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भक्तिकाल के प्रसिद्ध संत, जिनका काल युगाब्द 46-47वीं (अर्थात् ईसा की 16वीं) शताब्दी का रहा है। इनका जन्म चर्मकार परिवार में हुआ था। ये काशी के निवासी थे और प्रसिद्ध वैष्णव सन्त रामानन्द के अनुयायी थे। चर्मकार का व्यवसाय करते हुए इन्होंने अपनी असाधारण कृष्णभक्ति की अपनी रचनाओं में सहज निर्मल अभिव्यक्ति की। सन्त कबीर के विपरीत रविदास सौम्य स्वभाव के सन्त पुरुष थे। वृद्धावस्था की ओर बढ़ते कबीर के पास यदा-कदा वे सत्संग-लाभ करने जाते थे।  
 
भक्तिकाल के प्रसिद्ध संत, जिनका काल युगाब्द 46-47वीं (अर्थात् ईसा की 16वीं) शताब्दी का रहा है। इनका जन्म चर्मकार परिवार में हुआ था। ये काशी के निवासी थे और प्रसिद्ध वैष्णव सन्त रामानन्द के अनुयायी थे। चर्मकार का व्यवसाय करते हुए इन्होंने अपनी असाधारण कृष्णभक्ति की अपनी रचनाओं में सहज निर्मल अभिव्यक्ति की। सन्त कबीर के विपरीत रविदास सौम्य स्वभाव के सन्त पुरुष थे। वृद्धावस्था की ओर बढ़ते कबीर के पास यदा-कदा वे सत्संग-लाभ करने जाते थे।  
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'''<big>कबीर</big>'''
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==== <big>कबीर</big> ====
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कलियुग की 46वीं (अर्थात् ईसा की 15वीं) शताब्दी में काशी में जन्मे महात्मा कबीर प्रसिद्ध संत, कवि तथा समाज-सुधारक थे। इनका जन्म शायद हिन्दूघर में तथा पालन-पोषण मुस्लिम परिवार में हुआ। ये स्वामी रामानन्द के शिष्य बने। निर्गुण बह्म के उपासक कबीर स्वभाव के फक्कड़ और वाणी के स्पष्टवक्ता थे। उन्होंने सामाजिक रूढ़ियों, मूर्तिपूजा, छुआछूत और जाति-पाँति का तीव्र खंडन किया। उन्होंने ईश्वर को अपने अन्तर में खोजने का उपदेश दिया, संसार के प्रपंच में फंसे मनुष्य को ईश्वरोन्मुख करने के उद्देश्य से माया की कठोर भर्त्सना की। बाह्याडम्बरों का विरोध कर कबीर ने सच्ची मानसिक उपासना का मार्ग दिखाया। उन्होंने साखी (दोहे) और पद रचे, जो लोक में दूर-दूर तक व्याप्त हो गये। ‘बीजक' में कबीर की वाणी का संकलन है। उनकी मृत्यु के बाद उनके अनुयायियों ने कबीरपंथ नाम से एक सम्प्रदाय स्थापित किया।
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कलियुग की 46वीं (अर्थात् ईसा की 15वीं) शताब्दी में काशी में जन्मे महात्मा कबीर प्रसिद्ध संत, कवि तथा समाज-सुधारक थे। इनका जन्म शायद हिन्दूघर में तथा पालन-पोषण मुस्लिम परिवार में हुआ।ये स्वामी रामानन्द के शिष्य बने। निर्गुण बह्म के उपासक कबीर स्वभाव के फक्कड़ और वाणी के स्पष्टवक्ता थे। उन्होंने सामाजिक रूढ़ियों, मूर्तिपूजा, छुआछूत और जाति-पाँति का तीव्र खंडन किया। उन्होंने ईश्वर को अपने अन्तर में खोजने का उपदेश दिया, संसार के प्रपंच में फंसे मनुष्य को ईश्वरोन्मुख करने के उद्देश्य से माया की कठोर भत्र्सना की। बाह्याडम्बरों का विरोध कर कबीर ने सच्ची मानसिक उपासना का मार्ग दिखाया। उन्होंने साखी (दोहे) और पद रचे, जो लोक में दूर-दूर तक व्याप्त हो गये। ‘बीजक' में कबीर की वाणी का संकलन है। उनकी मृत्यु के बाद उनके अनुयायियों ने कबीरपंथ नाम से एक सम्प्रदाय स्थापित किया।  
