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| चिंता का विषय यह है कि अति उन्नत समझे जाने वाले इन राष्ट्रों का एक बड़ा तबका आज आर्थिक रूप से अनिश्चितता में जी रहा है। | | चिंता का विषय यह है कि अति उन्नत समझे जाने वाले इन राष्ट्रों का एक बड़ा तबका आज आर्थिक रूप से अनिश्चितता में जी रहा है। |
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− | कुछ राष्ट्र तो दिवालियेपन के कगार पर खड़े दिखाई दे रहे हैं, जिन्हें संभालने में इनकी सामूहिक ताकत लगी हुई है व विचलित नज़र आ रही है। जिनके पास समृद्धि है वह भी भविष्य के प्रति अनिश्चित हैं, ऐसा स्पष्ट दिखाई दे रहा है। बेरोजगारी व गरीबी की ऐसी मार पड़ रही है कि इन राष्ट्रों की आम जनता बुरी तरह से आतंकित है और यह कह रही है कि मात्र एक प्रतिशत लोगों के हाथों में ही इन राष्ट्रों के धन व सत्ता दोनों की पकड़ सीमित होती जा रही है। बहुमत का विश्वास सरकारी व्यवस्थाओं व राज नेताओं पर से उठता जा रहा है। राज नेता भी ज्यादातर पुराने प्रयासों में गलतियाँ बता कर स्वयं को नए मसीहा के रूप में प्रस्तुत करने में ही व्यस्त हैं। अति उन्नत राष्ट्र से ये राष्ट्र मात्र ३०-४० वर्षों में ऐसी नाजुक स्थिति में कैसे पहुंचे हैं तथा इन समस्याओं की जड़ कहां है, इस पर चर्चा करने वाले कम ही दिखाई पड़ते हैं। आर्थिक सोच में कोई मूलभूत दिशा-भूल हो रही है, ऐसा कहने के बजाय, बाजार में सामर्थ्यवान ही टिक पायेगा, यह एक कुमंत्र ही समस्या पर टिप्पणी के रूप में हर कोई व्यक्त करता नज़र आता है, और सामर्थ्यवान याने क्या, इस बात का पूरा चिंतन किये बिना ही, ये सब विकसित कहलाने वाले राष्ट्र ज्यादा से ज्यादा सामर्थ्यवान बनने के नए नए रास्ते पाने के विभिन्न प्रयोगों में पिछले कुछ दशकों से लगे हुए हैं । यूरोप के देशों को लगता है कि वे अमेरिका से जनसंख्या में बहुत छोटे हैं, अतः यदि एकजुट हो जायें तो उनका सामर्थ्य बढ़ जायेगा। मगर फिर यूरोप के जो राष्ट्र आर्थिक व अन्य दृष्टियों में ज्यादा शक्तिशाली रहे हैं उनमें आपस में होड़ ख़तम ही नहीं हो पाती कि बड़ा कौन है । उन्हें चिन्ता लगी रहती है कि कमजोर राष्ट्र कहीं उनका फायदा तो नहीं उठा रहे, साथ जुड़ने में उनके अपने राष्ट्र का कितना लाभ या स्वार्थ-सिद्धि होगी, इसका विचार किये बिना ये राष्ट्र एक दूसरे को आगे बढ़ाने के लिए नहीं, बल्कि स्वयं की ही चिंता तथा उन्नति की लालसा में, मात्र आर्थिक दृष्टि से एक होने का प्रयास करते हुए दिखाई दे रहे हैं । यूरोप के इस एक होने के प्रयास के मध्य अचानक ही, ब्रिटेन ने हाँथ खींच लिए (जो ब्रेक्सिट के नाम से मशहूर है) । ब्रिटेन के नागरिक और नेता दोनों पूरी तरह भ्रम में हैं कि यूरोप के साथ रहना है कि नहीं । मामला लगभग ५०/ ५० का है। बहुत थोड़े मतों से आज उन्हों ने तय किया हैं कि साथ रहना उनके हित में नहीं है । थोड़े