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=== विद्यालय की भौतिक व्यवस्थाएँ एवं वातावरण ===
=== विद्यालय की भौतिक व्यवस्थाएँ एवं वातावरण ===
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==== (१) विद्यालय सरस्वती का पावन मंदिर है ====
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==== विद्यालय सरस्वती का पावन मंदिर है ====
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विद्यालय ईंट और गारे का बना हुआ भवन नहीं है, विद्यालय आध्यात्मिक संगठन है<ref>धार्मिक शिक्षा के व्यावहारिक आयाम (धार्मिक शिक्षा ग्रन्थमाला ३): पर्व ४: अध्याय १३, प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखन एवं संपादन: श्रीमती इंदुमती काटदरे</ref> । विद्यालय पतित्र मन्दिर है, जहाँ विद्या की देवी सरस्वती की निरन्तर आराधना होती है । विद्यालय साधनास्थली है, जहाँ चरित्र का विकास होता है । विद्यालय ज्ञान-विज्ञान, कला और संस्कृति का गतिशील केन्द्र है, जो समाज में जीवनीशक्ति का संचार करता है ।
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विद्यालय ईंट और गारे का बना हुआ भवन नहीं है, विद्यालय आध्यात्मिक संगठन है<ref>धार्मिक शिक्षा के व्यावहारिक आयाम (धार्मिक शिक्षा ग्रन्थमाला ३): पर्व ४: अध्याय १३, प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखन एवं संपादन: श्रीमती इंदुमती काटदरे</ref>। विद्यालय पवित्र मन्दिर है, जहाँ विद्या की देवी सरस्वती की निरन्तर आराधना होती है। विद्यालय साधनास्थली है, जहाँ चरित्र का विकास होता है। विद्यालय ज्ञान-विज्ञान, कला और संस्कृति का गतिशील केन्द्र है, जो समाज में जीवनीशक्ति का संचार करता है।
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==== (२) विद्यालय परिसर प्रकृति की गोद में हो ====
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==== विद्यालय परिसर प्रकृति की गोद में हो ====
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सरस्वती के पावन मंदिर की अवधारणा गुरुकुलों, आश्रमों एवं प्राचीन विश्व विद्यालयों में पुष्पित एवं पट्लवित होती थी । ये विद्याकेन्द्र नगरों से दूर वन में नदी या जलाशय के समीप स्थापित किये जाते थे, जिससे नगरों का कोलाहल और कुप्रभाव छात्रों को प्रभावित न कर सके ।
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सरस्वती के पावन मंदिर की अवधारणा गुरुकुलों, आश्रमों एवं प्राचीन विश्व विद्यालयों में पुष्पित एवं पल्लवित होती थी। ये विद्याकेन्द्र नगरों से दूर वन में नदी या जलाशय के समीप स्थापित किये जाते थे, जिससे नगरों का कोलाहल और कुप्रभाव छात्रों को प्रभावित न कर सके।
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आकाश, अग्नि, वायु, जल तथा मिट्टी इन पंचमहाभूतों से बने जगत को ध्यान पूर्वक देखना तथा उसके महत्त्व को समझना ही वास्तविक शिक्षा है । ऐसी शिक्षा नगरों के अप्राकृतिक वातावरण में स्थित विद्यालयों में नहीं दी जा सकती । अतः हम आदर्श विद्यालय स्थापित करना चाहते हैं तो हमें प्रकृति माता की गोद में खुले आकाश के नीचे, विशाल मैदान में, वृक्षों के मध्य उसका प्रबन्ध करना चाहिये ।
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आकाश, अग्नि, वायु, जल तथा मिट्टी इन पंचमहाभूतों से बने जगत को ध्यान पूर्वक देखना तथा उसके महत्त्व को समझना ही वास्तविक शिक्षा है। ऐसी शिक्षा नगरों के अप्राकृतिक वातावरण में स्थित विद्यालयों में नहीं दी जा सकती। अतः हम आदर्श विद्यालय स्थापित करना चाहते हैं तो हमें प्रकृति माता की गोद में खुले आकाश के नीचे, विशाल मैदान में, वृक्षों के मध्य उसका प्रबन्ध करना चाहिये।
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सांख्यदर्शन के अनुसार, “गुरु अथवा आचार्य को भवन या मठ आदि बनाने के चक्कर में न पड़कर प्रकृति एवं जंगल, नदीतट या समाज का कोई स्थान चुनकर शिक्षण कार्य करना चाहिए । इसी प्रकार योगदर्शन कहता है कि विद्यालय गुरुगृह ही होता था । योग दर्शन के आचार्य शान्त, एकान्त, प्राकृतिक स्थानों पर रहते थे । उनके आश्रम ही विद्यालय कहे जा सकते हैं ।
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सांख्यदर्शन के अनुसार, “गुरु अथवा आचार्य को भवन या मठ आदि बनाने के चक्कर में न पड़कर प्रकृति एवं जंगल, नदीतट या समाज का कोई स्थान चुनकर शिक्षण कार्य करना चाहिए। इसी प्रकार योगदर्शन कहता है कि विद्यालय गुरुगृह ही होता था। योग दर्शन के आचार्य शान्त, एकान्त, प्राकृतिक स्थानों पर रहते थे । उनके आश्रम ही विद्यालय कहे जा सकते हैं ।
