलिटी शब्द लॅटीन शब्द ‘पर्सोना’ से बना है । पर्सोना का अर्थ है मुखौटा। अर्थात् मनुष्य का वास्तविक स्वरूप नहीं। मनुष्य ने धारण किया मुखौटा। याने बाहर से दिखनेवाला रूप । |
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− | व्यक्तित्व और पर्सनालिटी में ‘होना’ और ‘बनाया’ जाना का अंतर है। इनमें होना स्वाभाविक होता है। बनाना कृत्रिम होता है। स्वाभाविक का अर्थ है जो स्वभाव के अनुकूल है। धार्मिक (धार्मिक) या हिन्दू जन्म से ही होता है। जैसे बाप्तिस्मा से ईसाई बनता है, सुन्नत से मुसलमान बनता है, धार्मिक (धार्मिक) या हिन्दू बनने के लिए इन जैसी कोई विधि नहीं होती। | + | व्यक्तित्व और पर्सनालिटी में ‘होना’ और ‘बनाया’ जाना का अंतर है। इनमें होना स्वाभाविक होता है। बनाना कृत्रिम होता है। स्वाभाविक का अर्थ है जो स्वभाव के अनुकूल है। धार्मिक या हिन्दू जन्म से ही होता है। जैसे बाप्तिस्मा से ईसाई बनता है, सुन्नत से मुसलमान बनता है, धार्मिक या हिन्दू बनने के लिए इन जैसी कोई विधि नहीं होती। |
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| सर्वांगीण विकास को जो लोग लक्ष्य मानते हैं उनके अनुसार अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय और आनंदमय ऐसे पाँच कोशों का विकास ही मनुष्य का विकास होता है। समग्र विकास की व्याप्ति इससे अधिक है। उसका विचार हम आगे करेंगे। | | सर्वांगीण विकास को जो लोग लक्ष्य मानते हैं उनके अनुसार अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय और आनंदमय ऐसे पाँच कोशों का विकास ही मनुष्य का विकास होता है। समग्र विकास की व्याप्ति इससे अधिक है। उसका विचार हम आगे करेंगे। |
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− | हमारे पंचमहाभौतिक शरीर में से हम में विद्यमान उस परमात्म तत्व की जो सहज अभिव्यक्ति होती है उसे धार्मिक (धार्मिक) सोच में व्यक्तित्व कहते है । यह मुखौटे जैसी कृत्रिम नहीं होती । और ना ही किसी को बताने के लिये धारण की हुई होती है। इसलिये हम ऑल राऊंड पर्सनॅलिटी डेव्हलपमेंट का विचार नहीं करेंगे । हम विचार करेंगे अष्टधा प्रकृति के सभी अंगों के सर्वांगीण विकास से भी अधिक व्यापक ऐसे व्यक्तित्व के समग्र विकास का। लेकिन उससे पहले व्यक्तित्व क्या है इसे समझना आवश्यक है।<ref>जीवन का धार्मिक प्रतिमान-खंड १, अध्याय ८, लेखक - दिलीप केलकर</ref> | + | हमारे पंचमहाभौतिक शरीर में से हम में विद्यमान उस परमात्म तत्व की जो सहज अभिव्यक्ति होती है उसे धार्मिक सोच में व्यक्तित्व कहते है । यह मुखौटे जैसी कृत्रिम नहीं होती । और ना ही किसी को बताने के लिये धारण की हुई होती है। इसलिये हम ऑल राऊंड पर्सनॅलिटी डेव्हलपमेंट का विचार नहीं करेंगे । हम विचार करेंगे अष्टधा प्रकृति के सभी अंगों के सर्वांगीण विकास से भी अधिक व्यापक ऐसे व्यक्तित्व के समग्र विकास का। लेकिन उससे पहले व्यक्तित्व क्या है इसे समझना आवश्यक है।<ref>जीवन का धार्मिक प्रतिमान-खंड १, अध्याय ८, लेखक - दिलीप केलकर</ref> |
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| == व्यक्तित्व का अर्थ == | | == व्यक्तित्व का अर्थ == |
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| इसी तरह सृष्टि के मानवेतर सभी अस्तित्वों के साथ जब वह आत्मीयता या परिवार भावना अनुभव करता है तो उसका '''सृष्टिगत विकास''' होता है। व्यक्तिगत, समष्टीगत और सृष्टिगत ऐसे तीनों प्रकार के विकास के समुच्चय को ही ‘समग्र विकास’ कहते हैं। ऐसे समग्र विकसित मनुष्य को संसार में उपस्थित सभी अस्तित्वों के साथ आत्मीयता की अनुभूति होती है। ये सभी अस्तित्व परमात्मा के ही रूप होने से इन के साथ जो एकात्मता अनुभव करता है उसमें और परमात्मा में कोई अंतर नहीं रह जाता। यही मोक्ष की अवस्था है। यही मुक्ति है। यही पूर्णत्व की प्राप्ति है। | | इसी तरह सृष्टि के मानवेतर सभी अस्तित्वों के साथ जब वह आत्मीयता या परिवार भावना अनुभव करता है तो उसका '''सृष्टिगत विकास''' होता है। व्यक्तिगत, समष्टीगत और सृष्टिगत ऐसे तीनों प्रकार के विकास के समुच्चय को ही ‘समग्र विकास’ कहते हैं। ऐसे समग्र विकसित मनुष्य को संसार में उपस्थित सभी अस्तित्वों के साथ आत्मीयता की अनुभूति होती है। ये सभी अस्तित्व परमात्मा के ही रूप होने से इन के साथ जो एकात्मता अनुभव करता है उसमें और परमात्मा में कोई अंतर नहीं रह जाता। यही मोक्ष की अवस्था है। यही मुक्ति है। यही पूर्णत्व की प्राप्ति है। |
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− | धार्मिक (धार्मिक) सोच के अनुसार व्यक्तित्व विकास के चार आयाम है । वे है व्यक्तिगत् विकास, समष्टिगत् विकास, सृष्टिगत् विकास और परमेष्ठीगत् विकास। पहले तीन के विकास से चौथे का विकास अपने आप हो जाता है। | + | धार्मिक सोच के अनुसार व्यक्तित्व विकास के चार आयाम है । वे है व्यक्तिगत् विकास, समष्टिगत् विकास, सृष्टिगत् विकास और परमेष्ठीगत् विकास। पहले तीन के विकास से चौथे का विकास अपने आप हो जाता है। |
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| '''व्यक्तिगत् विकास''' से अर्थ है, शरीर, प्राण, मन, बुद्धि, चित्त इन पाँच घटकों का विकास । ये पाँच घटक हर व्यक्ति के भिन्न होते है । इन्ही पाँच बातों को पंचकोश विकास भी कहा जाता है । शरीर अर्थात् अन्नमय कोश, प्राण अर्थात् प्राणमय कोष, मन अर्थात् मनोमय कोश, बुद्धि याने विज्ञानमय कोश और चित्त अर्थात् आनंदमय कोश का विकास । शरीर एक यंत्र जैसा है । पंच कर्मेन्द्रिय और पंच ज्ञानेन्द्रिय तथा शरीर मे काम करनेवाली चेतातंत्र, रक्ताभिसरण, पाचनतंत्र आदि विभिन्न प्रणालियाँ प्राण शक्ति के कारण चलती है । प्राण इस शरीर रूपी यंत्र को चलानेवाला इंधन है । प्राण शरीर और इंन्द्रियों से अधिक सूक्ष्म है । इसलिये अधिक बलवान है । तीसरा घटक है मन । मनोमय का संबंध मन से होता है । मन के विकास का अर्थ है चंचलता मुक्त, स्थिर, एकाग्र, अलिप्त, निर्द्वंद्व, और विकार रहित मन । इंन्द्रियोंपर नियंत्रण करने वाले और बुद्धि के नियंत्रण में रहने वाला मन । ग्रहणशक्ति, धारणाशक्ति, स्मृति, निरीक्षण, परीक्षण, तर्क, अन्मान, विश्लेषण, संश्लेषण और कल्पनाशक्ति का विकास ही बुद्धि का विकास होता है । | | '''व्यक्तिगत् विकास''' से अर्थ है, शरीर, प्राण, मन, बुद्धि, चित्त इन पाँच घटकों का विकास । ये पाँच घटक हर व्यक्ति के भिन्न होते है । इन्ही पाँच बातों को पंचकोश विकास भी कहा जाता है । शरीर अर्थात् अन्नमय कोश, प्राण अर्थात् प्राणमय कोष, मन अर्थात् मनोमय कोश, बुद्धि याने विज्ञानमय कोश और चित्त अर्थात् आनंदमय कोश का विकास । शरीर एक यंत्र जैसा है । पंच कर्मेन्द्रिय और पंच ज्ञानेन्द्रिय तथा शरीर मे काम करनेवाली चेतातंत्र, रक्ताभिसरण, पाचनतंत्र आदि विभिन्न प्रणालियाँ प्राण शक्ति के कारण चलती है । प्राण इस शरीर रूपी यंत्र को चलानेवाला इंधन है । प्राण शरीर और इंन्द्रियों से अधिक सूक्ष्म है । इसलिये अधिक बलवान है । तीसरा घटक है मन । मनोमय का संबंध मन से होता है । मन के विकास का अर्थ है चंचलता मुक्त, स्थिर, एकाग्र, अलिप्त, निर्द्वंद्व, और विकार रहित मन । इंन्द्रियोंपर नियंत्रण करने वाले और बुद्धि के नियंत्रण में रहने वाला मन । ग्रहणशक्ति, धारणाशक्ति, स्मृति, निरीक्षण, परीक्षण, तर्क, अन्मान, विश्लेषण, संश्लेषण और कल्पनाशक्ति का विकास ही बुद्धि का विकास होता है । |
