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एकदूसरे को समझने की और समन्वय की होगी । इसका परिणाम होगा “वादे वादे जायते तत्त्वबोधः' । परन्तु दूसरा विमर्श होगा भिन्न जीवनदृष्टि रखने वालों के साथ । इसमें अपना मत समझाना, उनके मत का वैश्विक दृष्टि से मूल्यांकन करना. और दोनों पक्षों में सामंजस्य (adjustment) बिठाना महत्वपूर्ण होगा । इस दॄष्टि से हमारे चर्चासत्रों, परिसंवादों , विद्रत्सभाओं, गोष्टियों आदि के स्वरूप और पद्धति के विषय में भी बहुत विचार करने की और परिवर्तन करने की आवश्यकता रहेगी ।
 
एकदूसरे को समझने की और समन्वय की होगी । इसका परिणाम होगा “वादे वादे जायते तत्त्वबोधः' । परन्तु दूसरा विमर्श होगा भिन्न जीवनदृष्टि रखने वालों के साथ । इसमें अपना मत समझाना, उनके मत का वैश्विक दृष्टि से मूल्यांकन करना. और दोनों पक्षों में सामंजस्य (adjustment) बिठाना महत्वपूर्ण होगा । इस दॄष्टि से हमारे चर्चासत्रों, परिसंवादों , विद्रत्सभाओं, गोष्टियों आदि के स्वरूप और पद्धति के विषय में भी बहुत विचार करने की और परिवर्तन करने की आवश्यकता रहेगी ।
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अनुसंधान के संबंध में भी भारतीय पद्धति कुछ और ही रही है। वह स्वाभाविक भी है । जडवादी दृष्टि में पद्धतियों का स्वरूप यांत्रिक ही रहेगा । उसमें डाटा संग्रह, डाटा संग्रह के लिये प्रश्नावलियाँ, प्राप्त या संकलित तथ्यों का भौतिक विज्ञान या अंकशास्त्र की पद्धति से विश्लेषण और परिणामों में एकरूपता का आग्रह - ये सब यांत्रिकता के लक्षण हैं । अनुसंधान के क्षेत्र की भारत की शब्दावली बहुत बडी है। यह क्षेत्र भी बहुत व्यापक रहा है। अनुसंधान का आग्रह भी बहुत रहा है । किसी भी बात के लिये प्रमाण की आवश्यकता अनिवार्य मानी गई है। उदाहरण के लिये इतिहासलेखन का सूत्र है - नामूलं लिख्यते किश्चितू । अर्थात्‌ बिना प्रमाण के कुछ भी नहीं लिखना चाहिये । भगवान शंकराचार्य कहते हैं कि सभी शाख््र मिलकर भी यदि कहते हैं कि अग्नि शीतल है तो भी तुम मत मानो क्यों कि स्पर्शन्द्रियि का अनुभव (अर्थात्‌ प्रत्यक्ष प्रमाण) कहता है कि अग्ि उष्ण है ।
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अनुसंधान के संबंध में भी भारतीय पद्धति कुछ और ही रही है। वह स्वाभाविक भी है । जड़वादी दृष्टि में पद्धतियों का स्वरूप यांत्रिक ही रहेगा । उसमें डाटा संग्रह, डाटा संग्रह के लिये प्रश्नावलियाँ, प्राप्त या संकलित तथ्यों का भौतिक विज्ञान या अंकशास्त्र की पद्धति से विश्लेषण और परिणामों में एकरूपता का आग्रह - ये सब यांत्रिकता के लक्षण हैं । अनुसंधान के क्षेत्र की भारत की शब्दावली बहुत बडी है। यह क्षेत्र भी बहुत व्यापक रहा है। अनुसंधान का आग्रह भी बहुत रहा है । किसी भी बात के लिये प्रमाण की आवश्यकता अनिवार्य मानी गई है। उदाहरण के लिये इतिहासलेखन का सूत्र है - नामूलं लिख्यते किश्चितू । अर्थात्‌ बिना प्रमाण के कुछ भी नहीं लिखना चाहिये । भगवान शंकराचार्य कहते हैं कि सभी शाख््र मिलकर भी यदि कहते हैं कि अग्नि शीतल है तो भी तुम मत मानो क्यों कि स्पर्शन्द्रियि का अनुभव (अर्थात्‌ प्रत्यक्ष प्रमाण) कहता है कि अग्ि उष्ण है ।
    