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==== <big>गुरु नानक</big> ====
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महान संत और सिख परपंरा के प्रवर्तक (प्रथम गुरु), जिन्होंने वेदान्त का ज्ञान लोकभाषा में प्रस्तुत किया। इनका जन्म पंजाब के तलवंडी गाँव में (जो अब ननकाना साहिब कहलाता है) कालूराम मेहता के घर हुआ [युगाब्द 4570-4640 (1469-1539ई०)]। गुरु नानक शुद्ध हृदय के आध्यात्मिक पुरुष थे। उन्होंने जाति-पाँति और धर्म के बाह्याडम्बरों को अस्वीकार किया। उन्होंने सारे देश का भ्रमण किया तथा मक्का, मदीना और काबुल भी गये। उनकी वाणी गुरुग्रंथ साहिब में लिखी हुई है जिसे उन्होंने वेद, पुराण, स्मृति और शास्त्रों का सार कहा है। वे बाबर के आक्रमण के साक्षी रहे और उसे पाप की बारात कहा। मन्दिरों और मूर्तियों के विध्वंस के काल में 'सगुण-निराकार' की उपासना का उपदेश देकर उन्होंने धर्म के मूल तत्वों की ओर ध्यान आकर्षित किया।
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'''<big>गुरु नानक [युगाब्द 4570-4640 (1469-1539ई०)]</big>'''
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==== <big>नरसी</big> ====
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भक्त नरसी मेहता के चरित्र का परिचय देने वाला यदि कोई एक शब्द हो सकता है तो वह है पूर्ण भगवद्विश्वास। इनका जन्म काठियावाड़ प्रान्त के जूनागढ़ राज्य में हुआ था। वैष्णवों का प्रिय भजन “वैष्णव जन तो तेणे कहिए, जे पीर परायी जाणे रे” इनकी ही रचना है। इनके जीवन में भगवत्कृपा और भगवत् भक्ति के अनेक चमत्कार घटित हुए। भगवान कुष्ण की भक्ति ही इनके जीवन का एकमात्र ध्येय था। भक्त का हठ इनके रचे पदों में अत्यंत भावमय रूप में अभिव्यक्त हुआ है। संत मीराबाई से इनका परिचय था। युगाब्द 46वीं (ई० 15वीं) शताब्दी के इस भक्त कवि के पद भारतीय मनीषा-कोश के अमूल्य रत्न हैं।
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महान् संत और सिख परपंरा के प्रवर्तक (प्रथम गुरु), जिन्होंने वेदान्त का ज्ञान लोकभाषा में प्रस्तुत किया। इनका जन्म पंजाब के तलवंडी गाँव में (जो अब ननकाना साहिब कहलाता है) कालूराम मेहता के घर हुआ। गुरु नानक शुद्ध हृदय के आध्यात्मिक पुरुष थे। उन्होंने जाति-पाँति और धर्म के बाह्याडम्बरों को अस्वीकार किया। उन्होंने सारे देश का भ्रमण किया तथा मक्का, मदीना और काबुल भी गये। उनकी वाणी गुरुग्रंथ साहिब में लिखी हुई है जिसे उन्होंने वेद,पुराण, स्मृति और शास्त्रों का सार कहा है। वे बाबर के आक्रमण के साक्षी रहे और उसे पाप की बारात कहा। मन्दिरों और मूर्तियों के विध्वंस के काल में'सगुण-निराकार'की उपासना का उपदेश देकर उन्होंने धर्म के मूल तत्वों की ओर ध्यान आकर्षित किया।
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==== <big>तुलसीदास</big> ====