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==== (३) चार दीवारी के विद्यालय कल कारखाने हैं ====
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==== चार दीवारी के विद्यालय कल कारखाने हैं ====
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प्रकृति माता की गोद से वंचित और अंग्रेजी दासता
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प्रकृति माता की गोद से वंचित और अंग्रेजी दासता के प्रतीक चार दीवारों के भीतर स्थापित विद्यालयों को शान्तिनिकेतन के जन्मदाता रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने कारखाना कहा है । वे इनका सजीव चित्रण कहते हुए कहते हैं, “हम विद्यालयों को शिक्षा देने का कल या कारखाना समझते हैं । अध्यापक इस कारखाने के पुर्ज हैं । दस बजे घंटा बजाकर कारखाने खुलते हैं । अध्यापकों की जबान रूपी पुर्ज चलने लगते हैं । चार बजे कारखाने बन्द हो जाते हैं । अध्यापक भी पुर्ज रूपी अपनी जबान बन्द कर लेते हैं । उस समय छात्र भी इन पुर्जों की कटी-छटी दो चार पृष्ठों की शिक्षा लेकर अपने-अपने घरों को वापस चले जाते हैं ।'
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के प्रतीक चार दीवारों के भीतर स्थापित विद्यालयों को
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शान्तिनिकेतन के जन्मदाता रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने कारखाना
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कहा है । वे इनका सजीव चित्रण कहते हुए कहते हैं, “हम विद्यालयों को शिक्षा देने का कल या कारखाना समझते हैं । अध्यापक इस कारखाने के पुर्ज हैं । दस बजे घंटा बजाकर कारखाने खुलते हैं । अध्यापकों की जबान रूपी पुर्ज चलने लगते हैं । चार बजे कारखाने बन्द हो जाते हैं । अध्यापक भी पुर्ज रूपी अपनी जबान बन्द कर लेते हैं । उस समय छात्र भी इन पुर्जों की कटी-छटी दो चार पृष्ठों की शिक्षा लेकर अपने-अपने घरों को वापस चले जाते हैं ।'
विदेशों में विद्यालयों और महाविद्यालयों के साथ चलने वाले छात्रावासों की नकल हमारे देश में करने वालों के लिए वे कहते हैं कि इस प्रकार के विद्यालयों को एक प्रकार के पागलखाने, अस्पताल या बन्दीगृह ही समझना चाहिए ।
विदेशों में विद्यालयों और महाविद्यालयों के साथ चलने वाले छात्रावासों की नकल हमारे देश में करने वालों के लिए वे कहते हैं कि इस प्रकार के विद्यालयों को एक प्रकार के पागलखाने, अस्पताल या बन्दीगृह ही समझना चाहिए ।
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रवीन्ट्रनाथजी तो कहते हैं कि “शिक्षा के लिए अब भी हमें जंगलों और वनों की आवश्यकता है । समय के हेर फेर से स्थितियाँ चाहे कितनी ही क्यों न बदल जायें, परन्तु इस गुरुकुल शिक्षा प्रणाली के लाभदायक सिद्ध होने में कदापि तनिक भी अन्तर नहीं पड़ सकता । कारण यह है कि यम नियम मनुष्य के चरित्र के अमर सत्य पर निर्भर हैं ।
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रवीन्द्रनाथजी तो कहते हैं कि “शिक्षा के लिए अब भी हमें जंगलों और वनों की आवश्यकता है । समय के हेर फेर से स्थितियाँ चाहे कितनी ही क्यों न बदल जायें, परन्तु इस गुरुकुल शिक्षा प्रणाली के लाभदायक सिद्ध होने में कदापि तनिक भी अन्तर नहीं पड़ सकता । कारण यह है कि यम नियम मनुष्य के चरित्र के अमर सत्य पर निर्भर हैं ।
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==== (४) विद्यालयीन व्यवस्था शास्त्रानुसार हो ====
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==== विद्यालयीन व्यवस्था शास्त्रानुसार हो ====
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हमारे शास्त्रों ने किसी भी व्यवस्था के प्रमुख
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हमारे शास्त्रों ने किसी भी व्यवस्था के प्रमुख मार्गदर्शक सिद्धान्त बताएँ हैं । व्यवस्था निर्माण करते समय उन सिद्धान्तों का पालन अपेक्षित है :
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मार्गदर्शक सिद्धान्त बताएँ हैं । व्यवस्था निर्माण करते समय
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उन सिद्धान्तों का पालन अपेक्षित है :
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(अ) व्यवस्था व्यक्ति के स्वास्थ्य का पोषण करने
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(अ) व्यवस्था व्यक्ति के स्वास्थ्य का पोषण करने वाली हो ।
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वाली हो ।
