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==== चार दीवारी के विद्यालय कल कारखाने हैं ====
 
==== चार दीवारी के विद्यालय कल कारखाने हैं ====
प्रकृति माता की गोद से वंचित और अंग्रेजी दासता के प्रतीक चार दीवारों के भीतर स्थापित विद्यालयों को शान्तिनिकेतन के जन्मदाता रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने कारखाना कहा है । वे इनका सजीव चित्रण कहते हुए कहते हैं, “हम विद्यालयों को शिक्षा देने का कल या कारखाना समझते हैं । अध्यापक इस कारखाने के पुर्ज हैं । दस बजे घंटा बजाकर कारखाने खुलते हैं । अध्यापकों की जबान रूपी पुर्ज चलने लगते हैं । चार बजे कारखाने बन्द हो जाते हैं । अध्यापक भी पुर्ज रूपी अपनी जबान बन्द कर लेते हैं । उस समय छात्र भी इन पुर्जों की कटी-छटी दो चार पृष्ठों की शिक्षा लेकर अपने-अपने घरों को वापस चले जाते हैं ।'
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प्रकृति माता की गोद से वंचित और अंग्रेजी दासता के प्रतीक चार दीवारों के भीतर स्थापित विद्यालयों को शान्तिनिकेतन के जन्मदाता रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने कारखाना कहा है {{Citation needed}}। वे इनका सजीव चित्रण कहते हुए कहते हैं, “हम विद्यालयों को शिक्षा देने का कल या कारखाना समझते हैं । अध्यापक इस कारखाने के पुर्जे हैं । दस बजे घंटा बजाकर कारखाने खुलते हैं । अध्यापकों की जबान रूपी पुर्जे चलने लगते हैं । चार बजे कारखाने बन्द हो जाते हैं । अध्यापक भी पुर्जे रूपी अपनी जबान बन्द कर लेते हैं । उस समय छात्र भी इन पुर्जों की कटी-छटी दो चार पृष्ठों की शिक्षा लेकर अपने-अपने घरों को वापस चले जाते हैं ।'
    
विदेशों में विद्यालयों और महाविद्यालयों के साथ चलने वाले छात्रावासों की नकल हमारे देश में करने वालों के लिए वे कहते हैं कि इस प्रकार के विद्यालयों को एक प्रकार के पागलखाने, अस्पताल या बन्दीगृह ही समझना चाहिए ।
 
विदेशों में विद्यालयों और महाविद्यालयों के साथ चलने वाले छात्रावासों की नकल हमारे देश में करने वालों के लिए वे कहते हैं कि इस प्रकार के विद्यालयों को एक प्रकार के पागलखाने, अस्पताल या बन्दीगृह ही समझना चाहिए ।
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रवीन्द्रनाथजी तो कहते हैं कि “शिक्षा के लिए अब भी हमें जंगलों और वनों की आवश्यकता है । समय के हेर फेर से स्थितियाँ चाहे कितनी ही क्यों न बदल जायें, परन्तु इस गुरुकुल शिक्षा प्रणाली के लाभदायक सिद्ध होने में कदापि तनिक भी अन्तर नहीं पड़ सकता । कारण यह है कि यम नियम मनुष्य के चरित्र के अमर सत्य पर निर्भर हैं ।
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रवीन्द्रनाथजी तो कहते हैं{{Citation needed}} कि शिक्षा के लिए अब भी हमें जंगलों और वनों की आवश्यकता है । समय के हेर फेर से स्थितियाँ चाहे कितनी ही क्यों न बदल जायें, परन्तु इस गुरुकुल शिक्षा प्रणाली के लाभदायक सिद्ध होने में कदापि तनिक भी अन्तर नहीं पड़ सकता । कारण यह है कि यम नियम मनुष्य के चरित्र के अमर सत्य पर निर्भर हैं ।
    
==== विद्यालयीन व्यवस्था शास्त्रानुसार हो ====
 
==== विद्यालयीन व्यवस्था शास्त्रानुसार हो ====
 
हमारे शास्त्रों ने किसी भी व्यवस्था के प्रमुख मार्गदर्शक सिद्धान्त बताएँ हैं । व्यवस्था निर्माण करते समय उन सिद्धान्तों का पालन अपेक्षित है :
 
हमारे शास्त्रों ने किसी भी व्यवस्था के प्रमुख मार्गदर्शक सिद्धान्त बताएँ हैं । व्यवस्था निर्माण करते समय उन सिद्धान्तों का पालन अपेक्षित है :
 
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# व्यवस्था व्यक्ति के स्वास्थ्य का पोषण करने वाली हो ।
(अ) व्यवस्था व्यक्ति के स्वास्थ्य का पोषण करने वाली हो ।
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# व्यवस्था पर्यावरण का संरक्षण करने वाली हो।
 
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# व्यवस्था कम से कम खर्चीली हो ।
(आ) व्यवस्था पर्यावरण का संरक्षण करने वाली हो।
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# व्यवस्था संस्कारक्षम हो ।
 
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# व्यवस्था सुविधापूर्ण हो ।
(इ) व्यवस्था कम से कम खर्चीली हो ।
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आजकल विद्यालयों की स्थापना के समय यूरोप व अमरीका के धनी देशों के कान्वेंट स्कूल हमारे सम्मुख आदर्श होते हैं । उनके मार्गदर्शक सिद्धान्त भिन्न होते हैं, वहाँ सुविधापूर्ण व्यवस्था पर सर्वाधिक बल रहता है । पैसा भले ही अधिकाधिक लगे। किन्तु व्यवस्था आधुनिक उपकरणों से युक्त उच्च स्तर की हो । ऐसे विद्यालयों में भवन, उपस्कर व आधुनिक उपकरणों में ७५ प्रतिशत अनावश्यक वस्तुएँ होती हैं । हम जितनी अधिक अनावश्यक वस्तुओं को आवश्यक और अनिवार्य बनाते जायेंगे उतनी ही अधिक हमारी शक्तियाँ व्यर्थ नष्ट होती रहेंगी । यही कारण है कि आज हमारी अधिकांश शक्ति विद्यालय भवन और फर्नीचर की व्यवस्था में ही समाप्त हो जाती है । व्यक्ति का स्वास्थ्य और पर्यावरण संरक्षण के सिद्धान्त तो उनके पाठ्यक्रम से बाहर की बातें होती हैं ।
 
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(ई) व्यवस्था संस्कारक्षम हो ।
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(उ) व्यवस्था सुविधापूर्ण हो ।
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आजकल विद्यालयों की स्थापना के समय यूरोप व अमरीका के धनी देशों के कान्वेंट स्कूल हमारे सम्मुख आदर्श होते हैं । उनके मार्गदर्शक सिद्धान्त भिन्न होते हैं, वहाँ सुविधापूर्ण व्यवस्था पर सर्वाधिक बल रहता है । पैसा भले ही अधिकाधिक लगे। किन्तु व्यवस्था आधुनिक उपकरणों से युक्त उच्च स्तर की हो । ऐसे विद्यालयों में भवन, उपस्कर व आधुनिक उपकरणों में ७५ प्रतिशत अनावश्यक वस्तुएँ होती हैं । हम जितनी अधिक अनावश्यक वस्तुओं को आवश्यक और अनिवार्य बनाते जायेंगे उतनी ही अधिक हमारी शक्तियाँ व्यर्थ नष्ट होती रहेंगी । यही कारण है कि आज हमारी अधिकांश शक्ति विद्यालय भवन और फर्निचर की व्यवस्था में ही समाप्त हो जाती है । व्यक्ति का स्वास्थ्य और पर्यावरण संरक्षण के सिद्धान्त तो उनके पाठ्यक्रम से बाहर की बातें होती हैं ।
      
==== विद्यालयीन व्यवस्था का केन्द्र बिन्दु बालक ====
 
==== विद्यालयीन व्यवस्था का केन्द्र बिन्दु बालक ====
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==== विद्यालय भवन निर्माण वास्तुशास्त्र के अनुसार हो ====
 
==== विद्यालय भवन निर्माण वास्तुशास्त्र के अनुसार हो ====
 
वास्तुशास्त्र कहता है कि भवन पूर्व तथा उत्तर में नीचा तथा पश्चिम व दक्षिण में ऊँचा होना चाहिए। मत्स्यपुराण के अनुसार दक्षिण दिशा में ऊँचा भवन मनुष्य की सब कामनाओं को पूर्ण करता है । ये बातें भी ध्यान में रखने योग्य हैं :  
 
वास्तुशास्त्र कहता है कि भवन पूर्व तथा उत्तर में नीचा तथा पश्चिम व दक्षिण में ऊँचा होना चाहिए। मत्स्यपुराण के अनुसार दक्षिण दिशा में ऊँचा भवन मनुष्य की सब कामनाओं को पूर्ण करता है । ये बातें भी ध्यान में रखने योग्य हैं :  
 
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# भवन निर्माण में वास्तु के साथ साथ हवा एवं सूर्य प्रकाश की उपलब्धता का ध्यान रखा जाना चाहिए । जिस भवन में सूर्य किरण एवं वायु प्रवेश नहीं करतीं वह शुभ नहीं होता ।
(क) भवन निर्माण में वास्तु के साथ साथ हवा एवं सूर्य प्रकाश की उपलब्धता का ध्यान रखा जाना चाहिए । जिस भवन में सूर्य किरण एवं वायु प्रवेश नहीं करतीं वह शुभ नहीं होता ।
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# हमारे जैसे गरम प्रदेशों में सिमेन्ट और लोहे का अत्यधिक प्रयोग करके बनाये गये भवन अस्वास्थ्यकर होते हैं ।
 
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# विद्यालय भवन में तड़कभड़क नहीं, स्वच्छता, सुन्दरता एवं पवित्रता होनी चाहिए ।
(ख) हमारे जैसे गरम प्रदेशों में सिमेन्ट और लोहे का अत्यधिक प्रयोग. करके. बनाये. गये. भवन अस्वास्थ्यकर होते हैं ।
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# विद्यालय में पर्याप्त खुला मैदान हो, ताकि अवकाश के समय बालक खेलकूद सके ।
 
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# कक्षा कक्षों में हवादान (वेन्टीलेटर) होने चाहिए । खिड़कियाँ अधिक ऊँची नहीं होनी चाहिए ।
(ग) विद्यालय भवन में तड़कभड़क नहीं, स्वच्छता, सुन्दरता एवं पवित्रता होनी चाहिए ।
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# भवन रचना का मन पर संस्कार एवं प्रभाव होता है।  
 
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# हमारी सरकार केवल पक्के मकानों को ही मान्यता देती है, कच्चे को नहीं । लोहा व सिमेन्ट से बना मकान पक्का, इंट-गारे से बना कच्चा माना जाता है। पक्के की औसत आयु ३५-४० वर्ष जबकि कच्चे की औसत आयु ६५-७० वर्ष फिर भी बैंक कच्चे को मोर्टगेज नहीं करेगा। यह व्यवस्था का  दोष है। स्वदेशी तकनीक की उपेक्षा और विदेशी तकनीक को प्रात्सहन देने के कारण हमारे कारीगर बेकार होते है और धीरे -धीरे स्वदेशी तकनीक लुप्त होती जाती है।  
(घ) विद्यालय में पर्याप्त खुला मैदान हो, ताकि अवकाश के समय बालक खेलकूद सके ।
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(ड) कक्षा कक्षों में हवादान (वेन्टीलेटर) होने चाहिए । खिड़कियाँ अधिक ऊँची नहीं होनी चाहिए ।
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(च) भवन रचना का मन पर संस्कार एवं प्रभाव होता है।  
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(छ) हमारी सरकार केवल पक्के मकानों को ही मान्यता देती है, कच्चे को नहीं । लोहा व सिमेन्ट से बना मकान पक्का, इंट-गारे से बना कच्चा माना जाता है। पक्के की औसत आयु ३५-४० वर्ष जबकि
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कच्चे की औसत आयु ६५-७० वर्ष फिर भी बैंक कच्चे को मोर्टगेज नहीं करेगा । यह व्यवस्था का  दोष है । स्वदेशी तकनीक की उपेक्षा और विदेशी. झुकी हो, प्रकाश बायीं ओर से पीछे तकनीक को प्रात्सहन देने के कारण हमारे कारीगर बेकार होते है और धीरे -धीरे स्वदेशी तकनीक लुप्त होती जाती है।  
      