परन्तु साथ ही प्रामाण्यता की भी श्रेणियाँ हैं । किसी एक स्तर पर इन्ट्रियाँ प्रमाण हैं, तो कहीं बुद्धिप्रामाण्य की प्रतिष्ठा है । आप्त प्रमाण भी अत्यंत प्रतिष्ठा प्राप्त है और अपरोक्षानुभूति सर्वश्रेष्ठ प्रमाण है । अभिज्ञान शाकुन्तल में दुष्यन्त के मुख से कालिदास कहते हैं -
 
परन्तु साथ ही प्रामाण्यता की भी श्रेणियाँ हैं । किसी एक स्तर पर इन्ट्रियाँ प्रमाण हैं, तो कहीं बुद्धिप्रामाण्य की प्रतिष्ठा है । आप्त प्रमाण भी अत्यंत प्रतिष्ठा प्राप्त है और अपरोक्षानुभूति सर्वश्रेष्ठ प्रमाण है । अभिज्ञान शाकुन्तल में दुष्यन्त के मुख से कालिदास कहते हैं -
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अर्थात्‌ सच्चाई के विषय में जहां सन्देह पैदा हो ऐसी बातों में सज्जनों के लिये अन्तःकरण की वृत्तियाँ ही प्रमाण हैं।
 
अर्थात्‌ सच्चाई के विषय में जहां सन्देह पैदा हो ऐसी बातों में सज्जनों के लिये अन्तःकरण की वृत्तियाँ ही प्रमाण हैं।
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प्रमाणीकरण की यह पद्धति चेतनवादी जीवनदृष्टि की पद्धति है । जडवादी पद्धति इसे समझ भी नहीं सकती और मान्य भी नहीं कर सकती । अतः फिरसे हमारे समक्ष प्रश्न आता है कि हमें कौनसा प्रतिमान स्वीकार्य है - जडवादी या चेतनवादी ?
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प्रमाणीकरण की यह पद्धति चेतनवादी जीवनदृष्टि की पद्धति है । जड़वादी पद्धति इसे समझ भी नहीं सकती और मान्य भी नहीं कर सकती । अतः फिरसे हमारे समक्ष प्रश्न आता है कि हमें कौनसा प्रतिमान स्वीकार्य है - जड़वादी या चेतनवादी ?
    
अध्ययन अनुसंधान के क्षेत्र में दोनों प्रतिमानों को मिलाने से भी काम नहीं बनता । स्पष्टता, निश्चितता और समग्रता तो चाहिये ही । इस दृष्टि से शब्द, अर्थ, व्याप्त, सन्दर्भ, आधार आदि में सुसूत्रता की आवश्यकता रहेगी ।
 
अध्ययन अनुसंधान के क्षेत्र में दोनों प्रतिमानों को मिलाने से भी काम नहीं बनता । स्पष्टता, निश्चितता और समग्रता तो चाहिये ही । इस दृष्टि से शब्द, अर्थ, व्याप्त, सन्दर्भ, आधार आदि में सुसूत्रता की आवश्यकता रहेगी ।
    
अभी तो चर्चा की यह शुरुआत है । इस चर्चा का व्याप बढ़ना चाहिये । इस पत्रिका को देशभर के विद्रज्जनो एवं चिन्तकों तक पहुँचाने का प्रयास इसी उद्देश्य को लेकर हो रहा है कि स्थान स्थान पर चर्चा और विमर्श हों तथा शिक्षा के भारतीय प्रतिमान को निखारा जाय और प्रतिष्ठित किया जाय ।
 
अभी तो चर्चा की यह शुरुआत है । इस चर्चा का व्याप बढ़ना चाहिये । इस पत्रिका को देशभर के विद्रज्जनो एवं चिन्तकों तक पहुँचाने का प्रयास इसी उद्देश्य को लेकर हो रहा है कि स्थान स्थान पर चर्चा और विमर्श हों तथा शिक्षा के भारतीय प्रतिमान को निखारा जाय और प्रतिष्ठित किया जाय ।

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