समय बाद बात पलट भी सकती है, फिर नए खेल आरम्भ होंगे कि साथ ही रहते तो अच्छा होता । यह गंभीर स्थिति है उन देशों की जो विश्व को आर्थिक दिशा देने का दावा करते हैं। बेरोजगारी से पीड़ित जनता आन्दोलन करने के अलावा कुछ नहीं कर सकती। नेता भी सार्थक चिंतन करने के बजाय सिर्फ लुभावने वायदे के जरिये सत्ता पाने पर सोचेंगे, ऐसी ही स्थिति अभी दिखाई देती है। ये लोग मूल में जाकर विचार कर रहे होंगे ऐसा प्रत्यक्ष व प्रभावी रूप से दिखाई नहीं देता। | + | कुछ राष्ट्र तो दिवालियेपन के कगार पर खड़े दिखाई दे रहे हैं, जिन्हें संभालने में इनकी सामूहिक ताकत लगी हुई है व विचलित नज़र आ रही है। जिनके पास समृद्धि है वह भी भविष्य के प्रति अनिश्चित हैं, ऐसा स्पष्ट दिखाई दे रहा है। बेरोजगारी व गरीबी की ऐसी मार पड़ रही है कि इन राष्ट्रों की आम जनता बुरी तरह से आतंकित है और यह कह रही है कि मात्र एक प्रतिशत लोगोंं के हाथों में ही इन राष्ट्रों के धन व सत्ता दोनों की पकड़ सीमित होती जा रही है। बहुमत का विश्वास सरकारी व्यवस्थाओं व राज नेताओं पर से उठता जा रहा है। राज नेता भी ज्यादातर पुराने प्रयासों में गलतियाँ बता कर स्वयं को नए मसीहा के रूप में प्रस्तुत करने में ही व्यस्त हैं। अति उन्नत राष्ट्र से ये राष्ट्र मात्र ३०-४० वर्षों में ऐसी नाजुक स्थिति में कैसे पहुंचे हैं तथा इन समस्याओं की जड़ कहां है, इस पर चर्चा करने वाले कम ही दिखाई पड़ते हैं। आर्थिक सोच में कोई मूलभूत दिशा-भूल हो रही है, ऐसा कहने के बजाय, बाजार में सामर्थ्यवान ही टिक पायेगा, यह एक कुमंत्र ही समस्या पर टिप्पणी के रूप में हर कोई व्यक्त करता नज़र आता है, और सामर्थ्यवान याने क्या, इस बात का पूरा चिंतन किये बिना ही, ये सब विकसित कहलाने वाले राष्ट्र ज्यादा से ज्यादा सामर्थ्यवान बनने के नए नए रास्ते पाने के विभिन्न प्रयोगों में पिछले कुछ दशकों से लगे हुए हैं । यूरोप के देशों को लगता है कि वे अमेरिका से जनसंख्या में बहुत छोटे हैं, अतः यदि एकजुट हो जायें तो उनका सामर्थ्य बढ़ जायेगा। मगर फिर यूरोप के जो राष्ट्र आर्थिक व अन्य दृष्टियों में ज्यादा शक्तिशाली रहे हैं उनमें आपस में होड़ ख़तम ही नहीं हो पाती कि बड़ा कौन है । उन्हें चिन्ता लगी रहती है कि कमजोर राष्ट्र कहीं उनका फायदा तो नहीं उठा रहे, साथ जुड़ने में उनके अपने राष्ट्र का कितना लाभ या स्वार्थ-सिद्धि होगी, इसका विचार किये बिना ये राष्ट्र एक दूसरे को आगे बढ़ाने के लिए नहीं, बल्कि स्वयं की ही चिंता तथा उन्नति की लालसा में, मात्र आर्थिक दृष्टि से एक होने का प्रयास करते हुए दिखाई दे रहे हैं । यूरोप के इस एक होने के प्रयास के मध्य अचानक ही, ब्रिटेन ने हाँथ खींच लिए (जो ब्रेक्सिट के नाम से मशहूर है) । ब्रिटेन के नागरिक और नेता दोनों पूरी तरह भ्रम में हैं कि यूरोप के साथ रहना है कि नहीं । मामला लगभग ५०/ ५० का है। बहुत