==== कक्षा कक्ष में बैठक व्यवस्था योग के अनुसार हो ====
 
==== कक्षा कक्ष में बैठक व्यवस्था योग के अनुसार हो ====
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जबकि वास्तविकता यह है कि पढ़ते समय बालक के मस्तिष्क को उर्जा की अधिक आवश्यकता रहती है। टेबल-कुर्सी पर पैर लटका कर बैठने से वह ऊर्जा अधोगामी होकर पैरों के माध्यम से पृथ्वी में समा जाती है। अतः बालक अधिक समय तक नहीं पढ़ पाते, उनका सिर दुखने लगता है। ग्रहण शीलता कम हो जाती है। इसके स्थान पर बैठने की व्यवस्था नीचे करने पर बालक सिद्धासन या सुखासन में बैठता है तो दोनों पैरों में बंध लगने से उर्जा अधोगामी न होकर उर्ध्वगामी हो जाती है, जिससे बालक अधिक समय तक अध्ययन में लगा रहता है। मन एकाग्र रहता है और ग्रहणशीलता बनी रहती है। अर्थात् फर्नीचर पर पैर लटकाकर बैठना ज्ञानार्जन के प्रतिकूल है और सुखासन में नीचे बैठना ज्ञानार्जन के अनुकूल है । हमें चाहिए कि हम फर्नीचर के स्थान पर कक्षा कक्ष में कोमल सूती व मोटे आसन की व्यवस्था बालकों के लिए करें ।
 
जबकि वास्तविकता यह है कि पढ़ते समय बालक के मस्तिष्क को उर्जा की अधिक आवश्यकता रहती है। टेबल-कुर्सी पर पैर लटका कर बैठने से वह ऊर्जा अधोगामी होकर पैरों के माध्यम से पृथ्वी में समा जाती है। अतः बालक अधिक समय तक नहीं पढ़ पाते, उनका सिर दुखने लगता है। ग्रहण शीलता कम हो जाती है। इसके स्थान पर बैठने की व्यवस्था नीचे करने पर बालक सिद्धासन या सुखासन में बैठता है तो दोनों पैरों में बंध लगने से उर्जा अधोगामी न होकर उर्ध्वगामी हो जाती है, जिससे बालक अधिक समय तक अध्ययन में लगा रहता है। मन एकाग्र रहता है और ग्रहणशीलता बनी रहती है। अर्थात् फर्नीचर पर पैर लटकाकर बैठना ज्ञानार्जन के प्रतिकूल है और सुखासन में नीचे बैठना ज्ञानार्जन के अनुकूल है । हमें चाहिए कि हम फर्नीचर के स्थान पर कक्षा कक्ष में कोमल सूती व मोटे आसन की व्यवस्था बालकों के लिए करें ।
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बडी कक्षाओं में जहाँ फर्नीचर आवश्यक हो वहाँ भी हल्का फर्नीचर हो ताकि उसे आवश्यकता पड़ने पर समेट कर एक और रखा जा सके और कक्षा कक्ष में अन्य गतिविधियाँ या प्रयोग करवाये जा सके। अन्यथा भारी लोहे का फर्नीचर कक्षा में अन्य गतिविधियाँ करवाने में बाधक अधिक बनता है, साधक तो बिल्कुल नहीं । मेज की ऊपरी सतह सपाट न हो, तिरछी आगे की ओर
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बडी कक्षाओं में जहाँ फर्नीचर आवश्यक हो वहाँ भी हल्का फर्नीचर हो ताकि उसे आवश्यकता पड़ने पर समेट कर एक और रखा जा सके और कक्षा कक्ष में अन्य गतिविधियाँ या प्रयोग करवाये जा सके। अन्यथा भारी लोहे का फर्नीचर कक्षा में अन्य गतिविधियाँ करवाने में बाधक अधिक बनता है, साधक तो बिल्कुल नहीं । मेज की ऊपरी सतह सपाट न हो, तिरछी आगे की ओर झुकी हो, प्रकाश बायीं ओर से पीछे से आता हो । श्यामपट्ट पूर्व दिशा की दीवार में हो जिससे विद्यार्थी पूर्वाभिमुख बैठ सके। गुरु का स्थान ऊपर व शिष्य का स्थान नीचे होना चाहिए ।
 
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झुकी हो, प्रकाश बायीं ओर से पीछे से आता हो । श्यामपट्ट पूर्व दिशा की दीवार में हो जिससे विद्यार्थी पूर्वाभिमुख बैठ सके। गुरु का स्थान ऊपर व शिष्य का स्थान नीचे होना चाहिए ।  
      
==== विद्यालय में जल व्यवस्था स्वास्थ्य के अनुकूल हो ====
 
==== विद्यालय में जल व्यवस्था स्वास्थ्य के अनुकूल हो ====
आजकल विद्यालयों में जल व्यवस्था का आधार वाटर कूलर बन गये हैं। वाटर कूलर का कोल्ड अथवा चिल्ड पानी बालकों के स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है ।
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आजकल विद्यालयों में जल व्यवस्था का आधार वाटर कूलर बन गये हैं। वाटर कूलर का कोल्ड अथवा चिल्ड पानी बालकों के स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है । पानी पर हुए सभी शोध एवं हमारा अपना अनुभव यही सिद्ध करता है कि मिट्टी के घड़े का पानी सर्वाधिक शुद्ध एवं शीतल होता हैं । इसी जल से तृप्ति होती है। कोल्ड या चिल्ड पानी से प्यास नहीं बुझती।
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पानी पर हुए सभी शोध एवं हमारा अपना अनुभव यही सिद्ध करता है कि मिट्टी के घड़े का पानी सर्वाधिक शुद्ध एवं शीतल होता हैं । इसी जल से तृप्ति होती है। कोल्ड या चिल्ड पानी से प्यास नहीं बुझती।
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इसी प्रकार आजकल प्लास्टिक बोतलों में पानी सर्वत्र सुलभ बना दिया गया है। हर कोई व्यक्ति यात्रा में इन बोतलों का पानी बिना विचार के पीता रहता है। जबकि शोध तो यह सिद्ध करते हैं कि मिट्टी के घड़े में रखा पानी ६ घंटों में कीटाणु रहित होकर शुद्ध हो जाता है। तांबे के कलश में रखा पानी १२ घंटों मे कीटाणु रहित होता है। काँच के बर्तन में रखा पानी जैसा है, वैसा ही रहता है परन्तु प्लास्टिक के बर्तन में रखे पानी में १२ घंटे बाद कीटाणु नष्ट होने के स्थान पर वृद्धि कर लेते हैं।
 
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इसी प्रकार आजकल प्लास्टिक बोतलों में पानी सर्वत्र सुलभ बना दिया गया है। हर कोई व्यक्ति यात्रा में इन बोतलों का पानी बिना विचार के पीता रहता है। जबकि शोध तो यह सिद्ध करते हैं कि मिट्टी के घड़े में रखा पानी ६ घंटों में किटाणु रहित होकर शुद्ध हो जाता है। तांबे के कलश में रखा पानी १२ घंटों मे किटाणु  रहित होता है। काँच के बर्तन में रखा पानी जैसा है, वैसा ही रहता है परन्तु प्लास्टिक के बर्तन में रखे पानी में १२ घंटे बाद किटाणु नष्ट होने के स्थान पर वृद्धि कर लेते हैं।
      
अतः जल व्यवस्था आधुनिक उपकरणों एवं प्लास्टिक के बर्तनों के स्थान पर मिट्टी के घड़ो में ही करनी चाहिए । विद्यालयों में बहुत अच्छी प्याऊ बनानी चाहिए और वाटर कूलर हटा देने चाहिए ।
 
अतः जल व्यवस्था आधुनिक उपकरणों एवं प्लास्टिक के बर्तनों के स्थान पर मिट्टी के घड़ो में ही करनी चाहिए । विद्यालयों में बहुत अच्छी प्याऊ बनानी चाहिए और वाटर कूलर हटा देने चाहिए ।
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==== विद्यालय में ध्वनि व्यवस्था धार्मिक शिल्पशास्त्रानुसार हो ====
 
==== विद्यालय में ध्वनि व्यवस्था धार्मिक शिल्पशास्त्रानुसार हो ====
आज के भवनों में निर्माण के समय ध्वनि शास्त्र का विचार नहीं किया जाता । निर्माण पूर्ण होने के पश्चात् उसे ध्वनि रोधी (ड्रीपव झीष) बनाया जाता है। ऐसा करने से समय, शक्ति व आर्थिक व्यय अतिरिक्त लगता है।
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आज के भवनों में निर्माण के समय ध्वनि शास्त्र का विचार नहीं किया जाता । निर्माण पूर्ण होने के पश्चात् उसे ध्वनि रोधी बनाया जाता है। ऐसा करने से समय, शक्ति व आर्थिक व्यय अतिरिक्त लगता है। हमारे शिल्पशास्त्र के ऐसे उदाहरण आज भी हैं, जहाँ न तो उसे साउन्ड प्रुफ बनाने की आवश्यकता है, और ना ही माइक लगाने की आवश्यकता पडती है। गोलकोंडा का किला ध्वनिशास्त्र का अद्भुत उदाहरण है। किले के मुख्य द्वार का रक्षक ताली बजाता है तो किले की सातवीं मंजिल में बैठे व्यक्ति को वह ताली स्पष्ट सुनाई देती है।
 
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हमारे शिल्पशास्त्र के ऐसे उदाहरण आज भी हैं, जहाँ न तो उसे साउन्ड प्रुफ बनाने की आवश्यकता है, और ना ही माइक लगाने की आवश्यकता पडती है। गोलकोंडा का किला ध्वनिशास्त्र का अद्भुत उदाहरण है। किले के मुख्य द्वार का रक्षक ताली बजाता है तो किले की सातवीं मंजिल में बैठे व्यक्ति को वह ताली स्पष्ट सुनाई देती है।
      
हमारे यहाँ निर्मित प्राचीन रंगशालाएँ जहाँ नाटक मंचित होते थे, उस विशाल सभागार में ध्वनि व्यवस्था ऐसी उत्तम रहती थी कि मंच से बोलने वाले नट की आवाज बिना माइक के ७० फिट तक बैठे हुए दर्शकों को समान रूप से एक जैसी सुनाई देती थी, चाहे वह आगे बैठा है या पीछे ।
 
हमारे यहाँ निर्मित प्राचीन रंगशालाएँ जहाँ नाटक मंचित होते थे, उस विशाल सभागार में ध्वनि व्यवस्था ऐसी उत्तम रहती थी कि मंच से बोलने वाले नट की आवाज बिना माइक के ७० फिट तक बैठे हुए दर्शकों को समान रूप से एक जैसी सुनाई देती थी, चाहे वह आगे बैठा है या पीछे ।
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==== विद्यालय वातावरण संस्कारक्षम हो ====
 
