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| शिक्षा को धार्मिक बनाने के लिये स्थिर समाज की आवश्यकता होती है । संगठित समाज ही स्थिर समाज होता है। हमारा इस बात की ओर कदाचित ध्यान नहीं जाता है कि ब्रिटीश शासन के काल में सर्वाधिक क्षति समाज व्यवस्था को पहुँची है । सहस्रों वर्षों से जिन व्यवस्थाओं से समाज का संचालन होता आया था उन सभी व्यवस्थाओं को छिन्न-विच्छिन्न कर नष्ट कर दिया गया । इस हद तक उन व्यवस्थाओं को लेकर जनमानस को कलुषित कर दिया गया कि आज भी हम उन व्यवस्थाओं के लिये आस्थापूर्वक बात भी करना नहीं चाहते । शिक्षा ही इस नाश का प्रमुख माध्यम बनी है। आज भी स्थिति वही है। | | शिक्षा को धार्मिक बनाने के लिये स्थिर समाज की आवश्यकता होती है । संगठित समाज ही स्थिर समाज होता है। हमारा इस बात की ओर कदाचित ध्यान नहीं जाता है कि ब्रिटीश शासन के काल में सर्वाधिक क्षति समाज व्यवस्था को पहुँची है । सहस्रों वर्षों से जिन व्यवस्थाओं से समाज का संचालन होता आया था उन सभी व्यवस्थाओं को छिन्न-विच्छिन्न कर नष्ट कर दिया गया । इस हद तक उन व्यवस्थाओं को लेकर जनमानस को कलुषित कर दिया गया कि आज भी हम उन व्यवस्थाओं के लिये आस्थापूर्वक बात भी करना नहीं चाहते । शिक्षा ही इस नाश का प्रमुख माध्यम बनी है। आज भी स्थिति वही है। |
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− | धार्मिक समाज को संगठित रखनेवाली व्यवस्थायें थीं वर्ण व्यवस्था, जातिव्यवस्था, आश्रमव्यवस्था और परिवारव्यवस्था । इनमें परिवारव्यवस्था केन्द्र में थी और सबका आश्रय थी। आज आश्रम व्यवस्था को नाम से भी नई पीढी जानती नहीं है। आश्रम के नाम पर ऋषिमुनियों के आश्रम ही कल्पना में आते हैं, कदाचित वे भी परिचित नहीं हैं। ब्रह्मचर्याश्रम, गृहस्थाश्रम, वानप्रस्थाश्रम और संन्यस्ताश्रम की कल्पना ही नहीं रही। वर्ण और जाति बहुत बदनाम हो गये हैं यद्यपि यह कहना चाहिये कि वे बदनामी के जितने लायक थे उससे कई गुना अधिक बदनाम हो गये हैं। परिवारव्यवस्था का अस्तित्व आज है परन्तु उस पर बहुत अधिक पश्चिमी प्रभाव है। समाजव्यवस्था छिन्नविच्छिन्न हो जाने से धर्म और संस्कृति, शिक्षा और अर्थार्जन, दायित्वबोध और देशभक्ति अनाश्रित बन गये हैं। इन आधारों की चिन्ता किये बिना समाज व्यवस्थित नहीं हो सकता और जब तक समाज व्यवस्थित नहीं होता, शिक्षा धार्मिक नहीं बन सकती। | + | धार्मिक समाज को संगठित रखनेवाली व्यवस्थायें थीं वर्ण व्यवस्था, जातिव्यवस्था, [[Ashram System (आश्रम व्यवस्था)|आश्रमव्यवस्था]] और परिवारव्यवस्था । इनमें परिवारव्यवस्था केन्द्र में थी और सबका आश्रय थी। आज आश्रम व्यवस्था को नाम से भी नई पीढी जानती नहीं है। आश्रम के नाम पर ऋषिमुनियों के आश्रम ही कल्पना में आते हैं, कदाचित वे भी परिचित नहीं हैं। ब्रह्मचर्याश्रम, गृहस्थाश्रम, वानप्रस्थाश्रम और संन्यस्ताश्रम की कल्पना ही नहीं रही। वर्ण और जाति बहुत बदनाम हो गये हैं यद्यपि यह कहना चाहिये कि वे बदनामी के जितने लायक थे उससे कई गुना अधिक बदनाम हो गये हैं। परिवारव्यवस्था का अस्तित्व आज है परन्तु उस पर बहुत अधिक पश्चिमी प्रभाव है। समाजव्यवस्था छिन्नविच्छिन्न हो जाने से धर्म और संस्कृति, शिक्षा और अर्थार्जन, दायित्वबोध और देशभक्ति अनाश्रित बन गये हैं। इन आधारों की चिन्ता किये बिना समाज व्यवस्थित नहीं हो सकता और जब तक समाज व्यवस्थित नहीं होता, शिक्षा धार्मिक नहीं बन सकती। |
