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| ३६. परन्तु ऐसे अवसरों पर भी परिवार का एकत्व नहीं टूटना चाहिये । दोष, स्खलन, दण्ड, प्रायश्चित आदि को भुगतने में भी परिवार साथ रहना चाहिये । इसे व्यक्तिगत मामला नहीं बनाना चाहिये । | | ३६. परन्तु ऐसे अवसरों पर भी परिवार का एकत्व नहीं टूटना चाहिये । दोष, स्खलन, दण्ड, प्रायश्चित आदि को भुगतने में भी परिवार साथ रहना चाहिये । इसे व्यक्तिगत मामला नहीं बनाना चाहिये । |
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− | ३७. आजकल बेडरूम की संख्या से घर का वैभव आँका जाता है । बेडरूम की संख्या के हिसाब से डाइनिंग रूम की साइझ रखी जाती है । प्रदर्शन के हिसाब से ड्रोइंग रूम में पुस्तकों की आलमारी और पूजाघर होता है । इस प्रकार का घर नियत संख्या से अधिक लोगों का समावेश नहीं करता । वह आतिथ्यशील भी नहीं रहता । यह निश्चित ही असंस्कारिता है, भले ही इसे मोडर्न सभ्यता कहा जाता हो । इससे यह समझ में आना चाहिये कि घर की आन्तरिक पुर्ररचना का विचार गम्भीरतापूर्वक करना चाहिये । | + | ३७. आजकल बेडरूम की संख्या से घर का वैभव आँका जाता है । बेडरूम की संख्या के हिसाब से डाइनिंग रूम की साइझ रखी जाती है । प्रदर्शन के हिसाब से ड्रोइंग रूम में पुस्तकों की आलमारी और पूजाघर होता है । इस प्रकार का घर नियत संख्या से अधिक लोगोंं का समावेश नहीं करता । वह आतिथ्यशील भी नहीं रहता । यह निश्चित ही असंस्कारिता है, भले ही इसे मोडर्न सभ्यता कहा जाता हो । इससे यह समझ में आना चाहिये कि घर की आन्तरिक पुर्ररचना का विचार गम्भीरतापूर्वक करना चाहिये । |
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| ३८. अर्थात् घर में बेडरूम कल्चर के स्थान पर लिविंगरूम कल्चर की प्रतिष्ठा बने । घर की रसोई बडी बने । रसोई का कोठार बडा बने । घर के व्यक्तियों के साथ बाहर के कोई न कोई भोजन के लिये नित्य साथ रहे। घर में अधिक अतिथि आये । घर में सब मिलकर काम करें । घर में प्राइवसी की मात्रा कम हो । घर में दिन में बिस्तर बिछे हुए न रहें । घर में काम करने की जगह अधिक हो । | | ३८. अर्थात् घर में बेडरूम कल्चर के स्थान पर लिविंगरूम कल्चर की प्रतिष्ठा बने । घर की रसोई बडी बने । रसोई का कोठार बडा बने । घर के व्यक्तियों के साथ बाहर के कोई न कोई भोजन के लिये नित्य साथ रहे। घर में अधिक अतिथि आये । घर में सब मिलकर काम करें । घर में प्राइवसी की मात्रा कम हो । घर में दिन में बिस्तर बिछे हुए न रहें । घर में काम करने की जगह अधिक हो । |
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| ४३. आज नौकरी अर्थार्जन का प्रचलित साधन बन गई है। नहीं बिकने योग्य वस्तुयें बिकने लगी हैं । बडे बडे उद्योगों में उत्पादन का केन्द्रीकरण हो रहा है । मनुष्य और प्रकृति के स्वास्थ्य की चिन्ता नहीं रही है । अर्थार्जन हेतु न्यायनीति का विचार करने की भी आवश्यकता नहीं लगती है । भ्रष्टाचार सामान्य बन गया है । मनुष्य स्वतन्त्रता और स्वमान खो चुका है। समाज दरिद्रि बन रहा है। आर्थिक और सांस्कृतिक अधःपतन के इस काल में परिवार को ही स्वायत्त बनने की पहल करनी होगी | | | ४३. आज नौकरी अर्थार्जन का प्रचलित साधन बन गई है। नहीं बिकने योग्य वस्तुयें बिकने लगी हैं । बडे बडे उद्योगों में उत्पादन का केन्द्रीकरण हो रहा है । मनुष्य और प्रकृति के स्वास्थ्य की चिन्ता नहीं रही है । अर्थार्जन हेतु न्यायनीति का विचार करने की भी आवश्यकता नहीं लगती है । भ्रष्टाचार सामान्य बन गया है । मनुष्य स्वतन्त्रता और स्वमान खो चुका है। समाज दरिद्रि बन रहा है। आर्थिक और सांस्कृतिक अधःपतन के इस काल में परिवार को ही स्वायत्त बनने की पहल करनी होगी | |
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− | ४४. जिसमें अन्य लोगों की रोजी छिन जाती हो ऐसा व्यवसाय टालना चाहिये । जिसमें स्वास्थ्य और पर्यावरण का नाश होता हो ऐसा व्यवसाय टालना चाहिये । संस्कारों की हानि होती हो ऐसा व्यवसाय भी नहीं करना चाहिये । | + | ४४. जिसमें अन्य लोगोंं की रोजी छिन जाती हो ऐसा व्यवसाय टालना चाहिये । जिसमें स्वास्थ्य और पर्यावरण का नाश होता हो ऐसा व्यवसाय टालना चाहिये । संस्कारों की हानि होती हो ऐसा व्यवसाय भी नहीं करना चाहिये । |
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| ४५. उपभोग के लिये परिवार ने कभी भी कर्ज नहीं लेना चाहिये । आज की बैंक लोन पद्धति इस सिद्धान्त की घोर विरोधी है और परिवारों की. आर्थिक स्वावलम्बिता और स्वमान का नाश करती है। इसके आकर्षण से मुक्त रहना और परिवार को भी मुक्त रहना सिखाना गृहस्वामी और गृहस्वामिनी का महत् कर्तव्य है । | | ४५. उपभोग के लिये परिवार ने कभी भी कर्ज नहीं लेना चाहिये । आज की बैंक लोन पद्धति इस सिद्धान्त की घोर विरोधी है और परिवारों की. आर्थिक स्वावलम्बिता और स्वमान का नाश करती है। इसके आकर्षण से मुक्त रहना और परिवार को भी मुक्त रहना सिखाना गृहस्वामी और गृहस्वामिनी का महत् कर्तव्य है । |