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| '''<u><big>दुर्गावती</big></u>''' | | '''<u><big>दुर्गावती</big></u>''' |
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− | कलि संवत् की 47वीं (ईसा की 16 वीं) शताब्दी की भारतीय वीरांगना,जिसने यवनसेना से अत्यंत साहस और वीरतापूर्वक टक्कर ली और अंत में अपने शरीर को पापी शत्रुओं का स्पर्श न हो, यह विचारकर अपने खड्ग से आत्मबलिदान कर वीरगति पायी। गढ़ मंडला के राजा दलपतिशाह की मृत्यु हो जाने पर उनके राज्य पर संकट आ पड़ा था। मुगल बादशाह अकबर ने गढ़ मंडला पर अधिकार करने के लिए भारी सेना भेजी थी। हाथी पर सवार होकर रानी दुर्गावती अत्यंत वीरता से जूझीं तथा अपने सैनिकों को बराबर प्रेरित करती रहीं। दुर्भाग्य से आंतरिक फूट के कारण आत्मरक्षा करना संभव न हो सका। मुगलों की साम्राज्यपिपासा का प्रतिकारकरने वाली वीरांगनाओं में दुर्गावती का ऊँचा स्थान है।<blockquote>'''लक्ष्मीरहल्या चेन्नम्मा रुद्रमाम्बा सुविक्रमा । निवेदिता सारदा च प्रणम्या मातृदेवता: ॥ ११ ॥'''</blockquote>'''<u><big>रानी लक्ष्मीबाई</big></u>''' | + | कलि संवत् की 47वीं (ईसा की 16 वीं) शताब्दी की भारतीय वीरांगना,जिसने यवनसेना से अत्यंत साहस और वीरतापूर्वक टक्कर ली और अंत में अपने शरीर को पापी शत्रुओं का स्पर्श न हो, यह विचारकर अपने खड्ग से आत्मबलिदान कर वीरगति पायी। गढ़ मंडला के राजा दलपतिशाह की मृत्यु हो जाने पर उनके राज्य पर संकट आ पड़ा था। मुगल बादशाह अकबर ने गढ़ मंडला पर अधिकार करने के लिए भारी सेना भेजी थी। हाथी पर सवार होकर रानी दुर्गावती अत्यंत वीरता से जूझीं तथा अपने सैनिकों को बराबर प्रेरित करती रहीं। दुर्भाग्य से आंतरिक फूट के कारण आत्मरक्षा करना संभव न हो सका। मुगलों की साम्राज्यपिपासा का प्रतिकारकरने वाली वीरांगनाओं में दुर्गावती का ऊँचा स्थान है। |
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| + | [[File:Bharat Ekatmata Stotra Sachitra-page-022.jpg|center|thumb]] |
| + | <blockquote>'''लक्ष्मीरहल्या चेन्नम्मा रुद्रमाम्बा सुविक्रमा । निवेदिता सारदा च प्रणम्या मातृदेवता: ॥ ११ ॥'''</blockquote>'''<u><big>रानी लक्ष्मीबाई</big></u>''' |
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| स्वातंत्र्य-हेतु अंग्रेजों से जूझते हुए वीरगति पाने वाली,युगाब्द4958 (ई० 1857) के प्रथम स्वातंत्र्य— समर की वीरांगना। ये मराठा पेशवा के आश्रित मोरोपंत ताम्बे की कन्या थीं और झाँसी के राजा गंगाधरराव की रानी। राजा की अकालमृत्यु हो जाने परईस्ट इण्डिया कम्पनी सरकारने इनके दत्तकपुत्र के अधिकार को अमान्य कर झाँसी राज्य को कम्पनी के अधिकार में लेने की घोषणा की। इस अन्याय और अपमान का रानी लक्ष्मीबाई ने कठोर प्रतिकार किया। युगाब्द 4958 (सन् 1857) के स्वातंत्र्य-समर में वे भी कुद पड़ीं। अंग्रेजों से जूझते हुए रानी झाँसी से निकलकर ग्वालियर की ओर बढ़ीं और ग्वालियर का किला जीत लिया। ग्वालियर का