थोड़े मतों से आज उन्हों ने तय किया हैं कि साथ रहना उनके हित में नहीं है । थोड़े समय बाद बात पलट भी सकती है, फिर नए खेल आरम्भ होंगे कि साथ ही रहते तो अच्छा होता । यह गंभीर स्थिति है उन देशों की जो विश्व को आर्थिक दिशा देने का दावा करते हैं। बेरोजगारी से पीड़ित जनता आन्दोलन करने के अलावा कुछ नहीं कर सकती। नेता भी सार्थक चिंतन करने के बजाय सिर्फ लुभावने वायदे के जरिये सत्ता पाने पर सोचेंगे, ऐसी ही स्थिति अभी दिखाई देती है। ये लोग मूल में जाकर विचार कर रहे होंगे ऐसा प्रत्यक्ष व प्रभावी रूप से दिखाई नहीं देता। |
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| === आर्थिक विषमता में लगातार वृद्धि टेक्नोलोजी का दुरुपयोग === | | === आर्थिक विषमता में लगातार वृद्धि टेक्नोलोजी का दुरुपयोग === |
− | स्वयं को विकसित कहने वाले राष्ट्र तथा अन्य राष्ट्र भी, जो इस दौड़ में शामिल हैं, उन सबकी एक और भी विकराल समस्या है वह है आर्थिक विषमता अर्थात् राष्ट्रीय धन का अधिकतम प्रतिशत धीरे धीरे मुट्ठी भर लोगों के हाथों में सीमित होना । यदि विश्व के आर्थिक इतिहास पर दृष्टि डालें तो बढ़ती हुई आर्थिक विषमता ही एक ऐसा आर्थिक बिन्दु है जो लगातार बढ़ता ही जा रहा है । | + | स्वयं को विकसित कहने वाले राष्ट्र तथा अन्य राष्ट्र भी, जो इस दौड़ में शामिल हैं, उन सबकी एक और भी विकराल समस्या है वह है आर्थिक विषमता अर्थात् राष्ट्रीय धन का अधिकतम प्रतिशत धीरे धीरे मुट्ठी भर लोगोंं के हाथों में सीमित होना । यदि विश्व के आर्थिक इतिहास पर दृष्टि डालें तो बढ़ती हुई आर्थिक विषमता ही एक ऐसा आर्थिक बिन्दु है जो लगातार बढ़ता ही जा रहा है । |
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− | राष्ट्र में आर्थिक तेजी हो या मंदी, आर्थिक-विषमता का शिकंजा दोनों ही हालत में बिना लगाम के बढ़ ही रहा है अर्थात् कम से कम लोगों की मुट्ठी में ज्यादा से ज्यादा धन का सिमटता जाना । और इस कारण से कहने को तो ये सारे राष्ट्र प्रजातान्त्रिक हैं, मगर हकीकत में तो पैसे की ताकत ही तय कर रही हैं कि क्या खाना, क्या पहनना, कैसे रहना, कैसे चलना, क्या आवश्यक है, क्या बेकार है, और यह भी कि किसे वोट देना या क्यों देना । जब बाजार ही सब तय करेगा तो आर्थिक ताकत ही एकमात्र ताकत बनेगी यह स्वाभाविक ही है। निरंतर बढती हुई विषमता के कारण कितने ही प्रकार कि सामाजिक असंतुलन व समस्याओं का प्रभाव दिन ब दिन बढ़ता जा रहा है। यह प्रश्न अत्यंत गंभीर है। उदहारण के रूप में, आज टेक्नोलोजी की ताकत का दुरुपयोग इस हद तक संभव है कि शिक्षा की प्रक्रिया से चिन्तन करने की प्रक्रिया को समूल नष्ट करने का दुष्प्रयास भी दिखाई देने लगा है। | + | राष्ट्र में आर्थिक तेजी हो या मंदी, आर्थिक-विषमता का शिकंजा दोनों ही हालत में बिना लगाम के बढ़ ही रहा है अर्थात् कम से कम लोगोंं की मुट्ठी