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## सामाजिक व्यवस्था को सुदृढ बनाना और बनाए रखना  
 
## सामाजिक व्यवस्था को सुदृढ बनाना और बनाए रखना  
 
### परिवार व्यवस्था, राष्ट्र आदी जैसी जो चिरंतन व्यवस्थाएं पहले से विद्यमान है, उन्हें बलवान बनाना।  
 
### परिवार व्यवस्था, राष्ट्र आदी जैसी जो चिरंतन व्यवस्थाएं पहले से विद्यमान है, उन्हें बलवान बनाना।  
### आश्रम व्यवस्था, अपने को अपनी भूमि के साथ जोडकर रखने वाली व्यवसाय के चयन की मानसिकता आदी के बारे में समाज की मानसिकता को सुधारने के प्रयास करना। आश्रम व्यवस्था के नष्ट होने के कारण एक ओर तो पुरानी और नई पीढी के झगडे बढे है तो दूसरी ओर वानप्रस्थी केवल अपने या अपने परिवार के हित तक ही सीमित हो गया है। वर्ण तो परमात्मा द्वारा बनाए हुए है। प्राकृतिक है। दिमाग का काम करनेवाले, सुरक्षा का काम करनेवाले, समाज के उदर निर्वाह के साधन निर्माण करनेवाले और सेवक मानसिकता के लोग तो हर काल में रहते ही है। वह ईश्वरनिर्मित है। चारों वर्णों के लोग तो नित्य बने ही रहेंगे। इन वर्णों के लोग अपने अपने काम में विशेष कौशल्य प्राप्त कर सकें, इस हेतु से अपने पूर्वजों ने आनुवंशिकता विज्ञान को ध्यान में रखकर इन वर्णों को व्यवस्था के रूप में  समाज में प्रस्थापित किया था। किंतु आज इस व्यवस्था के स्वरूप को बिगाडकर मानव समाज अपना ही नुकसान करता दिखाई दे रहा है। संकर से निर्माण हुई प्रजा पीढी दर पीढी दुर्बल होती जाती है यह प्रकृति का नियम है।  पौधों की संकरित जातियाॅ धीरे धीरे नष्ट हो जाती है। संकरित पौधे के बीज या तो नपुंसक होते है या दुर्बल। आधुनिक जैव विज्ञान भी यही कहता है। वर्ण व्यवस्था को बल देना होगा। उसे समाज की मानसिकता में फिर से प्रस्थापित करना होगा। [[Jaati_System_(जाति_व्यवस्था)|जाति व्यवस्था]] का विचार करना भी आवश्यक है। हजारों लाखों वर्षों से यह चली आ रही व्यवस्था है। [[Jaati_System_(जाति_व्यवस्था)|जाति व्यवस्था]] यह मानव निर्मित थी। किंतु वह प्रकृति से सुसंगत वर्ण व्यवस्था से जुडी थी। आज भी क्या हम वर्ण व्यवस्था के लाभ न गँवाते हुए किंतु [[Jaati_System_(जाति_व्यवस्था)|जाति व्यवस्था]] के लाभ मिलते रहें ऐसी कोई व्यवस्था निर्माण कर सकते है क्या, इसका विचार करने की आवश्यकता है। ऐसी व्यवस्था का निर्माण किये बगैर, कम से कम ऐसी व्यवस्था निर्माण के प्रामाणिक और बुद्धियुक्त कुछ प्रयोग किये बगैर पुरानी व्यवस्था तोडना यह बुद्धिनिष्ठा की बात नही है। भूमि से लगाव नष्ट होने के कारण पगढीलापन आ गया है। दुनिया भर की सभी संस्कृतियाॅ इस एक पगढीलेपन के चलते नष्ट होने की दिशा में बढ रही है। जिस देश या समाज के लोग अपने प्रवास सीमित रखेंगे वही देश अपनी संस्कृति बचा पाएगा।  