राजा मराठा सामन्त होते हुए भी अंग्रेजों के विरुद्ध स्वाधीनता-सेनानियों की कोई सहायता न करके अंग्रेजों का ही साथ दे रहा था। वहाँसे रानी घोड़े पर सवार हो किले से बाहरनिकल पड़ीं। मार्ग में एक नदी के किनारे वे अंग्रेज सैनिकों से घिर गयीं। अन्तिम क्षण तक शत्रुओं को मौत के घाट उतारते हुए अंतत:उस वीरांगनानेयुद्धभूमिमेंही वीरगति पायी। रानी लक्ष्मीबाईअसाधारण शौर्य,धैर्य,संगठन-कुशलता, देशप्रेम और निर्भयता की प्रतीक हैं। | | स्वातंत्र्य-हेतु अंग्रेजों से जूझते हुए वीरगति पाने वाली,युगाब्द4958 (ई० 1857) के प्रथम स्वातंत्र्य— समर की वीरांगना। ये मराठा पेशवा के आश्रित मोरोपंत ताम्बे की कन्या थीं और झाँसी के राजा गंगाधरराव की रानी। राजा की अकालमृत्यु हो जाने परईस्ट इण्डिया कम्पनी सरकारने इनके दत्तकपुत्र के अधिकार को अमान्य कर झाँसी राज्य को कम्पनी के अधिकार में लेने की घोषणा की। इस अन्याय और अपमान का रानी लक्ष्मीबाई ने कठोर प्रतिकार किया। युगाब्द 4958 (सन् 1857) के स्वातंत्र्य-समर में वे भी कुद पड़ीं। अंग्रेजों से जूझते हुए रानी झाँसी से निकलकर ग्वालियर की ओर बढ़ीं और ग्वालियर का किला जीत लिया। ग्वालियर का राजा मराठा सामन्त होते हुए भी अंग्रेजों के विरुद्ध स्वाधीनता-सेनानियों की कोई सहायता न करके अंग्रेजों का ही साथ दे रहा था। वहाँसे रानी घोड़े पर सवार हो किले से बाहरनिकल पड़ीं। मार्ग में एक नदी के किनारे वे अंग्रेज सैनिकों से घिर गयीं। अन्तिम क्षण तक शत्रुओं को मौत के घाट उतारते हुए अंतत:उस वीरांगनानेयुद्धभूमिमेंही वीरगति पायी। रानी लक्ष्मीबाईअसाधारण शौर्य,धैर्य,संगठन-कुशलता, देशप्रेम और निर्भयता की प्रतीक हैं। |
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| '''<u><big>सारदा</big></u>''' | | '''<u><big>सारदा</big></u>''' |
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− | माँ सारदा श्री रामकृष्ण परमहंस की धर्मपत्नी थीं। अपने जीवन को वीतराग पति के अनुरूप ढालकर वे सच्चे अर्थ में उनकी सहधर्मचारिणी बनीं। परमहंस और सारदा माँ का संबंध लौकिक न होकर देहभाव से नितांत परे अलौकिक आध्यात्मिक था। श्री रामकृष्ण सारदा को माँ जगदम्बा के रूप में देखते थे और ये उन्हें जगदीश्वर समझती थीं। श्री रामकृष्ण के समाधिस्थ होने के बाद इन्होंने विवेकानन्द आदि उनके शिष्यों का पुत्रवत् पालन किया। स्वयं अपने जीवन की आध्यात्मिक साँचे में ढालकर माँ सारदा ने अपने पति के शिष्यों को भी आध्यात्मिक मार्गदर्शन प्रदान किया। <blockquote>'''श्रीरामो भरत: कृष्णो भीष्मो धर्मस्तथार्जुन: । मार्कण्डेयो हरिश्चन्द्रः प्रह्लादो नारदो ध्रुवः ॥12 ॥''' </blockquote>'''<u><big>श्रीराम</big></u>''' | + | माँ सारदा श्री रामकृष्ण परमहंस की धर्मपत्नी थीं। अपने जीवन को वीतराग पति के अनुरूप ढालकर वे सच्चे अर्थ में उनकी सहधर्मचारिणी बनीं। परमहंस और सारदा माँ का संबंध लौकिक न होकर देहभाव से नितांत परे अलौकिक आध्यात्मिक था। श्री रामकृष्ण सारदा को माँ जगदम्बा के रूप में देखते थे और ये उन्हें जगदीश्वर समझती थीं। श्री रामकृष्ण के समाधिस्थ होने के बाद इन्होंने विवेकानन्द आदि उनके शिष्यों का पुत्रवत् पालन किया। स्वयं अपने जीवन की आध्यात्मिक साँचे में ढालकर माँ सारदा ने अपने पति के शिष्यों को भी आध्यात्मिक मार्गदर्शन प्रदान किया। |