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(आ) व्यवस्था पर्यावरण का संरक्षण करने वाली
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(आ) व्यवस्था पर्यावरण का संरक्षण करने वाली हो।
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हो।
(इ) व्यवस्था कम से कम खर्चीली हो ।
(इ) व्यवस्था कम से कम खर्चीली हो ।
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(उ) व्यवस्था सुविधापूर्ण हो ।
(उ) व्यवस्था सुविधापूर्ण हो ।
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आजकल विद्यालयों की स्थापना के समय यूरोप व अमरीका के धनी देशों के कान्वेंट स्कूल हमारे सम्मुख आदर्श होते हैं । उनके मार्गदर्शक सिद्धान्त भिन्न होते हैं, वहाँ सुविधापूर्ण व्यवस्था पर सर्वाधिक बल रहता है । पैसा भले ही अधिकाधिक लगे। किन्तु व्यवस्था आधुनिक उपकरणों से युक्त उच्च स्तर की हो । ऐसे विद्यालयों में भवन, उपस्कर व आधुनिक उपकरणों में ७५ प्रतिशत अनावश्यक वस्तुएँ होती हैं । हम जितनी अधिक
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आजकल विद्यालयों की स्थापना के समय यूरोप व अमरीका के धनी देशों के कान्वेंट स्कूल हमारे सम्मुख आदर्श होते हैं । उनके मार्गदर्शक सिद्धान्त भिन्न होते हैं, वहाँ सुविधापूर्ण व्यवस्था पर सर्वाधिक बल रहता है । पैसा भले ही अधिकाधिक लगे। किन्तु व्यवस्था आधुनिक उपकरणों से युक्त उच्च स्तर की हो । ऐसे विद्यालयों में भवन, उपस्कर व आधुनिक उपकरणों में ७५ प्रतिशत अनावश्यक वस्तुएँ होती हैं । हम जितनी अधिक अनावश्यक वस्तुओं को आवश्यक और अनिवार्य बनाते जायेंगे उतनी ही अधिक हमारी शक्तियाँ व्यर्थ नष्ट होती रहेंगी । यही कारण है कि आज हमारी अधिकांश शक्ति विद्यालय भवन और फर्निचर की व्यवस्था में ही समाप्त हो जाती है । व्यक्ति का स्वास्थ्य और पर्यावरण संरक्षण के सिद्धान्त तो उनके पाठ्यक्रम से बाहर की बातें होती हैं ।
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अनावश्यक वस्तुओं को आवश्यक और अनिवार्य बनाते जायेंगे उतनी ही अधिक हमारी शक्तियाँ व्यर्थ नष्ट होती रहेंगी । यही कारण है कि आज हमारी अधिकांश शक्ति विद्यालय भवन और फर्निचर की व्यवस्था में ही समाप्त हो जाती है । व्यक्ति का स्वास्थ्य और पर्यावरण संरक्षण के सिद्धान्त तो उनके पाठ्यक्रम से बाहर की बातें होती हैं ।
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==== (५) विद्यालयीन व्यवस्था का केन्द्र बिन्दु बालक ====
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==== विद्यालयीन व्यवस्था का केन्द्र बिन्दु बालक ====
हमारे यहाँ विद्यालय बालक को शिक्षित करने का केन्द्र है, अतः विद्यालय का केन्द्र बिन्दु बालक है । उस बालक के लिए जैसी व्यवस्थाएँ होंगी, वैसा ही उसका निर्माण होगा । अत्यधिक सुविधापूर्ण व्यवस्थाएँ बालक को सुविधाभोगी ही बनायेंगी । अगर हम चाहते हैं कि हमारा बालक परिश्रमी हो, तपस्वी हो, साधक हो तथा उसमें तितिक्षा हो अर्थात् सर्दी, गर्मी, वर्षा, भूख- प्यास आदि को सहन करने की क्षमता हो, तो ऐसी व्यवस्था जिसमें उसको अपने हाथ से पानी की गिलास भी नहीं भरता हो तो वह योगी कैसे बनेगा, भोगी अवश्य बन जायेगा । अतः आवश्यक है कि व्यवस्थाएँ विद्यार्थी को केन्द्र में रखकर की जाय ।
हमारे यहाँ विद्यालय बालक को शिक्षित करने का केन्द्र है, अतः विद्यालय का केन्द्र बिन्दु बालक है । उस बालक के लिए जैसी व्यवस्थाएँ होंगी, वैसा ही उसका निर्माण होगा । अत्यधिक सुविधापूर्ण व्यवस्थाएँ बालक को सुविधाभोगी ही बनायेंगी । अगर हम चाहते हैं कि हमारा बालक परिश्रमी हो, तपस्वी हो, साधक हो तथा उसमें तितिक्षा हो अर्थात् सर्दी, गर्मी, वर्षा, भूख- प्यास आदि को सहन करने की क्षमता हो, तो ऐसी व्यवस्था जिसमें उसको अपने हाथ से पानी की गिलास भी नहीं भरता हो तो वह योगी कैसे बनेगा, भोगी अवश्य बन जायेगा । अतः आवश्यक है कि व्यवस्थाएँ विद्यार्थी को केन्द्र में रखकर की जाय ।
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==== (६) विद्यालय भवन निर्माण वास्तुशास्त्र के अनुसार हो ====
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==== विद्यालय भवन निर्माण वास्तुशास्त्र के अनुसार हो ====
वास्तुशास्त्र कहता है कि भवन पूर्व तथा उत्तर में नीचा तथा पश्चिम व दक्षिण में ऊँचा होना चाहिए। मत्स्यपुराण के अनुसार दक्षिण दिशा में ऊँचा भवन मनुष्य की सब कामनाओं को पूर्ण करता है । ये बातें भी ध्यान में रखने योग्य हैं :