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| वर्ण और जाति व्यवस्था का हम त्याग भी कर दें तो तत्त्वतः तो कोई आपत्ति नहीं हो सकती। परन्तु इनका पर्याय खोजना और स्थापित करना तो अत्यन्त आवश्यक है । इस दृष्टि से हमें वर्ण और जाति की उपयोगिता क्या थी और उनके दूषण क्या थे इसका विचार करना होगा । दूषण का विचार करें तो दो बातें ध्यान में आती हैं । एक है ऊँच नीच का भेद और दूसरी है अस्पृश्यता । उपयोगिता का विचार करें तो सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण बात यह है कि वर्ण और जाति से आचार और व्यवसाय की व्यवस्था और निश्चिति होती थी। तत्वतः वर्ण जन्म से नहीं अपितु गुण और कर्म से माने जाते थे परन्तु व्यवहार में जन्म से ही माने जाने लगे थे। वर्ण और जाति विवाह के लिये भी आवश्यक मानी जाती थी । वर्णान्तर और जात्यन्तर यद्यपि सम्भव था परन्तु नगण्य मात्रा में किया जाता था । स्थिर समाज के लिये, अर्थार्जन की निश्चितता और निश्चिंतता और संस्कृति और समृद्धि की सुरक्षा के लिये इनका उपयोग था । इन व्यवस्थाओं के दूषणों को दूर कर, इनका परिष्कार कर इन्हें पुनः उपयोगी बनाने का विचार किया जाय तो लाभ हो सकता है। परन्तु राजकीय हस्तक्षेप के कारण और | | वर्ण और जाति व्यवस्था का हम त्याग भी कर दें तो तत्त्वतः तो कोई आपत्ति नहीं हो सकती। परन्तु इनका पर्याय खोजना और स्थापित करना तो अत्यन्त आवश्यक है । इस दृष्टि से हमें वर्ण और जाति की उपयोगिता क्या थी और उनके दूषण क्या थे इसका विचार करना होगा । दूषण का विचार करें तो दो बातें ध्यान में आती हैं । एक है ऊँच नीच का भेद और दूसरी है अस्पृश्यता । उपयोगिता का विचार करें तो सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण बात यह है कि वर्ण और जाति से आचार और व्यवसाय की व्यवस्था और निश्चिति होती थी। तत्वतः वर्ण जन्म से नहीं अपितु गुण और कर्म से माने जाते थे परन्तु व्यवहार में जन्म से ही माने जाने लगे थे। वर्ण और जाति विवाह के लिये भी आवश्यक मानी जाती थी । वर्णान्तर और जात्यन्तर यद्यपि सम्भव था परन्तु नगण्य मात्रा में किया जाता था । स्थिर समाज के लिये, अर्थार्जन की निश्चितता और निश्चिंतता और संस्कृति और समृद्धि की सुरक्षा के लिये इनका उपयोग था । इन व्यवस्थाओं के दूषणों को दूर कर, इनका परिष्कार कर इन्हें पुनः उपयोगी बनाने का विचार किया जाय तो लाभ हो सकता है। परन्तु राजकीय हस्तक्षेप के कारण और |
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| ===== आश्रम व्यवस्था ===== | | ===== आश्रम व्यवस्था ===== |
