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| ==== अर्थ द्वारा संचालित तंत्र ==== | | ==== अर्थ द्वारा संचालित तंत्र ==== |
− | आज सारा विपरीत चित्र दिखाई देता है, इसका मूल कारण आज का बाजारीकरण है । बाजारीकरण का भी मूल कारण हमारी बदली हुई जीवनदृष्टि है। यह जीवनदृष्टि हमारे ऊपर शिक्षा के माध्यम से अंग्रेजों द्वारा थोपी गई है। यह आसुरी जीवनदृष्टि है । इस दृष्टि के अनुसार हमें सारा जगत जड़ दिखाई देता है और कामनाओं की पूर्ति के लिये ही बना है, ऐसा लगता है। भौतिक जगत में सब कुछ जड़ पदार्थ ही माना जाता है। जब कामनाओं की पूर्ति ही मुख्य हेतु होता है, तब कामनाओं की पूर्ति के लिये अर्थ ही मुख्य हो जाता है। काम और अर्थ सारी व्यवस्थाओं का संचालन करने लगते हैं। आज वही तो हो रहा है। ज्ञान को भी जड़ पदार्थ माना जाता है और उसे अर्थ से ही नापा जाता है । ज्ञान को जड़ पदार्थ मानकर कामनाओं की पूर्ति हेतु उसका उपयोग करने के लिए सारी व्यवस्था बिठाई जाती है । इसलिये शिक्षा का सारा तन्त्र अर्थ द्वारा संचालित बन गया है। इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं है। हमारे सारे तन्त्र धर्म द्वारा संचालित होते थे, तब जो रचना थी वह अर्थ के द्वारा संचालित होने के कारण से बदल गई है। अब अध्ययन ज्ञानार्जन के लिये नहीं अपितु अर्थार्जन के लिये होता है। जिनमें अर्थार्जन की सम्भावनायें अधिक होती हैं उन विद्याओं के लिये शुल्क अधिक देना पड़ता है। जिनमें अर्थार्जन की सम्भावनायें कम होती हैं उन विद्याओं का शुल्क कम होता है, अतः उन्हें कोई पढ़ना भी नहीं चाहता है । यह मूल कारण बीज के समान है, जिसका वृक्ष भौतिक स्वरूप के ही फल देने वाला होता हैं। इससे सारे व्यवहार, सारी व्यवस्थायें, सारी भावनायें अर्थ प्रधान हो जाती हैं। इसलिये हमें वर्तमान जीवनदृष्टि में ही परिवर्तन करना होगा। वह एक काम करेंगे तो सारी बातें बदल जायेंगी। यह कार्य शिक्षा से ही हो सकता है । | + | आज सारा विपरीत चित्र दिखाई देता है, इसका मूल कारण आज का बाजारीकरण है । बाजारीकरण का भी मूल कारण हमारी बदली हुई जीवनदृष्टि है। यह जीवनदृष्टि हमारे ऊपर शिक्षा के माध्यम से अंग्रेजों द्वारा थोपी गई है। यह आसुरी जीवनदृष्टि है । इस दृष्टि के अनुसार हमें सारा जगत जड़़ दिखाई देता है और कामनाओं की पूर्ति के लिये ही बना है, ऐसा लगता है। भौतिक जगत में सब कुछ जड़़ पदार्थ ही माना जाता है। जब कामनाओं की पूर्ति ही मुख्य हेतु होता है, तब कामनाओं की पूर्ति के लिये अर्थ ही मुख्य हो जाता है। काम और अर्थ सारी व्यवस्थाओं का संचालन करने लगते हैं। आज वही तो हो रहा है। ज्ञान को भी जड़़ पदार्थ माना जाता है और उसे अर्थ से ही नापा जाता है । ज्ञान को जड़़ पदार्थ मानकर कामनाओं की पूर्ति हेतु उसका उपयोग करने के लिए सारी व्यवस्था बिठाई जाती है । इसलिये शिक्षा का सारा तन्त्र अर्थ द्वारा संचालित बन गया है। इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं है। हमारे सारे तन्त्र धर्म द्वारा संचालित होते थे, तब जो रचना थी वह अर्थ के द्वारा संचालित होने के कारण से बदल गई है। अब अध्ययन ज्ञानार्जन के लिये नहीं अपितु अर्थार्जन के लिये होता है। जिनमें अर्थार्जन की सम्भावनायें अधिक होती हैं उन विद्याओं के लिये शुल्क अधिक देना पड़ता है। जिनमें अर्थार्जन की सम्भावनायें कम होती हैं उन विद्याओं का शुल्क कम होता है, अतः उन्हें कोई पढ़ना भी नहीं चाहता है । यह मूल कारण बीज के समान है, जिसका वृक्ष भौतिक स्वरूप के ही फल देने वाला होता हैं। इससे सारे व्यवहार, सारी व्यवस्थायें, सारी भावनायें अर्थ प्रधान हो जाती हैं। इसलिये हमें वर्तमान जीवनदृष्टि में ही परिवर्तन करना होगा। वह एक काम करेंगे तो सारी बातें बदल जायेंगी। यह कार्य शिक्षा से ही हो सकता है । |
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− | जड़वादी, कामकेन्द्री, अर्थप्रधान जीवनदृष्टि से ही सारी समस्यायें निर्माण हुई हैं, और इस समस्या का निराकरण शिक्षा से होगा, यह भी सत्य है। परन्तु यह तो एक ऐसा चक्र हुआ जो अनन्त काल तक भेदा नहीं जायेगा। शिक्षा अर्थ प्रधान है इसलिये वह समस्या का समाधान नहीं कर सकती और अर्थ प्रधान जीवनदृष्टि शिक्षा को बदल नहीं सकती। हमारे सामने प्रश्न है कि हम जीवनदृष्टि में परिवर्तन करें कि शिक्षा में ? कहीं से तो प्रारम्भ करना होगा। हमें जीवनदृष्टि में परिवर्तन करने के स्थान पर शिक्षा में परिवर्तन के साथ ही प्रारम्भ करना होगा । शिक्षा ही सम्यक जीवनदृष्टि देगी।
| + | जड़़वादी, कामकेन्द्री, अर्थप्रधान जीवनदृष्टि से ही सारी समस्यायें निर्माण हुई हैं, और इस समस्या का निराकरण शिक्षा से होगा, यह भी सत्य है। परन्तु यह तो एक ऐसा चक्र हुआ जो अनन्त काल तक भेदा नहीं जायेगा। शिक्षा अर्थ प्रधान है इसलिये वह समस्या का समाधान नहीं कर सकती और अर्थ प्रधान जीवनदृष्टि शिक्षा को बदल नहीं सकती। हमारे सामने प्रश्न है कि हम जीवनदृष्टि में परिवर्तन करें कि शिक्षा में ? कहीं से तो प्रारम्भ करना होगा। हमें जीवनदृष्टि में परिवर्तन करने के स्थान पर शिक्षा में परिवर्तन के साथ ही प्रारम्भ करना होगा । शिक्षा ही सम्यक जीवनदृष्टि देगी। |
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| कोई भी काम करने से होता है। शिक्षा को अर्थ निरपेक्ष बनाने के लिये भी हमें प्रयोग करने की योजना बनानी होगी। हमें ऐसे विद्यालय आरम्भ करने होंगे जो शिक्षा का शुल्क न लेते हों। साथ ही इन विद्यालयों में अर्थ निरपेक्ष शिक्षा की संकल्पना भी सिखानी होगी। ऐसा नहीं किया तो स्थिति में कोई परिवर्तन नहीं होगा। | | कोई भी काम करने से होता है। शिक्षा को अर्थ निरपेक्ष बनाने के लिये भी हमें प्रयोग करने की योजना बनानी होगी। हमें ऐसे विद्यालय आरम्भ करने होंगे जो शिक्षा का शुल्क न लेते हों। साथ ही इन विद्यालयों में अर्थ निरपेक्ष शिक्षा की संकल्पना भी सिखानी होगी। ऐसा नहीं किया तो स्थिति में कोई परिवर्तन नहीं होगा। |