==== विद्यालय वातावरण संस्कारक्षम हो ====
स्वामी विवेकानन्द कहते हैं - “समस्त ज्ञान मनुष्य के अन्तर में स्थित है । आवश्यकता है उसके जागरण के लिए उपयुक्त वातावरण निर्माण करने की ।' यह वातावरण निर्माण करने के लिए आवश्यक है कि विद्यालय घर जैसा होना चाहिए, जिसमें प्रेम, आत्मीयता एवं सद्भाव का वातावरण हो । प्रेम, आत्मीयता और सदूभावना की तसगों से वायुमंडल पवित्र एवं आध्यात्मिक बनता है जो ज्ञान की साधना के लिए आवश्यक है ।
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स्वामी विवेकानन्द कहते हैं - “समस्त ज्ञान मनुष्य के अन्तर में स्थित है । आवश्यकता है उसके जागरण के लिए उपयुक्त वातावरण निर्माण करने की ।" यह वातावरण निर्माण करने के लिए आवश्यक है कि विद्यालय घर जैसा होना चाहिए, जिसमें प्रेम, आत्मीयता एवं सद्भाव का वातावरण हो । प्रेम, आत्मीयता और सद्भावना की तरंगों  से वायुमंडल पवित्र एवं आध्यात्मिक बनता है जो ज्ञान की साधना के लिए आवश्यक है ।
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इसी प्रकार विद्यालय के वातावरण को संस्कारक्षम = बनाने के लिए स्वच्छता एवं साज-सज्ञा आवश्यक है । जहाँ स्वच्छता होती है, वहीं पवित्रता का निर्माण होता है ।
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इसी प्रकार विद्यालय के वातावरण को संस्कारक्षम बनाने के लिए स्वच्छता एवं साज-सज्ञा आवश्यक है । जहाँ स्वच्छता होती है, वहीं पवित्रता का निर्माण होता है ।
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प्राचीन विद्यालयों को “गुरुकुल' कहा जाता था । गुरुकुल अर्थात्‌ गुरु का घर, घर के सभी सदस्यों (शिष्यों ) का घर । इसी गृह में निवास करना अतः इस घर पर अधिकार भी था तो घर के प्रति स्वाभाविक कर्तव्य भी थे। कुल का एक विशेष अर्थ भी था । जैसे गोकुल अर्थात्‌ १० हजार गायों वाला घर, कुलपति अर्थात्‌ १० हजार छात्रों का आचार्य आदि । गुरुकुल की इस महत्ता को हमें समझना चाहिए ।
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प्राचीन विद्यालयों को “गुरुकुल' कहा जाता था । गुरुकुल अर्थात्‌ गुरु का घर, घर के सभी सदस्यों (शिष्यों) का घर। इसी गृह में निवास करना अतः इस घर पर अधिकार भी था तो घर के प्रति स्वाभाविक कर्तव्य भी थे। कुल का एक विशेष अर्थ भी था। जैसे गोकुल अर्थात्‌ १० हजार गायों वाला घर, कुलपति अर्थात्‌ १० हजार छात्रों का आचार्य आदि । गुरुकुल की इस महत्ता को हमें समझना चाहिए ।
    
विद्यालय वातावरण को संस्कारक्षम एवं पवित्र बनाने के लिए अधोलिखित बिन्दु भी ध्यान रखने योग्य हैं :
 
विद्यालय वातावरण को संस्कारक्षम एवं पवित्र बनाने के लिए अधोलिखित बिन्दु भी ध्यान रखने योग्य हैं :
 
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# विद्यालय में प्रवेश करते ही माँ सरस्वती एवं भारत माता का मंदिर होना चाहिए । प्रतिदिन की वन्दना यहीं हो।  
१. विद्यालय में प्रवेश करते ही माँ सरस्वती एवं भारत माता का मंदिर होना चाहिए । प्रतिदिन की वन्दना यहीं हो।  
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# विद्यालय प्रारम्भ होने से पूर्व, मध्यावकाश में एवं अन्त में मधुर संगीत बजने की व्यवस्था हो । मधुर संगीत के स्वरों से वातावरण में पतरित्रता एवं दिव्यता घुल जाती है ।
 
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# विद्यालयों में दैनिक यज्ञ सम्भव हो तो बहुत अच्छा अन्यथा उत्सव विशेष पर यज्ञ अवश्य हो । इससे वेद मंत्रों की ध्वनि विद्यालय के वातावरण में गूंजेगी तो सारा वायु मंडल सुगंधित एवं पवित्रता से परिपूर्ण हो जायेगा ।
२. विद्यालय प्रारम्भ होने से पूर्व, मध्यावकाश में एवं अन्त में मधुर संगीत बजने की व्यवस्था हो । मधुर संगीत के स्वरों से वातावरण में पतरित्रता एवं दिव्यता घुल जाती है ।
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# विद्यालय भवन की दीवारें कोरी-रोती हुई न हों, वरन्‌ चित्रों से, सुभाषितों से, जानकारियों से भरी हुईं अर्थात्‌ हँसती हुई होनी चाहिए ।
 
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निष्कर्ष: विद्यालय की सम्पूर्ण व्यवस्थाएँ एवं वातावरण में धार्मिक संस्कृति एवं आध्यात्मिकता झलकनी चाहिए। विद्यालय भवन की वास्तुकला, साज-सज्जा, शिष्टाचार, भाषा, रीति-नीति, पर्म्पराएँ, छात्रों एवं शिक्षकों की वेशभूषा व्यवहार आदि धार्मिक संस्कृति से ओत-प्रोत चाहिए। वातावरण में छात्र यह अनुभूति करें कि वे महान ऋषियों की सन्तान हैं, उनकी संस्कृति एवं परम्परा महान हैं तथा वे भारतमाता के अमृत पुत्र हैं। वर्तमान में धार्मिक जीवन पर पाश्चात्य भौतिकवादी सभ्यता का प्रभाव बढ़ रहा है। ऐसे में विद्यालय की व्यवस्थाओं और वातावरण से धार्मिक संस्कृति के सहज संस्कार छात्रों को मिलना परम आवश्यक है ।
३. विद्यालयों में दैनिक यज्ञ सम्भव हो तो बहुत अच्छा अन्यथा उत्सव विशेष पर यज्ञ अवश्य हो । इससे वेद मंत्रों की ध्वनि विद्यालय के वातावरण में गूंजेगी तो सारा वायु मंडल सुगंधित एवं पवित्रता से परिपूर्ण हो जायेगा ।
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४. विद्यालय भवन की दीवारें कोरी-रोती हुई न हों, वरन्‌ चित्रों से, सुभाषितों से, जानकारियों से भरी हुईं अर्थात्‌ हँसती हुई होनी चाहिए ।
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निष्कर्ष : विद्यालय की सम्पूर्ण व्यवस्थाएँ एवं वातावरण में धार्मिक संस्कृति एवं आध्यात्मिकता झलकनी चाहिए। विद्यालय भवन की वास्तुकला, साज-सज्जा,
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शिष्टाचार, भाषा, रीति-नीति, पर्म्पराएँ, छात्रों एवं शिक्षकों की वेशभूषा व्यवहार आदि धार्मिक संस्कृति से ओत-प्रोत चाहिए। वातावरण में छात्र यह अनुभूति करें कि वे महान ऋषियों की सन्तान हैं, उनकी संस्कृति एवं परम्परा महान हैं तथा वे भारतमाता के अमृत पुत्र हैं। वर्तमान में धार्मिक जीवन पर पाश्चात्य भौतिकवादी सभ्यता का प्रभाव बढ़ रहा है। ऐसे में विद्यालय की व्यवस्थाओं और वातावरण से धार्मिक संस्कृति के सहज संस्कार छात्रों को मिलना परम आवश्यक है ।
      
=== विद्यालय का भवन ===
 
=== विद्यालय का भवन ===
# विद्यालय का भवन बनाते समय सुविधा की दृष्टि से किन किन बातों का ध्यान रकना चाहिये ?
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# विद्यालय का भवन बनाते समय सुविधा की दृष्टि से किन किन बातों का ध्यान रखना चाहिये ?
 
# विद्यालय के भवन में विद्यालय की शैक्षिक दृष्टि किस प्रकार से प्रतिबिम्बित होती है ?
 
# विद्यालय के भवन में विद्यालय की शैक्षिक दृष्टि किस प्रकार से प्रतिबिम्बित होती है ?
 
# विद्यालय का भवन एवं पर्यावरण
 
# विद्यालय का भवन एवं पर्यावरण
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==== प्रश्नावली से प्राप्त उत्तर ====
 
==== प्रश्नावली से प्राप्त उत्तर ====
 
इस प्रश्नावली मे कुल १० प्रश्न थे। राजस्थान एवं गुजरात के आचार्यों ने इनके उत्तर लिखे थे।
 
इस प्रश्नावली मे कुल १० प्रश्न थे। राजस्थान एवं गुजरात के आचार्यों ने इनके उत्तर लिखे थे।
 
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# सुविधा की दृष्टि से भवन दो मंजिल से अधिक बड़ा नहीं होना चाहिये। कक्षा में बाजू की कक्षा का कोलाहल न सुनाई दे इस प्रकार की रचना हो । पेयजल की व्यवस्था भवन के अंतर्गत तथा शौचालय आदि भवन से दूर हो ।
१. सुविधा की दृष्टि से भवन दो मांजिल से अधिक बड़ा नहीं होना चाहिये । कक्षा में बाजू की कक्षा का कोलाहल न सुनाई दे इस प्रकार की रचना हो । पेयजल की व्यवस्था भवन के अंतर्गत तथा शैचालय आदि भवन के दूर हो ।
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# विषयानुसार कक्ष रचना से लेकर सूचना फलक पर लिखी हई लिखावट इत्यादि सब बातें विद्यालय की शैक्षिक दृष्टि प्रकट करती है।
 
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# विद्यालय बनाते समय नीम, पीपल, बरगद जैसे  वृक्ष भी पर्याप्त मात्रा में उचित स्थानो पर लगाने का प्रावधान हो। इससे पर्यावरण की सुरक्षा होगी, छाँव मिलेगी, पेड के नीचे अध्ययन, अध्यापन भी हो सकेगा। खुली हवा प्रकाश का शरीर स्वास्थ्य पर असर होगा । शरीरस्वास्थ्य अच्छा हो तो मन भी एकाग्र शांत होगा । विद्यालय में गौशाला रहेगी तो गोसेवा का अनुभव छात्रों को प्राप्त होगा।
२. विषयानुसार कक्ष रचना से लेकर सूचना फलक पर लिखी हई लिखावट इत्यादि सब बातें विद्यालय की शैक्षिक दृष्टि प्रकट करती है।
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# विद्यालय के भवन मे कवेलू बाँस की जाली, पत्थर की दीवारे कम खर्चे मे टिकाऊ बनेगी।
 
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३. विद्यालय बनाते समय नीम, पीपल, बरगद जैसे  वृक्ष भी पर्याप्त मात्रा में उचित स्थानो पर लगाने का प्रावधान हो। इससे पर्यावरण की सुरक्षा होगी, छाँव मिलेगी, पेड के नीचे अध्ययन, अध्यापन भी हो सकेगा। खुली हवा प्रकाश का शरीर स्वास्थ्य पर असर होगा । शरीरस्वास्थ्य अच्छा हो तो मन भी एकाग्र शांत होगा । विद्यालय में गौशाला रहेगी तो गोसेवा का अनुभव छात्रों को प्राप्त होगा।
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विद्यालय के भवन मे कवेलू बाँस की जाली, पत्थर की दीवारे कम खर्चे मे टिकाऊ बनेगी।
      
==== अभिमत ====
 
==== अभिमत ====
 
विद्यालय का भवन छात्रों के लिए ज्ञानसाधना स्थली है। अतः वास्तुविज्ञान का ध्यान अवश्य रहे । भूमि एवं स्थानचयन के बाबत वह निसर्ग के सान्निध्य मे रहे तो अच्छा । सिन्थेटिक रंग, प्लास्टिक फायबर आदि चीजों का उपयोग न हो इसका ध्यान रखें ।
 