− | मनुष्य के व्यक्तित्वविकास की व्यवस्था को ही आश्रमव्यवस्था कहा गया है। ये चार आश्रम हैं ब्रह्मचर्याश्रम, गृहस्थाश्रम, वानप्रस्थाश्रम और संन्यस्ताश्रम । मनुष्य की आयु की अवधि को मोटे तौर पर चार विभागों में बाँटकर उन उन विभागों की जीवनचर्या का विचार आश्रमव्यवस्था में किया गया है। प्रथम ब्रह्मचर्याश्रम सर्व प्रकार की क्षमताओं को कसने का और उन्हें अर्जित करने का है। अर्थात् शारीरिक, प्राणिक, मानसिक, बौद्धिक और चैतसिक क्षमताओं के विकास हेतु आहारविहार, नियम, संयम, अनुशासन, व्यायाम, अध्ययन, सेवा, शुश्रुषा, परिचर्या, विभिन्न प्रकार के कौशल, व्यवहार आदि सब सीखने का यह काल है । आगे के जीवन की पूर्ण रूप से पूर्वतैयारी कर सिद्धता प्राप्त करने का यह काल है । इसका बड़ा महत्त्व है। | + | मनुष्य के व्यक्तित्वविकास की व्यवस्था को ही [[Ashram System (आश्रम व्यवस्था)|आश्रमव्यवस्था]] कहा गया है। ये चार आश्रम हैं ब्रह्मचर्याश्रम, गृहस्थाश्रम, वानप्रस्थाश्रम और संन्यस्ताश्रम । मनुष्य की आयु की अवधि को मोटे तौर पर चार विभागों में बाँटकर उन उन विभागों की जीवनचर्या का विचार आश्रमव्यवस्था में किया गया है। प्रथम ब्रह्मचर्याश्रम सर्व प्रकार की क्षमताओं को कसने का और उन्हें अर्जित करने का है। अर्थात् शारीरिक, प्राणिक, मानसिक, बौद्धिक और चैतसिक क्षमताओं के विकास हेतु आहारविहार, नियम, संयम, अनुशासन, व्यायाम, अध्ययन, सेवा, शुश्रुषा, परिचर्या, विभिन्न प्रकार के कौशल, व्यवहार आदि सब सीखने का यह काल है । आगे के जीवन की पूर्ण रूप से पूर्वतैयारी कर सिद्धता प्राप्त करने का यह काल है । इसका बड़ा महत्त्व है। |
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| दूसरा है गृहस्थाश्रम । अर्थार्जन, नई पीढी को जन्म देना और उनकी शिक्षा और संस्कार की व्यवस्था करना तथा समाजधर्म का पालन इस आश्रम में मुख्य बातें हैं। वैभव और समृद्धि का उपभोग और पूर्वावस्था में प्राप्त ज्ञान का व्यवहार में विनियोग महत्त्वपूर्ण बातें हैं। वानप्रस्थाश्रम में सभी सांसारिक अधिकारों और कर्तव्यों से मुक्त होकर परिवार के परामर्शक और समाज सेवा में सक्रिय होना है और संन्यस्ताश्रम में परिवार, कुल, गोत्र, जाति, वर्ण, व्यवसाय, दायित्व, अधिकार सब का त्याग कर समाजहित चिन्तन और स्वयं की मुक्ति हेतु साधना करना है। प्रथम तीन आश्रम सबके लिये हैं जबकि संन्यास स्वैच्छिक है। जीवनविकास हेतु की गई यह व्यवस्था अद्भुत है। यह किसी भी दूसरी व्यवस्था के आडे नहीं आती तो भी बिना किसी कारण से हमने इसका त्याग किया है। इसे अपने पुराने ही रूप में पुनः स्वीकार करने की आवश्यकता है। | | दूसरा है गृहस्थाश्रम । अर्थार्जन, नई पीढी को जन्म देना और उनकी शिक्षा और संस्कार की व्यवस्था करना तथा समाजधर्म का पालन इस आश्रम में मुख्य बातें हैं। वैभव और समृद्धि का उपभोग और पूर्वावस्था में प्राप्त ज्ञान का व्यवहार में विनियोग महत्त्वपूर्ण बातें हैं। वानप्रस्थाश्रम में सभी सांसारिक अधिकारों और कर्तव्यों से मुक्त होकर परिवार के परामर्शक और समाज सेवा में सक्रिय होना है और संन्यस्ताश्रम में परिवार, कुल, गोत्र, जाति, वर्ण, व्यवसाय, दायित्व, अधिकार सब का त्याग कर समाजहित चिन्तन और स्वयं की मुक्ति हेतु साधना करना है। प्रथम तीन आश्रम सबके लिये हैं जबकि संन्यास स्वैच्छिक है। जीवनविकास हेतु की गई यह व्यवस्था अद्भुत है। यह किसी भी दूसरी व्यवस्था के आडे नहीं आती तो भी बिना किसी कारण से हमने इसका त्याग किया है। इसे अपने पुराने ही रूप में पुनः स्वीकार करने की आवश्यकता है। |