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| ==== शिक्षा का रमणीयवृक्ष ==== | | ==== शिक्षा का रमणीयवृक्ष ==== |
| * इस आधार पर भारत में समाजव्यवस्था बनी हुई थी और शिक्षाव्यवस्था उसीका एक अंग थी। हमारा इतिहास बताता है कि ऐसी व्यवस्था सहस्रों वर्षों तक चली। धर्मपालजी की पुस्तक 'रमणीय वृक्ष' में अठारहवीं शताब्दी की धार्मिक शिक्षा का वर्णन मिलता है। उसके अनुसार उस समय भारत में पाँच लाख प्राथमिक विद्यालय थे और उसी अनुपात में उच्च शिक्षा के केन्द्र थे परन्तु शिक्षकों को वेतन, छात्रों के लिये शुल्क और राज्य की ओर से अनुदान की कोई व्यवस्था नहीं थी। हाँ, मन्दिरों और धनी लोगोंं से दान अवश्य मिलता था। राज्य भी योगक्षेम की चिन्ता करता था। अर्थ व्यवस्था शिक्षक की स्वतन्त्रता और ज्ञान की गरिमा का मूल्य चुकाकर नहीं होती थी। | | * इस आधार पर भारत में समाजव्यवस्था बनी हुई थी और शिक्षाव्यवस्था उसीका एक अंग थी। हमारा इतिहास बताता है कि ऐसी व्यवस्था सहस्रों वर्षों तक चली। धर्मपालजी की पुस्तक 'रमणीय वृक्ष' में अठारहवीं शताब्दी की धार्मिक शिक्षा का वर्णन मिलता है। उसके अनुसार उस समय भारत में पाँच लाख प्राथमिक विद्यालय थे और उसी अनुपात में उच्च शिक्षा के केन्द्र थे परन्तु शिक्षकों को वेतन, छात्रों के लिये शुल्क और राज्य की ओर से अनुदान की कोई व्यवस्था नहीं थी। हाँ, मन्दिरों और धनी लोगोंं से दान अवश्य मिलता था। राज्य भी योगक्षेम की चिन्ता करता था। अर्थ व्यवस्था शिक्षक की स्वतन्त्रता और ज्ञान की गरिमा का मूल्य चुकाकर नहीं होती थी। |
− | * परन्तु अठारहवीं शताब्दी में अंग्रेजों ने इस देश की शिक्षा व्यवस्था में चंचुपात करना प्रारम्भ किया और स्थितियाँ शीघ्र ही बदलने लगीं। अंग्रेजों की जीवनदृष्टि जड़वादी थी। पूर्व में वर्णन किया है उस प्रकार आसुरी थी। भारत धर्मप्रधान जीवनदृष्टि वाला देश था परन्तु वे अर्थ प्रधान जीवनदृष्टि वाले थे। अतः उन्होंने ज्ञान को भी भौतिक पदार्थ प्राप्त करने का साधन मानकर उसके साथ वैसा ही व्यवहार आरम्भ किया। उन्होंने शिक्षा के तन्त्र को राज्य के अधीन बनाया और शिक्षा को आर्थिक लेनदेन के व्यवहार में जोड़ दिया। शिक्षा के क्षेत्र में अर्थ विषयक समस्याओं और विपरीत स्थितियों के मूल में यह जीवनदृष्टि है। | + | * परन्तु अठारहवीं शताब्दी में अंग्रेजों ने इस देश की शिक्षा व्यवस्था में चंचुपात करना प्रारम्भ किया और स्थितियाँ शीघ्र ही बदलने लगीं। अंग्रेजों की जीवनदृष्टि जड़़वादी थी। पूर्व में वर्णन किया है उस प्रकार आसुरी थी। भारत धर्मप्रधान जीवनदृष्टि वाला देश था परन्तु वे अर्थ प्रधान जीवनदृष्टि वाले थे। अतः उन्होंने ज्ञान को भी भौतिक पदार्थ प्राप्त करने का साधन मानकर उसके साथ वैसा ही व्यवहार आरम्भ किया। उन्होंने शिक्षा के तन्त्र को राज्य के अधीन बनाया और शिक्षा को आर्थिक लेनदेन के व्यवहार में जोड़ दिया। शिक्षा के क्षेत्र में अर्थ विषयक समस्याओं और विपरीत स्थितियों के मूल में यह जीवनदृष्टि है। |