वास्तुशास्त्र कहता है कि भवन पूर्व तथा उत्तर में नीचा तथा पश्चिम व दक्षिण में ऊँचा होना चाहिए। मत्स्यपुराण के अनुसार दक्षिण दिशा में ऊँचा भवन मनुष्य की सब कामनाओं को पूर्ण करता है । ये बातें भी ध्यान में रखने योग्य हैं :
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कच्चे की औसत आयु ६५-७० वर्ष फिर भी बैंक कच्चे को मोर्टगेज नहीं करेगा । यह व्यवस्था का दोष है । स्वदेशी तकनीक की उपेक्षा और विदेशी. झुकी हो, प्रकाश बायीं ओर से पीछे तकनीक को प्रात्सहन देने के कारण हमारे कारीगर बेकार होते है और धीरे -धीरे स्वदेशी तकनीक लुप्त होती जाती है।
कच्चे की औसत आयु ६५-७० वर्ष फिर भी बैंक कच्चे को मोर्टगेज नहीं करेगा । यह व्यवस्था का दोष है । स्वदेशी तकनीक की उपेक्षा और विदेशी. झुकी हो, प्रकाश बायीं ओर से पीछे तकनीक को प्रात्सहन देने के कारण हमारे कारीगर बेकार होते है और धीरे -धीरे स्वदेशी तकनीक लुप्त होती जाती है।
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==== (७) कक्षा कक्ष में बैठक व्यवस्था योग के अनुसार हो ====
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==== कक्षा कक्ष में बैठक व्यवस्था योग के अनुसार हो ====
वर्तमान में कक्षा कक्ष में बिना उपस्कर नीचे बैठना गरीबी का सूचक बना दिया गया है। अतः दो तीन वर्ष के बालकों के लिए भी टेबल-कुर्सी अथवा डेस्क और बेंच की व्यवस्था है। भले ही वह उनके ज्ञानार्जन के प्रतिकूल है किन्तु विद्यालय को उच्च स्तर का बताने के लिए फर्नीचर आवश्यक हो गया है।
वर्तमान में कक्षा कक्ष में बिना उपस्कर नीचे बैठना गरीबी का सूचक बना दिया गया है। अतः दो तीन वर्ष के बालकों के लिए भी टेबल-कुर्सी अथवा डेस्क और बेंच की व्यवस्था है। भले ही वह उनके ज्ञानार्जन के प्रतिकूल है किन्तु विद्यालय को उच्च स्तर का बताने के लिए फर्नीचर आवश्यक हो गया है।
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झुकी हो, प्रकाश बायीं ओर से पीछे से आता हो । श्यामपट्ट पूर्व दिशा की दीवार में हो जिससे विद्यार्थी पूर्वाभिमुख बैठ सके। गुरु का स्थान ऊपर व शिष्य का स्थान नीचे होना चाहिए ।
झुकी हो, प्रकाश बायीं ओर से पीछे से आता हो । श्यामपट्ट पूर्व दिशा की दीवार में हो जिससे विद्यार्थी पूर्वाभिमुख बैठ सके। गुरु का स्थान ऊपर व शिष्य का स्थान नीचे होना चाहिए ।
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==== (८) विद्यालय में जल व्यवस्था स्वास्थ्य के अनुकूल हो ====
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==== विद्यालय में जल व्यवस्था स्वास्थ्य के अनुकूल हो ====
आजकल विद्यालयों में जल व्यवस्था का आधार वाटर कूलर बन गये हैं। वाटर कूलर का कोल्ड अथवा चिल्ड पानी बालकों के स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है ।
आजकल विद्यालयों में जल व्यवस्था का आधार वाटर कूलर बन गये हैं। वाटर कूलर का कोल्ड अथवा चिल्ड पानी बालकों के स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है ।
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अतः जल व्यवस्था आधुनिक उपकरणों एवं प्लास्टिक के बर्तनों के स्थान पर मिट्टी के घड़ो में ही करनी चाहिए । विद्यालयों में बहुत अच्छी प्याऊ बनानी चाहिए और वाटर कूलर हटा देने चाहिए ।
अतः जल व्यवस्था आधुनिक उपकरणों एवं प्लास्टिक के बर्तनों के स्थान पर मिट्टी के घड़ो में ही करनी चाहिए । विद्यालयों में बहुत अच्छी प्याऊ बनानी चाहिए और वाटर कूलर हटा देने चाहिए ।
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==== (९) विद्यालय में तापमान नियन्त्रण की प्राकृतिक व्यवस्था हो ====
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==== विद्यालय में तापमान नियन्त्रण की प्राकृतिक व्यवस्था हो ====
विद्यालय भवनों में सबसे बड़ी समस्या तापमान नियन्त्रण की रहती है। आजकल तापमान नियन्त्रित करने के लिए अप्राकृतिक उपकरणों का सहारा लिया जाता है, जैसे पंखें, कूलर, ए.सी. आदि ।
विद्यालय भवनों में सबसे बड़ी समस्या तापमान नियन्त्रण की रहती है। आजकल तापमान नियन्त्रित करने के लिए अप्राकृतिक उपकरणों का सहारा लिया जाता है, जैसे पंखें, कूलर, ए.सी. आदि ।
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===== कुछ प्राकृतिक उपाय इस प्रकार हैं =====
===== कुछ प्राकृतिक उपाय इस प्रकार हैं =====
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१. कमरों की दीवारें अधिक मोटाई की हों । निर्माण में प्रयुक्त सामग्री लोहे-सीमेन्ट के स्थान पर चूना व लकड़ी आदि हो ।
