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अर्थात्‌ उसे केवल 'पढाना' ही है, और कुछ नहीं करना है ।
 
अर्थात्‌ उसे केवल 'पढाना' ही है, और कुछ नहीं करना है ।
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==== जड की नहीं चेतन की प्रतिष्ठा हो ====
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==== जड़ की नहीं चेतन की प्रतिष्ठा हो ====
परन्तु वह केवल उसका दोष नहीं है । दो सौ वर्षों में भारत में जीवनव्यवस्था में जो परिवर्तन हुआ है उसका सबसे अधिक विनाशक परिणामकारी पहलू यह है कि हमने मनुष्य के स्थान पर उत्पादन के क्षेत्र में यन्त्र को और व्यवस्था के क्षेत्र में तन्त्र को प्रतिष्ठित कर दिया । दोनों निर्मनुष्य हैं । इसका अर्थ यह है कि मनुष्य के अन्तःकरण के जो गुण होते हैं वे यन्त्र में और तन्त्र में दिखाई नहीं देते, अर्थात्‌ ये दोनों दया, करुणा, अनुकम्पा, समझ, विवेक आदि से संचालित नहीं हो सकते । यहाँ देशकाल परिस्थिति के अनुसार नहीं चला जाता है, 'नियम' से चला जाता है । दोनों जड हैं और चेतन मनुष्य को नियमन और नियन्त्रण में रखते हैं । स्वाधीनता से पूर्व, अंग्रेजों का नियन्त्रण था, अब तन्त्र और यन्त्र का है । पराधीनता आज भी है ।
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परन्तु वह केवल उसका दोष नहीं है । दो सौ वर्षों में भारत में जीवनव्यवस्था में जो परिवर्तन हुआ है उसका सबसे अधिक विनाशक परिणामकारी पहलू यह है कि हमने मनुष्य के स्थान पर उत्पादन के क्षेत्र में यन्त्र को और व्यवस्था के क्षेत्र में तन्त्र को प्रतिष्ठित कर दिया । दोनों निर्मनुष्य हैं । इसका अर्थ यह है कि मनुष्य के अन्तःकरण के जो गुण होते हैं वे यन्त्र में और तन्त्र में दिखाई नहीं देते, अर्थात्‌ ये दोनों दया, करुणा, अनुकम्पा, समझ, विवेक आदि से संचालित नहीं हो सकते । यहाँ देशकाल परिस्थिति के अनुसार नहीं चला जाता है, 'नियम' से चला जाता है । दोनों जड़ हैं और चेतन मनुष्य को नियमन और नियन्त्रण में रखते हैं । स्वाधीनता से पूर्व, अंग्रेजों का नियन्त्रण था, अब तन्त्र और यन्त्र का है । पराधीनता आज भी है ।
    
इस तन्त्र ने केवल शिक्षा को ही नहीं, जीवन के सभी पहलुओं का ग्रास कर लिया है । इसके चलते आज जो सबसे बडी कठिनाई पैदा हुई है वह यह है कि मनुष्य. का मन मर गया है, बुद्धि दब गई है । न उसे पराधीनता से मुक्त होने की इच्छा है, न उसे मुक्त कैसे हुआ जा सकता है इसकी समझ है । उसने सब कुछ स्वीकार कर लिया है ।
 
इस तन्त्र ने केवल शिक्षा को ही नहीं, जीवन के सभी पहलुओं का ग्रास कर लिया है । इसके चलते आज जो सबसे बडी कठिनाई पैदा हुई है वह यह है कि मनुष्य. का मन मर गया है, बुद्धि दब गई है । न उसे पराधीनता से मुक्त होने की इच्छा है, न उसे मुक्त कैसे हुआ जा सकता है इसकी समझ है । उसने सब कुछ स्वीकार कर लिया है ।
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उपचार तो इस मूल रोग का करना है अर्थात्‌ जड के स्थान पर चेतन की प्रतिष्ठा करना है ।  
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उपचार तो इस मूल रोग का करना है अर्थात्‌ जड़ के स्थान पर चेतन की प्रतिष्ठा करना है ।  
    