| * अंग्रेजों का भारत की शिक्षा के साथ खिलवाड़ सन १७७३ से आरम्भ हुआ। बढ़ते-बढ़ते सन १८५७ में वह पूर्णता को प्राप्त हुआ, जब ईस्ट इण्डिया कम्पनी के द्वारा भारत में तीन विश्वविद्यालय प्रारम्भ हुए। इसके साथ ही भारत की शिक्षा का अंग्रेजीकरण पूर्ण हुआ। १९४७ में जब हम स्वाधीन हुए तब तक यही व्यवस्था चलती रही । लगभग पौने दो सौ वर्षों के इस कालखण्ड में धार्मिक शिक्षा व्यवस्था का पूर्ण रूप से अंग्रेजीकरण हो गया । हमारी लगभग दस पीढ़ियाँ इस व्यवस्था में शिक्षा प्राप्त करती रहीं । कोई आश्चर्य नहीं कि स्वाधीनता के बाद भी भारत में यही व्यवस्था बनी रही। शिक्षा तो क्या स्वाधीनता के साथ भारत की कोई भी व्यवस्था नहीं बदली । कारण स्पष्ट है, उचित अनुचित का विवेक करने वाली बुद्धि ही अंग्रेजीयत से ग्रस्त हो गई थी और कामप्रधान दृष्टि के प्रभाव में मन दुर्बल हो गया था । भारत की व्यवस्थाओं में परिवर्तन नहीं होना समझ में आने वाली बात है। आश्चर्य तो इस बात का होना चाहिये कि पौने दोसौ वर्षों की ज्ञान के क्षेत्र की दासता के बाद भी भारत में स्वत्व का सम्पूर्ण लोप नहीं हो गया । विश्व में इतनी बलवती जिजीविषा से युक्त देश और कोई नहीं है। इसलिये विवश और दुर्बल बन जाने के बाद भी अन्दर अन्दर हम धार्मिक स्वभाव को जानते हैं और मानते भी हैं। इस कारण से तो हम अभी कर रहे हैं वैसी चर्चायें देश में स्थान-स्थान पर चलती हैं। अंग्रेजों द्वारा समाज जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में ढाये गये कहर को पहचानने और समझने का प्रयास चल रहा है और मार्ग ढूँढकर शिक्षा की गाड़ी पुनः धार्मिकता की अपनी पटरी पर लाने का कार्य चल रहा है। | | * अंग्रेजों का भारत की शिक्षा के साथ खिलवाड़ सन १७७३ से आरम्भ हुआ। बढ़ते-बढ़ते सन १८५७ में वह पूर्णता को प्राप्त हुआ, जब ईस्ट इण्डिया कम्पनी के द्वारा भारत में तीन विश्वविद्यालय प्रारम्भ हुए। इसके साथ ही भारत की शिक्षा का अंग्रेजीकरण पूर्ण हुआ। १९४७ में जब हम स्वाधीन हुए तब तक यही व्यवस्था चलती रही । लगभग पौने दो सौ वर्षों के इस कालखण्ड में धार्मिक शिक्षा व्यवस्था का पूर्ण रूप से अंग्रेजीकरण हो गया । हमारी लगभग दस पीढ़ियाँ इस व्यवस्था में शिक्षा प्राप्त करती रहीं । कोई आश्चर्य नहीं कि स्वाधीनता के बाद भी भारत में यही व्यवस्था बनी रही। शिक्षा तो क्या स्वाधीनता के साथ भारत की कोई भी व्यवस्था नहीं बदली । कारण स्पष्ट है, उचित अनुचित का विवेक करने वाली बुद्धि ही अंग्रेजीयत से ग्रस्त हो गई थी और कामप्रधान दृष्टि के प्रभाव में मन दुर्बल हो गया था । भारत की व्यवस्थाओं में परिवर्तन नहीं होना समझ में आने वाली बात है। आश्चर्य तो इस बात का होना चाहिये