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श्रेष्ठ रामभक्त एवं महाकवि, जिन्होंने संस्कृत काव्य-रचना में सिद्धहस्त होते हुए भी लोकचेतना के परिष्कार और उन्नयन के लिए लोक—भाषा में 'रामचरितमानस' रचकर रामकथा को जन-जन के जीवन में व्याप्त कर दिया और मुस्लिमों द्वारा आक्रान्त, हताश हिन्दू जाति को मनोबल प्रदान कर संस्कृति-रक्षण का महत्वपूर्ण कार्य किया। विक्रम संवत् 1600 के आसपास बाँदा जिले (उ०प्र०) में जन्मे रामबोला (तुलसीदास) का बाल्यकाल अति विषम परिस्थितियों में बीता, परन्तु प्रतिकूलताओं के बीच इनकी राम में आस्था उत्तरोत्तर दृढ़ होती गयी। अनाथ स्थिति में द्वार-द्वार ठोकरें खाते उस बालक को सौभाग्य से एक संत नरहरिदास ने अपने साथ ले जाकर शिक्षा दी और विस्तार से रामकथा सुनायी। युवावस्था में इनका रत्नावती से विवाह हुआ था, पर कुछ समय बाद ये गृहस्थ जीवन त्यागकर रामभक्ति की साधना में लग गये। विनय पत्रिका, दोहावली, गीतावली, कवितावली आदि इनकी अन्य प्रसिद्ध रचनाएँ हैं। रामकथा के पात्रों के रूप में तुलसीदास ने जीवन को बल देने वाले भारतीय संस्कृति के श्रेष्ठ आदर्शों और जीवन-मूल्यों को प्रस्तुत किया है तथा राम के रूप में मर्यादा के उच्चादर्श का निर्वाह करने वाले दिव्य चरित्र का सृजन किया है।
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'''<big>नरसी</big>'''
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==== <big>दशमेश (गुरु गोविन्द सिंह)</big> ====
 
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सिख पंथ के दस गुरुओं में अन्तिम। ये नवम गुरु तेगबहादुर के पुत्र थे । इनका मूल नाम गोविन्द राय था [युगाब्द 4767 से 4809 (1666 से 1708 ई०)] । इन्होंने केशगढ़ (आनन्दपुर) में खालसा पंथ की स्थापना की, जो विधर्मी और अन्यायी मुगल सल्तनत से लड़ने वाली सेना थी। धर्म-रक्षा के लिए दीक्षित इन योद्धा सैनिकों को गुरु गोविन्दराय ने 'सिंह' कहा और इसलिए अपने नाम के आगे भी 'सिंह' लगाकर गोविन्द सिंह कहलाये। इन्होंने हिन्दू समाज में क्षात्रतेज जगाया और उसे संगठित किया। इनके दो पुत्र मुगल सेनाओं से लड़ते हुए मारे गये और दो पुत्रों ने धर्म के लिए आत्मबलिदान किया। सरहिन्द के नवाब ने इनके पुत्रों को पकड़ लिया था और मुसलमान बन जाने के लिए दबाब डाला। किन्तु 11 और 13 वर्ष के उन वीर सपूतों ने जीवित ही दीवार में चिन दिये जाने पर भी इस्लाम स्वीकार नहीं किया। गुरु गोविन्द सिंह के पाँच प्यारों में तथाकथित छोटी जातियों के लोग भी थे। दशम गुरु एक साथ ही धर्मपंथ के संस्थापक, वीर सेनापति एवं योद्धा और कवि थे। गुरु गोविन्द सिंह के रचे ग्रंथों में विचित्र नाटक, अकाल-स्तुति, चौबीस अवतार कथा और चण्डी-चरित्र प्रसिद्ध हैं। 'चौबीस अवतार कथा' काव्यग्रंथ का ही एक भाग रामावतार कथा 'गोविन्द रामायण' नाम से भी प्रसिद्ध है। दशम गुरु जब महाराष्ट्र में नान्देड़ क्षेत्र में रह रहे थे, दो विश्वासघाती पठानों ने उन पर प्रहार कर उन्हें घायल कर दिया, जिससे कुछ समय बाद उनकी मृत्यु हो गयी। धार्मिक सिख समाज को जुझारू बनाने में गुरु गोविन्द सिंह की अपूर्व भूमिका रही।  