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# कमरों की दीवारें अधिक मोटाई की हों । निर्माण में प्रयुक्त सामग्री लोहे-सीमेन्ट के स्थान पर चूना व लकड़ी आदि हो ।
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# कमरों में हवादान (वेन्टीलेटर) अवश्य बनायें जायें । हवादान आमने-सामने होने से क्रॉस वेन्टीलेशन होता है।
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२. कमरों में हवादान (वेन्टीलेटर) अवश्य बनायें जायें । हवादान आमने-सामने होने से क्रॉस वेन्टीलेशन होता है।
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# दीवारें सूर्य की रोशनी से तपती हों तो दो तीन फीट की दूरी पर मेंहदी की दीवार बनाई जाय ।
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# स्थान-स्थान पर नीम के पेड़ लगाने चाहिए, ताकि उनकी छाया छत को गरम न होने दे ।
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३. दीवारें सूर्य की रोशनी से तपती हों तो दो तीन फीट की दूरी पर मेंहदी की दीवार बनाई जाय ।
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# कमरों की छतें सीधी-सपाट होने से छत पर सूर्य किरणें सीधी और अधिक पड़ती हैं, जिससे छतें बहुत तपती हैं। अतः सपाट छतों के स्थान पर पिरॅमिड आकार की छतें बनाने से वे कम गर्म होती हैं। हमारे गाँवों में झोंपडियों का आकार यही होता है, अतः वे ठंडी रहती हैं।
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४. स्थान-स्थान पर नीम के पेड़ लगाने चाहिए, ताकि उनकी छाया छत को गरम न होने दे ।
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५. कमरों की छतें सीधी-सपाट होने से छत पर सूर्य किरणें सीधी और अधिक पड़ती हैं, जिससे छतें बहुत तपती हैं। अतः सपाट छतों के स्थान पर पिरॅमिड आकार की छतें बनाने से वे कम गर्म होती हैं। हमारे गाँवों में झोंपडियों का आकार यही होता है, अतः वे ठंडी रहती हैं।
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शोध कहते हैं कि सीधी सपाट छत वाले कमरे में रखी खाद्य वस्तु बहुत जल्दी खराब हो जाती है, जबकि पिरामिड आकार वाले कमरे में रखी खाद्य वस्तु अधिक समय तक खराब नहीं होती।
शोध कहते हैं कि सीधी सपाट छत वाले कमरे में रखी खाद्य वस्तु बहुत जल्दी खराब हो जाती है, जबकि पिरामिड आकार वाले कमरे में रखी खाद्य वस्तु अधिक समय तक खराब नहीं होती।
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==== (१०) विद्यालय में ध्वनि व्यवस्था धार्मिक शिल्पशास्त्रानुसार हो ====
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==== विद्यालय में ध्वनि व्यवस्था धार्मिक शिल्पशास्त्रानुसार हो ====
आज के भवनों में निर्माण के समय ध्वनि शास्त्र का विचार नहीं किया जाता । निर्माण पूर्ण होने के पश्चात् उसे ध्वनि रोधी (ड्रीपव झीष) बनाया जाता है। ऐसा करने से समय, शक्ति व आर्थिक व्यय अतिरिक्त लगता है।
आज के भवनों में निर्माण के समय ध्वनि शास्त्र का विचार नहीं किया जाता । निर्माण पूर्ण होने के पश्चात् उसे ध्वनि रोधी (ड्रीपव झीष) बनाया जाता है। ऐसा करने से समय, शक्ति व आर्थिक व्यय अतिरिक्त लगता है।
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आज के विद्यालय भवनों में इसका अभाव होने के कारण कक्षा-कक्षों में आचार्य को माइक का सहारा लेना पड़ता है अथवा चिल्लाना पड़ता है। कुछ भवन तो ऐसे बन जाते हैं जहाँ सदैव बच्चों का हो हल्ला ही गूंजता रहता है मानो वह विद्यालय न होकर मछली बाजार हो । अतः व्यवस्था करते समय ताप नियंत्रण की भाँति ध्वनि नियंत्रण की ओर भी ध्यान देना नितान्त आवश्यक है।
आज के विद्यालय भवनों में इसका अभाव होने के कारण कक्षा-कक्षों में आचार्य को माइक का सहारा लेना पड़ता है अथवा चिल्लाना पड़ता है। कुछ भवन तो ऐसे बन जाते हैं जहाँ सदैव बच्चों का हो हल्ला ही गूंजता रहता है मानो वह विद्यालय न होकर मछली बाजार हो । अतः व्यवस्था करते समय ताप नियंत्रण की भाँति ध्वनि नियंत्रण की ओर भी ध्यान देना नितान्त आवश्यक है।
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==== (११) विद्यालय वेश मौसम के अनुसार हो ====
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==== विद्यालय वेश मौसम के अनुसार हो ====
वेश का सीधा सम्बन्ध व्यक्ति के स्वास्थ्य से है। शरीर रक्षा हेतु वेश होना चाहिए। किन्तु आज प्रमुख बिन्दु हो गया है सुन्दर दिखना अर्थात् फैशन । आज विद्यालयों में वेश का निर्धारण दुकानदार करता है जिसमें उसका व संचालकों का आर्थिक हित जुड़ा रहता है।