विद्यालय का भवन छात्रों के लिए ज्ञानसाधना स्थली है। अतः वास्तुविज्ञान का ध्यान अवश्य रहे । भूमि एवं स्थानचयन के बाबत वह निसर्ग के सान्निध्य मे रहे तो अच्छा । सिन्थेटिक रंग, प्लास्टिक फायबर आदि चीजों का उपयोग न हो इसका ध्यान रखें ।
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आचार्य का संबंध नित्य विद्यालय भवन से होता है उसमें सुविधा असुविधा कौनसी है इससे वे परिचित होते हैं। परंतु पढाना शिक्षक का काम और भवन बनाना संस्थाचालकों का काम यह निश्चित है अतः दोनों एक दूसरे के काम में दखल नही देते । भवन संबंधी योग्य बातें संस्थाचालको से करना मेरा कर्तव्य है, ऐसा शिक्षक मानता नहीं और संस्थाचालक भी अधिकारी के रूप में शिक्षकों से भवनसंदर्भ में कुछ सुझाव अपेक्षित नहीं करते । अतः भवन तो निर्माण होते हैं परंतु उसके पीछे विचारैक्य नहीं होता । दोनों मिलकर अच्छा भवन निर्माण होना आवश्यक है ।
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आचार्य का संबंध नित्य विद्यालय भवन से होता है उसमें सुविधा असुविधा कौन सी है इससे वे परिचित होते हैं। परंतु पढ़ाना शिक्षक का काम और भवन बनाना संस्थाचालकों का काम यह निश्चित है अतः दोनों एक दूसरे के काम में दखल नही देते । भवन संबंधी योग्य बातें संस्थाचालको से करना मेरा कर्तव्य है, ऐसा शिक्षक मानता नहीं और संस्थाचालक भी अधिकारी के रूप में शिक्षकों से भवनसंदर्भ में कुछ सुझाव अपेक्षित नहीं करते । अतः भवन तो निर्माण होते हैं परंतु उसके पीछे विचारैक्य नहीं होता । दोनों मिलकर अच्छा भवन निर्माण होना आवश्यक है ।
    
==== विद्यालय भवन : शिक्षा संकल्पना का मूर्त रूप ====
 
==== विद्यालय भवन : शिक्षा संकल्पना का मूर्त रूप ====
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==== विद्यालय भवन का भौतिक पक्ष ====
 
==== विद्यालय भवन का भौतिक पक्ष ====
सबसे प्रथम बात विद्यालय के भवन एवं प्रयुक्त सामग्री के विषय में ही करनी चाहिए । आजकल सामान्य रूप से हम सिमेन्ट और लोहे का प्रयोग करते हैं। सनमाइका, एल्यूमिनियम, फेविकोल, प्लास्टर ऑफ पेरिस आदि का प्रयोग धीरे धीरे बहुत बढ़ने लगा है । कभी तो इसमें सुन्दरता लगती है, कभी वह सस्ता लगता है तो कभी मजबूत लगता है । इन तीनों पक्षों के संबंध में सही पद्धति से विचार करें तो तीनों हमें अनुचित ही लगेंगी । सिमेन्ट ईंटों को जोड़ने वाला पदार्थ है परन्तु वह अविघटनीय है । उसका स्वभाव प्लासिक जैसा ही होता है। तीस या पैंतीस वर्षों में उसका जोड़ने वाला गुण नष्ट होने लगता है और वह बिखर जाता है। बिखरने पर उसका पूनरूपयोग नहीं हो सकता है। वह पर्यावरण का भी नाश करता है क्योंकि उसके कचरे का निकाल नहीं हो सकता। उसी प्रकार से सनमाइका,
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सबसे प्रथम बात विद्यालय के भवन एवं प्रयुक्त सामग्री के विषय में ही करनी चाहिए । आजकल सामान्य रूप से हम सिमेन्ट और लोहे का प्रयोग करते हैं। सनमाइका, एल्यूमिनियम, फेविकोल, प्लास्टर ऑफ पेरिस आदि का प्रयोग धीरे धीरे बहुत बढ़ने लगा है । कभी तो इसमें सुन्दरता लगती है, कभी वह सस्ता लगता है तो कभी मजबूत लगता है । इन तीनों पक्षों के संबंध में सही पद्धति से विचार करें तो तीनों हमें अनुचित ही लगेंगी । सिमेन्ट ईंटों को जोड़ने वाला पदार्थ है परन्तु वह अविघटनीय है । उसका स्वभाव प्लासिक जैसा ही होता है। तीस या पैंतीस वर्षों में उसका जोड़ने वाला गुण नष्ट होने लगता है और वह बिखर जाता है। बिखरने पर उसका पूनरूपयोग नहीं हो सकता है। वह पर्यावरण का भी नाश करता है क्योंकि उसके कचरे का निकाल नहीं हो सकता। उसी प्रकार से सनमाइका, फेविकोल आदि सामग्री भी पर्यावरण का नाश करने वाली ही है । पर्यावरण के नाश के साथ साथ वे मनुष्यों के स्वास्थ्य के लिए भी हानिकारक हैं । रोज रोज उसमें ही रहते रहते हम उस अस्वास्थ्यकर वातावरण के आदि हो जाते हैं परन्तु कुल मिलाकर आज जो शरीर और मन की दुर्बलता अनुभव में आती है उसका कारण यह भी है।
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फेविकोल आदि सामाग्री भी पर्यावरण का नाश करने वाली ही है । पर्यावरण के नाश के साथ साथ वे मनुष्यों के स्वास्थ्य के लिए भी हानिकारक हैं । रोज रोज उसमें ही रहते रहते हम उस अस्वास्थ्यकर वातावरण के आदि हो जाते हैं परन्तु कुल मिलाकर आज जो शरीर और मन की दुर्बलता अनुभव में आती है उसका कारण यह भी है।  
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इन पदार्थों के कारण तापमान बढ़ता है। वह अप्राकृतिक रूप में बढ़ता है । प्राकृतिक गर्मी शरीर को इस प्रकार का नुकसान नहीं करती, यह कृत्रिम गर्मी नुकसान करती है । बढ़े हुए तापमान से बचने हेतु हम पंखे चलाते हैं, कहीं वातानुकूलन का प्रयोग करते हैं। इससे फिर तापमान बढ़ता है वातानुकूलन में बिजली का उपयोग अधिक होता है, जिससे खर्च तो बढ़ता ही जाता है। इस प्रकार आर्थिक विषचक्र चलता रहता है और हम उसकी चपेट में आ जाते हैं । स्वास्थ्य का नाश तो होता ही है।
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इन पदार्थों के कारण तापमान बढ़ता है। वह अप्राकृतिक रूप में बढ़ता है । प्राकृतिक गर्मी शरीर को इस प्रकार का नुकसान नहीं करती, यह कृत्रिम गर्मी नुकसान करती है । बढ़े हुए तापमान से बचने हेतु हम पंखे चलाते हैं, कहीं वातानुकूलन का प्रयोग करते हैं। इससे फिर तापमान बढ़ता है । वातानुकूलन में बिजली का उपयोग अधिक होता है,जिससे खर्च तो बढ़ता ही जाता है। इस प्रकार आर्थिक विषचक्र चलता रहता है और हम उसकी चपेट में आ जाते हैं । स्वास्थ्य का नाश तो होता ही है।
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हम कहते हैं की इसमें बहुत सुविधा है और यह दिखाता भी सुंदर है। परन्तु सुविधा और सुन्दरता बहुत आभासी है। वास्तविक सुविधा और सुंदरता विनाशक नहीं होती। यदि वह विनाशक है तो सुंदर नहीं है, और सुविधा तो वह हो ही कैसे सकती है ?
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हम कहते हैं की इसमें बहुत सुविधा है और यह दिखाता भी सुंदर है। परन्तु सुविधा और सुन्दरता बहुत आभासी है । वास्तविक सुविधा और सुंदरता विनाशक नहीं होती । यदि वह विनाशक है तो सुंदर नहीं है, और सुविधा तो वह हो ही कैसे सकती है ?
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तो फिर भवनों में कौनसी सामग्री प्रयुक्त होनी चाहिए? पहला नियम यह है की जिंदा लोगोंं को रहने के लिए, सुख से रहने के लिए प्राकृतिक सामग्री का प्रयोग होना चाहिए । मिट्टी, चूना, लकड़ी, पत्थर आदि सामग्री प्राकृतिक है। यह सामग्री पर्यावरण और स्वास्थ्य के अविरोधी होती है। आज अनेक लोगोंं की धारणा हो गई है कि ऐसा घर कच्चा होता है परन्तु यह धारणा सही नहीं है। वैज्ञानिक परीक्षण करें या पारम्परिक नमूने देखें तो इस सामग्री से बने भवन अधिक पक्के होते हैं। इस सामग्री का उपयोग कर विविध प्रकार के भवन बनाने का स्थापत्यशास्त्र भारत में बहुत प्रगत है। स्थपतियोंने विस्मयकारक भवन निर्माण किए हैं । आज भी यह कारीगरी जीवित है परन्तु वर्तमान शिक्षा के परिणामस्वरूप हमारी पद्धतियाँ और नीतियाँ विपरीत ही बनी हैं अतः शिक्षित लोगोंं को इसकी जानकारी नहीं है, अज्ञान, विपरीतज्ञान और हीनताबोध के कारण हमें उसके प्रति आस्था नहीं है, हमारी सौंदर्यदृष्टि भी बदल गई है अतः हम बहुत अविचारी ढंग से अप्राकृतिक सामग्री से अप्राकृतिक रचना वाले भवन बनाते हैं और संकटों को अपने ऊपर आने देते हैं । संकटों को निमंत्रण देने की यह आधुनिक पद्धति है ।
 
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तो फिर भवनों में कौनसी सामग्री प्रयुक्त होनी चाहिए ? पहला नियम यह है की जिंदा लोगोंं को रहने के लिए, सुख से रहने के लिए प्राकृतिक सामग्री का प्रयोग होना चाहिए । मिट्टी, चूना, लकड़ी, पत्थर आदि सामग्री प्राकृतिक है । यह सामग्री पर्यावरण और स्वास्थ्य के अविरोधी होती है । आज अनेक लोगोंं की धारणा हो गई है की ऐसा घर कच्चा होता है परन्तु यह धारणा सही नहीं है । वैज्ञानिक परीक्षण करें या पारम्परिक नमूने देखें तो इस सामग्री से बने भवन अधिक पक्के होते हैं । इस सामग्री का उपयोग कर विविध प्रकार के भवन बनाने का स्थापत्यशास्त्र भारत में बहुत प्रगत है । स्थपतियोंने विस्मयकारक भवन निर्माण किए हैं । आज भी यह कारीगरी जीवित है परन्तु वर्तमान शिक्षा के परिणामस्वरूप हमारी पद्धतियाँ और नीतियाँ विपरीत ही बनी हैं अतः शिक्षित लोगोंं को इसकी जानकारी नहीं है, अज्ञान, विपरीतज्ञान और हीनताबोध के कारण हमें उसके प्रति आस्था नहीं है, हमारी
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सौंदर्यदृष्टि भी बदल गई है अतः हम बहुत अविचारी ढंग से अप्राकृतिक सामग्री से अप्राकृतिक रचना वाले भवन बनाते हैं और संकटों को अपने ऊपर आने देते हैं । संकटों को निमंत्रण देने की यह आधुनिक पद्धति है ।
      
यह सामग्री ठंड के दिनों में अधिक ठंड और गर्मी के दिनों में अधिक गर्मी का अनुभव करवाती है । दीवारों में हवा की आवनजावन नहीं होती है अतः भी कक्षों का तापमान और वातावरण स्वास्थ्यकर नहीं रहता।
 
यह सामग्री ठंड के दिनों में अधिक ठंड और गर्मी के दिनों में अधिक गर्मी का अनुभव करवाती है । दीवारों में हवा की आवनजावन नहीं होती है अतः भी कक्षों का तापमान और वातावरण स्वास्थ्यकर नहीं रहता।
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भवन के कक्षाकक्षों में हवा की आवनजावन की स्थिति अनेक प्रकार से विचित्र रहती है । भौतिक विज्ञान का नियम कहता है कि ठंडी हवा नीचे रहती है और गरम हवा ऊपर की ओर जाती है । इस दृष्टि से पुराने स्थापत्य में कमरे में आमनेसामने खिड़कियाँ होती थीं तथा दीवार में ऊपर की ओर गरम हवा जाने की व्यवस्था होती थी। अब ऐसी व्यवस्था नहीं होती । छत से लटकने वाले पंखे हवा नीचे की ओर फेंकते हैं और गरम हवा ऊपर की ओर जाती है । हवा की स्थिति कैसी होगी ? इन सादी परन्तु अत्यन्त महत्त्वपूर्ण बातों की ओर हमारा ध्यान नहीं रहता है।
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भवन के कक्षाकक्षों में हवा की आवनजावन की स्थिति अनेक प्रकार से विचित्र रहती है । भौतिक विज्ञान का नियम कहता है कि ठंडी हवा नीचे रहती है और गरम हवा ऊपर की ओर जाती है । इस दृष्टि से पुराने स्थापत्य में कमरे में आमनेसामने खिड़कियाँ होती थीं तथा दीवार में ऊपर की ओर गरम हवा जाने की व्यवस्था होती थी। अब ऐसी व्यवस्था नहीं होती । छत से लटकने वाले पंखे हवा नीचे की ओर फेंकते हैं और गरम हवा ऊपर की ओर जाती है । हवा की स्थिति कैसी होगी ? इन सादी परन्तु अत्यन्त महत्त्वपूर्ण बातों की ओर हमारा ध्यान नहीं रहता है।
    
