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पॉल कैनेडी अपने 'राईज ऍंड फॉल ऑफ ग्रेट नेशन्स ' इस पुस्तक में कुछ सांख्यिकीय जानकारी देता है। इस जानकारी के अनुसार भारत का सन १७५० का औद्योगिक उत्पादन विश्व के उत्पादन का २४.५ प्रतिशत था। अर्थात् भारत विश्व का सब से प्रगत औद्योगिक देश था। एक सामान्य मजदूर दिन का कम से कम ५० ग्रॅम मक्खन खाने की हैसियत रखता था। इतनी भारत के जनजन की माली हालत अच्छी थी। भारत की इस प्रतिभा का रहस्य अंग्रेज जान नही पाए। इस आर्थिक समृध्दि के साथ ही भारत की अर्थव्यवस्था का आकलन भी करने का प्रयास अंग्रेजों ने किया। और उन्हें समझ में आया की भारत में चलन विनिमय से बहुत ही कम व्यवहार होते हैं। किन्तु उपभोग की वस्तुएं तो सभी को प्राप्त होती हैं। इसलिये उन्हे लगा की भारत की अर्थव्यवस्था वस्तू-विनिमय ( बार्टर सिस्टिम ) से चलती है। उन का यह आकलन भी गलत ही था। इस का कारण तो कोई सामान्य समझवाला मनुष्य भी समझ सकता है। थोडा वस्तू विनिमय की पध्दति का विश्लेषण कर के देखें।
 
पॉल कैनेडी अपने 'राईज ऍंड फॉल ऑफ ग्रेट नेशन्स ' इस पुस्तक में कुछ सांख्यिकीय जानकारी देता है। इस जानकारी के अनुसार भारत का सन १७५० का औद्योगिक उत्पादन विश्व के उत्पादन का २४.५ प्रतिशत था। अर्थात् भारत विश्व का सब से प्रगत औद्योगिक देश था। एक सामान्य मजदूर दिन का कम से कम ५० ग्रॅम मक्खन खाने की हैसियत रखता था। इतनी भारत के जनजन की माली हालत अच्छी थी। भारत की इस प्रतिभा का रहस्य अंग्रेज जान नही पाए। इस आर्थिक समृध्दि के साथ ही भारत की अर्थव्यवस्था का आकलन भी करने का प्रयास अंग्रेजों ने किया। और उन्हें समझ में आया की भारत में चलन विनिमय से बहुत ही कम व्यवहार होते हैं। किन्तु उपभोग की वस्तुएं तो सभी को प्राप्त होती हैं। इसलिये उन्हे लगा की भारत की अर्थव्यवस्था वस्तू-विनिमय ( बार्टर सिस्टिम ) से चलती है। उन का यह आकलन भी गलत ही था। इस का कारण तो कोई सामान्य समझवाला मनुष्य भी समझ सकता है। थोडा वस्तू विनिमय की पध्दति का विश्लेषण कर के देखें।
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किसान धान पैदा करता है। कुम्हार मिट्टी के बर्तन बनाता है। कुम्हार अपने मिट्टी के बर्तन देकर किसान से धान प्राप्त करता है। यह है वस्तू विनिमय का स्वरूप। किन्तु इसमें कुम्हार धान के बगैर जी नही सकता। जब कि किसान बगैर मिट्टी के बर्तनों के भी जी सकता है। इसलिये जब किसान को मिट्टी के बर्तनों की आवश्यकता नही होगी कुम्हार तो भूखा मर जाएगा। और कोई उदाहरण देख लें। जुलाहा कपडे बुनता है। सुनार गहने बनाता है। जुलाहे का काम तो गहनों के बिना चल सकता है। किन्तु सुनार का काम वस्त्रों के बिना नही चल सकता। इसलिये जब जुलाहे को गहनों की आवश्यकता नही होगी सुनार के लिये वस्त्रों की आपूर्ति संभव नही होगी। संक्षेप में कहें तो इस तरह की वस्तू-विनिमय की व्यवस्था अत्यंत अव्यावहारिक है।
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किसान धान पैदा करता है। कुम्हार मिट्टी के बर्तन बनाता है। कुम्हार अपने मिट्टी के बर्तन देकर किसान से धान प्राप्त करता है। यह है वस्तू विनिमय का स्वरूप। किन्तु इसमें कुम्हार धान के बगैर जी नही सकता। जब कि किसान बगैर मिट्टी के बर्तनों के भी जी सकता है। इसलिये जब किसान को मिट्टी के बर्तनों की आवश्यकता नही होगी कुम्हार तो भूखा मर जाएगा। और कोई उदाहरण देख लें। जुलाहा कपड़े बुनता है। सुनार गहने बनाता है। जुलाहे का काम तो गहनों के बिना चल सकता है। किन्तु सुनार का काम वस्त्रों के बिना नही चल सकता। इसलिये जब जुलाहे को गहनों की आवश्यकता नही होगी सुनार के लिये वस्त्रों की आपूर्ति संभव नही होगी। संक्षेप में कहें तो इस तरह की वस्तू-विनिमय की व्यवस्था अत्यंत अव्यावहारिक है।
    