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| == मानव जीवन का लक्ष्य == | | == मानव जीवन का लक्ष्य == |
− | अधार्मिक (अधार्मिक) और धार्मिक (धार्मिक) विचार प्रवाह में सबसे पहला अंतर है मानव जीवन के लक्ष्य का । विश्व में यहूदी, ईसाई, मुसलमान समाजों की जनसंख्या विशाल और लक्षणीय है। इन सभी का लक्ष्य हेवन या जन्नत माना गया है। हेवन या जन्नत यह संकल्पनाएं मोक्ष से एकदम भिन्न हैं। मोक्ष का अर्थ है परमात्मपद की प्राप्ति। अर्थात् सुख और दुख की सीमा से परे चले जाना । सर्वं खल्विदं ब्रह्मं अर्थात् चराचर में एकत्व की या एक ही आत्मतत्व की अनूभूति करना । कई लोग ईसाई सॅल्व्हेशन या इस्लामी कयामत (आखिरत) की तुलना मोक्ष से करते हैं। किन्तु यह गलत है। यह दोनों पूर्णत: भिन्न बातें हैं। | + | अधार्मिक (अधार्मिक) और धार्मिक विचार प्रवाह में सबसे पहला अंतर है मानव जीवन के लक्ष्य का । विश्व में यहूदी, ईसाई, मुसलमान समाजों की जनसंख्या विशाल और लक्षणीय है। इन सभी का लक्ष्य हेवन या जन्नत माना गया है। हेवन या जन्नत यह संकल्पनाएं मोक्ष से एकदम भिन्न हैं। मोक्ष का अर्थ है परमात्मपद की प्राप्ति। अर्थात् सुख और दुख की सीमा से परे चले जाना । सर्वं खल्विदं ब्रह्मं अर्थात् चराचर में एकत्व की या एक ही आत्मतत्व की अनूभूति करना । कई लोग ईसाई सॅल्व्हेशन या इस्लामी कयामत (आखिरत) की तुलना मोक्ष से करते हैं। किन्तु यह गलत है। यह दोनों पूर्णत: भिन्न बातें हैं। |
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− | सॅल्व्हेशन या आखिरत यह तो हेवन और जन्नत तथा हेल और दोजख की संकल्पनाओं से जुडी संकल्पनाएं ही हैं। धार्मिक (धार्मिक) विचार में स्वर्ग और नरक की संकल्पनाएं भी हेवन और जन्नत और हेल और दोजख की संकल्पनाओं से भिन्न है। ईसाईयत की सॅल्व्हेशन और इस्लाम की कयामत (आखिरत) की कल्पना और मोक्ष में कोई साम्य नहीं है। अधार्मिक (अधार्मिक) मान्यता है कि मनुष्य मरने के बाद अपनी दफनभूमि में पडा रहता है। डे ऑफ सॅल्व्हेशन या कयामत के दिन को गॉड या अल्लाह अपने प्रेषित के माध्यम से सब को उठाते हैं। प्रेषित के कहे अनुसार जिसने ईसाईयत पर श्रद्धा रखी थी उसे गॉड सदा के लिये स्वर्ग भेज देता है। और जिन्होंने गॉड पर श्रद्धा नहीं रखी थी उन सबको हेल में भेज देता है। इसी प्रकार से प्रेषित के कहने से अल्लाहताला प्रत्येक मनुष्य की रूह का क्या होगा यह निर्णय करता है। जिसने अल्लाहताला में निष्ठा रखी थी उन सब को सदा के लिये जन्नत में भेज देता है। और जिसने अल्लाहताला पर निष्ठा नहीं रखी थी उन सब को सदा के लिये दोजख में भेज देता है। | + | सॅल्व्हेशन या आखिरत यह तो हेवन और जन्नत तथा हेल और दोजख की संकल्पनाओं से जुडी संकल्पनाएं ही हैं। धार्मिक विचार में स्वर्ग और नरक की संकल्पनाएं भी हेवन और जन्नत और हेल और दोजख की संकल्पनाओं से भिन्न है। ईसाईयत की सॅल्व्हेशन और इस्लाम की कयामत (आखिरत) की कल्पना और मोक्ष में कोई साम्य नहीं है। अधार्मिक (अधार्मिक) मान्यता है कि मनुष्य मरने के बाद अपनी दफनभूमि में पडा रहता है। डे ऑफ सॅल्व्हेशन या कयामत के दिन को गॉड या अल्लाह अपने प्रेषित के माध्यम से सब को उठाते हैं। प्रेषित के कहे अनुसार जिसने ईसाईयत पर श्रद्धा रखी थी उसे गॉड सदा के लिये स्वर्ग भेज देता है। और जिन्होंने गॉड पर श्रद्धा नहीं रखी थी उन सबको हेल में भेज देता है। इसी प्रकार से प्रेषित के कहने से अल्लाहताला प्रत्येक मनुष्य की रूह का क्या होगा यह निर्णय करता है। जिसने अल्लाहताला में निष्ठा रखी थी उन सब को सदा के लिये जन्नत में भेज देता है। और जिसने अल्लाहताला पर निष्ठा नहीं रखी थी उन सब को सदा के लिये दोजख में भेज देता है। |
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− | धार्मिक (धार्मिक) स्वर्ग और नरक की कल्पना भी इन से पूर्णत: भिन्न है। स्वर्ग या नरक की प्राप्ति में परमात्मा सीधा न्याय करता है। उसे किसी मध्यस्थ की कोई आवश्यकता नहीं होती। वह सर्वशक्तिमान और सर्वज्ञानी होने से वह प्रत्येक द्वारा किये सत्कर्म और दुष्कर्म जानता है। प्रत्येक मनुष्य द्वारा किये इन सत्कर्मों के अनुसार ही परमात्मा उस के लिये स्वर्ग सुख या नरक यातनाओं की व्यवस्था करता है। जैसे ही स्वर्ग सुख या नरक यातनाओं के भोग पूरे हो जाते हैं, मनुष्य स्वर्ग सुख से वंचित और नरक यातनाओं से मुक्त हो जाता है। यह भोग हर मनुष्य अपने वर्तमान जन्म में और आगामी जन्मों में प्राप्त करता है। धार्मिक (धार्मिक) सोच में तो सीधा सीधा गणित है। जितना सत्कर्म उतना सुख जितना दुष्कर्म उतना दु:ख। अधार्मिक (अधार्मिक) समाजों में सत्कर्म और दुष्कर्म की कोई संकल्पना ही नहीं है। हेवन या जन्नत का अर्थ है सदैव सुखी रहने की स्थिति और हेल और दोजख का अर्थ है सदा दुखी रहने की स्थिति। | + | धार्मिक स्वर्ग और नरक की कल्पना भी इन से पूर्णत: भिन्न है। स्वर्ग या नरक की प्राप्ति में परमात्मा सीधा न्याय करता है। उसे किसी मध्यस्थ की कोई आवश्यकता नहीं होती। वह सर्वशक्तिमान और सर्वज्ञानी होने से वह प्रत्येक द्वारा किये सत्कर्म और दुष्कर्म जानता है। प्रत्येक मनुष्य द्वारा किये इन सत्कर्मों के अनुसार ही परमात्मा उस के लिये स्वर्ग सुख या नरक यातनाओं की व्यवस्था करता है। जैसे ही स्वर्ग सुख या नरक यातनाओं के भोग पूरे हो जाते हैं, मनुष्य स्वर्ग सुख से वंचित और नरक यातनाओं से मुक्त हो जाता है। यह भोग हर मनुष्य अपने वर्तमान जन्म में और आगामी जन्मों में प्राप्त करता है। धार्मिक सोच में तो सीधा सीधा गणित है। जितना सत्कर्म उतना सुख जितना दुष्कर्म उतना दु:ख। अधार्मिक (अधार्मिक) समाजों में सत्कर्म और दुष्कर्म की कोई संकल्पना ही नहीं है। हेवन या जन्नत का अर्थ है सदैव सुखी रहने की स्थिति और हेल और दोजख का अर्थ है सदा दुखी रहने की स्थिति। |