भवन की रचना में वास्तुशास्त्र के नियमों का ध्यान रखना चाहिए ऐसा अब सब कहने लगे हैं तो भी अधिकांश भवन इसकी ओर ध्यान दिये बिना ही बनाए जाते हैं । ऐसा अज्ञान और गैरजिम्मेदारी के कारण ही होता है ।
 
भवन की रचना में वास्तुशास्त्र के नियमों का ध्यान रखना चाहिए ऐसा अब सब कहने लगे हैं तो भी अधिकांश भवन इसकी ओर ध्यान दिये बिना ही बनाए जाते हैं । ऐसा अज्ञान और गैरजिम्मेदारी के कारण ही होता है ।
    
==== भवन का भावात्मक पक्ष ====
 
==== भवन का भावात्मक पक्ष ====
विद्यालय का भवन भावात्मक दृष्टि से शिक्षा के अनुकूल होना चाहिए । इसका अर्थ है वह प्रथम तो पवित्र होना चाहिए । पवित्रता स्वच्छता की तो अपेक्षा रखती ही है साथ ही सात्त्विकता की भी अपेक्षा रखती है। आज सात्त्विकता नामक संज्ञा भी अनेक लोगोंं को परिचित नहीं है यह बात सही है परन्तु वह मायने तो बहुत रखती है । भवन बनाने वालों का और बनवाने वालों का भाव अच्छा होना महत्त्वपूर्ण है। इसके लिए पैसा खर्च करने वाले. भवन बनते समय ध्यान रखने वाले, प्रत्यक्ष भवन बनाने वाले और सामग्री जहाँ से आती है वे लोग विद्यालय के प्रति यदि अच्छी भावना रखते हैं तो विद्यालय भवन के वातावरण में  
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विद्यालय का भवन भावात्मक दृष्टि से शिक्षा के अनुकूल होना चाहिए। इसका अर्थ है वह प्रथम तो पवित्र होना चाहिए। पवित्रता स्वच्छता की तो अपेक्षा रखती ही है साथ ही सात्त्विकता की भी अपेक्षा रखती है। आज सात्त्विकता नामक संज्ञा भी अनेक लोगोंं को परिचित नहीं है यह बात सही है परन्तु वह मायने तो बहुत रखती है। भवन बनाने वालों का और बनवाने वालों का भाव अच्छा होना महत्त्वपूर्ण है। इसके लिए पैसा खर्च करने वाले. भवन बनते समय ध्यान रखने वाले, प्रत्यक्ष भवन बनाने वाले और सामग्री जहाँ से आती है वे लोग विद्यालय के प्रति यदि अच्छी भावना रखते हैं तो विद्यालय भवन के वातावरण में पवित्रता आती है। पवित्रता हम चाहते तो हैं। अतः तो हम भूमिपूजन, शिलान्यास, वास्तुशांति, यज्ञ, भवनप्रवेश जैसे विधिविधानों का अनुसरण करते हैं । ये केवल कर्मकाण्ड नहीं हैं। इनका भी अर्थ समझकर पूर्ण मनोयोग से किया तो बहुत लाभ होता है। परन्तु समझने का अर्थ क्रियात्मक भी होता है। उदाहरण के लिए ग्रामदेवता, वास्तुदेवता आदि की प्रार्थना और उन्हें सन्तुष्ट करने की बात मंत्रों में कही जाती है । तब सन्तुष्ट करने का क्रियात्मक अर्थ वह होता है कि हम सामग्री का या वास्तु का दुरुपयोग नहीं करेंगे, उसका उचित सम्मान करेंगे, उसका रक्षण करेंगे आदि । यह तो सदा के व्यवहार की बातें हैं। भारत की पवित्रता की संकल्पना भी क्रियात्मक ही होती है ।  
 
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पवित्रता आती है। पवित्रता हम चाहते तो हैं । अतः तो हम भूमिपूजन, शिलान्यास, वास्तुशांति, यज्ञ, भवनप्रवेश जैसे विधिविधानों का अनुसरण करते हैं । ये केवल कर्मकाण्ड नहीं हैं। इनका भी अर्थ समझकर पूर्ण मनोयोग से किया तो बहुत लाभ होता है । परन्तु समझने का अर्थ क्रियात्मक भी होता है। उदाहरण के लिए ग्रामदेवता. वास्तुदेवता आदि की प्रार्थना और उन्हें सन्तुष्ट करने की बात मंत्रों में कही जाती है । तब सन्तुष्ट करने का क्रियात्मक अर्थ वह होता है कि हम सामग्री का या वास्तु का दुरुपयोग नहीं करेंगे, उसका उचित सम्मान करेंगे, उसका रक्षण करेंगे आदि । यह तो सदा के व्यवहार की बातें हैं। भारत की पवित्रता की संकल्पना भी क्रियात्मक ही होती है ।
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पवित्रता के साथ साथ भवन में शान्ति होनी चाहिए । उसकी ध्वनिव्यवस्था ठीक होना यह पहली बात है। कभी कभी कक्ष की रचना ऐसी बनती है कि पचीस लोगोंं में कही हुई बात भी सुनाई नहीं देती, तो अच्छी रचना में सौ लोगोंं को सनने के लिए भी ध्वनिवर्धक यन्त्र की आवश्यकता नहीं पडती। ऐसी उत्तम ध्वनिव्यवस्था होना अपेक्षित है। यह शान्ति का प्रथम चरण है । साथ ही आसपास के कोलाहल के प्रभाव से मुक्त रह सकें ऐसी रचना होनी चाहिए । कोलाहल के कारण अध्ययन के समय एकाग्रता नहीं हो सकती । कभी कभी पूरे भवन की रचना कुछ ऐसी बनती है कि लोग एकदूसरे से क्या बात कर रहे हैं यह समझ में नहीं आता या तो धीमी आवाज भी बहुत बड़ी लगती है । यह भवन की रचना का ही दोष होता है ।
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भवन की बनावट पक्की होनी चाहिए । व्यवस्थित और सुन्दर होनी चाहिए पानी, प्रकाश, हवा आदि की अच्छी सुविधा उसमें होनी चाहिए। हम इन बिंदुओं की चर्चा स्वतन्त्र रूप से करने वाले हैं अतः यहाँ केवल उल्लेख ही किया है। कभी कभी भवन की बनावट ऐसी होती है कि __ उसकी स्वच्छता रखना कठिन हो जाता है । यह भी बनावट __ का ही दोष होता है।
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पवित्रता के साथ साथ भवन में शान्ति होनी चाहिए। उसकी ध्वनिव्यवस्था ठीक होना यह पहली बात है। कभी कभी कक्ष की रचना ऐसी बनती है कि पचीस लोगों में कही हुई बात भी सुनाई नहीं देती, तो अच्छी रचना में सौ लोगों को सुनने के लिए भी ध्वनिवर्धक यन्त्र की आवश्यकता नहीं पडती। ऐसी उत्तम ध्वनिव्यवस्था होना अपेक्षित है। यह शान्ति का प्रथम चरण है । साथ ही आसपास के कोलाहल के प्रभाव से मुक्त रह सकें ऐसी रचना होनी चाहिए । कोलाहल के कारण अध्ययन के समय एकाग्रता नहीं हो सकती । कभी कभी पूरे भवन की रचना कुछ ऐसी बनती है कि लोग एकदूसरे से क्या बात कर रहे हैं यह समझ में नहीं आता या तो धीमी आवाज भी बहुत बड़ी लगती है । यह भवन की रचना का ही दोष होता है ।
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विद्यालय का भवन वैभव और विलास के दर्शन कराने वाला नहीं होना चाहिए। विद्यालय न महालय है न कार्यालय । वह न कारख़ाना है न चिकित्सालय । इन सभी स्थानों की रचना भिन्न भिन्न होती है और वह बाहर और अंदर भी दिखाई देती है। विद्यालय के भवन में सुंदरता तो होती है परन्तु सादगी अनिवार्य रूप से होती है । सादगीपूर्ण और सात्त्विक रचना भी कैसे सुन्दर होती है इसका यह नमूना होना चाहिए । सादा होते हुए भी वह हल्की सामग्री का बना सस्ता नहीं होना चाहिए। उत्कृष्टता तो सर्वत्र होनी ही चाहिए।
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भवन की बनावट पक्की होनी चाहिए। व्यवस्थित और सुन्दर होनी चाहिए। पानी, प्रकाश, हवा आदि की अच्छी सुविधा उसमें होनी चाहिए। हम इन बिंदुओं की चर्चा स्वतन्त्र रूप से करने वाले हैं अतः यहाँ केवल उल्लेख ही किया है। कभी कभी भवन की बनावट ऐसी होती है कि उसकी स्वच्छता रखना कठिन हो जाता है । यह भी बनावट का ही दोष होता है।
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विद्यालय भवन का वातावरण और बनावट सरस्वती के मन्दिर का ही होना चाहिए । इस भाव को व्यक्त करते हुए भवन में मन्दिर भी होना चाहिए ।
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विद्यालय का भवन वैभव और विलास के दर्शन कराने वाला नहीं होना चाहिए। विद्यालय न महालय है न कार्यालय । वह न कारख़ाना है न चिकित्सालय। इन सभी स्थानों की रचना भिन्न भिन्न होती है और वह बाहर और अंदर भी दिखाई देती है। विद्यालय के भवन में सुंदरता तो होती है परन्तु सादगी अनिवार्य रूप से होती है। सादगीपूर्ण और सात्त्विक रचना भी कैसे सुन्दर होती है इसका यह नमूना होना चाहिए । सादा होते हुए भी वह हल्की सामग्री का बना सस्ता नहीं होना चाहिए। उत्कृष्टता तो सर्वत्र होनी ही चाहिए। विद्यालय भवन का वातावरण और बनावट सरस्वती के मन्दिर का ही होना चाहिए । इस भाव को व्यक्त करते हुए भवन में मन्दिर भी होना चाहिए ।
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धार्मिक शिक्षा की संकल्पना का मूर्त रूप विद्यालय है और उसका एक अंग भवन है । विद्यालय में विविध विषयों के माध्यम से जो सिद्धांत, व्यवहार, परंपरा आदि की बातें होती हैं वे सब विद्यालय के भवन में दिखाई देनी चाहिए । भवन स्वयं शिक्षा का माध्यम बनाना चाहिए ।
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धार्मिक शिक्षा की संकल्पना का मूर्त रूप विद्यालय है और उसका एक अंग भवन है। विद्यालय में विविध विषयों के माध्यम से जो सिद्धांत, व्यवहार, परंपरा आदि की बातें होती हैं वे सब विद्यालय के भवन में दिखाई देनी चाहिए । भवन स्वयं शिक्षा का माध्यम बनाना चाहिए ।
    
=== विद्यालय का कक्षाकक्ष ===
 
=== विद्यालय का कक्षाकक्ष ===
'''१. विद्यालय का कक्षाकक्ष कैसा होना चाहिये ?'''
+
# विद्यालय का कक्षाकक्ष कैसा होना चाहिये ?
 
+
# कितना बड़ा होना चाहिये ?
'''२. कितना बड़ा होना चाहिये ?'''
+
# उसका आकार कैसा होना चाहिये ?
 