प्रश्न यह उठता है कि फिर अंग्रेज पूर्व भारत के ग्रामीण हिस्सों में आर्थिक व्यवहार कैसे चलते थे ? गाँव के हर मनुष्य का भरण-पोषण तो होता ही था। अनाथों के लिये अनाथालय, वृध्दों के लिये वृध्दाश्रम, विकलांगों के लिये अपंगाश्रम और विधवाओं के लिये विधवाश्रमों की कोई सरकारी व्यवस्था नही थी। फिर गाँव की अर्थव्यवस्था का आधार क्या था ?  
 
प्रश्न यह उठता है कि फिर अंग्रेज पूर्व भारत के ग्रामीण हिस्सों में आर्थिक व्यवहार कैसे चलते थे ? गाँव के हर मनुष्य का भरण-पोषण तो होता ही था। अनाथों के लिये अनाथालय, वृध्दों के लिये वृध्दाश्रम, विकलांगों के लिये अपंगाश्रम और विधवाओं के लिये विधवाश्रमों की कोई सरकारी व्यवस्था नही थी। फिर गाँव की अर्थव्यवस्था का आधार क्या था ?  
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# गाँव के सभी परिवारों और मनुष्यों की आवश्यकताओं की पूर्ति गाँव में ही हो ऐसा विचार होता था। फिर दुनियाँभर में जो भी कुछ श्रेष्ठ बनता है वह अपने गाँव में बने ऐसा देखा जाता था। हर प्रकार के  तंत्रज्ञानी, कलाकार, और ज्ञानी लोग अपने गाँव में हों इस के लिये हर संभव प्रयास गाँव के लोग करते थे। इस हेतु ऐसे हर मनुष्य को सम्मानपूर्ण आजीविका की निश्ंचितता की आश्वस्ति प्रत्यक्ष व्यवहार से दी जाती थी।     
 
# गाँव के सभी परिवारों और मनुष्यों की आवश्यकताओं की पूर्ति गाँव में ही हो ऐसा विचार होता था। फिर दुनियाँभर में जो भी कुछ श्रेष्ठ बनता है वह अपने गाँव में बने ऐसा देखा जाता था। हर प्रकार के  तंत्रज्ञानी, कलाकार, और ज्ञानी लोग अपने गाँव में हों इस के लिये हर संभव प्रयास गाँव के लोग करते थे। इस हेतु ऐसे हर मनुष्य को सम्मानपूर्ण आजीविका की निश्ंचितता की आश्वस्ति प्रत्यक्ष व्यवहार से दी जाती थी।     
 
# परिवार की तरह ही गाँव का भी एक मुखिया होता है। वह भी परिवार की तरह ही गाँव के सभी लोगोंं को सर्वमान्य होता है। सभी के हित की चिन्ता करनेवाला होता है। गाँव के हर परिवार और हर मनुष्य के सम्मान की और आवश्यकताओं की पूर्ति की जिम्मेदारी वह लेता है। गाँव के समझदार लोगोंं की सहायता से संस्कारों, व्रतों , त्यौहारों और उत्सवों की योजना बनाता है। ऐसी योजना के क्रियान्वयन से गाँव का हर व्यक्ति सुख, समाधान और सुरक्षा अनुभव करता है।  
 