में ज्यादा से ज्यादा धन का सिमटता जाना । और इस कारण से कहने को तो ये सारे राष्ट्र प्रजातान्त्रिक हैं, मगर हकीकत में तो पैसे की ताकत ही तय कर रही हैं कि क्या खाना, क्या पहनना, कैसे रहना, कैसे चलना, क्या आवश्यक है, क्या बेकार है, और यह भी कि किसे वोट देना या क्यों देना । जब बाजार ही सब तय करेगा तो आर्थिक ताकत ही एकमात्र ताकत बनेगी यह स्वाभाविक ही है। निरंतर बढती हुई विषमता के कारण कितने ही प्रकार कि सामाजिक असंतुलन व समस्याओं का प्रभाव दिन ब दिन बढ़ता जा रहा है। यह प्रश्न अत्यंत गंभीर है। उदहारण के रूप में, आज टेक्नोलोजी की ताकत का दुरुपयोग इस हद तक संभव है कि शिक्षा की प्रक्रिया से चिन्तन करने की प्रक्रिया को समूल नष्ट करने का दुष्प्रयास भी दिखाई देने लगा है। |
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| आज जानकारी की सहज उपलब्धता साफ्टवेयर के विभिन्न कम्पनियों द्वारा इस तरह प्रदान होने लगी है कि विद्यार्थी बिना चिन्तन किये ही जो बातें उसे आसानी से उपलब्ध है उन्हें ही सही मान कर सिखने में लगा हुआ है। ऐसे में, शिक्षा का अर्थ मानसिक विकास व अनुसन्धान न होकर आने वाली पीढ़ियों को मात्र नकल करने वाले बन्दर बनाना रह जाये तो सम्पूर्ण विश्व की कैसी भारी दुर्गती हो सकती है? | | आज जानकारी की सहज उपलब्धता साफ्टवेयर के विभिन्न कम्पनियों द्वारा इस तरह प्रदान होने लगी है कि विद्यार्थी बिना चिन्तन किये ही जो बातें उसे आसानी से उपलब्ध है उन्हें ही सही मान कर सिखने में लगा हुआ है। ऐसे में, शिक्षा का अर्थ मानसिक विकास व अनुसन्धान न होकर आने वाली पीढ़ियों को मात्र नकल करने वाले बन्दर बनाना रह जाये तो सम्पूर्ण विश्व की कैसी भारी दुर्गती हो सकती है? |
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| आर्थिक उन्नति की चाहत में प्रकृति का अंधाधुंध दोहन जहाँ आने वाली पीढ़ियों के लिए घातक परिणाम का कारण बन गया है, वहीं पश्चिम के विचारों में जो मूल आधारभूत गलतियाँ हैं उन्हें भी स्पष्ट दर्शाता है। | | आर्थिक उन्नति की चाहत में प्रकृति का अंधाधुंध दोहन जहाँ आने वाली पीढ़ियों के लिए घातक परिणाम का कारण बन गया है, वहीं पश्चिम के विचारों में जो मूल आधारभूत गलतियाँ हैं उन्हें भी स्पष्ट दर्शाता है। |
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− | उन्नति का अर्थ सिर्फ क्षणिक समय में पैसे को बढ़ाना, जैसे कि पूंजीवादी व्यवस्था में कहते हैं, न केवल स्वार्थ की पराकाष्ठा है, बल्कि दीर्घ-कालीन दृष्टि के अभाव को भी व्यक्त करता है। पूंजी की ताकत को सर्वोपरि समझने से विश्व के सभी राष्ट्रों की जो दुर्गती हो रही है और जिस तरह आर्थिक-शक्ति विश्व के मुठ्ठी भर लोगों के हाथों में सीमित हो रही है, यह पश्चिम की आर्थिक सोच के दिवालियेपन को स्पष्ट करता है। आर्थिक विकास को माध्यम के रूप में न देखने की भूल व जीवन