कि पौने दोसौ वर्षों की ज्ञान के क्षेत्र की दासता के बाद भी भारत में स्वत्व का सम्पूर्ण लोप नहीं हो गया । विश्व में इतनी बलवती जिजीविषा से युक्त देश और कोई नहीं है। इसलिये विवश और दुर्बल बन जाने के बाद भी अन्दर अन्दर हम धार्मिक स्वभाव को जानते हैं और मानते भी हैं। इस कारण से तो हम अभी कर रहे हैं वैसी चर्चायें देश में स्थान-स्थान पर चलती हैं। अंग्रेजों द्वारा समाज जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में ढाये गये कहर को पहचानने और समझने का प्रयास चल रहा है और मार्ग ढूँढकर शिक्षा की गाड़ी पुनः धार्मिकता की अपनी पटरी पर लाने का कार्य चल रहा है। |
| * हमने यदि मूल को ठीक से जान लिया तो हमारे प्रयास की दिशा और स्वरूप ठीक रहेगा । इसी दृष्टि से कुछ बातों को फिर से कहा है। अब हमारा मुख्य काम है, शिक्षा को अर्थ निरपेक्ष बनाने के साथ-साथ उसकी अर्थ व्यवस्था का सम्यक् स्वरूप निर्धारित करना। | | * हमने यदि मूल को ठीक से जान लिया तो हमारे प्रयास की दिशा और स्वरूप ठीक रहेगा । इसी दृष्टि से कुछ बातों को फिर से कहा है। अब हमारा मुख्य काम है, शिक्षा को अर्थ निरपेक्ष बनाने के साथ-साथ उसकी अर्थ व्यवस्था का सम्यक् स्वरूप निर्धारित करना। |
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| इसी प्रकार गणवेश, बस्ता, वाहन, विद्यालय में पानी, पंखे, मेज-कुर्सी आदि अनेक बातें ऐसी हैं जिन्हें लेकर बेसुमार खर्च होता है । ट्यूशन और कोचिंग भी भारी खर्च करवाते हैं। कई इण्टरनेशनल स्कूलों का प्राथमिक विद्यालयों का शुल्क एक लाख रुपये के लगभग होता है। जो भी लोग इस खर्च के निमित्त बन रहे हैं वे सब भगवती सरस्वती के और समाज के अपराधी हैं। ज्ञान के क्षेत्र के ये बड़े कंटक हैं। इन कंटकों का उपाय करने की आवश्यकता है । | | इसी प्रकार गणवेश, बस्ता, वाहन, विद्यालय में पानी, पंखे, मेज-कुर्सी आदि अनेक बातें ऐसी हैं जिन्हें लेकर बेसुमार खर्च होता है । ट्यूशन और कोचिंग भी भारी खर्च करवाते हैं। कई इण्टरनेशनल स्कूलों का प्राथमिक विद्यालयों का शुल्क एक लाख रुपये के लगभग होता है। जो भी लोग इस खर्च के निमित्त बन रहे हैं वे सब भगवती सरस्वती के और समाज के अपराधी हैं। ज्ञान के क्षेत्र के ये बड़े कंटक हैं। इन कंटकों का उपाय करने की आवश्यकता है । |
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− | एक बार शिक्षा का बाजारीकरण हुआ तो ये सारी बातें अपने आप जन्म लेती हैं। बाजारीकरण से शिक्षा विकृत हो गई है। उसने अपना स्वाभाविक रूप ही खो दिया है । परन्तु इन संकटों के साथ एक-एक कर लड़ने से समस्या हल नहीं होगी। किसी विषवृक्ष के पत्ते या फूलों को एक के बाद एक तोड़ने से या टहनियाँ काटने से विषवृक्ष नष्ट नहीं होता है । अभी हम जिन बातों की चर्चा कर रहे हैं, वे बाजारीकरण रूपी विषवृक्ष की टहनियाँ, फूल और पत्ते हैं। जिस प्रकार पत्ते आदि असंख्य होते हैं उसी प्रकार