# परिवार की तरह ही गाँव का भी एक मुखिया होता है। वह भी परिवार की तरह ही गाँव के सभी लोगोंं को सर्वमान्य होता है। सभी के हित की चिन्ता करनेवाला होता है। गाँव के हर परिवार और हर मनुष्य के सम्मान की और आवश्यकताओं की पूर्ति की जिम्मेदारी वह लेता है। गाँव के समझदार लोगोंं की सहायता से संस्कारों, व्रतों , त्यौहारों और उत्सवों की योजना बनाता है। ऐसी योजना के क्रियान्वयन से गाँव का हर व्यक्ति सुख, समाधान और सुरक्षा अनुभव करता है।  
# गाँव में जिन घरों में कोई काम करनेवाला नही रह जाता ऐसे परिवारों के बालक, वृध्द, विधवाएं, रोगी और  विकलांगों जैसे दुर्बल घटकों की जिम्मेदारी गाँव लेता था। जब नयी फसल आती थी, इन दुर्बल घटकों के लिये पहले उस में से अलग हिस्सा निकाला जाता था। बाद में गाँव का हिस्सा, मंदिर का हिस्सा आदि अलग निकाले जाते थे। जुलाहे द्वारा बनाए कपडे में भी इन दुर्बल घटकों का हिस्सा हुवा करता था।  यह गाँव के सभी परिवारों की सहमति से होता था।  
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# गाँव में जिन घरों में कोई काम करनेवाला नही रह जाता ऐसे परिवारों के बालक, वृध्द, विधवाएं, रोगी और  विकलांगों जैसे दुर्बल घटकों की जिम्मेदारी गाँव लेता था। जब नयी फसल आती थी, इन दुर्बल घटकों के लिये पहले उस में से अलग हिस्सा निकाला जाता था। बाद में गाँव का हिस्सा, मंदिर का हिस्सा आदि अलग निकाले जाते थे। जुलाहे द्वारा बनाए कपड़े में भी इन दुर्बल घटकों का हिस्सा हुवा करता था।  यह गाँव के सभी परिवारों की सहमति से होता था।  
 
# यथासंभव हर आवश्यकता की पूर्ति गाँव में ही हो जाए ऐसा प्रयास होता था। इस कारण बडे बडे तंत्रज्ञान की जानकारी अपने गाँव के किसी ना किसी सदस्य को हो ऐसा देखा जाता था। ऐसे होनहार लोगोंं को प्रोत्साहन दिया जाता था। गांधीजीके अनुयायी धर्मपालजी द्वारा वर्णित 18वीं सदी के भारत के वर्णन से यह स्पष्ट होता है कि तंत्रज्ञान के मामले में हमारे छोटे छोटे गाँव भी बहुत प्रगत थे। जिस की जैसी क्षमता वैसी उस की जिम्मेदारी तय होती है। कई प्रकार से नमक बनानेवाले लोग आज भी कई गाँवों में पाए जाते हैं। इस तरह गाँव को स्वावलंबी बनाने की तीव्र इच्छा सब रखते थे और वैसा प्रयास भी करते थे।  
 
# यथासंभव हर आवश्यकता की पूर्ति गाँव में ही हो जाए ऐसा प्रयास होता था। इस कारण बडे बडे तंत्रज्ञान की जानकारी अपने गाँव के किसी ना किसी सदस्य को हो ऐसा देखा जाता था। ऐसे होनहार लोगोंं को प्रोत्साहन दिया जाता था। गांधीजीके अनुयायी धर्मपालजी द्वारा वर्णित 18वीं सदी के भारत के वर्णन से यह स्पष्ट होता है कि तंत्रज्ञान के मामले में हमारे छोटे छोटे गाँव भी बहुत प्रगत थे। जिस की जैसी क्षमता वैसी उस की जिम्मेदारी तय होती है। कई प्रकार से नमक बनानेवाले लोग आज भी कई गाँवों में पाए जाते हैं। इस तरह गाँव को स्वावलंबी बनाने की तीव्र इच्छा सब रखते थे और वैसा प्रयास भी करते थे।  
 
# गाँव में स्पर्धाएं नही होती थीं। शक्ति के, कला के, कारीगरी के प्रदर्शन होते थे। दुनियाभर के सभी प्रकार के श्रेष्ठ काम, कारीगरी, कला आदि अपने गाँव में हों इस के लिये सब भरसक प्रयास करते थे।  
 
# गाँव में स्पर्धाएं नही होती थीं। शक्ति के, कला के, कारीगरी के प्रदर्शन होते थे। दुनियाभर के सभी प्रकार के श्रेष्ठ काम, कारीगरी, कला आदि अपने गाँव में हों इस के लिये सब भरसक प्रयास करते थे।  

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