वेश का सीधा सम्बन्ध व्यक्ति के स्वास्थ्य से है। शरीर रक्षा हेतु वेश होना चाहिए। किन्तु आज प्रमुख बिन्दु हो गया है सुन्दर दिखना अर्थात् फैशन । आज विद्यालयों में वेश का निर्धारण दुकानदार करता है जिसमें उसका व संचालकों का आर्थिक हित जुड़ा रहता है।
गर्म जलवायु वाले प्रदेश में छोटे-छोटे बच्चों को बूट-मोजों से लेकर टाई से बाँधने की व्यवस्था उनके साथ अन्याय है। अतः वेश सदैव सादा व शरीर रक्षा करने वाला होना चाहिए, अंग्रेज बाबू बनाने वाला नहीं, स्वदेशी भाव जगाने वाला होना चाहिए ।
गर्म जलवायु वाले प्रदेश में छोटे-छोटे बच्चों को बूट-मोजों से लेकर टाई से बाँधने की व्यवस्था उनके साथ अन्याय है। अतः वेश सदैव सादा व शरीर रक्षा करने वाला होना चाहिए, अंग्रेज बाबू बनाने वाला नहीं, स्वदेशी भाव जगाने वाला होना चाहिए ।
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==== (१२) विद्यालय वातावरण संस्कारक्षम हो ====
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==== विद्यालय वातावरण संस्कारक्षम हो ====
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स्वामी विवेकानन्द कहते हैं - “समस्त ज्ञान मनुष्य
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स्वामी विवेकानन्द कहते हैं - “समस्त ज्ञान मनुष्य के अन्तर में स्थित है । आवश्यकता है उसके जागरण के लिए उपयुक्त वातावरण निर्माण करने की ।' यह वातावरण निर्माण करने के लिए आवश्यक है कि विद्यालय घर जैसा होना चाहिए, जिसमें प्रेम, आत्मीयता एवं सद्भाव का वातावरण हो । प्रेम, आत्मीयता और सदूभावना की तसगों से वायुमंडल पवित्र एवं आध्यात्मिक बनता है जो ज्ञान की साधना के लिए आवश्यक है ।
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के अन्तर में स्थित है । आवश्यकता है उसके जागरण के
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लिए उपयुक्त वातावरण निर्माण करने की ।' यह वातावरण
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निर्माण करने के लिए आवश्यक है कि विद्यालय घर जैसा
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होना चाहिए, जिसमें प्रेम, आत्मीयता एवं सद्भाव का
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वातावरण हो । प्रेम, आत्मीयता और सदूभावना की तसगों
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से वायुमंडल पवित्र एवं आध्यात्मिक बनता है जो ज्ञान
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की साधना के लिए आवश्यक है ।
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इसी प्रकार विद्यालय के वातावरण को संस्कारक्षम
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इसी प्रकार विद्यालय के वातावरण को संस्कारक्षम = बनाने के लिए स्वच्छता एवं साज-सज्ञा आवश्यक है । जहाँ स्वच्छता होती है, वहीं पवित्रता का निर्माण होता है ।
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बनाने के लिए स्वच्छता एवं साज-सज्ञा आवश्यक है ।
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जहाँ स्वच्छता होती है, वहीं पवित्रता का निर्माण होता है ।
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प्राचीन विद्यालयों को “गुरुकुल' कहा जाता था |
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प्राचीन विद्यालयों को “गुरुकुल' कहा जाता था । गुरुकुल अर्थात् गुरु का घर, घर के सभी सदस्यों (शिष्यों ) का घर । इसी गृह में निवास करना अतः इस घर पर अधिकार भी था तो घर के प्रति स्वाभाविक कर्तव्य भी थे। कुल का एक विशेष अर्थ भी था । जैसे गोकुल अर्थात् १० हजार गायों वाला घर, कुलपति अर्थात् १० हजार छात्रों का आचार्य आदि । गुरुकुल की इस महत्ता को हमें समझना चाहिए ।
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गुरुकुल अर्थात् गुरु का घर, घर के सभी सदस्यों (शिष्यों )
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का घर । इसी गृह में निवास करना अतः इस घर पर
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अधिकार भी था तो घर के प्रति स्वाभाविक कर्तव्य भी
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थे। कुल का एक विशेष अर्थ भी था । जैसे गोकुल
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अर्थात् १० हजार गायों वाला घर, कुलपति अर्थात् १०
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हजार छात्रों का आचार्य आदि । गुरुकुल की इस महत्ता
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को हमें समझना चाहिए ।
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विद्यालय वातावरण को संस्कारक्षम एवं पवित्र बनाने
