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* शिक्षित बुद्धिजीवी लोगोंं के मतानुसार वे केवल गतानुगतिक होकर परम्परा का निर्वहण करते हैं। कदाचित कमअधिक मात्रा में वैसा होगा भी । तो भी उनके हृदय में, भक्तिभाव होता है । उनके सामाजिक व्यवहार में, अर्थार्जन के व्यवसाय में उनका भक्तिभाव नहीं झलकता होगा, उनका भक्तिभाव कृतिशील नहीं होगा तो भी भावना तो होती ही है। देशभर में यह भक्तिभाव वातावरण और मानसिकता को प्रभावित करता है। लोग आक्रोश, उत्तेजना और हताशा से पागल नहीं हो जाते इसका श्रेय इस भक्तिभाव को है।  
 
* शिक्षित बुद्धिजीवी लोगोंं के मतानुसार वे केवल गतानुगतिक होकर परम्परा का निर्वहण करते हैं। कदाचित कमअधिक मात्रा में वैसा होगा भी । तो भी उनके हृदय में, भक्तिभाव होता है । उनके सामाजिक व्यवहार में, अर्थार्जन के व्यवसाय में उनका भक्तिभाव नहीं झलकता होगा, उनका भक्तिभाव कृतिशील नहीं होगा तो भी भावना तो होती ही है। देशभर में यह भक्तिभाव वातावरण और मानसिकता को प्रभावित करता है। लोग आक्रोश, उत्तेजना और हताशा से पागल नहीं हो जाते इसका श्रेय इस भक्तिभाव को है।  
 
* कितने भी आधुनिक हों, कुछ अपवादों को छोडकर, अधिकांश लोग घर आये अतिथि अभ्यागत का स्वागत करते ही हैं, भोजन के समय द्वार पर आये भिखारी को वे उलाहना भी देते हैं और खाना भी देते हैं । रात्रि में फूटपाथ पर सोये ठण्ड से ठिठुरने वाले गरीबों को कम्बल ओढाते हैं, हजारों अन्नसत्र चलते हैं, दान दिया जाता है, सत्संग और कीर्तन चलते हैं, रामकथा और भागवत कथा के पारायण होते ही हैं, यज्ञ, जप, पूजा आदि होते ही हैं। इनमें पश्चिम अन्दर तक घुस गया है और उसने प्रदूषण फैलाया है यह सत्य है तो भी अन्तरंग में श्रद्धा, भक्ति, भलाई है । ये सब भारत को बचाये हुए हैं।  
 
* कितने भी आधुनिक हों, कुछ अपवादों को छोडकर, अधिकांश लोग घर आये अतिथि अभ्यागत का स्वागत करते ही हैं, भोजन के समय द्वार पर आये भिखारी को वे उलाहना भी देते हैं और खाना भी देते हैं । रात्रि में फूटपाथ पर सोये ठण्ड से ठिठुरने वाले गरीबों को कम्बल ओढाते हैं, हजारों अन्नसत्र चलते हैं, दान दिया जाता है, सत्संग और कीर्तन चलते हैं, रामकथा और भागवत कथा के पारायण होते ही हैं, यज्ञ, जप, पूजा आदि होते ही हैं। इनमें पश्चिम अन्दर तक घुस गया है और उसने प्रदूषण फैलाया है यह सत्य है तो भी अन्तरंग में श्रद्धा, भक्ति, भलाई है । ये सब भारत को बचाये हुए हैं।  
* भारत की अधिकृत व्यवस्था को मान्य न करते हुए फिर भी उसके साथ झगडा न करते हुए पर्याय देने वाले लाखों लोग व्यक्तिगत और संस्थागत रूप में देशभर में कार्य कर रहे हैं। वे देशी खाद्य पदार्थ, अनाज, सब्जी, फल, मसाले लोगोंं को दे रहे हैं। बच्चों को संस्कारों की शिक्षा दे रहे हैं गरीबों की और रुग्णों की सेवा कर रहे हैं, गाय और गौवंश की सेवा कर रहे हैं, प्लास्टिक और रसायणों का प्रयोग नहीं करने हेतु लोगोंं को समझा रहे हैं, मातृभाषा माध्यम से पढने का आग्रह कर रहे हैं, स्वयं व्रत, नियम, संकल्प लेकर धार्मिक बन रहे हैं। ये सब भारत को बचाये रखे हैं।  
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* भारत की अधिकृत व्यवस्था को मान्य न करते हुए फिर भी उसके साथ झगडा न करते हुए पर्याय देने वाले लाखों लोग व्यक्तिगत और संस्थागत रूप में देशभर में कार्य कर रहे हैं। वे देशी खाद्य पदार्थ, अनाज, सब्जी, फल, मसाले लोगोंं को दे रहे हैं। बच्चोंं को संस्कारों की शिक्षा दे रहे हैं गरीबों की और रुग्णों की सेवा कर रहे हैं, गाय और गौवंश की सेवा कर रहे हैं, प्लास्टिक और रसायणों का प्रयोग नहीं करने हेतु लोगोंं को समझा रहे हैं, मातृभाषा माध्यम से पढने का आग्रह कर रहे हैं, स्वयं व्रत, नियम, संकल्प लेकर धार्मिक बन रहे हैं। ये सब भारत को बचाये रखे हैं।  
 