+
# कितने प्रकार के कक्षाकक्ष हो सकते हैं ?
'''३. उसका आकार कैसा होना चाहिये ?'''
+
# कक्षाकक्ष में किस प्रकार की सुविधायें होनी चाहिये ?
 
+
# कक्षाकक्ष का फर्नीचर कैसा होना चाहिये ?
'''४. कितने प्रकार के कक्षाकक्ष हो सकते हैं ?'''
+
# कक्षाकक्ष की खिडकियाँ, दरवाजे, श्यामपट्ट, अलमारी आदि के विषय में किस प्रकार से विचार होना चाहिये ?
 
+
# कक्षाकक्ष की बैठक व्यवस्था कैसी होनी चाहिये ?
'''५. कक्षाकक्ष में किस प्रकार की सुविधायें होनी चाहिये ?'''
+
# हवा, प्रकाश, ध्वनि, तापमान, दिशायें आदि व्यवस्थायें कैसी होनी चाहिये ?
 
+
# कक्षाकक्ष का वातावरण शैक्षिक एवं संस्कारक्षम कैसे बन सकता है ?
'''६. कक्षाकक्ष का फर्नीचर कैसा होना चाहिये ?'''
+
# स्वच्छता, पर्यावरण एवं स्वास्थ्य की दृष्टि से कक्षाकक्ष कैसा होना चाहिये ?
 
+
# साजसज्जा, सुविधा एवं आर्थिक दृष्टि से कक्षाकक्ष के सम्बन्ध में हम क्या विचार कर सकते हैं ?
'''७. कक्षाकक्ष की खिडकियाँ, दरवाजे, श्यामपट्ट, अलमारी आदि के विषय में किस प्रकार से विचार होना चाहिये ?'''
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  −
'''८. कक्षाकक्ष की बैठक व्यवस्था कैसी होनी चाहिये ?'''
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'''९. हवा, प्रकाश, ध्वनि, तापमान, दिशायें आदि व्यवस्थायें कैसी होनी चाहिये ?'''
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'''१०. कक्षाकक्ष का वातावरण शैक्षिक एवं संस्कारक्षम कैसे बन सकता है ?'''
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'''११. स्वच्छता, पर्यावरण एवं स्वास्थ्य की दृष्टि से कक्षाकक्ष कैसा होना चाहिये ?'''
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'''१२. साजसज्जा, सुविधा एवं आर्थिक दृष्टि से कक्षाकक्ष के सम्बन्ध में हम क्या विचार कर सकेत है ?'''
      
==== प्रश्नावली से पाप्त उत्तर ====
 
==== प्रश्नावली से पाप्त उत्तर ====
विद्यालय के कक्षा-कक्ष के सम्बन्ध में अपना मंतव्य इस प्रश्नावली में प्रकट हुआ है। १२ प्रश्नों की इस प्रश्नावली के उत्तर नागपुर के १३ शिक्षकों, २ प्रधानाचार्यों व एक संस्था चालक अर्थात् कुल १७ लोगोंं ने दिये हैं । इस कार्य में सौ. वैशालीताई नायगावकरने सहयोग दिया ।
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विद्यालय के कक्षा-कक्ष के सम्बन्ध में अपना मंतव्य इस प्रश्नावली में प्रकट हुआ है। १२ प्रश्नों की इस प्रश्नावली के उत्तर नागपुर के १३ शिक्षकों, २ प्रधानाचार्यों व एक संस्था चालक अर्थात् कुल १७ लोगोंं ने दिये हैं । इस कार्य में सौ. वैशालीताई नायगावकर ने सहयोग दिया ।
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प्रश्न १, २, ३ व ५ - ५० से ६० विद्यार्थी आराम से बैठ सके इतना बड़ा कक्ष होना आवश्यक है। कक्षा कक्ष चौरस, आयातकार या अर्धवर्तुलाकार हो सकते हैं । कमरों में भरपूर प्रकाश एवं वायु आती हो, तथा पास के कक्षों की आवाज इस कक्ष में चल रहे कार्य में बाधक न हो, इस प्रकार की कक्षा की रचना विद्यालय में करनी चाहिये।  
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प्रश्न १, २, ३ व ५: ५० से ६० विद्यार्थी आराम से बैठ सके इतना बड़ा कक्ष होना आवश्यक है। कक्षा कक्ष चौरस, आयातकार या अर्धवर्तुलाकार हो सकते हैं । कमरों में भरपूर प्रकाश एवं वायु आती हो, तथा पास के कक्षों की आवाज इस कक्ष में चल रहे कार्य में बाधक न हो, इस प्रकार की कक्षा की रचना विद्यालय में करनी चाहिये।  
    
प्रश्न ४ - विद्यालय में विषय अनुसार कक्ष रचना अत्यन्त लाभकारी रहती है । गणित कक्ष, भाषा कक्ष, उद्योग कक्ष, भूगोल कक्ष, विज्ञान कक्ष होने से अध्ययन और वातावरण अच्छा रहता है, ऐसा सबका कहना था ।
 
प्रश्न ४ - विद्यालय में विषय अनुसार कक्ष रचना अत्यन्त लाभकारी रहती है । गणित कक्ष, भाषा कक्ष, उद्योग कक्ष, भूगोल कक्ष, विज्ञान कक्ष होने से अध्ययन और वातावरण अच्छा रहता है, ऐसा सबका कहना था ।
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प्रश्न ७ - कमरों के दरवाजे लोहे के हों, खिडकियाँ जमीन से साढ़े तीन फीट की ऊँचाई पर हो ऐसा मत कुछ लोगोंं का था । बाहर खड़े निरीक्षक को पता चल सके उतनी ऊँचाई पर खिड़कियाँ हों, यह मत भी कुछ लोगोंं का था । कक्षा में फलक काँच के अथवा व्हाइट बोर्ड के होने चाहिए । शैक्षिक सामग्री व अन्य वस्तुएँ रखने के लिए अलमारी होनी चाहिए ।
 
प्रश्न ७ - कमरों के दरवाजे लोहे के हों, खिडकियाँ जमीन से साढ़े तीन फीट की ऊँचाई पर हो ऐसा मत कुछ लोगोंं का था । बाहर खड़े निरीक्षक को पता चल सके उतनी ऊँचाई पर खिड़कियाँ हों, यह मत भी कुछ लोगोंं का था । कक्षा में फलक काँच के अथवा व्हाइट बोर्ड के होने चाहिए । शैक्षिक सामग्री व अन्य वस्तुएँ रखने के लिए अलमारी होनी चाहिए ।
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प्रश्न १० - कक्षा का वातावरण
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प्रश्न १० - कक्षा का वातावरण शैक्षिक एवं संस्कारक्षम बने अतः कक्षाओं की दीवारों पर चार्टस, नक्शा, अच्छे चित्र आदि लगे हों ऐसा सबका मत था। प्रश्नावली के अन्तिम दोनों प्रश्नों के उत्तर नहीं मिले ।
शैक्षिक एवं संस्कारक्षम बने अतः कक्षाओं की दीवारों
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पर चार्टस, नक्शा, अच्छे चित्र आदि लगे हों ऐसा सबका
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मत था । प्रश्नावली के अन्तिम दोनों प्रश्नों के उत्तर नहीं
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मिले ।
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==== अभिमत - ====
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==== अभिमत ====
लगभग सभी उत्तर देने वाले नित्य कक्षा कक्षों में पढ़ाने वाले ही थे । फिर भी प्रश्नों के उत्तर केवल शब्दार्थ को ध्यान में रखकर ही दिये गये हैं । कक्षा कक्ष यह स्थान केवल भौतिक वस्तुओं का संच है, परन्तु विद्यार्थी और शिक्षक यह जीवमान ईकाई है तथा इनके मध्य चलने वाली अध्ययन अध्यापन प्रक्रिया भी जीवन्त ही होती है। अतः इस जीवन्तता को बनाये रखना चाहिए । भौतिक व्यवस्थाओं को हावी नहीं होने देना चाहिए ।
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लगभग सभी उत्तर देने वाले नित्य कक्षा कक्षों में पढ़ाने वाले ही थे । फिर भी प्रश्नों के उत्तर केवल शब्दार्थ को ध्यान में रखकर ही दिये गये हैं । कक्षा कक्ष केवल भौतिक वस्तुओं का संच है, परन्तु विद्यार्थी और शिक्षक यह जीवमान ईकाई है तथा इनके मध्य चलने वाली अध्ययन अध्यापन प्रक्रिया भी जीवन्त ही होती है। अतः इस जीवन्तता को बनाये रखना चाहिए । भौतिक व्यवस्थाओं को हावी नहीं होने देना चाहिए ।
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भवन निर्माण के समय शिक्षकों की कोई भूमिका नहीं रहती, वे तो मात्र इतना चाहते हैं कि सभी व्यवस्थाओं से
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भवन निर्माण के समय शिक्षकों की कोई भूमिका नहीं रहती, वे तो मात्र इतना चाहते हैं कि सभी व्यवस्थाओं से युक्त बना बनाया कक्ष उन्हें मिल जाय। संस्थाचालक ही सभी निर्णय करते हैं। कक्षा का उपस्कर (फर्निचर) भी संस्था चालकों की आर्थिक स्थिति व उनकी पसन्द का ही होता है। बड़े छात्रों के लिए डेस्क व बेंच अथवा टेबल व कुर्सी और छोटे छात्रों के लिए नीचे जमीन पर बैठने की व्यवस्था में शैक्षिक चिन्तन का अभाव ही दिखाई देता है । कम आयु या छोटी कक्षाओं के लिए अलग व्यवस्था तथा बड़ी आयु या बड़ी कक्षाओं के छात्रों के लिए अलग व्यवस्था करने के पीछे कोई तार्किक दृष्टि नहीं है। माध्यमिक कक्षाओं के छात्र भी धार्मिक बैठक व्यवस्था में अच्छा ज्ञानार्जन कर सकते हैं इसका आज्ञान है ।
युक्त बना बनाया कक्ष उन्हें मिल जाय । संस्थाचालक ही सभी निर्णय करते हैं । कक्षा का उपस्कर (फर्निचर) भी संस्था चालकों की आर्थिक स्थिति व उनकी पसन्द का ही होता है । बड़े छात्रों के लिए डेस्क व बेंच अथवा टेबल व कुर्सी और छोटे छात्रों के लिए नीचे जमीन पर बैठने की व्यवस्था में शैक्षिक चिन्तन का अभाव ही दिखाई देता है । कम आयु या छोटी कक्षाओं के लिए अलग व्यवस्था तथा बड़ी आयु या बड़ी कक्षाओं के छात्रों के लिए अलग व्यवस्था करने के पीछे कोई तार्किक दृष्टि नहीं है। माध्यमिक कक्षाओं के छात्र भी धार्मिक बैठक व्यवस्था में अच्छा ज्ञानार्जन कर सकते हैं इसका आज्ञान है ।
      
पर्यावरण सुरक्षा हेतु प्लास्टिक का उपयोग वर्जित करने की बात किसी को भी ध्यान में नहीं आई । स्वच्छता हेतु प्रत्येक कक्षा के लिए स्वतन्त्र पायदान, कचरा पात्र तथा स्वच्छता सम्बन्धी आदतें यथा-चप्पल-जूते कक्षा के बाहर व्यवस्थित रखने की व्यवस्था आदि छोटी छोटी बातों को अब लोग भूलने लगे हैं । और संस्थाएँ विद्यालय की स्वच्छता बड़ी बड़ी सफाई कम्पनियों को ठेके पर दे रही हैं । ठेके पर देने के कारण छात्रों में स्वच्छता व पवित्रता के संस्कार नहीं बन पाते । पहले छात्रों को यह संस्कार दिया जाता था कि यह मेरी कक्षा है, मेरी कक्षा मुझे ज्ञानवान बनाने वाला पवित्र स्थान है, इसे स्वच्छ एवं पवित्र बनाये रखना यह मेरा दायित्व है । स्वच्छता का दायित्व बोध जाग्रत करना ही सच्ची शिक्षा है ।
 