का लक्ष्य विकास की पराकाष्ठा को न समझने के कारण ही पश्चिम आज अपने ही बुने हुए पहले मार्क्सवाद के और अब पूंजीवाद के पतन के कगार पर आकर खड़ा हो गया है। मनुष्य द्वारा निर्मित प्राकृतिक विपदाएँ ही इन विचारधाराओं के अधूरे या गलत होने का प्रमाण है। | + | उन्नति का अर्थ सिर्फ क्षणिक समय में पैसे को बढ़ाना, जैसे कि पूंजीवादी व्यवस्था में कहते हैं, न केवल स्वार्थ की पराकाष्ठा है, बल्कि दीर्घ-कालीन दृष्टि के अभाव को भी व्यक्त करता है। पूंजी की ताकत को सर्वोपरि समझने से विश्व के सभी राष्ट्रों की जो दुर्गती हो रही है और जिस तरह आर्थिक-शक्ति विश्व के मुठ्ठी भर लोगोंं के हाथों में सीमित हो रही है, यह पश्चिम की आर्थिक सोच के दिवालियेपन को स्पष्ट करता है। आर्थिक विकास को माध्यम के रूप में न देखने की भूल व जीवन का लक्ष्य विकास की पराकाष्ठा को न समझने के कारण ही पश्चिम आज अपने ही बुने हुए पहले मार्क्सवाद के और अब पूंजीवाद के पतन के कगार पर आकर खड़ा हो गया है। मनुष्य द्वारा निर्मित प्राकृतिक विपदाएँ ही इन विचारधाराओं के अधूरे या गलत होने का प्रमाण है। |
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| ===== अन्य राष्ट्रों के प्रति बड़प्पन : सोच व जिम्मेदारी ===== | | ===== अन्य राष्ट्रों के प्रति बड़प्पन : सोच व जिम्मेदारी ===== |
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| === भारत के सात दशकः एक केस-स्टडी === | | === भारत के सात दशकः एक केस-स्टडी === |
− | भारत में बहुत से लोग गरीब हैं, मगर भारत राष्ट्र कभी भी गरीब नहीं रहा है। भारत की ५०% भूमि कृषियोग्य है (जबकि जापान में मात्र १०.७% व यू.एस.ए. में मात्र १८.९%) । यह एक कटु सत्य है कि १९४७ में ब्रिटिशराज से स्वतन्त्रता के पश्चात का इतिहास देखें तो धार्मिक अर्थ-व्यवस्था रोजी-रोटी की जद्दोजहद से बहुत आगे नहीं बढ़ पाई है। भारत एक अच्छा उदाहरण है इस बात का कि कैसे प्राकृतिक संपदा भरपूर होने पर भी एक राष्ट्र केअधिकतम लोगों को गरीब बनाए रखा जा सकता है। हम भारत के इन सात दशकों को निम्न काल-खण्डों में बाँट कर देखें: | + | भारत में बहुत से लोग गरीब हैं, मगर भारत राष्ट्र कभी भी गरीब नहीं रहा है। भारत की ५०% भूमि कृषियोग्य है (जबकि जापान में मात्र १०.७% व यू.एस.ए. में मात्र १८.९%) । यह एक कटु सत्य है कि १९४७ में ब्रिटिशराज से स्वतन्त्रता के पश्चात का इतिहास देखें तो धार्मिक अर्थ-व्यवस्था रोजी-रोटी की जद्दोजहद से बहुत आगे नहीं बढ़ पाई है। भारत एक अच्छा उदाहरण है इस बात का कि कैसे प्राकृतिक संपदा भरपूर होने पर भी एक राष्ट्र केअधिकतम लोगोंं को गरीब बनाए रखा जा सकता है। हम भारत के इन सात दशकों को निम्न काल-खण्डों में बाँट कर देखें: |