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− | अधार्मिक (अधार्मिक) समाज तो मोक्ष की कल्पना तक नहीं कर सके हैं। धार्मिक (धार्मिक) मोक्ष की कल्पना धार्मिक (धार्मिक) सोच को आध्यात्मिक बना देती है। '''देहभाव से मुक्ति ही मोक्ष है'''। जीवात्मा जब देह-भाव से ग्रस्त होता है तब उसमें करता भाव, भोक्ता भाव और ज्ञाताभाव आ जाते हैं। इन के अभाव में जीवात्मा अपने देहभाव से मुक्त हो जाता है। फिर उसमें और परमात्मा में अंतर नहीं रहा जाता। अधि का अर्थ है श्रेष्ठ या उत्तम। श्रीमदभगवदगीता १५ वें अध्याय के १७ में परमात्मा को उत्तम पुरूष कहा है। अर्थात् अधि-आत्मा ही परमात्मा होता है। देहभाव से मुक्त होकर परमात्मा से तादात्म्य की दिशा में बढ़ना ही जीवन है। ऐसी धार्मिक (धार्मिक) मान्यता के कारण सम्पूर्ण जीवन और जीवन का हर पहलू अध्यात्म से ओतप्रोत होता है। धार्मिक (धार्मिक) समाज ने अपने सम्मुख व्यक्तिगत, सामाजिक और सृष्टिगत ऐसे तीन प्रकार के एक दूसरे से सुसंगत ऐसे लक्ष्य रखे हैं। लक्ष्य का निर्धारण करते समय वे ‘स्वभावज’ हों इसका ध्यान रखा गया है। व्यक्तिगत स्तर का लक्ष्य और सामाजिक स्तर का लक्ष्य परस्पर पूरक और पोषक होना आवश्यक है। इसी तरह सृष्टिगत लक्ष्य, व्यक्तिगत और समष्टिगत लक्ष्य ये तीनों परस्पर पूरक पोषक होना आवश्यक हैं। व्यक्तिगत स्तर का लक्ष्य मोक्ष या त्रिवर्ग के माध्यम से अभ्युदय है। यह सामाजिक लक्ष्य स्वतंत्रता को बाधक नहीं होना चाहिये। इसीलिये हमारे पूर्वजों ने कहा है:<blockquote>आत्मनो मोक्षार्थं जगत् हिताय च।<ref>Swami Vivekananda Volume 6 page 473.</ref></blockquote>मुझे मोक्ष मिले लेकिन जगत् का हित करते हुए मिले। और त्रिवर्ग में तो मूलत: धर्म का ही अधिष्ठान है और धर्माचरण सृष्टिगत लक्ष्य है। तीनों स्तरों के लक्ष्यों का नियामक धर्म ही है। इसलिये तीनों स्तरों के लक्ष्य परस्पर पूरक और पोषक बनें रहते हैं। | + | अधार्मिक (अधार्मिक) समाज तो मोक्ष की कल्पना तक नहीं कर सके हैं। धार्मिक मोक्ष की कल्पना धार्मिक सोच को आध्यात्मिक बना देती है। '''देहभाव से मुक्ति ही मोक्ष है'''। जीवात्मा जब देह-भाव से ग्रस्त होता है तब उसमें करता भाव, भोक्ता भाव और ज्ञाताभाव आ जाते हैं। इन के अभाव में जीवात्मा अपने देहभाव से मुक्त हो जाता है। फिर उसमें और परमात्मा में अंतर नहीं रहा जाता। अधि का अर्थ है श्रेष्ठ या उत्तम। श्रीमदभगवदगीता १५ वें अध्याय के १७ में परमात्मा को उत्तम पुरूष कहा है। अर्थात् अधि-आत्मा ही परमात्मा होता है। देहभाव से मुक्त होकर परमात्मा से तादात्म्य की दिशा में बढ़ना ही जीवन है। ऐसी धार्मिक मान्यता के कारण सम्पूर्ण जीवन और जीवन का हर पहलू अध्यात्म से ओतप्रोत होता है। धार्मिक समाज ने अपने सम्मुख व्यक्तिगत, सामाजिक और सृष्टिगत ऐसे तीन प्रकार के एक दूसरे से सुसंगत ऐसे लक्ष्य रखे हैं। लक्ष्य का निर्धारण करते समय वे ‘स्वभावज’ हों इसका ध्यान रखा गया है। व्यक्तिगत स्तर का लक्ष्य और सामाजिक स्तर का लक्ष्य परस्पर पूरक और पोषक होना आवश्यक है। इसी तरह सृष्टिगत लक्ष्य, व्यक्तिगत और समष्टिगत लक्ष्य ये तीनों परस्पर पूरक पोषक होना आवश्यक हैं। व्यक्तिगत स्तर का लक्ष्य मोक्ष या त्रिवर्ग के माध्यम से अभ्युदय है। यह सामाजिक लक्ष्य स्वतंत्रता को बाधक नहीं होना चाहिये। इसीलिये हमारे पूर्वजों ने कहा है:<blockquote>आत्मनो मोक्षार्थं जगत् हिताय च।<ref>Swami Vivekananda Volume 6 page 473.</ref></blockquote>मुझे मोक्ष मिले लेकिन जगत् का हित करते हुए मिले। और त्रिवर्ग में तो मूलत: धर्म का ही अधिष्ठान है और धर्माचरण सृष्टिगत लक्ष्य है। तीनों स्तरों के लक्ष्यों का नियामक धर्म ही है। इसलिये तीनों स्तरों के लक्ष्य परस्पर पूरक और पोषक बनें रहते हैं। |
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| == मानव के व्यक्तित्व से संबंधित महत्वपूर्ण बातें == | | == मानव के व्यक्तित्व से संबंधित महत्वपूर्ण बातें == |
| # मानव यह परमात्मा की सर्वश्रेष्ठ रचना है। सर्वश्रेष्ठ अभिव्यक्ति है। परमात्मा की सभी शक्तियाँ मनुष्य के पास विद्यमान होतीं हैं। केवल मात्रा का अंतर होता है। मानव की शक्तियाँ मर्यादित हैं। परमात्मा की अमर्याद हैं। | | # मानव यह परमात्मा की सर्वश्रेष्ठ रचना है। सर्वश्रेष्ठ अभिव्यक्ति है। परमात्मा की सभी शक्तियाँ मनुष्य के पास विद्यमान होतीं हैं। केवल मात्रा का अंतर होता है। मानव की शक्तियाँ मर्यादित हैं। परमात्मा की अमर्याद हैं। |
− | # मानव जीवन का नियमन उसके कर्म ही करते हैं। धार्मिक (धार्मिक) मान्यता है कि जीवों की ८४ लक्ष योनियाँ हैं। इनमें केवल मानव योनि ही कर्मयोनि है। अन्य सभी प्राणियों की योनियाँ भोग योनियाँ हैं। प्राणि उन्हें कहते हैं जो प्राण के यानि आहार, निद्रा, भय और मैथुन इन प्राणिक आवेगों के स्तरपर जीते हैं। इन अर्थों में मानव एक प्राणि भी है। जन्म से तो मानव भी अन्य प्राणियों जैसा प्राण के स्तर पर जीनेवाला जीव ही होता है। संस्कार और शिक्षा से वह मन के स्तर पर जीने लगता है। '''मन के स्तर पर जीनेवाले को मानव कहते हैं'''। बुद्धि के स्तर पर जीनेवाले को महामानव और चित्त या आत्मिक स्तर पर जीनेवाले को और भी अधिक श्रेष्ठ मानव या नरोत्तम कहा जाता है। | + | # मानव जीवन का नियमन उसके कर्म ही करते हैं। धार्मिक मान्यता है कि जीवों की ८४ लक्ष योनियाँ हैं। इनमें केवल मानव योनि ही कर्मयोनि है। अन्य सभी प्राणियों की योनियाँ भोग योनियाँ हैं। प्राणि उन्हें कहते हैं जो प्राण के यानि आहार, निद्रा, भय और मैथुन इन प्राणिक आवेगों के स्तरपर जीते हैं। इन अर्थों में मानव एक प्राणि भी है। जन्म से तो मानव भी अन्य प्राणियों जैसा प्राण के स्तर पर जीनेवाला जीव ही होता है। संस्कार और शिक्षा से वह मन के स्तर पर जीने लगता है। '''मन के स्तर पर जीनेवाले को मानव कहते हैं'''। बुद्धि के स्तर पर जीनेवाले को महामानव और चित्त या आत्मिक स्तर पर जीनेवाले को और भी अधिक श्रेष्ठ मानव या नरोत्तम कहा जाता है। |
| # मानवेतर योनियों के प्राणियों को अपने स्वाभाविक प्राणिक आवेगों के अनुसार चलने मात्र की बुद्धि और मन मिला है। इसलिये सामान्यत: ये प्राणि स्वतंत्र कर्म नहीं कर सकते। केवल मानव को विशेष मन, बुद्धि, स्मृति आदि मिले हैं इस कारण वह अन्य प्राणियों से भिन्न, प्राणिक आवेगों से भिन्न और प्राणिक आवेगों के विपरीत भी कर्म करने की स्वतंत्रता ले सकता है। मानव व्यवहार की इस स्वतंत्रता का नियमन उस के कर्मों से होता है। यह नियमन कर्मसिध्दांत के आधार पर होता है। कर्मसिध्दांत की अधिक जानकारी के लिये ‘[[Elements of Hindu Jeevan Drishti and Life Style (धार्मिक/हिन्दू जीवनदृष्टि और जीवन शैली के सूत्र)|जीवनशैली के सूत्र]]‘ अध्याय में देखें। ऋणसिद्धांत का आधार भी कर्मसिद्धांत ही है। | | # मानवेतर योनियों के प्राणियों को अपने स्वाभाविक प्राणिक आवेगों के अनुसार चलने मात्र की बुद्धि और मन मिला है। इसलिये सामान्यत: ये प्राणि स्वतंत्र कर्म नहीं कर सकते। केवल मानव को विशेष मन, बुद्धि, स्मृति आदि मिले हैं इस कारण वह अन्य प्राणियों से भिन्न, प्राणिक आवेगों से भिन्न और प्राणिक आवेगों के विपरीत भी कर्म करने की स्वतंत्रता ले सकता है। मानव व्यवहार की इस स्वतंत्रता का नियमन उस के कर्मों से होता है। यह नियमन कर्मसिध्दांत के आधार पर होता है। कर्मसिध्दांत की अधिक जानकारी के लिये ‘[[Elements of Hindu Jeevan Drishti and Life Style (धार्मिक/हिन्दू जीवनदृष्टि और जीवन शैली के सूत्र)|जीवनशैली के सूत्र]]‘ अध्याय में देखें। ऋणसिद्धांत का आधार भी कर्मसिद्धांत ही है। |