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### आश्रम व्यवस्था, अपने को अपनी भूमि के साथ जोडकर रखने वाली व्यवसाय के चयन की मानसिकता आदी के बारे में समाज की मानसिकता को सुधारने के प्रयास करना। आश्रम व्यवस्था के नष्ट होने के कारण एक ओर तो पुरानी और नई पीढी के झगडे बढे है तो दूसरी ओर वानप्रस्थी केवल अपने या अपने परिवार के हित तक ही सीमित हो गया है। वर्ण तो परमात्मा द्वारा बनाए हुए है। प्राकृतिक है। दिमाग का काम करनेवाले, सुरक्षा का काम करनेवाले, समाज के उदर निर्वाह के साधन निर्माण करनेवाले और सेवक मानसिकता के लोग तो हर काल में रहते ही है। वह ईश्वरनिर्मित है। चारों वर्णों के लोग तो नित्य बने ही रहेंगे। इन वर्णों के लोग अपने अपने काम में विशेष कौशल्य प्राप्त कर सकें, इस हेतु से अपने पूर्वजों ने आनुवंशिकता विज्ञान को ध्यान में रखकर इन वर्णों को व्यवस्था के रूप में  समाज में प्रस्थापित किया था। किंतु आज इस व्यवस्था के स्वरूप को बिगाडकर मानव समाज अपना ही नुकसान करता दिखाई दे रहा है। संकर से निर्माण हुई प्रजा पीढी दर पीढी दुर्बल होती जाती है यह प्रकृति का नियम है।  पौधों की संकरित जातियाॅ धीरे धीरे नष्ट हो जाती है। संकरित पौधे के बीज या तो नपुंसक होते है या दुर्बल। आधुनिक जैव विज्ञान भी यही कहता है। वर्ण व्यवस्था को बल देना होगा। उसे समाज की मानसिकता में फिर से प्रस्थापित करना होगा। [[Jaati_System_(जाति_व्यवस्था)|[[Jaati_System_(जाति_व्यवस्था)|जाति व्यवस्था]]]] का विचार करना भी आवश्यक है। हजारों लाखों वर्षों से यह चली आ रही व्यवस्था है। [[Jaati_System_(जाति_व्यवस्था)|[[Jaati_System_(जाति_व्यवस्था)|जाति व्यवस्था]]]] यह मानव निर्मित थी। किंतु वह प्रकृति से सुसंगत वर्ण व्यवस्था से जुडी थी। आज भी क्या हम वर्ण व्यवस्था के लाभ न गँवाते हुए किंतु [[Jaati_System_(जाति_व्यवस्था)|[[Jaati_System_(जाति_व्यवस्था)|जाति व्यवस्था]]]] के लाभ मिलते रहें ऐसी कोई व्यवस्था निर्माण कर सकते है क्या, इसका विचार करने की आवश्यकता है। ऐसी व्यवस्था का निर्माण किये बगैर, कम से कम ऐसी व्यवस्था निर्माण के प्रामाणिक और बुद्धियुक्त कुछ प्रयोग किये बगैर पुरानी व्यवस्था तोडना यह बुद्धिनिष्ठा की बात नही है। भूमि से लगाव नष्ट होने के कारण पगढीलापन आ गया है। दुनिया भर की सभी संस्कृतियाॅ इस एक पगढीलेपन के चलते नष्ट होने की दिशा में बढ रही है। जिस देश या समाज के लोग अपने प्रवास सीमित रखेंगे वही देश अपनी संस्कृति बचा पाएगा।  
 
### जहाँ पुरातन व्यवस्थाएं वर्तमान काल में चिरंतनता और सर्वहितकारिता की कसौटी पर संदर्भहीन हो गई है ऐसी व्यवस्थाओं को तिलांजली देना।  
 
### जहाँ पुरातन व्यवस्थाएं वर्तमान काल में चिरंतनता और सर्वहितकारिता की कसौटी पर संदर्भहीन हो गई है ऐसी व्यवस्थाओं को तिलांजली देना।  
 
### शिक्षा व्यवस्था जैसी व्यवस्थाएं जिन्हें हमने पाश्चात्य प्रभाव में आकर नष्ट कर दिया है, उन्हें फिर से अपने धार्मिक (धार्मिक) चिरंतन तत्वों के आधारपर वर्तमान का ध्यान रखते हुए पुनर्गठित करना।  
 
### शिक्षा व्यवस्था जैसी व्यवस्थाएं जिन्हें हमने पाश्चात्य प्रभाव में आकर नष्ट कर दिया है, उन्हें फिर से अपने धार्मिक (धार्मिक) चिरंतन तत्वों के आधारपर वर्तमान का ध्यान रखते हुए पुनर्गठित करना।  

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