धार्मिक शिक्षा को यदि पुन:प्रतिष्ठित करना है तो शिक्षक को प्रतिष्ठित करना होगा। उसे प्रतिष्ठित करने हेतु उसके मन को पुनर्जीवित करना होगा और बुद्धि को सक्रिय करना होगा । उसके मन और बुद्धि, काम करने लगेंगे तो शेष सारी व्यवस्थाओं में भी परिवर्तन आयेगा ।
 
धार्मिक शिक्षा को यदि पुन:प्रतिष्ठित करना है तो शिक्षक को प्रतिष्ठित करना होगा। उसे प्रतिष्ठित करने हेतु उसके मन को पुनर्जीवित करना होगा और बुद्धि को सक्रिय करना होगा । उसके मन और बुद्धि, काम करने लगेंगे तो शेष सारी व्यवस्थाओं में भी परिवर्तन आयेगा ।
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==== शिक्षक प्रबोधन के बिन्दु व चरण ====
 
==== शिक्षक प्रबोधन के बिन्दु व चरण ====
मरे हुए मन को जीवन्त बनाने का काम कठिन है । अपमान, अवहेलना, उपेक्षा, निर्धनता, आत्मग्लानि आदि भावों ने उसे जकड लिया है । आज उसके व्यवहार में जडता, निष्ठा का अभाव, काम की उपेक्षा, बेपरवाही, स्वार्थ, लालच, बिकाऊपन दिखाई देता है परन्तु इस व्यवहार के पीछे उसकी पूर्व में बताई ऐसी मानसिकता है ।
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मरे हुए मन को जीवन्त बनाने का काम कठिन है । अपमान, अवहेलना, उपेक्षा, निर्धनता, आत्मग्लानि आदि भावों ने उसे जकड लिया है । आज उसके व्यवहार में जड़ता, निष्ठा का अभाव, काम की उपेक्षा, बेपरवाही, स्वार्थ, लालच, बिकाऊपन दिखाई देता है परन्तु इस व्यवहार के पीछे उसकी पूर्व में बताई ऐसी मानसिकता है ।
    
अतः शिक्षक प्रबोधन के कुछ बिन्दु और चरण इस प्रकार होंगे
 
अतः शिक्षक प्रबोधन के कुछ बिन्दु और चरण इस प्रकार होंगे
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# स्वतन्त्र बनना तो कोई भी चाहेगा परन्तु स्वतन्त्रता के साथ जो दायित्व होता है वह कोई नहीं चाहता । प्रबोधन का दूसरा मुद्दा दायित्व का भी है । शिक्षा को ठीक करने का दायित्व शिक्षक का है। पूर्व उदाहरण भी हैं, परम्परा भी है और तर्क भी इसी बात को कहता है ।
 
# स्वतन्त्र बनना तो कोई भी चाहेगा परन्तु स्वतन्त्रता के साथ जो दायित्व होता है वह कोई नहीं चाहता । प्रबोधन का दूसरा मुद्दा दायित्व का भी है । शिक्षा को ठीक करने का दायित्व शिक्षक का है। पूर्व उदाहरण भी हैं, परम्परा भी है और तर्क भी इसी बात को कहता है ।
 
# "अपना घर है और हमें उसे चलाना है " ऐसा मानने में स्वतन्त्रता है जहाँ अधिकार भी है और दायित्व भी। घर में काम करने के लिये आनेवाला न अधिकारपूर्वक काम करता है न दायित्वबोध से । घर उसका नहीं है । वेतन देने वाले और वेतन लेने वाले दोनों यह बात समझते हैं । शिक्षाक्षेत्र में आज यही स्थिति हुई है। और भी बढकर, क्योंकि इसमें तो शिक्षा वेतन देनेवाले की भी नहीं है ।
 