पर्यावरण सुरक्षा हेतु प्लास्टिक का उपयोग वर्जित करने की बात किसी को भी ध्यान में नहीं आई । स्वच्छता हेतु प्रत्येक कक्षा के लिए स्वतन्त्र पायदान, कचरा पात्र तथा स्वच्छता सम्बन्धी आदतें यथा-चप्पल-जूते कक्षा के बाहर व्यवस्थित रखने की व्यवस्था आदि छोटी छोटी बातों को अब लोग भूलने लगे हैं । और संस्थाएँ विद्यालय की स्वच्छता बड़ी बड़ी सफाई कम्पनियों को ठेके पर दे रही हैं । ठेके पर देने के कारण छात्रों में स्वच्छता व पवित्रता के संस्कार नहीं बन पाते । पहले छात्रों को यह संस्कार दिया जाता था कि यह मेरी कक्षा है, मेरी कक्षा मुझे ज्ञानवान बनाने वाला पवित्र स्थान है, इसे स्वच्छ एवं पवित्र बनाये रखना यह मेरा दायित्व है । स्वच्छता का दायित्व बोध जाग्रत करना ही सच्ची शिक्षा है ।
    
==== विमर्श ====
 
==== विमर्श ====
विद्यालयों और महाविद्यालयों का अध्ययन वर्षों में विभाजित की जाने वाली यान्त्रिक प्रक्रिया बन गई है। विद्यार्थी बारह वर्ष तक विद्यालय में पढ़ता है तो वह पहली से बारहवीं कक्षा तक पढता है । महाविद्यालय में पढता है तो वह प्रथम से तृतीय कक्षा तक पढ़ता है । परास्नातक में पढता है तो वह प्रथम और द्वितीय कक्षा में पढ़ता है । एक एक वर्ष को एक एक कक्षा कहा जाता है । एक वर्ष तक विद्यार्थी उसी कक्षा में पढ़ता है । पढने के लिये इसे एक स्थान चाहिये, एक कमरा चाहिये । कमरा ही कक्ष है । उस कक्ष को कक्षाकक्ष कहते हैं। यह अंग्रेजी के शब्द क्लासरूप का हिन्दी अनुवाद है । भारत की लगभग सभी भाषाओं में क्लासरूम का ही अनुवाद चलता है
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विद्यालयों और महाविद्यालयों का अध्ययन वर्षों में विभाजित की जाने वाली यान्त्रिक प्रक्रिया बन गई है। विद्यार्थी बारह वर्ष तक विद्यालय में पढ़ता है तो वह पहली से बारहवीं कक्षा तक पढता है । महाविद्यालय में पढता है तो वह प्रथम से तृतीय कक्षा तक पढ़ता है । परास्नातक में पढता है तो वह प्रथम और द्वितीय कक्षा में पढ़ता है । एक एक वर्ष को एक एक कक्षा कहा जाता है । एक वर्ष तक विद्यार्थी उसी कक्षा में पढ़ता है । पढने के लिये इसे एक स्थान चाहिये, एक कमरा चाहिये । कमरा ही कक्ष है । उस कक्ष को कक्षाकक्ष कहते हैं। यह अंग्रेजी के शब्द क्लासरूप का हिन्दी अनुवाद है । भारत की लगभग सभी भाषाओं में क्लासरूम का ही अनुवाद चलता है ।कक्षाकक्ष के लिये शासन द्वारा नाप निश्चित कर के दिया जाता है । एक कक्षा में विद्यार्थियों की संख्या भी निश्चित की जाती है और उसके अनुपात में कक्षाकक्ष की लम्बाई चौडाई या क्षेत्रफल निश्चित किया जाता है । यह नियम महाविद्यालयों के लिये भी है । इसी प्रकार से प्रयोगशाला आदि का भी आकार प्रकार निश्चित किया जाता है ।
 
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कक्षाकक्ष के लिये शासन द्वारा नाप निश्चित कर के दिया जाता है । एक कक्षा में विद्यार्थियों की संख्या भी निश्चित की जाती है और उसके अनुपात में कक्षाकक्ष की लम्बाई चौडाई या क्षेत्रफल निश्चित किया जाता है । यह नियम महाविद्यालयों के लिये भी है । इसी प्रकार से प्रयोगशाला आदि का भी आकार प्रकार निश्चित किया जाता है ।
      
इन कक्षा कक्षों की रचना और व्यवस्था के विषय में कैसे विचार करना चाहिये इसकी बात करेंगे ।
 
इन कक्षा कक्षों की रचना और व्यवस्था के विषय में कैसे विचार करना चाहिये इसकी बात करेंगे ।
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१. कक्षाकक्ष कक्षा के विद्यार्थियों की संख्या के अनुपात में होना चाहिये । खाली बैठे हों तब भी भीड़ लगें ऐसे तो नहीं होने चाहिये ।
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कक्षाकक्ष कक्षा के विद्यार्थियों की संख्या के अनुपात में होना चाहिये । खाली बैठे हों तब भी भीड़ लगें ऐसे तो नहीं होने चाहिये । कुछ और क्रियाकलाप न करते हों और केवल अध्यापक द्वारा बोला जा रहा सुनते हों तब भी, भूमि पर, कुर्सी पर या बेन्च पर बैठे हों तब भी, सीधी पंक्तियों में या बिना पंक्तियों के बैठे हों तब भी एक दूसरे का स्पर्श न हो इतनी दूरी बनाकर तो बैठना ही चाहिये । बिना स्पर्श किये कुछ हलचल कर सर्के इतना अन्तर भी अपेक्षित है । मध्य में से उठकर जाना हो तब भी बिना स्पर्श किये जा सकें इतनी दूरी चाहिये । कक्ष में बैठे विद्यार्थियों से उचित अन्तर रखकर शिक्षक बैठ सके इतना स्थान होना चाहिये । उचित अन्तर किसे कहते हैं ? विद्यार्थियों के सामने, मध्य में, कुछ ऊँचाई पर बैठकर शिक्षक एक दृष्टिक्षेप में कक्षा के सभी विद्यार्थियों को देख सके इतने अन्तर को समुचित अन्तर कहते हैं ।
 
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कुछ और क्रियाकलाप न करते हों और केवल अध्यापक द्वारा बोला जा रहा सुनते हों तब भी, भूमि पर, कुर्सी पर या बेन्च पर बैठे हों तब भी, सीधी पंक्तियों में या बिना पंक्तियों के बैठे हों तब भी एक दूसरे का स्पर्श न हो इतनी दूरी बनाकर तो बैठना ही चाहिये । बिना स्पर्श किये कुछ हलचल कर सर्के इतना अन्तर भी अपेक्षित है । मध्य में से उठकर जाना हो तब भी बिना स्पर्श किये जा सकें इतनी दूरी चाहिये । कक्ष में बैठे विद्यार्थियों से उचित अन्तर रखकर शिक्षक बैठ सके इतना स्थान होना चाहिये । उचित अन्तर किसे कहते हैं ? विद्यार्थियों के सामने, मध्य में, कुछ ऊँचाई पर बैठकर शिक्षक एक दृष्टिक्षेप में कक्षा के सभी विद्यार्थियों को देख सके इतने अन्तर को समुचित अन्तर कहते हैं ।
      
कक्षा में विद्यार्थियों को केवल एक स्थान पर बैठना ही नहीं होता है। घूमना चलना भी होता है । लिखना पढना होता है, सामग्री लेकर काम करना होता है, एक दूसरे के साथ वार्तालाप करना होता है, गटों में बैठकर चर्चा करनी होती है । तब विभिन्न रचनाओं में बैठ सकें, सामने डेस्क रखकर बैठ सकें, बगल में बस्ता या अन्य सामग्री रख सकें इतना स्थान होना चाहिये । कक्षा में कक्षा पुस्तकालय की पुस्तकें, कक्षा के लिये दैनन्दिन उपयोग की सामग्री, विद्यार्थियों के भोजन के डिब्बे आदि रखने का स्थान होना चाहिये । उसी प्रकार कक्ष के बाहर पादत्राण रखने की व्यवस्था, पानी की व्यवस्था, कचरे का डिब्बा भी होना चाहिये । कचरे का डिब्बा, झाड़ू, फर्निचर पॉंछने का कपडा आदि रखने के लिये स्थान और व्यवस्था चाहिये ।
 
कक्षा में विद्यार्थियों को केवल एक स्थान पर बैठना ही नहीं होता है। घूमना चलना भी होता है । लिखना पढना होता है, सामग्री लेकर काम करना होता है, एक दूसरे के साथ वार्तालाप करना होता है, गटों में बैठकर चर्चा करनी होती है । तब विभिन्न रचनाओं में बैठ सकें, सामने डेस्क रखकर बैठ सकें, बगल में बस्ता या अन्य सामग्री रख सकें इतना स्थान होना चाहिये । कक्षा में कक्षा पुस्तकालय की पुस्तकें, कक्षा के लिये दैनन्दिन उपयोग की सामग्री, विद्यार्थियों के भोजन के डिब्बे आदि रखने का स्थान होना चाहिये । उसी प्रकार कक्ष के बाहर पादत्राण रखने की व्यवस्था, पानी की व्यवस्था, कचरे का डिब्बा भी होना चाहिये । कचरे का डिब्बा, झाड़ू, फर्निचर पॉंछने का कपडा आदि रखने के लिये स्थान और व्यवस्था चाहिये ।
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कक्षाकक्ष की ये तो तान्त्रिक बातें हुईं । कक्षाकक्ष का शैक्षिक अर्थ क्या है ?
 
कक्षाकक्ष की ये तो तान्त्रिक बातें हुईं । कक्षाकक्ष का शैक्षिक अर्थ क्या है ?
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जहाँ शिक्षक और विद्यार्थी बैठकर अध्यापन और अध्ययन करते हों वह कक्षाकक्ष है । यह अध्यापक का घर हो सकता है, मन्दिर का बरामदा हो सकता है या वृक्ष की छाया भी हो सकती है । अध्ययन अध्यापन के तरीके के अनुसार कक्षाकक्ष का स्थान बदल सकता है । कहानी सुनना है, इतिहास पढ़ना है, मिट्टी से काम करना है तो वृक्ष के नीचे, बरामदे में या मैदान में कक्षा लग सकती है। गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर के कक्षाकक्ष वृक्षों के नीचे ही होते थे । प्राचीन ऋषिमुनि वृक्षों के नीचे बैठकर ही पढ़ाते थे ।
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जहाँ शिक्षक और विद्यार्थी बैठकर अध्यापन और अध्ययन करते हों वह कक्षाकक्ष है । यह अध्यापक का घर हो सकता है, मन्दिर का बरामदा हो सकता है या वृक्ष की छाया भी हो सकती है । अध्ययन अध्यापन के तरीके के अनुसार कक्षाकक्ष का स्थान बदल सकता है । कहानी सुनना है, इतिहास पढ़ना है, मिट्टी से काम करना है तो वृक्ष के नीचे, बरामदे में या मैदान में कक्षा लग सकती है। गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर के कक्षाकक्ष वृक्षों के नीचे ही होते थे । प्राचीन ऋषिमुनि वृक्षों के नीचे बैठकर ही पढ़ाते थे।
    