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| + | <blockquote>'''श्रीरामो भरत: कृष्णो भीष्मो धर्मस्तथार्जुन: । मार्कण्डेयो हरिश्चन्द्रः प्रह्लादो नारदो ध्रुवः ॥12 ॥''' </blockquote>'''<u><big>श्रीराम</big></u>''' |
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| भगवान्विष्णु के सातवें अवतार के रूप में आराध्य श्री राम काजीवन औरचरित्र भारतीय संस्कृति के श्रेष्ठजीवन-मूल्यों का प्रतीक है। मर्यादा-पालन का सर्वोत्तम आदर्श प्रस्तुत करने के कारण उन्हें मर्यादापुरुषोत्तम के रूपमें स्मरण किया जाता है। उन्होंने रावण की अनीतिपूर्ण राजसत्ता समाप्त कर रामराज्य के रूप में आदर्श व्यवस्था स्थापित की। श्री राम का दिव्य चरित्र सत्य,शील और सौन्दर्य से मण्डित है। भारतीय साहित्य में राम के दिव्य गुणों का आदि कवि वाल्मीकि से लेकर आजपर्यन्त अनेकानेक महर्षियों,संतों, दार्शनिकों, लेखकों और कवियों ने नानाविध वर्णन कियाहै। सूर्यवंशी राम काजन्म इक्ष्वाकु औररघुके कुलमेंहुआ था। दशरथ-पुत्र रघुकुल-तिलक राम ने भूमि को राक्षस-विहीन बनाने का संकल्प किया था। वनवास-काल में राम ने वनवासियों और वन-जातियों को संगठित एवं सुसंस्कारित कर उनकी सहायता से राक्षसों को पराजित कर लोक को निरापद बनाया। राम भारत के जन-जन के मन में बसे हुएहैं। वे भारतीय अस्मिता की पहचान,उसके हृदय का स्पन्दन और उसकी आकांक्षाओं के प्रतीक एवं केंद्र-बिन्दुहैं। भारत की चिरकालिक अभिलाषा का नाम रामराज्य है। | | भगवान्विष्णु के सातवें अवतार के रूप में आराध्य श्री राम काजीवन औरचरित्र भारतीय संस्कृति के श्रेष्ठजीवन-मूल्यों का प्रतीक है। मर्यादा-पालन का सर्वोत्तम आदर्श प्रस्तुत करने के कारण उन्हें मर्यादापुरुषोत्तम के रूपमें स्मरण किया जाता है। उन्होंने रावण की अनीतिपूर्ण राजसत्ता समाप्त कर रामराज्य के रूप में आदर्श व्यवस्था स्थापित की। श्री राम का दिव्य चरित्र सत्य,शील और सौन्दर्य से मण्डित है। भारतीय साहित्य में राम के दिव्य गुणों का आदि कवि वाल्मीकि से लेकर आजपर्यन्त अनेकानेक महर्षियों,संतों, दार्शनिकों, लेखकों और कवियों ने नानाविध वर्णन कियाहै। सूर्यवंशी राम काजन्म इक्ष्वाकु औररघुके कुलमेंहुआ था। दशरथ-पुत्र रघुकुल-तिलक राम ने भूमि को राक्षस-विहीन बनाने का संकल्प किया था। वनवास-काल में राम ने वनवासियों और वन-जातियों को संगठित एवं सुसंस्कारित कर उनकी सहायता से राक्षसों को पराजित कर लोक को निरापद बनाया। राम भारत के जन-जन के मन में बसे हुएहैं। वे भारतीय अस्मिता की पहचान,उसके हृदय का स्पन्दन और उसकी आकांक्षाओं के प्रतीक एवं केंद्र-बिन्दुहैं। भारत की चिरकालिक अभिलाषा का नाम रामराज्य है। |