| # सृष्टि में मानव निर्माण तो सब से अंत में हुआ था। उससे पहले सृष्टि थी। सृष्टि के विलय की प्रक्रिया में भी मानव जाति नष्ट होने के उपरांत भी सृष्टि होगी। सृष्टि को मानव की आवश्यकता नहीं है। लेकिन मानव सृष्टि के बगैर जी नहीं सकता। इसलिये मानव के लिये यह अनिवार्य है कि वह सृष्टि के साथ अपने को समायोजित करे। अपने सभी व्यवहार प्रकृति सुसंगत रखे। प्रकृति का संतुलन नहीं बिगाडे। सृष्टि चक्र को अबाधित रखे। वैसे भी सृष्टि या प्रकृति के साथ जब मानव खिलवाड़ करता है, एक सीमा तक तो प्रकृति उसे सहन कर लेती है। इस सीमा को लाँघने के बाद प्रकृति भी उसकी प्रतिक्रया देती है। इस प्रतिक्रया से मानव का ही नुकसान होता है। | | # सृष्टि में मानव निर्माण तो सब से अंत में हुआ था। उससे पहले सृष्टि थी। सृष्टि के विलय की प्रक्रिया में भी मानव जाति नष्ट होने के उपरांत भी सृष्टि होगी। सृष्टि को मानव की आवश्यकता नहीं है। लेकिन मानव सृष्टि के बगैर जी नहीं सकता। इसलिये मानव के लिये यह अनिवार्य है कि वह सृष्टि के साथ अपने को समायोजित करे। अपने सभी व्यवहार प्रकृति सुसंगत रखे। प्रकृति का संतुलन नहीं बिगाडे। सृष्टि चक्र को अबाधित रखे। वैसे भी सृष्टि या प्रकृति के साथ जब मानव खिलवाड़ करता है, एक सीमा तक तो प्रकृति उसे सहन कर लेती है। इस सीमा को लाँघने के बाद प्रकृति भी उसकी प्रतिक्रया देती है। इस प्रतिक्रया से मानव का ही नुकसान होता है। |
| # श्रेष्ठता के साथ दायित्व आता है। दायित्व बोध आना चाहिये। मानव को जो श्रेष्ठता परमात्मा से मिली है उस के कारण मानव का यह दायित्व बनता है कि वह विवेक से काम ले। प्रकृति नहीं बिगाडे। जीवश्रृंखला को नहीं तोडे। प्रकृति के साथ खिलवाड नहीं करे। दुर्बलों की सहायता करे। मानव को मिली श्रेष्ठ स्मृति के कारण ‘कृतज्ञता’, उपकार से उतराई होना यह मानव का अनिवार्य लक्षण है। | | # श्रेष्ठता के साथ दायित्व आता है। दायित्व बोध आना चाहिये। मानव को जो श्रेष्ठता परमात्मा से मिली है उस के कारण मानव का यह दायित्व बनता है कि वह विवेक से काम ले। प्रकृति नहीं बिगाडे। जीवश्रृंखला को नहीं तोडे। प्रकृति के साथ खिलवाड नहीं करे। दुर्बलों की सहायता करे। मानव को मिली श्रेष्ठ स्मृति के कारण ‘कृतज्ञता’, उपकार से उतराई होना यह मानव का अनिवार्य लक्षण है। |
− | # धार्मिक (धार्मिक) दृष्टि से मानव जीवन का लक्ष्य मोक्षप्राप्ति या मुक्ति है। व्यक्तिगत से ऊपर परमेष्ठीगत विकास है। इसी तरह मानव का सामाजिक स्तर पर लक्ष्य ‘स्वतंत्रता’ है। और सृष्टि के स्तरपर ‘धर्माचरण’ है। सृष्टि के नियमों के अनुकूल व्यवहार भी धर्म ही होता है। स्वतंत्रता का अर्थ स्वैराचार नहीं होता। स्वतंत्रता के साथ जिम्मेदारियाँ आतीं हैं। दायित्व आते हैं। धर्म के विषय में अधिक जानकारी के लिये अध्याय ३ ‘[[Dharma: Bhartiya Jeevan Drishti (धर्म:धार्मिक जीवन दृष्टि)|धर्म]]’ में देखें। | + | # धार्मिक दृष्टि से मानव जीवन का लक्ष्य मोक्षप्राप्ति या मुक्ति है। व्यक्तिगत से ऊपर परमेष्ठीगत विकास है। इसी तरह मानव का सामाजिक स्तर पर लक्ष्य ‘स्वतंत्रता’ है। और सृष्टि के स्तरपर ‘धर्माचरण’ है। सृष्टि के नियमों के अनुकूल व्यवहार भी धर्म ही होता है। स्वतंत्रता का अर्थ स्वैराचार नहीं होता। स्वतंत्रता के साथ जिम्मेदारियाँ आतीं हैं। दायित्व आते हैं। धर्म के विषय में अधिक जानकारी के लिये अध्याय ३ ‘[[Dharma: Bhartiya Jeevan Drishti (धर्म:धार्मिक जीवन दृष्टि)|धर्म]]’ में देखें। |
| # मानव सदैव सुख की खोज करता रहता है। मानव के सारे प्रयास मूलत: सुखप्राप्ति के लिये होते हैं। सुख का अर्थ अनुकूल संवेदना है। सुख प्राप्ति के लिये निम्न बातें अनिवार्य होती है: | | # मानव सदैव सुख की खोज करता रहता है। मानव के सारे प्रयास मूलत: सुखप्राप्ति के लिये होते हैं। सुख का अर्थ अनुकूल संवेदना है। सुख प्राप्ति के लिये निम्न बातें अनिवार्य होती है: |
| #* सुसाध्य आजीविका | | #* सुसाध्य आजीविका |
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| # मानव व्यक्तित्व के पहलुओं का विकास भी एकसाथ नहीं होता। गर्भधारणा के बाद सर्वप्रथम चित्त सक्रिय होता है। इस काल में गर्भ अपनी माँ से भी कहीं अधिक संवेदनशील होता है। अब तक इंद्रियों का विकास नहीं होने से शब्द, स्पर्श, रूप रस और गंध के सूक्ष्म से सूक्ष्म संस्कार वह ग्रहण कर लेता है। जब इंद्रियों का निर्माण आरम्भ होता है तब फिर संस्कार क्षमता उस इंद्रिय की क्षमता जितनी कम हो जाती है। | | # मानव व्यक्तित्व के पहलुओं का विकास भी एकसाथ नहीं होता। गर्भधारणा के बाद सर्वप्रथम चित्त सक्रिय होता है। इस काल में गर्भ अपनी माँ से भी कहीं अधिक संवेदनशील होता है। अब तक इंद्रियों का विकास नहीं होने से शब्द, स्पर्श, रूप रस और गंध के सूक्ष्म से सूक्ष्म संस्कार वह ग्रहण कर लेता है। जब इंद्रियों का निर्माण आरम्भ होता है तब फिर संस्कार क्षमता उस इंद्रिय की क्षमता जितनी कम हो जाती है। |
| #* शिशू अवस्था में बालक के इंद्रियों के विकास का काल होता है। पूर्वबाल्यावस्था में मन का या विचार शक्ति का, उत्तर बाल्यावस्था और पूर्व किशोरावस्था में बुद्धि, तर्क आदि का और उत्तर किशोरवस्था में तथा यौवन में अहंकार का यानी 'मै' का यानी कर्ता भाव (मैं करता हूँ), ज्ञाता भाव (मैं जानता हूँ) और भोक्ता भाव (मैं उपभोग करता हूँ) का विकास होता है। इसलिये व्यक्तित्व विकास के लिये संस्कारों का और शिक्षा का स्वरूप आयु की अवस्था के अनुसार बदलता है। | | #* शिशू अवस्था में बालक के इंद्रियों के विकास का काल होता है। पूर्वबाल्यावस्था में मन का या विचार शक्ति का, उत्तर बाल्यावस्था और पूर्व किशोरावस्था में बुद्धि, तर्क आदि का और उत्तर किशोरवस्था में तथा यौवन में अहंकार का यानी 'मै' का यानी कर्ता भाव (मैं करता हूँ), ज्ञाता भाव (मैं जानता हूँ) और भोक्ता भाव (मैं उपभोग करता हूँ) का विकास होता है। इसलिये व्यक्तित्व विकास के लिये संस्कारों का और शिक्षा का स्वरूप आयु की अवस्था के अनुसार बदलता है। |