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| === काल-खंड १ :- १९४७-६७ (लगभग २० वर्ष) : मेहनतकश ईमानदार नागरिक, मगर रोजी-रोटी की जद्दोजहद === | | === काल-खंड १ :- १९४७-६७ (लगभग २० वर्ष) : मेहनतकश ईमानदार नागरिक, मगर रोजी-रोटी की जद्दोजहद === |
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| जहाँ एक ओर नए स्वतंत्र राष्ट्र के नए नेतृत्व ने कई सही निर्णय लिए होंगे; समुचित आर्थिक-विकास की दृष्टि से, उनसे भारी चुकें भी हुई। इन चूकों को समझना आवश्यक है, ताकि हम उनसे मिली सीखों के परिप्रेक्ष्य में आज को समझकर, आने वाले कल की सही योजना भी कर सके। | | जहाँ एक ओर नए स्वतंत्र राष्ट्र के नए नेतृत्व ने कई सही निर्णय लिए होंगे; समुचित आर्थिक-विकास की दृष्टि से, उनसे भारी चुकें भी हुई। इन चूकों को समझना आवश्यक है, ताकि हम उनसे मिली सीखों के परिप्रेक्ष्य में आज को समझकर, आने वाले कल की सही योजना भी कर सके। |
− | # किसी भी राष्ट्र की आर्थिक व्यवस्था उसी तरह महत्वपूर्ण है, जिस प्रकार हर परिवार के लिए जरुरी है स्वयं के पुरुषार्थ से कमाया हुआ धन, जो इतना तो हो कि परिवार सम्मान पूर्वक अपना जीवनयापन कर सके व अतिथि का ध्यान भी रख सके । राष्ट्रीय आर्थिक-नीतियां कुछ ऐसी बन सके कि जहाँ हर हाथ को रोजगार मिल सके व समाज व देश की विपदाओं से सुरक्षा हो सके। मगर ७० वर्षों की यात्रा के बाद भी यदि आज हम रोजी-रोटी के जद्दो-जहद से बड़ी जनसंख्या को नहीं उबार सके हैं, तो इसके पीछे प्रारंभिक वर्षों में की गयी कुछ मूलभूत गलतियाँ ही है, जो कि आज तक चली आ रही हैं । उन अनेकानेक आर्थिक गलतियों के केंद्र में जो बिन्दू है वह यह है- जिस तरह एक रेलगाड़ी के चलने के लिए एक सशक्त इंजिन आवश्यक है वैसे ही हर हाथ को काम मिले, यह तभी संभव होता है जब समाज में इंजिन के समान ताकतवर उद्यमियों का सतत निर्माण होता रहे । हमारे नीति निर्धारकों ने नव जवानों को इंजिन जैसे स्वयं की ताकत से आर्थिक रूप से सक्षम साहसी व आत्म-विश्वासी (जो कि रोजगार पैदा करने में अपनी शान समझें) बनाने के बजाय जीवन भर की गारंटी देने वाली नौकरी खोजने वाली फौज खड़ी कर दी। और तो और, नया उद्यम व व्यापार प्रारंभ करने वाले उद्यमियों को पैसे के लालची व स्वार्थी ठहरा कर बहुत ही नकारात्मक वातावरण तैयार कर दिया। इसके चलते जहाँ एक ओर भारत के होनहार बच्चे उद्यमी बनने का साहस जुटाने के बजाय हर सूरत में नौकरी पाने वालों (वह भी सरकारी क्योंकि उसमे जीवन भर की गारंटी है) की दौड़ में शामिल हो गए, और यह सिलसिला आज भी जारी है। दूसरी ओर जिन इक्के-दुक्के लोगों ने उद्यमी बनने की हिम्मत की, उन्हें नियम-कानून के जाल में इस तरह जकड़ा कि वे अधिक टिक नहीं पाये। | + | # किसी भी राष्ट्र की आर्थिक व्यवस्था उसी तरह महत्वपूर्ण है, जिस प्रकार हर परिवार के लिए जरुरी है स्वयं के पुरुषार्थ से कमाया हुआ धन, जो इतना तो हो कि परिवार सम्मान पूर्वक अपना जीवनयापन कर सके व अतिथि का ध्यान भी रख सके । राष्ट्रीय