# "अपना घर है और हमें उसे चलाना है " ऐसा मानने में स्वतन्त्रता है जहाँ अधिकार भी है और दायित्व भी। घर में काम करने के लिये आनेवाला न अधिकारपूर्वक काम करता है न दायित्वबोध से । घर उसका नहीं है । वेतन देने वाले और वेतन लेने वाले दोनों यह बात समझते हैं । शिक्षाक्षेत्र में आज यही स्थिति हुई है। और भी बढकर, क्योंकि इसमें तो शिक्षा वेतन देनेवाले की भी नहीं है ।
# व्यवस्थातन्त्र स्वभाव से ही जड होता है । उसने शिक्षा को भी जड बना दिया है । शिक्षक से अपेक्षा है कि वह शिक्षा को जडता और जडतन्त्र से मुक्त करे ।
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# व्यवस्थातन्त्र स्वभाव से ही जड़ होता है । उसने शिक्षा को भी जड़ बना दिया है । शिक्षक से अपेक्षा है कि वह शिक्षा को जड़ता और जड़तन्त्र से मुक्त करे ।
 
# अर्थनिष्ठ समाज में ज्ञान, संस्कार, चरित्र, भावना आदि की कोई प्रतिष्ठा नहीं होती । वहाँ वेतन देनेवाला सम्माननीय होता है, वेतन लेनेवाला नौकर माना जाता है, फिर वह चाहे शिक्षक हो, पूजारी हो, उपदेशक हो, धर्माचार्य हो, स्वजन हो या पिता हो | इस स्थिति से मुक्त वेतन लेने वाले को करना होता है । उसमें मुक्त होने की चाह निर्माण किये बिना उसे मुक्त करना सम्भव नहीं है ।
 
# अर्थनिष्ठ समाज में ज्ञान, संस्कार, चरित्र, भावना आदि की कोई प्रतिष्ठा नहीं होती । वहाँ वेतन देनेवाला सम्माननीय होता है, वेतन लेनेवाला नौकर माना जाता है, फिर वह चाहे शिक्षक हो, पूजारी हो, उपदेशक हो, धर्माचार्य हो, स्वजन हो या पिता हो | इस स्थिति से मुक्त वेतन लेने वाले को करना होता है । उसमें मुक्त होने की चाह निर्माण किये बिना उसे मुक्त करना सम्भव नहीं है ।
 
# शिक्षा को और शिक्षक को स्वतन्त्र होना चाहिये यह तो ठीक है परन्तु कोई भी शिक्षक आज अपनी नौकरी कैसे छोड सकता है ? उसे भी तो अपने परिवार का पोषण करना है । समाज उसकी कदर तो करनेवाला नहीं है । आज बडी मुश्किल से शिक्षक का वेतन कुछ ठीक हुआ है। अब उसे नौकरी छोडकर स्वतन्त्र होने को कहना तो उसे भूखों मारना है । यह कैसे सम्भव है ? ऐसा ही कहते रहने से तो प्रश्न का कोई हल हो ही नहीं सकता है ।
 
# शिक्षा को और शिक्षक को स्वतन्त्र होना चाहिये यह तो ठीक है परन्तु कोई भी शिक्षक आज अपनी नौकरी कैसे छोड सकता है ? उसे भी तो अपने परिवार का पोषण करना है । समाज उसकी कदर तो करनेवाला नहीं है । आज बडी मुश्किल से शिक्षक का वेतन कुछ ठीक हुआ है। अब उसे नौकरी छोडकर स्वतन्त्र होने को कहना तो उसे भूखों मारना है । यह कैसे सम्भव है ? ऐसा ही कहते रहने से तो प्रश्न का कोई हल हो ही नहीं सकता है ।
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# क्या यह सम्भव है कि देश के हर राज्य में एक ऐसा शोध संस्थान हो जहाँ अध्ययन, अनुसंधान और पाठ्यक्रम निर्माण का कार्य शिक्षक अपनी जिम्मेदारी पर करते हों ? इसमें वेतन की कोई व्यवस्था न हो, समाज के सहयोग से ही सबकुछ चलता हो । इसमें जुडनेवालों के निर्वाह की व्यवस्था स्वतन्त्र रूप से ही की जाय और स्वयं शिक्षक ही करें यह आवश्यक है क्योंकि मूल बात शिक्षक के स्वनिर्भर होने की है ।
 