− | # हर मानव जन्म लेते समय अपने पूर्व जन्मों के कर्मों के अनुसार विकास की कुछ संभाव्य सीमाएँ लेकर जन्म लेता है। अच्छा संगोपन मिलने से वह पूरी संभावनाओं तक विकास कर सकता है। कुछ विशेष इच्छाशक्ति रखने वाले बच्चे अपनी संभावनाओं से भी अधिक विकास कर लेते हैं। लेकिन ऐसे बच्चे अल्प संख्या में ही होते हैं। अपवाद स्वरूप ही होते हैं। अपवाद स्वरूप बच्चोंं के विकास के लिये सामान्य बच्चोंं के नियम और पद्धतियाँ पर्याप्त नहीं होतीं। सामान्य बच्चोंं के साथ भी विशेष प्रतिभा रखनेवाले बच्चोंं जैसा व्यवहार करने से सामान्य बच्चोंं की हानि होती है। समाज के सभी लोग प्रतिभावान या जिन्हें श्रीमद्भगवद्गीता ‘श्रेष्ठ’ कहती है या जिन्हें ‘महाजनो येन गत: स: पंथ:’ में ‘महाजन’ कहा गया है ऐसे नहीं होते हैं। इनका समाज में प्रमाण ५-१० प्रतिशत से अधिक नहीं होता है। इसीलिये धार्मिक (धार्मिक) समाज के पतन के कालखण्ड छोड दें तो सामान्यत: धार्मिक (धार्मिक) न्याय व्यवस्था में एक ही प्रकार के अपराध के लिये ब्राह्मण को क्षत्रिय से अधिक, क्षत्रिय को वैश्य से अधिक और वैश्य को शूद्र से अधिक दण्ड का विधान था। इस विषय में चीनी प्रवासी द्वारा लिखी विक्रमादित्य की कथा ध्यान देने योग्य है। कुछ स्मृतियों में ब्राह्मण को अवध्य कहा गया है। अवध्यता से तात्पर्य है शारीरिक अवध्यता। ब्राह्मण का अपराधी सिध्द होना उसके सम्मान की समाप्ति होती है। और ब्राह्मण का सम्मान छिन जाना मृत्यू से अधिक बडा दंड माना जाता था। ब्राह्मणों में क्षत्रियों में और वैश्यों में भी महाजन होते हैं। इनका प्रमाण ५-१० % से कम ही होता है। | + | # हर मानव जन्म लेते समय अपने पूर्व जन्मों के कर्मों के अनुसार विकास की कुछ संभाव्य सीमाएँ लेकर जन्म लेता है। अच्छा संगोपन मिलने से वह पूरी संभावनाओं तक विकास कर सकता है। कुछ विशेष इच्छाशक्ति रखने वाले बच्चे अपनी संभावनाओं से भी अधिक विकास कर लेते हैं। लेकिन ऐसे बच्चे अल्प संख्या में ही होते हैं। अपवाद स्वरूप ही होते हैं। अपवाद स्वरूप बच्चोंं के विकास के लिये सामान्य बच्चोंं के नियम और पद्धतियाँ पर्याप्त नहीं होतीं। सामान्य बच्चोंं के साथ भी विशेष प्रतिभा रखनेवाले बच्चोंं जैसा व्यवहार करने से सामान्य बच्चोंं की हानि होती है। समाज के सभी लोग प्रतिभावान या जिन्हें श्रीमद्भगवद्गीता ‘श्रेष्ठ’ कहती है या जिन्हें ‘महाजनो येन गत: स: पंथ:’ में ‘महाजन’ कहा गया है ऐसे नहीं होते हैं। इनका समाज में प्रमाण ५-१० प्रतिशत से अधिक नहीं होता है। इसीलिये धार्मिक समाज के पतन के कालखण्ड छोड दें तो सामान्यत: धार्मिक न्याय व्यवस्था में एक ही प्रकार के अपराध के लिये ब्राह्मण को क्षत्रिय से अधिक, क्षत्रिय को वैश्य से अधिक और वैश्य को शूद्र से अधिक दण्ड का विधान था। इस विषय में चीनी प्रवासी द्वारा लिखी विक्रमादित्य की कथा ध्यान देने योग्य है। कुछ स्मृतियों में ब्राह्मण को अवध्य कहा गया है। अवध्यता से तात्पर्य है शारीरिक अवध्यता। ब्राह्मण का अपराधी सिध्द होना उसके सम्मान की समाप्ति होती है। और ब्राह्मण का सम्मान छिन जाना मृत्यू से अधिक बडा दंड माना जाता था। ब्राह्मणों में क्षत्रियों में और वैश्यों में भी महाजन होते हैं। इनका प्रमाण ५-१० % से कम ही होता है। |
| # आवश्यकता और इच्छा एक नहीं हैं। आवश्यकताएँ शरीर और प्राण के लिये होती हैं। इसलिये वे मर्यादित होतीं हैं। इच्छाएँ मन करता है। मन की शक्ति असीम होती है। इसीलिये इच्छाएँ अमर्याद होतीं हैं। इच्छाओं की पूर्ति से मन तृप्त नहीं होता। वह और इच्छा करने लग जाता है। इसी का वर्णन श्रीमद्भागवत महापुराण में किया है<ref>श्रीमद्भागवत महापुराण 9।19।14</ref>: | | # आवश्यकता और इच्छा एक नहीं हैं। आवश्यकताएँ शरीर और प्राण के लिये होती हैं। इसलिये वे मर्यादित होतीं हैं। इच्छाएँ मन करता है। मन की शक्ति असीम होती है। इसीलिये इच्छाएँ अमर्याद होतीं हैं। इच्छाओं की पूर्ति से मन तृप्त नहीं होता। वह और इच्छा करने लग जाता है। इसी का वर्णन श्रीमद्भागवत महापुराण में किया है<ref>श्रीमद्भागवत महापुराण 9।19।14</ref>: |
| <blockquote>न जातु काम: कामानाम् उपभोगेन शाम्यम् ।</blockquote><blockquote>हविषा कृष्णवर्त्वेम् भूयं एवाभिवर्धते ॥ 9.19.14 ॥</blockquote><blockquote>प्रत्येक मानव को उसकी आवश्यकताओं की पूर्ति का अधिकार और सामर्थ्य होती है। लेकिन साथ ही में इच्छाओं को नियंत्रण में रखने का दायित्व भी होता है। अतः मन के संयम की शिक्षा, शिक्षा का एक महत्वपूर्ण पहलू है। स्वाद संयम, वाणी संयम ऐसे सभी इन्द्रियों की तन्मात्राओं याने स्पर्श, रूप, रस, गंध और शब्द इन के विषय में संयम रखना चाहिए । सामान्यत: बुद्धि, जब तक कि इन्द्रिय नियंत्रित मन उसे प्रभावित नहीं करता, ठीक ही काम करती है। अतः हम ऐसा भी कह सकते हैं कि इन्द्रियों को मन के नियंत्रण में रखने की और मन को बुद्धि के नियंत्रण में रखने की शिक्षा भी शिक्षा का आवश्यक पहलू है।</blockquote> | | <blockquote>न जातु काम: कामानाम् उपभोगेन शाम्यम् ।</blockquote><blockquote>हविषा कृष्णवर्त्वेम् भूयं एवाभिवर्धते ॥ 9.19.14 ॥</blockquote><blockquote>प्रत्येक मानव को उसकी आवश्यकताओं की पूर्ति का अधिकार और सामर्थ्य होती है। लेकिन साथ ही में इच्छाओं को नियंत्रण में रखने का दायित्व भी होता है। अतः मन के संयम की शिक्षा, शिक्षा का एक महत्वपूर्ण पहलू है। स्वाद संयम, वाणी संयम ऐसे सभी इन्द्रियों की तन्मात्राओं याने स्पर्श, रूप, रस, गंध और शब्द इन के विषय में संयम रखना चाहिए । सामान्यत: बुद्धि, जब तक कि इन्द्रिय नियंत्रित मन उसे प्रभावित नहीं करता, ठीक ही काम करती है। अतः हम ऐसा भी कह सकते हैं कि इन्द्रियों को मन के नियंत्रण में रखने की और मन को बुद्धि के नियंत्रण में रखने की शिक्षा भी शिक्षा का आवश्यक पहलू है।</blockquote> |
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| <li>सामान्यत: गृहस्थ के लिये चारों आश्रमों के लोगोंं तथा अन्य जीव जगत के योगक्षेम की जिम्मेदारी के अलावा दो और महत्वपूर्ण जिम्मेदारियाँ होतीं हैं। पहली यह है कि वह धर्म चिंतन, धर्म शिक्षण और धर्म रक्षण (शासन) में लगे लोगोंं के योगक्षेम की व्यवस्था करे। दूसरी है समाज की विभिन्न भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति में सार्थक योगदान दे। धर्म चिंतन, धर्म शिक्षण और धर्म रक्षण (शासन) में लगे लोगोंं की संख्या का समाज की कुल आबादी के साथ संतुलन भी महत्वपूर्ण है। धर्म चिंतन, धर्म शिक्षण और धर्म रक्षण (शासन) में लगे लोगोंं के योगक्षेम की व्यवस्था करने से वह नि:श्रेयस को और भौतिक वस्तुओं के उत्पादन से वह व्यक्तिगत और सामाजिक स्तरपर अभ्युदय को प्राप्त करता है । | | <li>सामान्यत: गृहस्थ के लिये चारों आश्रमों के लोगोंं तथा अन्य जीव जगत के योगक्षेम की जिम्मेदारी के अलावा दो और महत्वपूर्ण जिम्मेदारियाँ होतीं हैं। पहली यह है कि वह धर्म चिंतन, धर्म शिक्षण और धर्म रक्षण (शासन) में लगे लोगोंं के योगक्षेम की व्यवस्था करे। दूसरी है समाज की विभिन्न भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति में सार्थक योगदान दे। धर्म चिंतन, धर्म शिक्षण और धर्म रक्षण (शासन) में लगे लोगोंं की संख्या का समाज की कुल आबादी के साथ संतुलन भी महत्वपूर्ण है। धर्म चिंतन, धर्म शिक्षण और धर्म रक्षण (शासन) में लगे लोगोंं के योगक्षेम की व्यवस्था करने से वह नि:श्रेयस को और भौतिक वस्तुओं के उत्पादन से वह व्यक्तिगत और सामाजिक स्तरपर अभ्युदय को प्राप्त करता है । |