* देशभर में अधिकृत रूप में तो बहुत अल्प मात्रा में परन्तु स्वैच्छिक रूप से वेद, उपनिषद, गीता, रामायण, महाभारत, भागवत आदि का अध्ययन हो रहा है । देशविदेश में इसका प्रचार हो रहा है। यह भारत को बचाये रखे हैं।  
 
* देशभर में अधिकृत रूप में तो बहुत अल्प मात्रा में परन्तु स्वैच्छिक रूप से वेद, उपनिषद, गीता, रामायण, महाभारत, भागवत आदि का अध्ययन हो रहा है । देशविदेश में इसका प्रचार हो रहा है। यह भारत को बचाये रखे हैं।  
 
* शिक्षा, धर्म, संस्कार, अन्य सामाजिक व्यवस्थाओं में एक समानान्तर पर्यायी व्यवस्था देशभरमें चल रही है। इस व्यवस्था को सरकारी मान्यता या सहायता प्राप्त नहीं होती है, समर्थन भी कदाचित नहीं प्राप्त होता है । परन्तु समाज के बल पर यह सब चलता है। सरकारी अधिकृत व्यवस्था के पास धन है, सुविधा है और समर्थन है, इन समानान्तर प्रयासों के पास, श्रद्धा, निष्ठा और समाजहित की भावना है। धन, सत्ता, सुविधा यह भौतिक पक्ष है, श्रद्धा, निष्ठा, हित की कामना अन्तःकरण की प्रवृत्ति है। निश्चित ही इनकी मात्रा अल्प होने पर भी शक्ति अधिक है। यह देश को बचाये हुए है। यह देश को बिखरने नहीं देता।  
 
* शिक्षा, धर्म, संस्कार, अन्य सामाजिक व्यवस्थाओं में एक समानान्तर पर्यायी व्यवस्था देशभरमें चल रही है। इस व्यवस्था को सरकारी मान्यता या सहायता प्राप्त नहीं होती है, समर्थन भी कदाचित नहीं प्राप्त होता है । परन्तु समाज के बल पर यह सब चलता है। सरकारी अधिकृत व्यवस्था के पास धन है, सुविधा है और समर्थन है, इन समानान्तर प्रयासों के पास, श्रद्धा, निष्ठा और समाजहित की भावना है। धन, सत्ता, सुविधा यह भौतिक पक्ष है, श्रद्धा, निष्ठा, हित की कामना अन्तःकरण की प्रवृत्ति है। निश्चित ही इनकी मात्रा अल्प होने पर भी शक्ति अधिक है। यह देश को बचाये हुए है। यह देश को बिखरने नहीं देता।  

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