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विद्यालय वातावरण को संस्कारक्षम एवं पवित्र बनाने के लिए अधोलिखित बिन्दु भी ध्यान रखने योग्य हैं :
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के लिए अधोलिखित बिन्दु भी ध्यान रखने योग्य हैं :
१. विद्यालय में प्रवेश करते ही माँ सरस्वती एवं भारत माता का मंदिर होना चाहिए । प्रतिदिन की वन्दना यहीं हो।
१. विद्यालय में प्रवेश करते ही माँ सरस्वती एवं भारत माता का मंदिर होना चाहिए । प्रतिदिन की वन्दना यहीं हो।
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२. विद्यालय प्रारम्भ होने से पूर्व, मध्यावकाश में एवं अन्त में मधुर संगीत बजने की व्यवस्था हो । मधुर संगीत के स्वरों से वातावरण में पतरित्रता एवं दिव्यता घुल जाती है |
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२. विद्यालय प्रारम्भ होने से पूर्व, मध्यावकाश में एवं अन्त में मधुर संगीत बजने की व्यवस्था हो । मधुर संगीत के स्वरों से वातावरण में पतरित्रता एवं दिव्यता घुल जाती है ।
३. विद्यालयों में दैनिक यज्ञ सम्भव हो तो बहुत अच्छा अन्यथा उत्सव विशेष पर यज्ञ अवश्य हो । इससे वेद मंत्रों की ध्वनि विद्यालय के वातावरण में गूंजेगी तो सारा वायु मंडल सुगंधित एवं पवित्रता से परिपूर्ण हो जायेगा ।
३. विद्यालयों में दैनिक यज्ञ सम्भव हो तो बहुत अच्छा अन्यथा उत्सव विशेष पर यज्ञ अवश्य हो । इससे वेद मंत्रों की ध्वनि विद्यालय के वातावरण में गूंजेगी तो सारा वायु मंडल सुगंधित एवं पवित्रता से परिपूर्ण हो जायेगा ।
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४. विद्यालय भवन की दीवारें कोरी-रोती हुई न हों, वरन् चित्रों से, सुभाषितों से, जानकारियों से भरी हुईं अर्थात् हँसती हुई होनी चाहिए ।
४. विद्यालय भवन की दीवारें कोरी-रोती हुई न हों, वरन् चित्रों से, सुभाषितों से, जानकारियों से भरी हुईं अर्थात् हँसती हुई होनी चाहिए ।
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निष्कर्ष : विद्यालय की सम्पूर्ण व्यवस्थाएँ एवं वातावरण में धार्मिक संस्कृति एवं आध्यात्मिकता झलकनी
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निष्कर्ष : विद्यालय की सम्पूर्ण व्यवस्थाएँ एवं वातावरण में धार्मिक संस्कृति एवं आध्यात्मिकता झलकनी चाहिए। विद्यालय भवन की वास्तुकला, साज-सज्जा,
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चाहिए । विद्यालय भवन की वास्तुकला, साज-सज्जा,
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शिष्टाचार, भाषा, रीति-नीति, पर्म्पराएँ, छात्रों एवं शिक्षकों की वेशभूषा व्यवहार आदि धार्मिक संस्कृति से ओत-प्रोत चाहिए। वातावरण में छात्र यह अनुभूति करें कि वे महान ऋषियों की सन्तान हैं, उनकी संस्कृति एवं परम्परा महान हैं तथा वे भारतमाता के अमृत पुत्र हैं। वर्तमान में धार्मिक जीवन पर पाश्चात्य भौतिकवादी सभ्यता का प्रभाव बढ़ रहा है। ऐसे में विद्यालय की व्यवस्थाओं और वातावरण से धार्मिक संस्कृति के सहज संस्कार छात्रों को मिलना परम आवश्यक है ।
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शिष्टाचार, भाषा, रीति-नीति, पर्म्पराएँ, छात्रों एवं शिक्षकों
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की वेशभूषा व्यवहार आदि धार्मिक संस्कृति से ओत-प्रोत
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चाहिए । वातावरण में छात्र यह अनुभूति करें कि वे महान
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ऋषियों की सन्तान हैं, उनकी संस्कृति एवं परम्परा महान
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हैं तथा वे भारतमाता के अमृत पुत्र हैं। वर्तमान में
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धार्मिक जीवन पर पाश्चात्य भौतिकवादी सभ्यता का प्रभाव
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बढ़ रहा है। ऐसे में विद्यालय की व्यवस्थाओं और
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वातावरण से धार्मिक संस्कृति के सहज संस्कार छात्रों को
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मिलना परम आवश्यक है ।
=== विद्यालय का भवन ===
=== विद्यालय का भवन ===
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'''१ . विद्यालय का भवन बनाते समय सुविधा की दृष्टि'''
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# विद्यालय का भवन बनाते समय सुविधा की दृष्टि से किन किन बातों का ध्यान रकना चाहिये ?