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− | <li>धार्मिक (धार्मिक) समाज में गृहस्थ के लिये तीन बातें आवश्यक मानीं गईं हैं: पहली बात यह है कि वह केवल धर्म की कमाई करे, दूसरे व्यय भी धर्मानुसार ही करे और तीसरे आवश्यकता से अतिरिक्त कमाई यथासंभव अधिक से अधिक दान में दे। | + | <li>धार्मिक समाज में गृहस्थ के लिये तीन बातें आवश्यक मानीं गईं हैं: पहली बात यह है कि वह केवल धर्म की कमाई करे, दूसरे व्यय भी धर्मानुसार ही करे और तीसरे आवश्यकता से अतिरिक्त कमाई यथासंभव अधिक से अधिक दान में दे। |
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| <li>सुख और सुविधा में अंतर होता है। सुविधा से सुख बढेगा यह आवश्यक नहीं है। जब सुविधा मानव को पंगु बना देती है, उसकी स्वाभाविक क्षमताओं को कुंठित कर देती है या स्वाभाविक क्षमताओं का क्षरण करती है तब वह दुख का कारण बनती है। इसलिये कितना सुविधाभोगी बनना यह विवेक महत्वपूर्ण है। सुविधाओं के विकास में दो बातें ध्यान में रखना चाहिये। पहली यह कि सुविधा अक्षम लोगोंं की सहायता के लिये होती है। दूसरी बात यह है कि उससे मानव की प्राकृतिक क्षमताओं में और सामाजिकता यानी पारिवारिक भावना और व्यवहार में वृध्दि हो। कम से कम हानि तो नहीं हो। | | <li>सुख और सुविधा में अंतर होता है। सुविधा से सुख बढेगा यह आवश्यक नहीं है। जब सुविधा मानव को पंगु बना देती है, उसकी स्वाभाविक क्षमताओं को कुंठित कर देती है या स्वाभाविक क्षमताओं का क्षरण करती है तब वह दुख का कारण बनती है। इसलिये कितना सुविधाभोगी बनना यह विवेक महत्वपूर्ण है। सुविधाओं के विकास में दो बातें ध्यान में रखना चाहिये। पहली यह कि सुविधा अक्षम लोगोंं की सहायता के लिये होती है। दूसरी बात यह है कि उससे मानव की प्राकृतिक क्षमताओं में और सामाजिकता यानी पारिवारिक भावना और व्यवहार में वृध्दि हो। कम से कम हानि तो नहीं हो। |
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| * आवश्यकताएँ और इच्छाएँ : प्राणिक आवेगों की पूर्ति को आवश्यकता और मन की चाहतों को इच्छा कहते हैं। आवश्यकताएँ मर्यादित और इच्छाएँ अमर्याद होतीं हैं। | | * आवश्यकताएँ और इच्छाएँ : प्राणिक आवेगों की पूर्ति को आवश्यकता और मन की चाहतों को इच्छा कहते हैं। आवश्यकताएँ मर्यादित और इच्छाएँ अमर्याद होतीं हैं। |
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− | * कर्म योनि : प्राणिक आवेगों की पूर्ति के लिये और इच्छाओं की पूर्ति के लिये जो बातें की जातीं हैं उन्हें कर्म कहते हैं। उसे प्राप्त मन और बुद्धि की श्रेष्ठता के कारण मनुष्य कर्म करने में स्वतंत्र होता है। यह कर्म ही मनुष्य के जीवन का नियमन करते हैं। इस नियमन को कर्म सिध्दांत के माध्यम से समझा जा सकता है। कर्मसिध्दांत की जानकारी के लिये कृपया ‘ [[Elements of Hindu Jeevan Drishti and Life Style (धार्मिक/हिन्दू जीवनदृष्टि और जीवन शैली के सूत्र)|धार्मिक (धार्मिक) जीवन दृष्टि और जीवन शैली]] ‘ अध्याय में देखें। | + | * कर्म योनि : प्राणिक आवेगों की पूर्ति के लिये और इच्छाओं की पूर्ति के लिये जो बातें की जातीं हैं उन्हें कर्म कहते हैं। उसे प्राप्त मन और बुद्धि की श्रेष्ठता के कारण मनुष्य कर्म करने में स्वतंत्र होता है। यह कर्म ही मनुष्य के जीवन का नियमन करते हैं। इस नियमन को कर्म सिध्दांत के माध्यम से समझा जा सकता है। कर्मसिध्दांत की जानकारी के लिये कृपया ‘ [[Elements of Hindu Jeevan Drishti and Life Style (धार्मिक/हिन्दू जीवनदृष्टि और जीवन शैली के सूत्र)|धार्मिक जीवन दृष्टि और जीवन शैली]] ‘ अध्याय में देखें। |
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| <li>समाज में व्यक्ति के दो प्रकार हैं। स्त्री और पुरूष। परमात्मा ने इन्हें जैसे ये आज हैं इसी स्वरूप में निर्माण किया था। समाज धारणा के लिये यानि समाज बना रहने के लिये के लिये स्त्री और पुरूष दोनों की आवश्यकता होती है। एक की अनुपस्थिति में समाज जी नहीं सकता। स्त्री और पुरूष एक दूसरे के पूरक होते हैं। बच्चे को जन्म देने का काम दोनों मिलकर करते हैं। अन्य एक भी ऐसा काम नहीं है जो स्त्री नहीं कर सकती या पुरूष नहीं कर सकता। किंतु इनको एक दूसरे से कई बातों में भिन्न बनाने में परमात्मा का कुछ प्रयोजन अवश्य है। इस प्रयोजन के अनुसार इनमें कार्य विभाजन होने से समाज ठीक चलता है। सुखी, समृध्द और चिरंजीवी बनता है। स्त्री-पुरूष संबंधों के विषय में थोड़ा अधिक गहराई से अब हम विचार करेंगे। | | <li>समाज में व्यक्ति के दो प्रकार हैं। स्त्री और पुरूष। परमात्मा ने इन्हें जैसे ये आज हैं इसी स्वरूप में निर्माण किया था। समाज धारणा के लिये यानि समाज बना रहने के लिये के लिये स्त्री और पुरूष दोनों की आवश्यकता होती है। एक की अनुपस्थिति में समाज जी नहीं सकता। स्त्री और पुरूष एक दूसरे के पूरक होते हैं। बच्चे को जन्म देने का काम दोनों मिलकर करते हैं। अन्य एक भी ऐसा काम नहीं है जो स्त्री नहीं कर सकती या पुरूष नहीं कर सकता। किंतु इनको एक दूसरे से कई बातों में भिन्न बनाने में परमात्मा का कुछ प्रयोजन अवश्य है। इस प्रयोजन के अनुसार इनमें कार्य विभाजन होने से समाज ठीक चलता है। सुखी, समृध्द और चिरंजीवी बनता है। स्त्री-पुरूष संबंधों के विषय में थोड़ा अधिक गहराई से अब हम विचार करेंगे। |
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− | == स्त्री और पुरूष संबंधी धार्मिक (धार्मिक) सोच == | + | == स्त्री और पुरूष संबंधी धार्मिक सोच == |
− | धार्मिक (धार्मिक) सोच के अनुसार स्त्री और पुरूष दोनों एकसाथ ही निर्माण हुए थे। श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय 3 के श्लोक 10 में कहा है<ref>श्रीमद्भगवद्गीता 3.10</ref>: <blockquote>सहयज्ञा: प्रजा सृष्ट: ।। 3.10 ।।</blockquote>प्रजा अर्थात् स्त्री और पुरूष साथ ही पैदा हुए थे। स्त्री और पुरूष की भिन्नता का बुद्धियुक्त सोच के आधार पर धार्मिक (धार्मिक) मनीषियों ने मूल्यांकन किया है। | + | धार्मिक सोच के अनुसार स्त्री और पुरूष दोनों एकसाथ ही निर्माण हुए थे। श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय 3 के श्लोक 10 में कहा है<ref>श्रीमद्भगवद्गीता 3.10</ref>: <blockquote>सहयज्ञा: प्रजा सृष्ट: ।। 3.10 ।।</blockquote>प्रजा अर्थात् स्त्री और पुरूष साथ ही पैदा हुए थे। स्त्री और पुरूष की भिन्नता का बुद्धियुक्त सोच के आधार पर धार्मिक मनीषियों ने मूल्यांकन किया है। |