आर्थिक-नीतियां कुछ ऐसी बन सके कि जहाँ हर हाथ को रोजगार मिल सके व समाज व देश की विपदाओं से सुरक्षा हो सके। मगर ७० वर्षों की यात्रा के बाद भी यदि आज हम रोजी-रोटी के जद्दो-जहद से बड़ी जनसंख्या को नहीं उबार सके हैं, तो इसके पीछे प्रारंभिक वर्षों में की गयी कुछ मूलभूत गलतियाँ ही है, जो कि आज तक चली आ रही हैं । उन अनेकानेक आर्थिक गलतियों के केंद्र में जो बिन्दू है वह यह है- जिस तरह एक रेलगाड़ी के चलने के लिए एक सशक्त इंजिन आवश्यक है वैसे ही हर हाथ को काम मिले, यह तभी संभव होता है जब समाज में इंजिन के समान ताकतवर उद्यमियों का सतत निर्माण होता रहे । हमारे नीति निर्धारकों ने नव जवानों को इंजिन जैसे स्वयं की ताकत से आर्थिक रूप से सक्षम साहसी व आत्म-विश्वासी (जो कि रोजगार पैदा करने में अपनी शान समझें) बनाने के बजाय जीवन भर की गारंटी देने वाली नौकरी खोजने वाली फौज खड़ी कर दी। और तो और, नया उद्यम व व्यापार प्रारंभ करने वाले उद्यमियों को पैसे के लालची व स्वार्थी ठहरा कर बहुत ही नकारात्मक वातावरण तैयार कर दिया। इसके चलते जहाँ एक ओर भारत के होनहार बच्चे उद्यमी बनने का साहस जुटाने के बजाय हर सूरत में नौकरी पाने वालों (वह भी सरकारी क्योंकि उसमे जीवन भर की गारंटी है) की दौड़ में शामिल हो गए, और यह सिलसिला आज भी जारी है। दूसरी ओर जिन इक्के-दुक्के लोगोंं ने उद्यमी बनने की हिम्मत की, उन्हें नियम-कानून के जाल में इस तरह जकड़ा कि वे अधिक टिक नहीं पाये। |
| # नए उद्यमियों के निर्माण में भारी कमी होने से, आर्थिक विकास की रफ़्तार बस इतनी ही रही जिससे जैसे तैसे गुजारा चलता रहे । सरकार का काम धन उत्पत्ति बढाने की नीतियाँ बनाने के बजाय, जो भी धन पैदा हुआ उसे बाँटने का होकर रह गया । आज भी सरकार में जो भी लोग आते हैं (चाहे चुने हुए प्रतिनिधि हो या व्यवस्था चलाने वाली ब्यूरोक्रेसी), आर्थिक-विकास में वेल्थ-क्रियेशन की समझ न होने के कारण धन को बढाने में उद्यमिता की भूमिका को नहीं समझ पाने के कारण, धन को बाँट कर ही गरीबी दूर होगी ऐसे प्रयास में लगे दिखते हैं । और जब धन कमाने के अवसर कम होते हैं, तो ताकतवर भ्रष्टता का मार्ग अपनाकर येनकेन प्रकारेण धन को लुटने लगते हैं, यही मनुष्य का स्वभाव हो गया है। | | # नए उद्यमियों के निर्माण में भारी कमी होने से, आर्थिक विकास की रफ़्तार बस इतनी ही रही जिससे जैसे तैसे गुजारा चलता रहे । सरकार का काम धन उत्पत्ति बढाने की नीतियाँ बनाने के बजाय, जो भी धन पैदा हुआ उसे बाँटने का होकर रह गया । आज भी सरकार में जो भी लोग आते हैं (चाहे चुने हुए प्रतिनिधि हो या व्यवस्था चलाने वाली ब्यूरोक्रेसी), आर्थिक-विकास में वेल्थ-क्रियेशन की समझ न होने के कारण धन को बढाने में उद्यमिता की भूमिका को नहीं समझ पाने के कारण, धन को बाँट कर ही गरीबी दूर होगी ऐसे प्रयास में लगे दिखते हैं । और जब धन कमाने के अवसर कम होते हैं, तो ताकतवर भ्रष्टता का मार्ग अपनाकर येनकेन प्रकारेण धन को लुटने लगते हैं, यही मनुष्य का स्वभाव हो गया है। |