ये उदाहरण भी असंख्य हैं । जिस प्रकार एक टहनी काटो तो दूसरी निकल आती है, कई बार तो एक के स्थान पर एक से अधिक आती हैं उसी प्रकार आर्थिक अनाचार का एक किस्सा निपटाओ तो और अनेक नये किस्से पैदा होंगे। बाजारीकरण के वृक्ष का बीज है वही जड़वादी, अनात्मवादी, कामकेन्द्री, अर्थाधिष्ठित जीवनदृष्टि । यह वृक्ष जब फलता-फूलता है तब इसी प्रकार कहर ढाता है और उसे कैसे नष्ट करें, यह भी समझ से परे हो जाता है । यह ऐसा वृक्ष है और ऐसे इसके फल और फूल हैं जो दिखने में और चखने में अच्छे लगते हैं परन्तु परिणाम हानि और नाश ही होता है। श्रीमद भगवद गीता ने इसे तामस सुख कहा है।<blockquote>'''यदअग्रे चानुबन्धे च सुखं मोहनमात्मनः ।'''</blockquote><blockquote>'''निद्रालस्यप्रमादोत्थं तत्तामसमुदाहृतम् ।।'''</blockquote>अतः इन उदाहरणों के सम्बन्ध में अधिक समय और शक्ति खर्च करने के स्थान पर और बातों पर विचार करना चाहिये, और पहलुओं पर ध्यान देना चाहिये । | + | एक बार शिक्षा का बाजारीकरण हुआ तो ये सारी बातें अपने आप जन्म लेती हैं। बाजारीकरण से शिक्षा विकृत हो गई है। उसने अपना स्वाभाविक रूप ही खो दिया है । परन्तु इन संकटों के साथ एक-एक कर लड़ने से समस्या हल नहीं होगी। किसी विषवृक्ष के पत्ते या फूलों को एक के बाद एक तोड़ने से या टहनियाँ काटने से विषवृक्ष नष्ट नहीं होता है । अभी हम जिन बातों की चर्चा कर रहे हैं, वे बाजारीकरण रूपी विषवृक्ष की टहनियाँ, फूल और पत्ते हैं। जिस प्रकार पत्ते आदि असंख्य होते हैं उसी प्रकार ये उदाहरण भी असंख्य हैं । जिस प्रकार एक टहनी काटो तो दूसरी निकल आती है, कई बार तो एक के स्थान पर एक से अधिक आती हैं उसी प्रकार आर्थिक अनाचार का एक किस्सा निपटाओ तो और अनेक नये किस्से पैदा होंगे। बाजारीकरण के वृक्ष का बीज है वही जड़़वादी, अनात्मवादी, कामकेन्द्री, अर्थाधिष्ठित जीवनदृष्टि । यह वृक्ष जब फलता-फूलता है तब इसी प्रकार कहर ढाता है और उसे कैसे नष्ट करें, यह भी समझ से परे हो जाता है । यह ऐसा वृक्ष है और ऐसे इसके फल और फूल हैं जो दिखने में और चखने में अच्छे लगते हैं परन्तु परिणाम हानि और नाश ही होता है। श्रीमद भगवद गीता ने इसे तामस सुख कहा है।<blockquote>'''यदअग्रे चानुबन्धे च सुखं मोहनमात्मनः ।'''</blockquote><blockquote>'''निद्रालस्यप्रमादोत्थं तत्तामसमुदाहृतम् ।।'''</blockquote>अतः इन उदाहरणों के सम्बन्ध में अधिक समय और शक्ति खर्च करने के स्थान पर और बातों पर विचार करना चाहिये, और पहलुओं पर ध्यान देना चाहिये । |
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| फिजूलखर्ची का एक नमूना बढ़ती हुई ट्यूशनप्रथा और कोचिंग क्लास का प्रचलन भी है। यह खर्चीला मामला तो है ही, साथ में यह समय और शक्ति का भी | | फिजूलखर्ची का एक नमूना बढ़ती हुई ट्यूशनप्रथा और कोचिंग क्लास का प्रचलन भी है। यह खर्चीला मामला तो है ही, साथ में यह समय और शक्ति का भी |