==== विषयानुसार कक्ष रचना ====
 
==== विषयानुसार कक्ष रचना ====
यह तथ्य इस बात की ओर संकेत करता है कि अध्ययन काल का विभाजन वर्ष और कक्षाओं के अनुसार
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यह तथ्य इस बात की ओर संकेत करता है कि अध्ययन काल का विभाजन वर्ष और कक्षाओं के अनुसार नहीं अपितु विषयों और गतिविधियों के अनुसार होना चाहिये और कक्षों की रचना विषयों की आवश्यकताओं का ध्यान रखकर होनी चाहिये। अर्थात् विद्यालय में कक्षाकक्ष नहीं अपितु विषय कक्ष होने चाहिये । समय सारिणी विषयों के अनुसार होनी चाहिये । विद्यार्थियों का विभाजन भी विषयों के अनुसार होना चाहिये।  
नहीं अपितु विषयों और गतिविधियों के अनुसार होना चाहिये और कक्षों की रचना विषयों की आवश्यकताओं का ध्यान रखकर होनी चाहिये।  
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अर्थात् विद्यालय में कक्षाकक्ष नहीं अपितु विषय कक्ष होने चाहिये । समय सारिणी विषयों के अनुसार होनी चाहिये । विद्यार्थियों का विभाजन भी विषयों के अनुसार होना चाहिये।
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विषयकक्ष की अधिक चर्चा स्वतन्त्र रूप से करेंगे परन्तु यहाँ इतना कहना आवश्यक है कि सर्व प्रकार की रचनाओं के लिये यान्त्रिक आग्रह छोड देना चाहिये, मानवीय अर्थात् जीवमानता के अनुकूल रचनायें करनी चाहिये। अध्ययन अध्यापन जिन्दा व्यक्तियों के द्वारा किया जाने वाला जीवमान कार्य है। इसी प्रकार से सारी रचनायें होना अपेक्षित है। धार्मिक शिक्षा की पुनर्रचना में यह भी एक महत्त्वपूर्ण आयाम है।
 
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विषयकक्ष की अधिक चर्चा स्वतन्त्र रूप से करेंगे परन्तु यहाँ इतना कहना आवश्यक है कि सर्व प्रकार की रचनाओं के लिये यान्त्रिक आग्रह छोड देना चाहिये, मानवीय अर्थात् जीवमानता के अनुकूल रचनायें करनी चाहिये।
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अध्ययन अध्यापन जिन्दा व्यक्तियों के द्वारा किया जाने वाला जीवमान कार्य है। इसी प्रकार से सारी रचनायें होना अपेक्षित है।
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धार्मिक शिक्षा की पुनर्रचना में यह भी एक महत्त्वपूर्ण आयाम है।
      
=== विद्यालयों में स्वच्छता ===
 
=== विद्यालयों में स्वच्छता ===
१. स्वच्छता का अर्थ क्या है ?  
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# स्वच्छता का अर्थ क्या है ?
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# स्वच्छता एवं पर्यावरण का सम्बन्ध क्या है ?
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# स्वच्छता एवं स्वास्थ्य का सम्बन्ध क्या है ?
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# विद्यालय की स्वच्छता में किस किस का सहभाग होना चाहिये ?
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# विद्यालय की स्वच्छता में किस प्रकार की सामग्री वर्जित होनी चाहिये ?
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# स्वच्छता एवं पवित्रता का क्या सम्बन्ध है ?
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# स्वच्छता बनाये रखने के लिये कौन कौन से उपाय कर सकते हैं ?
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# स्वच्छता बनाये रखने के लिये सम्बन्धित सभी लोगोंं की मानसिकता, आदतें एवं व्यवहार कैसा होना चाहिये ?
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# आन्तरिक स्वच्छता एवं बाह्य स्वच्छता में क्या अन्तर है ?
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# स्वच्छता का आग्रह कितनी मात्रा में रखना चाहिये?
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२. स्वच्छता एवं पर्यावरण का सम्बन्ध क्या है ?
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==== प्रश्नावली से प्राप्त उत्तर ====
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यह प्रश्नावली संस्थाचालक, शिक्षक, अभिभावक ऐसे तीनों गटों के सहयोग से भरकर प्राप्त हुई है।
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३. स्वच्छता एवं स्वास्थ्य का सम्बन्ध क्या है ?
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प्रश्न १ : स्वच्छता का अर्थ लिखते समय तन की स्वच्छता, मन की स्वच्छता, पर्यावरण की स्वच्छता का विचार एक अभिभावक ने रखा । कुछ लोगोंं ने आसपास का परिसर साफ रखना यह विचार भी रखा।
 
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४. विद्यालय की स्वच्छता में किस किस का सहभाग होना चाहिये ?
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५. विद्यालय की स्वच्छता में किस प्रकार की सामग्री वर्जित होनी चाहिये ?
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६. स्वच्छता एवं पवित्रता का क्या सम्बन्ध है ?
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७. स्वच्छता बनाये रखने के लिये कौन कौन से उपाय कर सकते हैं ?
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८. स्वच्छता बनाये रखने के लिये सम्बन्धित सभी लोगोंं की मानसिकता, आदतें एवं व्यवहार कैसा होना चाहिये ?
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९. आन्तरिक स्वच्छता एवं बाह्य स्वच्छता में क्या अन्तर है ?
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प्रश्न २-३ : स्वच्छता एवं पर्यावरण ये सब एक ही सिक्के के दो पहलू हैं । इसी प्रकार के संक्षिप्त उत्तर स्वच्छता और स्वास्थ्य के विषय में प्राप्त हुए। इनमें विद्यार्थी, अभिभावक, सफाई कर्मचारी इन सबकी सहभागिता अपेक्षित है। पानी के पाउच, बाजारी चीजों के रेपर्स, फूड पेकेट्स के कवर आदि जो गन्दगी फैलाते हैं उन्हें वर्जित करना चाहिए ऐसा सभी चाहते हैं ।
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१०. स्वच्छता का आग्रह कितनी मात्रा में रखना चाहिये?
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प्रश्न ६ के उत्तर में स्वच्छता एवं पवित्रता के परस्पर सम्बन्धों का योग्य उत्तर नहीं मिला ।
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==== प्रश्नावली से प्राप्त उत्तर ====
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प्रश्न ७ में स्वच्छता बनाये रखने के लिए स्थान-स्थान पर 'कचरापात्र' रखें जायें, यह सुझाव मिला।
यह प्रश्नावली संस्थाचालक, शिक्षक, अभिभावक ऐसे तीनों गटों के सहयोग से भरकर प्राप्त हुई है।
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प्रश्न १ : स्वच्छता का अर्थ लिखते समय तन की स्वच्छता, मन की स्वच्छता, पर्यावरण की स्वच्छता का विचार एक अभिभावक ने रखा । कुछ लोगोंं ने आसपास का परिसर साफ रखना यह विचार भी रखा।
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प्रश्न २-३ : स्वच्छता एवं पर्यावरण ये सब एक ही सिक्के के दो पहलू हैं । इसी प्रकार के संक्षिप्त उत्तर स्वच्छता और स्वास्थ्य के विषय में प्राप्त हुए। इनमें विद्यार्थी, अभिभावक, सफाई कर्मचारी इन सबकी सहभागिता अपेक्षित है। पानी के पाउच, बाजारी चीजों के रेपर्स, फूड पेकेट्स के कवर आदि जो गन्दगी फैलाते हैं उन्हें वर्जित करना चाहिए ऐसा सभी चाहते हैं । प्रश्न ६ के उत्तर में स्वच्छता एवं पवित्रता के परस्पर सम्बन्धों का योग्य उत्तर नहीं मिला । प्रश्न ७ में स्वच्छता बनाये रखने के लिए स्थान-स्थान पर 'कचरापात्र' रखें जायें, यह सुझाव मिला। प्र. ८ स्वच्छता का आग्रह शतप्रतिशत होना ही चाहिए ऐसा सर्वानुमत था। गन्दगी फैलाने वाले पर आर्थिक दण्ड और कानूनी कार्यवाही करने की बात भी एक के उत्तर में आई।
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प्र. ८ स्वच्छता का आग्रह शतप्रतिशत होना ही चाहिए ऐसा सर्वानुमत था। गन्दगी फैलाने वाले पर आर्थिक दण्ड और कानूनी कार्यवाही करने की बात भी एक के उत्तर में आई।
    
==== अभिमत : ====
 
==== अभिमत : ====
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स्वच्छता और पवित्रता में भी भिन्नता है । जो-जो पवित्र है वह स्वच्छ है । परन्तु जो जो स्वच्छ है, वह पवित्र होगा ही ऐसा आवश्यक नहीं है । विद्यालय में स्वच्छता बनाये रखने हेतु स्थान स्थान पर कूडादान रखने होंगे। सफाई करने के पर्याप्त साधन झाडू, बाल्टियाँ, पुराने कपड़े आदि विद्यालय में कक्षाशः अलग उपलब्ध होने चाहिए। जिस किसी छात्र या आचार्य को एक छोटा सा तिनका भी दिखाई दे वह तुरन्त उस तिनके को उठाकर कूड़ादान में डाले, ऐसी आदत सबकी बनानी चाहिए। कोई भी खिड़की से कचरा बाहर न फेंके, गन्दगी करने वाले छात्रों के नाम बताने के स्थान पर स्वच्छता रखने वाले छात्रों के नाम बताना उनको गौरवान्वित करना __ अधिक प्रेरणादायी होता है।
 
स्वच्छता और पवित्रता में भी भिन्नता है । जो-जो पवित्र है वह स्वच्छ है । परन्तु जो जो स्वच्छ है, वह पवित्र होगा ही ऐसा आवश्यक नहीं है । विद्यालय में स्वच्छता बनाये रखने हेतु स्थान स्थान पर कूडादान रखने होंगे। सफाई करने के पर्याप्त साधन झाडू, बाल्टियाँ, पुराने कपड़े आदि विद्यालय में कक्षाशः अलग उपलब्ध होने चाहिए। जिस किसी छात्र या आचार्य को एक छोटा सा तिनका भी दिखाई दे वह तुरन्त उस तिनके को उठाकर कूड़ादान में डाले, ऐसी आदत सबकी बनानी चाहिए। कोई भी खिड़की से कचरा बाहर न फेंके, गन्दगी करने वाले छात्रों के नाम बताने के स्थान पर स्वच्छता रखने वाले छात्रों के नाम बताना उनको गौरवान्वित करना __ अधिक प्रेरणादायी होता है।
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अनेक बार बड़े लोग विदेशों में स्वच्छता व भारत में गन्दगी का तुलनात्मक वर्णन बच्चों के सामने ऐसे शब्दों में बताते हैं कि जैसे धार्मिकों को गन्दगी ही पसन्द है, ये स्वच्छता के बारे में कुछ नहीं जानते । जैसे भारत में स्वच्छता को कोई महत्त्व ही नहीं है । ऐसा बोलने से अपने देश के प्रति हीनता बोध ही पनपता है, जो उचित नहीं है । भारत में तो सदैव से ही स्वच्छता का आचरण व व्यवहार रहा है। एक गृहिणी उठते ही सबसे पहले पूरे घर की सफाई करती है । घर के द्वार पर रंगोली बनाती है, पहले पानी छिड़कती है । ऐसी आदतें जिस देश के घर घर में हो भला वह भारत कभी स्वच्छता की अनदेखी कर सकता है ? केवल घर व शरीर की शुद्धि ही नहीं तो चित्त शुद्धि पर परम पद प्राप्त करने की इच्छा जन जन में थी, आज फिर से उसे जगाने की आवश्यकता है।
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अनेक बार बड़े लोग विदेशों में स्वच्छता व भारत में गन्दगी का तुलनात्मक वर्णन बच्चों के सामने ऐसे शब्दों में बताते हैं कि जैसे धार्मिकों को गन्दगी ही पसन्द है, ये स्वच्छता के बारे में कुछ नहीं जानते । जैसे भारत में स्वच्छता को कोई महत्त्व ही नहीं है । ऐसा बोलने से अपने देश के प्रति हीनता बोध ही पनपता है, जो उचित नहीं है। भारत में तो सदैव से ही स्वच्छता का आचरण व व्यवहार रहा है। एक गृहिणी उठते ही सबसे पहले पूरे घर की सफाई करती है । घर के द्वार पर रंगोली बनाती है, पहले पानी छिड़कती है । ऐसी आदतें जिस देश के घर घर में हो भला वह भारत कभी स्वच्छता की अनदेखी कर सकता है ? केवल घर व शरीर की शुद्धि ही नहीं तो चित्त शुद्धि पर परम पद प्राप्त करने की इच्छा जन जन में थी, आज फिर से उसे जगाने की आवश्यकता है।
    
==== स्वच्छता के सम्बन्ध में इस प्रकार विचार करना चाहिये... ====
 
==== स्वच्छता के सम्बन्ध में इस प्रकार विचार करना चाहिये... ====

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