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| === कालखण्ड -२ (१९६७ से लगभग १९८० तक) === | | === कालखण्ड -२ (१९६७ से लगभग १९८० तक) === |
− | भ्रष्ट अर्थ व्यवस्था का आरम्भ व् जड़ में पकड़ : कालखंड १ में भारत के लोग आर्थिक रूप से भले ही कमजोर रहे, मगर अत्यंत ईमानदारी से अपने कार्य को पूरा करते थे। इस दूसरे कालखंड में भारत के लोगों ने अपनी ईमानदारी के मूल्यों को तिलांजलि देना आरम्भ कर दिया । जब कोई राष्ट्र आर्थिक रूप से कमजोर बना रहता है, भ्रष्ट लोगों द्वारा राजनैतिक, व्यापारिक, व ब्यूरोक्रेटिक गठबंधन बनाना आसान व स्वाभाविक हो जाता है। ऐसे में यदि राष्ट्र का नेतृत्व छोटे भ्रष्ट आचरणों को नजरअंदाज करने लगे या खुद ही ऐसा करने लगे, तो भ्रष्टता समाज-व्यवस्था के जड़ में ही घर करने लगती है। भारत जैसे विशाल राष्ट्र, जहाँ बड़ी जनसँख्या, लम्बी दूरियां, सड़कों व कम्युनिकेशन का भारी अभाव रहा, भ्रष्टता ने धीरे-धीरे इस कदर घर कर लिया, कि ईमानदारी से काम करने वाले उपहास के पात्र बनते चले गए और इस कालखंड में भ्रष्टता ने पूरी सामाजिकआर्थिक-राजनैतिक-व्यापारिक व्यवस्था में गहरी जड़ पकड़ ली। यद्यपि अब तक भारत, विश्व से अलग थलग ही रहा, मगर भ्रष्ट लोगों ने अवश्य वैश्विक सम्बन्ध स्थापित किये, ताकि भ्रष्टता से पाए धन को राष्ट्र से बाहर ले जाया जा सके। | + | भ्रष्ट अर्थ व्यवस्था का आरम्भ व् जड़ में पकड़ : कालखंड १ में भारत के लोग आर्थिक रूप से भले ही कमजोर रहे, मगर अत्यंत ईमानदारी से अपने कार्य को पूरा करते थे। इस दूसरे कालखंड में भारत के लोगोंं ने अपनी ईमानदारी के मूल्यों को तिलांजलि देना आरम्भ कर दिया । जब कोई राष्ट्र आर्थिक रूप से कमजोर बना रहता है, भ्रष्ट लोगोंं द्वारा राजनैतिक, व्यापारिक, व ब्यूरोक्रेटिक गठबंधन बनाना आसान व स्वाभाविक हो जाता है। ऐसे में यदि राष्ट्र का नेतृत्व छोटे भ्रष्ट आचरणों को नजरअंदाज करने लगे या खुद ही ऐसा करने लगे, तो भ्रष्टता समाज-व्यवस्था के जड़ में ही घर करने लगती है। भारत जैसे विशाल राष्ट्र, जहाँ बड़ी जनसँख्या, लम्बी दूरियां, सड़कों व कम्युनिकेशन का भारी अभाव रहा, भ्रष्टता ने धीरे-धीरे इस कदर घर कर लिया, कि ईमानदारी से काम करने वाले उपहास के पात्र बनते चले गए और इस कालखंड में भ्रष्टता ने पूरी सामाजिकआर्थिक-राजनैतिक-व्यापारिक व्यवस्था में गहरी जड़ पकड़ ली। यद्यपि अब तक भारत, विश्व से अलग थलग ही रहा, मगर भ्रष्ट लोगोंं ने अवश्य वैश्विक सम्बन्ध स्थापित किये, ताकि भ्रष्टता से पाए धन को राष्ट्र से बाहर ले जाया जा सके। |
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| === कालखण्ड - ३ (१९८० से लगभग १९९० तक): === | | === कालखण्ड - ३ (१९८० से लगभग १९९० तक): === |