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से किन किन बातों का ध्यान रकना चाहिये ?
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# विद्यालय के भवन में विद्यालय की शैक्षिक दृष्टि किस प्रकार से प्रतिबिम्बित होती है ?
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# विद्यालय का भवन एवं पर्यावरण
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'''२. विद्यालय के भवन में विद्यालय की शैक्षिक दृष्टि'''
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# विद्यालय का भवन एवं शरीरस्वास्थ्य इन सब बातों का क्या सम्बन्ध हैं ?
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किस प्रकार से प्रतिबिम्बित होती है ?
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# विद्यालय का भवन एवं मनोस्वास्थ्य
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# विद्यालय का भवन एवं संस्कृति
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'''३. विद्यालय का भवन एवं पर्यावरण'''
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# विद्यालय का भवन कम खर्च में एवं अधिक टिकाऊ बने इस दृष्टि से कौन कौन सी बातों का ध्यान रखना चाहिये ?
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# विद्यालय के भवन में वास्तुविज्ञान, भूमिचयन, स्थानचयन आदि का क्या महत्त्व है ?
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'''४. विद्यालय का भवन एवं शरीरस्वास्थ्य इन सब बातों का क्या सम्बन्ध हैं ?'''
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# विद्यालय के भवन की आन्तरिक रचना कैसी होनी चाहिये ?
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# भवन निर्माण में प्रयुक्त सामग्री के विषय में किन बातों का ध्यान रखना चाहिये ?
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'''५. विद्यालय का भवन एवं मनोस्वास्थ्य'''
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'''६. विद्यालय का भवन एवं संस्कृति'''
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'''७. विद्यालय का भवन कम खर्च में एवं अधिक टिकाऊ बने इस दृष्टि से कौन कौन सी बातों का ध्यान रखना चाहिये ?'''
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'''८. विद्यालय के भवन में वास्तुविज्ञान, भूमिचयन, स्थानचयन आदि का क्या महत्त्व है ?'''
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'''९. विद्यालय के भवन की आन्तरिक रचना कैसी होनी चाहिये ?'''
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'''१०. भवन निर्माण में प्रयुक्त सामग्री के विषय में किन बातों का ध्यान रखना चाहिये ?'''
==== प्रश्नावली से प्राप्त उत्तर ====
==== प्रश्नावली से प्राप्त उत्तर ====
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==== अभिमत - ====
==== अभिमत - ====
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लगभग सभी उत्तर देने वाले नित्य कक्षा कक्षों में पढ़ाने वाले ही थे । फिर भी प्रश्नों के उत्तर केवल शब्दार्थ को ध्यान में रखकर ही दिये गये हैं । कक्षा कक्ष यह स्थान केवल भौतिक वस्तुओं का संच है, परन्तु विद्यार्थी और शिक्षक यह जीवमान ईकाई है तथा इनके मध्य चलने वाली अध्ययन अध्यापन प्रक्रिया भी जीवन्त ही होती है। अतः इस जीवन्तता को बनाये रखना चाहिए । भौतिक व्यवस्थाओं को हावी नहीं होने देना चाहिए |
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लगभग सभी उत्तर देने वाले नित्य कक्षा कक्षों में पढ़ाने वाले ही थे । फिर भी प्रश्नों के उत्तर केवल शब्दार्थ को ध्यान में रखकर ही दिये गये हैं । कक्षा कक्ष यह स्थान केवल भौतिक वस्तुओं का संच है, परन्तु विद्यार्थी और शिक्षक यह जीवमान ईकाई है तथा इनके मध्य चलने वाली अध्ययन अध्यापन प्रक्रिया भी जीवन्त ही होती है। अतः इस जीवन्तता को बनाये रखना चाहिए । भौतिक व्यवस्थाओं को हावी नहीं होने देना चाहिए ।
भवन निर्माण के समय शिक्षकों की कोई भूमिका नहीं रहती, वे तो मात्र इतना चाहते हैं कि सभी व्यवस्थाओं से
भवन निर्माण के समय शिक्षकों की कोई भूमिका नहीं रहती, वे तो मात्र इतना चाहते हैं कि सभी व्यवस्थाओं से