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| परमात्मा ने सृष्टि को एक संतुलन के साथ बनाया है। स्त्री और पुरूष दोनों एक दूसरे के बिना अधूरे होते है । दोनों की पूर्ण बनने की चाह ही स्त्री और पुरूष में परस्पर आकर्षण निर्माण करती है। | | परमात्मा ने सृष्टि को एक संतुलन के साथ बनाया है। स्त्री और पुरूष दोनों एक दूसरे के बिना अधूरे होते है । दोनों की पूर्ण बनने की चाह ही स्त्री और पुरूष में परस्पर आकर्षण निर्माण करती है। |
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| परमात्मा से ही बना होने के कारण, परमात्मपद ( पूर्णत्व ) प्राप्ति की दिशा में आगे बढना ही प्रत्येक मानव के जीवन का लक्ष्य है। लेकिन शारीरिक रचना के कारण, सुरक्षा की आवश्यकता के कारण स्त्री के पूर्णत्व की दिशा में विकास का मार्ग अधिक कठिन होता है। | | परमात्मा से ही बना होने के कारण, परमात्मपद ( पूर्णत्व ) प्राप्ति की दिशा में आगे बढना ही प्रत्येक मानव के जीवन का लक्ष्य है। लेकिन शारीरिक रचना के कारण, सुरक्षा की आवश्यकता के कारण स्त्री के पूर्णत्व की दिशा में विकास का मार्ग अधिक कठिन होता है। |
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− | पारीवारिक मामलों में स्त्री को निर्णय का अधिकार और सामाजिक मामलों में जहाँ परिवार से बाहर के वातावरण का संबंध होता है, स्त्री के लिये सुरक्षा की समस्या निर्माण हो सकती है, उस में पुरूष को निर्णय का अधिकार धार्मिक (धार्मिक) परिवार और समाज व्यवस्था की विशेषता रही है। | + | पारीवारिक मामलों में स्त्री को निर्णय का अधिकार और सामाजिक मामलों में जहाँ परिवार से बाहर के वातावरण का संबंध होता है, स्त्री के लिये सुरक्षा की समस्या निर्माण हो सकती है, उस में पुरूष को निर्णय का अधिकार धार्मिक परिवार और समाज व्यवस्था की विशेषता रही है। |
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| हिंदू शास्त्र बताते है: <blockquote>'आत्मवत् सर्वभूतेषू'{{Citation needed}} या 'आत्मन: प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत्<ref>पद्मपुराण, शृष्टि १९.३५७ | | हिंदू शास्त्र बताते है: <blockquote>'आत्मवत् सर्वभूतेषू'{{Citation needed}} या 'आत्मन: प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत्<ref>पद्मपुराण, शृष्टि १९.३५७ |
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| समाज में स्त्री को योग्य स्थान और सम्मान मिले इस दृष्टि से स्त्री को माँ के रूप में देखा गया। यह भी कहा गया कि <blockquote>यत्र नार्यस्तु पुज्यंते रमंते तत्र देवता:<ref>मनुस्मृति अध्याय ३, श्लोक ५६-६०</ref> </blockquote>अर्थ : जहाँ नारी की पूजा होती है वहाँ देवता रहते है अर्थात् वह समाज देवता स्वरूप बन जाता है। सुख समृध्दि से भर जाता है। | | समाज में स्त्री को योग्य स्थान और सम्मान मिले इस दृष्टि से स्त्री को माँ के रूप में देखा गया। यह भी कहा गया कि <blockquote>यत्र नार्यस्तु पुज्यंते रमंते तत्र देवता:<ref>मनुस्मृति अध्याय ३, श्लोक ५६-६०</ref> </blockquote>अर्थ : जहाँ नारी की पूजा होती है वहाँ देवता रहते है अर्थात् वह समाज देवता स्वरूप बन जाता है। सुख समृध्दि से भर जाता है। |
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− | == धार्मिक (धार्मिक) स्त्री विषयक दृष्टि - तत्व और व्यवहार == | + | == धार्मिक स्त्री विषयक दृष्टि - तत्व और व्यवहार == |
− | उपर्युक्त स्त्री विषयक धार्मिक (धार्मिक) दृष्टि से सब परिचित है। फिर प्रश्न उठता है कि वर्तमान में धार्मिक (धार्मिक) समाज में स्त्री की दुरवस्था क्यों है? इस के लिये थोडा इतिहास देखना पड़ेगा। दो बडे कारण समझ में आते है। एक तो बौद्ध काल में महात्मा गौतम बुध्द के निर्वाण के पश्चात् कई बौद्ध विहार अनैतिकता के अड्डे बन गये थे। बौद्ध मत को राजाश्रय मिला हुआ था। यौवन में स्त्री का पुरूषों के प्रति और पुरूष का स्त्री के प्रति यौन आकर्षण अत्यंत स्वाभाविक बात है। फिर यौवन में विवेक और अनुभव भी कुछ कम ही होते है। ऐसी युवतियाँ इस स्वाभाविक आकर्षण के कारण विहारों में शरण लेतीं थीं। उन्हें वापस लाना असंभव हो जाता था। इसलिये सावधानी के तौर पर स्त्रियों का घर से बाहर निकलना पूर्णत: बंद नहीं हुआ तो भी बहुत कम हो गया। दूसरे मुस्लिम आक्रांताओं ने जो अत्याचार स्त्रियों पर किये, स्त्रियों को जबरन उठाकर अरब देशों में बेचा इस से आतंकित होकर स्त्रियों का घर से बाहर निकलना पूर्णत: बंद हो गया। स्त्री शिक्षा के मामले में और इसलिये अन्य सभी मामलों में भी बहुत पिछड गई। | + | उपर्युक्त स्त्री विषयक धार्मिक दृष्टि से सब परिचित है। फिर प्रश्न उठता है कि वर्तमान में धार्मिक समाज में स्त्री की दुरवस्था क्यों है? इस के लिये थोडा इतिहास देखना पड़ेगा। दो बडे कारण समझ में आते है। एक तो बौद्ध काल में महात्मा गौतम बुध्द के निर्वाण के पश्चात् कई बौद्ध विहार अनैतिकता के अड्डे बन गये थे। बौद्ध मत को राजाश्रय मिला हुआ था। यौवन में स्त्री का पुरूषों के प्रति और पुरूष का स्त्री के प्रति यौन आकर्षण अत्यंत स्वाभाविक बात है। फिर यौवन में विवेक और अनुभव भी कुछ कम ही होते है। ऐसी युवतियाँ इस स्वाभाविक आकर्षण के कारण विहारों में शरण लेतीं थीं। उन्हें वापस लाना असंभव हो जाता था। इसलिये सावधानी के तौर पर स्त्रियों का घर से बाहर निकलना पूर्णत: बंद नहीं हुआ तो भी बहुत कम हो गया। दूसरे मुस्लिम आक्रांताओं ने जो अत्याचार स्त्रियों पर किये, स्त्रियों को जबरन उठाकर अरब देशों में बेचा इस से आतंकित होकर स्त्रियों का घर से बाहर निकलना पूर्णत: बंद हो गया। स्त्री शिक्षा के मामले में और इसलिये अन्य सभी मामलों में भी बहुत पिछड गई। |
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− | स्वाधीनता के पश्चात यह अपेक्षा थी कि शिक्षा राष्ट्रीय बनेगी, धार्मिक (धार्मिक) बनेगी, सेमेटिक मजहबों के प्रभाव से बाहर निकलेगी । दो तीन पीढ़ियों में स्त्री को योग्य स्थान दिलाएगी। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। | + | स्वाधीनता के पश्चात यह अपेक्षा थी कि शिक्षा राष्ट्रीय बनेगी, धार्मिक बनेगी, सेमेटिक मजहबों के प्रभाव से बाहर निकलेगी । दो तीन पीढ़ियों में स्त्री को योग्य स्थान दिलाएगी। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। |