भक्त नरसी मेहता के चरित का परिचय देने वाला यदि कोई एक शब्द हो सकता है तो वह हैपूर्ण भगवद्विश्वास। इनका जन्म काठियावाड़ प्रान्त के जूनागढ़ राज्य में हुआ था। वैष्णवोंका प्रिय भजन “वैष्णव जन तो तेणे कहिए, जे पीर परायी जाणे रे” इनकी ही रचना है। इनके जीवन में भगवत्कृपा और भगवत् भक्ति के अनेक चमत्कार घटित हुए। भगवान् कुष्ण की भक्ति ही इनके जीवन का एकमात्र ध्येय था। भक्त का हठ इनके रचे पदों में अत्यंत भावमय रूप में अभिव्यक्त हुआ है। संत मीराबाई से इनका परिचय था। युगाब्द 46वीं (ई० 15वीं) शताब्दी के इस भक्त कवि के पद भारतीय मनीषा-कोश के अमूल्य रत्न हैं।
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'''<big>तुलसीदास</big>'''
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श्रेष्ठ रामभक्त एवं महाकवि, जिन्होंने संस्कृत काव्य-रचना में सिद्धहस्त होते हुए भी लोकचेतना के परिष्कार और उन्नयन के लिए लोक—भाषा में 'रामचरितमानस' रचकर रामकथा को जन-जन के जीवन में व्याप्त कर दिया और मुस्लिमों द्वारा आक्रान्त, हताश हिन्दू जाति को मनोबल प्रदान कर संस्कृति-रक्षण का महत्वपूर्ण कार्य किया। विक्रम संवत् 1600 के आसपास बाँदा जिले (उ०प्र०) में जन्मे रामबोला (तुलसीदास) का बाल्यकाल अति विषम परिस्थितियों में बीता,परन्तुप्रतिकूलताओं के बीच इनकी राम में आस्था उत्तरोत्तर दृढ़ होती गयी। अनाथ स्थिति में द्वार-द्वार ठोकरें खाते उस बालक को सौभाग्य से एक संत नरहरिदास ने अपने साथ ले जाकर शिक्षा दी और विस्तार से रामकथा सुनायी। युवावस्था में इनका रत्नावती से विवाह हुआ था, पर कुछ समय बाद ये गृहस्थ जीवन त्यागकर रामभक्ति की साधना में लग गये। विनय पत्रिका, दोहावली, गीतावली, कवितावली आदि इनकी अन्य प्रसिद्ध रचनाएँहैं। रामकथा के पात्रों के रूप में तुलसीदास ने जीवन को बल देने वाले भारतीय संस्कृति के श्रेष्ठ आदर्शों और जीवन-मूल्यों को प्रस्तुत किया है तथा राम के रूप में मर्यादा के उच्चादर्श का निर्वाह करने वाले दिव्य चरित्र का सृजन किया है।
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'''<big>दशमेश (गुरु गोविन्द सिंह) [युगाब्द 4767 से 4809 (1666 से 1708 ई०)]</big>'''
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सिख पंथ के दस गुरुओं में अन्तिम। ये नवम गुरु तेगबहादुर के पुत्र थे । इनका मूल नाम गोविन्द राय था। इन्होंने केशगढ़ (आनन्दपुर) में खालसा पंथ की स्थापना की, जो विधर्मी और अन्यायी मुगल सल्तनत से लड़ने वाली सेना थी। धर्म-रक्षा के लिए दीक्षित इन योद्धा सैनिकों को गुरु गोविन्दराय ने 'सिंह' कहा और इसलिए अपने नाम के आगे भी 'सिंह' लगाकर गोविन्द सिंह कहलाये। इन्होंने हिन्दू समाज में क्षात्रतेज जगाया और उसे संगठित किया। इनके दो पुत्र मुगल सेनाओं से लड़ते हुए मारे गये और दो पुत्रों ने धर्म के लिए आत्मबलिदान किया। सरहिन्द के नवाब ने उन्हें पकड़ लिया था और मुसलमान बन जाने के लिए दबाब डाला। किन्तु 11 और 13 वर्ष के उन वीर सपूतों ने जीवित ही दीवार में चिन दिये जाने पर भी इस्लाम स्वीकार नहीं किया। गुरु गोविन्द सिंह के पाँच प्यारों में तथाकथित छोटी जातियों के लोग भी थे। दशम गुरु एक साथ ही धर्मपंथ के संस्थापक, वीर सेनापति एवं योद्धा और कवि थे। गुरु गोविन्द सिंह के रचे ग्रंथों में विचित्र नाटक, अकाल-स्तुति, चौबीस अवतार कथा और चण्डी-चरित्र प्रसिद्ध हैं। 'चौबीस अवतार कथा' काव्यग्रंथ का ही एक भाग रामावतार कथा 'गोविन्द रामायण' नाम से भी प्रसिद्ध है। दशम गुरु जब महाराष्ट्र में नान्देड़ क्षेत्र में रह रहे थे, दो विश्वासघाती पठानों ने उन पर प्रहार कर उन्हें घायल कर दिया,जिससे कुछसमय बादउनकी मृत्यु हो गयी। धार्मिक सिख समाज को जुझारू बनाने में गुरु गोविन्द सिंह की अपूर्व भूमिका रही।  
   
[[File:3.PNG|center|thumb]]
 
[[File:3.PNG|center|thumb]]
<blockquote>'''श्रीमत् शंकरदेवश्च बन्धू सायण-माधवौ । ज्ञानेश्वरस्तुकारामो रामदासा: पुरन्दरः ॥ १८ ॥'''</blockquote>  
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<blockquote>'''श्रीमत् शंकरदेवश्च बन्धू सायण-माधवौ । ज्ञानेश्वरस्तुकारामो रामदासा: पुरन्दरः ॥ १८ ॥'''</blockquote>
 
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'''<big>शंकरदेव [युगाब्द4550-4669(1449-1568 ई०)]</big>'''
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असमिया के महान् कवि, धर्मसुधारक और प्रसिद्ध वैष्णव सन्त, जिन्होंने समाज को चारित्रिक अध:पतन से उबारने के लिएकृष्णभक्ति संबंधी अनेक ग्रंथ रचे, भागवत धर्म का प्रचार किया, सम्पूर्ण असम में सत्राधिकार की व्यवस्था की और नामधर स्थापित किये। इनकी अधिकांश रचनाएँ भागवत पुराण पर आधारित हैं। 'कीर्तन घोषा' इनकी सर्वोत्कृष्ट कृति है। असमिया साहित्य के प्रसिद्ध नाट्यरूप'अंकीया नाटक' केप्रारम्भकर्ता भी शंकरदेव हैं। असमिया जनजीवन और संस्कृति को वैष्णव भक्ति या भागवत धर्म में ढालने का श्रेय शंकरदेव को ही है।   
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==== <big>शंकरदेव</big> ====
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असमिया के महान कवि, धर्मसुधारक और प्रसिद्ध वैष्णव सन्त, जिन्होंने समाज को चारित्रिक अध:पतन से उबारने के लिएकृष्णभक्ति संबंधी अनेक ग्रंथ रचे, भागवत धर्म का प्रचार किया, सम्पूर्ण असम में सत्राधिकार की व्यवस्था की और नामधर स्थापित किये [युगाब्द4550-4669(1449-1568 ई०)] । इनकी अधिकांश रचनाएँ भागवत पुराण पर आधारित हैं। 'कीर्तन घोषा' इनकी सर्वोत्कृष्ट कृति है। असमिया साहित्य के प्रसिद्ध नाट्यरूप'अंकीया नाटक' केप्रारम्भकर्ता भी शंकरदेव हैं। असमिया जनजीवन और संस्कृति को वैष्णव भक्ति या भागवत धर्म में ढालने का श्रेय शंकरदेव को ही है।   
    
'''<big>सायणाचार्य और माधवाचार्य</big>'''  
 
'''<big>सायणाचार्य और माधवाचार्य</big>'''  

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