# क्या यह सम्भव है कि देश के हर राज्य में एक ऐसा शोध संस्थान हो जहाँ अध्ययन, अनुसंधान और पाठ्यक्रम निर्माण का कार्य शिक्षक अपनी जिम्मेदारी पर करते हों ? इसमें वेतन की कोई व्यवस्था न हो, समाज के सहयोग से ही सबकुछ चलता हो । इसमें जुडनेवालों के निर्वाह की व्यवस्था स्वतन्त्र रूप से ही की जाय और स्वयं शिक्षक ही करें यह आवश्यक है क्योंकि मूल बात शिक्षक के स्वनिर्भर होने की है ।
 
# आज भी देश में ऐसे लोग हैं जो स्वयंप्रेरणा से शिक्षा की इस प्रकार से सेवा कर रहे हैं । ऐसे लोगोंं की संख्या दस हजार में एक अवश्य होगी । परन्तु वे केवल व्यक्तिगत स्तर पर काम करते हैं । इनकी बहुत प्रसिद्धि भी नहीं होती । जो उन्हें जानता है वह उनकी प्रशंसा करता है परन्तु उनका शिक्षातन्त्र में परिवर्तन हो सके ऐसा प्रभाव नहीं है । इन्हें एक सूत्र में बाँधने हेतु प्रेरित किया जाना चाहिये । इनके प्रयासों को “भारत में शिक्षा को धार्मिक बनाओ' सूत्र का अधिष्ठान दिया जा सकता है । इनके प्रयासों की जानकारी समाज को दी जा सकती है ।
 
# आज भी देश में ऐसे लोग हैं जो स्वयंप्रेरणा से शिक्षा की इस प्रकार से सेवा कर रहे हैं । ऐसे लोगोंं की संख्या दस हजार में एक अवश्य होगी । परन्तु वे केवल व्यक्तिगत स्तर पर काम करते हैं । इनकी बहुत प्रसिद्धि भी नहीं होती । जो उन्हें जानता है वह उनकी प्रशंसा करता है परन्तु उनका शिक्षातन्त्र में परिवर्तन हो सके ऐसा प्रभाव नहीं है । इन्हें एक सूत्र में बाँधने हेतु प्रेरित किया जाना चाहिये । इनके प्रयासों को “भारत में शिक्षा को धार्मिक बनाओ' सूत्र का अधिष्ठान दिया जा सकता है । इनके प्रयासों की जानकारी समाज को दी जा सकती है ।
# शिक्षा मुक्त होनी चाहिय ऐसा जिनको भी लगता है उन्होंने स्वयं से शुरुआत करनी चाहिये । साथ ही अन्य शिक्षकों को मुक्त होने के लिये आवाहन करना चाहिये । जिस प्रकार स्वराज्य का बलिदान देकर सुराज्य नहीं हो सकता उसी प्रकार जडतन्त्र के अधीन रहकर धार्मिक शिक्षा सम्भव नहीं है । इसी एक बात को समझाने में सबसे अधिक शक्ति खर्च करनी होगी । आज यही करने का प्रयास हो रहा है ।
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# शिक्षा मुक्त होनी चाहिय ऐसा जिनको भी लगता है उन्होंने स्वयं से शुरुआत करनी चाहिये । साथ ही अन्य शिक्षकों को मुक्त होने के लिये आवाहन करना चाहिये । जिस प्रकार स्वराज्य का बलिदान देकर सुराज्य नहीं हो सकता उसी प्रकार जड़तन्त्र के अधीन रहकर धार्मिक शिक्षा सम्भव नहीं है । इसी एक बात को समझाने में सबसे अधिक शक्ति खर्च करनी होगी । आज यही करने का प्रयास हो रहा है ।
 
शिक्षक प्रबोधन का विषय सर्वाधिक महत्त्व रखता है । इसको सही पटरी पर लाये बिना और कुछ भी कैसे हो सकता है ? सबको मिलकर इस बात के लिये प्रयास करने की आवश्यकता है ।
 
शिक्षक प्रबोधन का विषय सर्वाधिक महत्त्व रखता है । इसको सही पटरी पर लाये बिना और कुछ भी कैसे हो सकता है ? सबको मिलकर इस बात के लिये प्रयास करने की आवश्यकता है ।
  

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