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− | वर्तमान में धार्मिक (धार्मिक) स्त्री, जिस में अभी कुछ धार्मिकता शेष है, वह बहुत संभ्रम में है। उस के विरासत में मिले संस्कार उस की शिक्षा से मेल नहीं खाते। वर्तमान शिक्षा की झंझा उसे पश्चिमी रहन सहन की ओर घसीटती रहती है। जो पाश्चात्य शिक्षा से प्रभावित है ऐसी स्त्रियाँ भी अपेक्षा तो यह करतीं है कि हर अन्य पुरूष उन की ओर ध्यान अवश्य दे किन्तु उनकी तय की हुई मर्यादा को नहीं लांघे। उन से आदर से व्यवहार करे। किन्तु इस के लिये वह अपने बच्चोंं पर ऐसे संस्कार करने के लिये न तो तैयार है और न ही सक्षम। | + | वर्तमान में धार्मिक स्त्री, जिस में अभी कुछ धार्मिकता शेष है, वह बहुत संभ्रम में है। उस के विरासत में मिले संस्कार उस की शिक्षा से मेल नहीं खाते। वर्तमान शिक्षा की झंझा उसे पश्चिमी रहन सहन की ओर घसीटती रहती है। जो पाश्चात्य शिक्षा से प्रभावित है ऐसी स्त्रियाँ भी अपेक्षा तो यह करतीं है कि हर अन्य पुरूष उन की ओर ध्यान अवश्य दे किन्तु उनकी तय की हुई मर्यादा को नहीं लांघे। उन से आदर से व्यवहार करे। किन्तु इस के लिये वह अपने बच्चोंं पर ऐसे संस्कार करने के लिये न तो तैयार है और न ही सक्षम। |
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| == समाज में कामों का वर्गीकरण == | | == समाज में कामों का वर्गीकरण == |
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| पुरूष और स्त्री को परमात्मा ने मूलत: ही भिन्न बनाया है। फिर भी यदि ठीक से देखा जाये तो बच्चे को जन्म देना, जो दोनों का साझा काम है, उसे छोडकर दूसरा ऐसा कोई भी काम नहीं है जो स्त्री या पुरूष नहीं कर सकता। किंतु केवल ' कर सकना ' के आधार पर स्त्री और पुरूष दोनों जो काम वर्तमान में स्त्रियाँ करतीं है वही करने लग जाएं तो जीना हराम हो जाएगा। इसीलिये सामान्यत: विभिन्न कामों का स्त्री सुलभ और पुरूष सुलभ कामों में बँटवारा किया जाता है और स्त्री के काम कौन से है और पुरूष के कौन से है यह निश्चय किया जाता है। वैसे तो कई काम ऐसे है जो सीमा रेखा पर होते है। जो स्त्री भी और पुरूष भी सहजता से कर सकते है। | | पुरूष और स्त्री को परमात्मा ने मूलत: ही भिन्न बनाया है। फिर भी यदि ठीक से देखा जाये तो बच्चे को जन्म देना, जो दोनों का साझा काम है, उसे छोडकर दूसरा ऐसा कोई भी काम नहीं है जो स्त्री या पुरूष नहीं कर सकता। किंतु केवल ' कर सकना ' के आधार पर स्त्री और पुरूष दोनों जो काम वर्तमान में स्त्रियाँ करतीं है वही करने लग जाएं तो जीना हराम हो जाएगा। इसीलिये सामान्यत: विभिन्न कामों का स्त्री सुलभ और पुरूष सुलभ कामों में बँटवारा किया जाता है और स्त्री के काम कौन से है और पुरूष के कौन से है यह निश्चय किया जाता है। वैसे तो कई काम ऐसे है जो सीमा रेखा पर होते है। जो स्त्री भी और पुरूष भी सहजता से कर सकते है। |
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− | स्त्री में इस्ट्रोजन और प्रोजेस्टेरॉन नाम के लैंगिक अंत:स्त्राव (हार्मोन) होते है। इन के कारण स्त्री के शरीर और अवयवों की रचना भिन्न और कोमल बनती है। पुरूष में ऍंड्रोजन और टेस्टोस्टेरॉन नाम के स्त्राव (हार्मोन) होते है। इन के कारण पुरूष के शरीर और अवयवों की रचना भिन्न और मजबूत बनती है। वैसे तो स्त्री और पुरूष दोनों में इस्ट्रोजन और टेस्टोस्टेरॉन दोनों हार्मोन होते ही है। लेकिन पुरूष में टेस्टोस्टेरॉन का प्रमाण स्त्री से १५ से २० गुना अधिक होता है। इसी प्रकार से स्त्री के शरीर में २६ प्रतिशत चरबी (फॅट्) और २० प्रतिशत प्रथिन (प्रोटीन) होते है तो पुरूष के शरीर में १५ प्रतिशत चरबी और ४५ प्रतिशत प्रथिन होते है। इन्हीं घटकों के कारण स्त्री और पुरूष में शारीरिक और मानसिक भिन्नता होती है। स्त्री में स्त्रीत्व और पुरूष में पुरूषत्व होता है। स्त्री का स्त्रीत्व और पुरूष का पुरूषत्व तीव्र होने से संतति अधिक तेजस्वी और ओजस्वी बनती है। सामाजिक संस्कारों के माध्यम से स्त्री के स्त्रीत्व को और पुरूष के पुरूषत्व को अधिक तीव्र बनाया जा सकता है। अधिजनन शास्त्र के माध्यम से धार्मिक (धार्मिक) परंपराओं में ऐसा बनाया जाता रहा है। | + | स्त्री में इस्ट्रोजन और प्रोजेस्टेरॉन नाम के लैंगिक अंत:स्त्राव (हार्मोन) होते है। इन के कारण स्त्री के शरीर और अवयवों की रचना भिन्न और कोमल बनती है। पुरूष में ऍंड्रोजन और टेस्टोस्टेरॉन नाम के स्त्राव (हार्मोन) होते है। इन के कारण पुरूष के शरीर और अवयवों की रचना भिन्न और मजबूत बनती है। वैसे तो स्त्री और पुरूष दोनों में इस्ट्रोजन और टेस्टोस्टेरॉन दोनों हार्मोन होते ही है। लेकिन पुरूष में टेस्टोस्टेरॉन का प्रमाण स्त्री से १५ से २० गुना अधिक होता है। इसी प्रकार से स्त्री के शरीर में २६ प्रतिशत चरबी (फॅट्) और २० प्रतिशत प्रथिन (प्रोटीन) होते है तो पुरूष के शरीर में १५ प्रतिशत चरबी और ४५ प्रतिशत प्रथिन होते है। इन्हीं घटकों के कारण स्त्री और पुरूष में शारीरिक और मानसिक भिन्नता होती है। स्त्री में स्त्रीत्व और पुरूष में पुरूषत्व होता है। स्त्री का स्त्रीत्व और पुरूष का पुरूषत्व तीव्र होने से संतति अधिक तेजस्वी और ओजस्वी बनती है। सामाजिक संस्कारों के माध्यम से स्त्री के स्त्रीत्व को और पुरूष के पुरूषत्व को अधिक तीव्र बनाया जा सकता है। अधिजनन शास्त्र के माध्यम से धार्मिक परंपराओं में ऐसा बनाया जाता रहा है। |
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| स्त्री का स्वभाव भावना प्रधान होता है तो पुरूष का स्वभाव वस्तुनिष्ठ और तर्कनिष्ठ होता है। दिशा, गणित, विज्ञान, समय आदि विश्लेषण और संश्लेषण के विषय पुरूष के लिये अधिक सरल होते है। स्त्री के लिये कला, कौशल, कोमलता से करने के विषय सरल होते है। स्त्री की त्वचा भी पुरूष की त्वचा से महीन और इसलिये अधिक संवेदनशील होती है। स्पर्श ही नही तो स्पर्श के पीछे छुपी इच्छाओं को भी समझने की सामर्थ्य स्त्री में होती है। स्त्री में संवाद कुशलता अधिक अच्छी होती है। अन्यों के भाव स्त्री आसानी से समझ जाती है। पुरूष को उस के लिये प्रयास करने पडते है। पुरूष मेहनत के काम दीर्घ काल तक कर सकता है। स्त्री, उस के स्नायू कोमल होने के कारण शारीरिक दृष्टि से अधिक सहनशील होती है जब की पुरूष मानसिक आघातों को अधिक अच्छी तरह सहन कर लेता है। | | स्त्री का स्वभाव भावना प्रधान होता है तो पुरूष का स्वभाव वस्तुनिष्ठ और तर्कनिष्ठ होता है। दिशा, गणित, विज्ञान, समय आदि विश्लेषण और संश्लेषण के विषय पुरूष के लिये अधिक सरल होते है। स्त्री के लिये कला, कौशल, कोमलता से करने के विषय सरल होते है। स्त्री की त्वचा भी पुरूष की त्वचा से महीन और इसलिये अधिक संवेदनशील होती है। स्पर्श ही नही तो स्पर्श के पीछे छुपी इच्छाओं को भी समझने की सामर्थ्य स्त्री में होती है। स्त्री में संवाद कुशलता अधिक अच्छी होती है। अन्यों के भाव स्त्री आसानी से समझ जाती है। पुरूष को उस के लिये प्रयास करने पडते है। पुरूष मेहनत के काम दीर्घ काल तक कर सकता है। स्त्री, उस के स्नायू कोमल होने के कारण शारीरिक दृष्टि से अधिक सहनशील होती है जब की पुरूष मानसिक आघातों को अधिक अच्छी तरह सहन कर लेता है। |